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*विद्वानों ने सामान्यतः 'कृत संवत' को 'विक्रम संवत' का पूर्ववर्ती माना है। किन्तु 'कृत' शब्द के प्रयोग की व्याख्या सन्तोषजनक नहीं की जा सकी है। कुछ शिलालेखों में मावल-गण का संवत उल्लिखित है, जैसे - नरवर्मा का मन्दसौर शिलालेख। 'कृत' एवं 'मालव' संवत एक ही कहे गए हैं, क्योंकि दोनों पूर्वी [[राजस्थान]] एवं पश्चिमी [[मालवा]] में प्रयोग में लाये गये हैं। कृत के 282 एवं 295 वर्ष तो मिलते हैं किन्तु मालव संवत के इतने प्राचीन शिलालेख नहीं मिलते। यह भी सम्भव है कि कृत नाम पुराना है और जब मालवों ने उसे अपना लिया तो वह 'मालव-गणाम्नात' या 'मालव-गण-स्थिति' के नाम से पुकारा जाने लगा। किन्तु यह कहा जा सकता है कि यदि कृत एवं मालव दोनों बाद में आने वाले विक्रम संवत की ओर ही संकेत करते हैं, तो दोनों एक साथ ही लगभग एक सौ वर्षों तक प्रयोग में आते रहे, क्योंकि हमें 480 कृत वर्ष एवं 461 मालव वर्ष प्राप्त होते हैं। यह मानना कठिन है कि कृत संवत का प्रयोग कृतयुग के आरम्भ से हुआ। यह सम्भव है कि 'कृत' का वही अर्थ है जो 'सिद्ध' का है जैसे - 'कृतान्त' का अर्थ है 'सिद्धान्त' और यह संकेत करता है कि यह कुछ लोगों की सहमति से प्रतिष्ठापित हुआ है। 8वीं एवं 9वीं शती से विक्रम संवत का नाम विशिष्ट रूप से मिलता है। [[संस्कृत]] के ज्योति:शास्त्रीय ग्रंथों में यह शक संवत से भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए यह सामान्यतः केवल संवत नाम से प्रयोग किया गया है। 'चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ' के 'वेडरावे शिलालेख' से पता चलता है कि राजा ने शक संवत के स्थान पर 'चालुक्य विक्रम संवत' चलाया, जिसका प्रथम वर्ष था - 1076-77 ई.।
 
*विद्वानों ने सामान्यतः 'कृत संवत' को 'विक्रम संवत' का पूर्ववर्ती माना है। किन्तु 'कृत' शब्द के प्रयोग की व्याख्या सन्तोषजनक नहीं की जा सकी है। कुछ शिलालेखों में मावल-गण का संवत उल्लिखित है, जैसे - नरवर्मा का मन्दसौर शिलालेख। 'कृत' एवं 'मालव' संवत एक ही कहे गए हैं, क्योंकि दोनों पूर्वी [[राजस्थान]] एवं पश्चिमी [[मालवा]] में प्रयोग में लाये गये हैं। कृत के 282 एवं 295 वर्ष तो मिलते हैं किन्तु मालव संवत के इतने प्राचीन शिलालेख नहीं मिलते। यह भी सम्भव है कि कृत नाम पुराना है और जब मालवों ने उसे अपना लिया तो वह 'मालव-गणाम्नात' या 'मालव-गण-स्थिति' के नाम से पुकारा जाने लगा। किन्तु यह कहा जा सकता है कि यदि कृत एवं मालव दोनों बाद में आने वाले विक्रम संवत की ओर ही संकेत करते हैं, तो दोनों एक साथ ही लगभग एक सौ वर्षों तक प्रयोग में आते रहे, क्योंकि हमें 480 कृत वर्ष एवं 461 मालव वर्ष प्राप्त होते हैं। यह मानना कठिन है कि कृत संवत का प्रयोग कृतयुग के आरम्भ से हुआ। यह सम्भव है कि 'कृत' का वही अर्थ है जो 'सिद्ध' का है जैसे - 'कृतान्त' का अर्थ है 'सिद्धान्त' और यह संकेत करता है कि यह कुछ लोगों की सहमति से प्रतिष्ठापित हुआ है। 8वीं एवं 9वीं शती से विक्रम संवत का नाम विशिष्ट रूप से मिलता है। [[संस्कृत]] के ज्योति:शास्त्रीय ग्रंथों में यह शक संवत से भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए यह सामान्यतः केवल संवत नाम से प्रयोग किया गया है। 'चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ' के 'वेडरावे शिलालेख' से पता चलता है कि राजा ने शक संवत के स्थान पर 'चालुक्य विक्रम संवत' चलाया, जिसका प्रथम वर्ष था - 1076-77 ई.।
 
==नव संवत्सर==
 
==नव संवत्सर==
[[4 अप्रैल]], सन [[2011]] को [[चैत्र]] [[मास]] के [[शुक्ल पक्ष]] से रेवती नक्षत्र में विक्रम संवत 2068 का शुभारम्भ हुआ। [[पुराण|पुराणों]] के अनुसार इसी तिथि से [[ब्रह्मा]] जी ने सृष्टि निर्माण किया था, इसलिए इस पावन तिथि को नव संवत्सर पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। संवत्सर-चक्र के अनुसार सूर्य इस ऋतु में अपने राशि-चक्र की प्रथम राशि मेष में प्रवेश करता है। [[भारत|भारतवर्ष]] में वसंत ऋतु के अवसर पर नूतन वर्ष का आरम्भ मानना इसलिए भी हर्षोल्लासपूर्ण है क्योंकि इस ऋतु में चारों ओर हरियाली रहती है तथा नवीन पत्र-पुष्पों द्वारा प्रकृति का नव श्रृंगार किया जाता है। लोग [[नववर्ष]] का स्वागत करने के लिए अपने घर-द्वार सजाते हैं तथा नवीन वस्त्राभूषण धारण करके ज्योतिषाचार्य द्वारा नूतन वर्ष का संवत्सर फल सुनते हैं।
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[[4 अप्रैल]], सन् [[2011]] को [[चैत्र]] [[मास]] के [[शुक्ल पक्ष]] से रेवती नक्षत्र में विक्रम संवत 2068 का शुभारम्भ हुआ। [[पुराण|पुराणों]] के अनुसार इसी तिथि से [[ब्रह्मा]] जी ने सृष्टि निर्माण किया था, इसलिए इस पावन तिथि को नव संवत्सर पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। संवत्सर-चक्र के अनुसार सूर्य इस ऋतु में अपने राशि-चक्र की प्रथम राशि मेष में प्रवेश करता है। [[भारत|भारतवर्ष]] में वसंत ऋतु के अवसर पर नूतन वर्ष का आरम्भ मानना इसलिए भी हर्षोल्लासपूर्ण है क्योंकि इस ऋतु में चारों ओर हरियाली रहती है तथा नवीन पत्र-पुष्पों द्वारा प्रकृति का नव श्रृंगार किया जाता है। लोग [[नववर्ष]] का स्वागत करने के लिए अपने घर-द्वार सजाते हैं तथा नवीन वस्त्राभूषण धारण करके ज्योतिषाचार्य द्वारा नूतन वर्ष का संवत्सर फल सुनते हैं।
 
शास्त्रीय मान्यता के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि के दिन प्रात: काल स्नान आदि के द्वारा शुद्ध होकर हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प और जल लेकर '''ओम भूर्भुव: स्व: संवत्सर- अधिपति आवाहयामि पूजयामि च''' इस मंत्र से नव संवत्सर की पूजा करनी चाहिए तथा नववर्ष के अशुभ फलों के निवारण हेतु ब्रह्मा जी से प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हे भगवन! आपकी कृपा से मेरा यह वर्ष कल्याणकारी हो और इस संवत्सर के मध्य में आने वाले सभी अनिष्ट और विघ्न शांत हो जाएं।' नव संवत्सर के दिन [[नीम]] के कोमल पत्तों और ऋतुकाल के पुष्पों का चूर्ण बनाकर उसमें [[काली मिर्च]], नमक, हींग, जीरा, मिश्री, इमली और अजवायन मिलाकर खाने से रक्त विकार आदि शारीरिक रोग शांत रहते हैं और पूरे वर्ष स्वास्थ्य ठीक रहता है।
 
शास्त्रीय मान्यता के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि के दिन प्रात: काल स्नान आदि के द्वारा शुद्ध होकर हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प और जल लेकर '''ओम भूर्भुव: स्व: संवत्सर- अधिपति आवाहयामि पूजयामि च''' इस मंत्र से नव संवत्सर की पूजा करनी चाहिए तथा नववर्ष के अशुभ फलों के निवारण हेतु ब्रह्मा जी से प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हे भगवन! आपकी कृपा से मेरा यह वर्ष कल्याणकारी हो और इस संवत्सर के मध्य में आने वाले सभी अनिष्ट और विघ्न शांत हो जाएं।' नव संवत्सर के दिन [[नीम]] के कोमल पत्तों और ऋतुकाल के पुष्पों का चूर्ण बनाकर उसमें [[काली मिर्च]], नमक, हींग, जीरा, मिश्री, इमली और अजवायन मिलाकर खाने से रक्त विकार आदि शारीरिक रोग शांत रहते हैं और पूरे वर्ष स्वास्थ्य ठीक रहता है।
 
====राष्ट्रीय संवत====  
 
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दरअसल, भारतीय परम्परा में चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य शौर्य, पराक्रम तथा प्रजाहितैषी कार्यों के लिए प्रसिद्ध माने जाते हैं। उन्होंने 95 शक राजाओं को पराजित करके भारत को विदेशी राजाओं की दासता से मुक्त किया था। राजा विक्रमादित्य के पास एक ऐसी शक्तिशाली विशाल सेना थी जिससे विदेशी आक्रमणकारी सदा भयभीत रहते थे। ज्ञान-विज्ञान, [[साहित्य]], [[कला]] [[संस्कृति]] को विक्रमादित्य ने विशेष प्रोत्साहन दिया था। धंवंतरि जैसे महान वैद्य, [[वराहमिहिर]] जैसे महान ज्योतिषी और [[कालिदास]] जैसे महान साहित्यकार विक्रमादित्य की राज्यसभा के नवरत्नों में शोभा पाते थे। प्रजावत्सल नीतियों के फलस्वरूप ही विक्रमादित्य ने अपने राज्यकोष से धन देकर दीन दु:खियों को साहूकारों के कर्ज़ से मुक्त किया था। एक चक्रवर्ती सम्राट होने के बाद भी विक्रमादित्य राजसी ऐश्वर्य भोग को त्यागकर भूमि पर शयन करते थे। वे अपने सुख के लिए राज्यकोष से धन नहीं लेते थे।  
 
दरअसल, भारतीय परम्परा में चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य शौर्य, पराक्रम तथा प्रजाहितैषी कार्यों के लिए प्रसिद्ध माने जाते हैं। उन्होंने 95 शक राजाओं को पराजित करके भारत को विदेशी राजाओं की दासता से मुक्त किया था। राजा विक्रमादित्य के पास एक ऐसी शक्तिशाली विशाल सेना थी जिससे विदेशी आक्रमणकारी सदा भयभीत रहते थे। ज्ञान-विज्ञान, [[साहित्य]], [[कला]] [[संस्कृति]] को विक्रमादित्य ने विशेष प्रोत्साहन दिया था। धंवंतरि जैसे महान वैद्य, [[वराहमिहिर]] जैसे महान ज्योतिषी और [[कालिदास]] जैसे महान साहित्यकार विक्रमादित्य की राज्यसभा के नवरत्नों में शोभा पाते थे। प्रजावत्सल नीतियों के फलस्वरूप ही विक्रमादित्य ने अपने राज्यकोष से धन देकर दीन दु:खियों को साहूकारों के कर्ज़ से मुक्त किया था। एक चक्रवर्ती सम्राट होने के बाद भी विक्रमादित्य राजसी ऐश्वर्य भोग को त्यागकर भूमि पर शयन करते थे। वे अपने सुख के लिए राज्यकोष से धन नहीं लेते थे।  
 
====राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान====
 
====राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान====
पिछले दो हज़ार वर्षों में अनेक देशी और विदेशी राजाओं ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की तुष्टि करने तथा इस देश को राजनीतिक द्दष्टि से पराधीन बनाने के प्रयोजन से अनेक संवतों को चलाया किंतु भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान केवल विक्रमी संवत के साथ ही जुड़ी रही। [[अंग्रेज़ी]] शिक्षा-दीक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज भले ही सर्वत्र ईस्वी संवत का बोलबाला हो और भारतीय तिथि-मासों की काल गणना से लोग अनभिज्ञ होते जा रहे हों परंतु वास्तविकता यह भी है कि देश के सांस्कृतिक पर्व-उत्सव तथा [[राम]], [[कृष्ण]], [[बुद्ध]], [[महावीर]], [[गुरु नानक]] आदि महापुरुषों की जयंतियाँ आज भी भारतीय काल गणना के हिसाब से ही मनाई जाती हैं, ईस्वी संवत के अनुसार नहीं। विवाह-मुण्डन का शुभ मुहूर्त हो या [[श्राद्ध]]-तर्पण आदि सामाजिक कार्यों का अनुष्ठान, ये सब भारतीय पंचांग पद्धति के अनुसार ही किया जाता है, ईस्वी सन की तिथियों के अनुसार नहीं।
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पिछले दो हज़ार वर्षों में अनेक देशी और विदेशी राजाओं ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की तुष्टि करने तथा इस देश को राजनीतिक द्दष्टि से पराधीन बनाने के प्रयोजन से अनेक संवतों को चलाया किंतु भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान केवल विक्रमी संवत के साथ ही जुड़ी रही। [[अंग्रेज़ी]] शिक्षा-दीक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज भले ही सर्वत्र ईस्वी संवत का बोलबाला हो और भारतीय तिथि-मासों की काल गणना से लोग अनभिज्ञ होते जा रहे हों परंतु वास्तविकता यह भी है कि देश के सांस्कृतिक पर्व-उत्सव तथा [[राम]], [[कृष्ण]], [[बुद्ध]], [[महावीर]], [[गुरु नानक]] आदि महापुरुषों की जयंतियाँ आज भी भारतीय काल गणना के हिसाब से ही मनाई जाती हैं, ईस्वी संवत के अनुसार नहीं। विवाह-मुण्डन का शुभ मुहूर्त हो या [[श्राद्ध]]-तर्पण आदि सामाजिक कार्यों का अनुष्ठान, ये सब भारतीय पंचांग पद्धति के अनुसार ही किया जाता है, ईस्वी सन् की तिथियों के अनुसार नहीं।
 
    
 
    
 
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14:14, 6 मार्च 2012 का अवतरण

इन्हें भी देखें: पंचांग, राष्ट्रीय शाके एवं हिजरी संवत

  • भारतीय संवत अत्यन्त प्राचीन हैं।
  • साथ ही ये गणित की दृष्टि से अत्यन्त सुगम और सर्वथा ठीक हिसाब रखकर निश्चित किये गये हैं।
  • नवीन संवत चलाने की शास्त्रीय विधि यह है कि जिस नरेश को अपना संवत चलाना हो, उसे संवत चलाने के दिन से पूर्व कम-से-कम अपने पूरे राज्य में जितने भी लोग किसी के ऋणी हों, उनका ऋण अपनी ओर से चुका देना चाहिये।
  • विक्रम संवत का प्रणेता सम्राट विक्रमादित्य को माना जाता है। कालिदास इस महाराजा के एक रत्न माने जाते हैं।
  • कहना नहीं होगा कि भारत के बाहर इस नियम का कहीं पालन नहीं हुआ।
  • भारत में भी महापुरुषों के संवत उनके अनुयायियों ने श्रद्धावश ही चलाये; लेकिन भारत का सर्वमान्य संवत विक्रम संवत है और महाराज विक्रमादित्य ने देश के सम्पूर्ण ऋण को, चाहे वह जिस व्यक्ति का रहा हो, स्वयं देकर इसे चलाया है।
  • इस संवत के महीनों के नाम विदेशी संवतों की भाँति देवता, मनुष्य या संख्यावाचक कृत्रिम नाम नहीं हैं।
  • यही बात तिथि तथा अंश (दिनांक) के सम्बन्ध में भी हैं वे भी सूर्य-चन्द्र की गति पर आश्रित हैं। सारांश यह कि यह संवत अपने अंग-उपांगों के साथ पूर्णत: वैज्ञानिक सत्यपर स्थित है।

शास्त्रों व शिलालेखों में

  • विक्रम संवत के उद्भव एवं प्रयोग के विषय में कुछ कहना मुश्किल है। यही बात शक संवत के विषय में भी है। किसी विक्रमादित्य राजा के विषय में, जो ई. पू. 57 में था, सन्देह प्रकट किए गए हैं। इस संवत का आरम्भ गुजरात में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से (नवम्बर, ई. पू. 58) है और उत्तरी भारत में चैत्र कृष्ण प्रतिपदा (अप्रैल, ई. पू. 58) से। बीता हुआ विक्रम वर्ष ईस्वी सन्+57 के बराबर है। कुछ आरम्भिक शिलालेखों में ये वर्ष कृत के नाम से आये हैं [1]
  • विद्वानों ने सामान्यतः 'कृत संवत' को 'विक्रम संवत' का पूर्ववर्ती माना है। किन्तु 'कृत' शब्द के प्रयोग की व्याख्या सन्तोषजनक नहीं की जा सकी है। कुछ शिलालेखों में मावल-गण का संवत उल्लिखित है, जैसे - नरवर्मा का मन्दसौर शिलालेख। 'कृत' एवं 'मालव' संवत एक ही कहे गए हैं, क्योंकि दोनों पूर्वी राजस्थान एवं पश्चिमी मालवा में प्रयोग में लाये गये हैं। कृत के 282 एवं 295 वर्ष तो मिलते हैं किन्तु मालव संवत के इतने प्राचीन शिलालेख नहीं मिलते। यह भी सम्भव है कि कृत नाम पुराना है और जब मालवों ने उसे अपना लिया तो वह 'मालव-गणाम्नात' या 'मालव-गण-स्थिति' के नाम से पुकारा जाने लगा। किन्तु यह कहा जा सकता है कि यदि कृत एवं मालव दोनों बाद में आने वाले विक्रम संवत की ओर ही संकेत करते हैं, तो दोनों एक साथ ही लगभग एक सौ वर्षों तक प्रयोग में आते रहे, क्योंकि हमें 480 कृत वर्ष एवं 461 मालव वर्ष प्राप्त होते हैं। यह मानना कठिन है कि कृत संवत का प्रयोग कृतयुग के आरम्भ से हुआ। यह सम्भव है कि 'कृत' का वही अर्थ है जो 'सिद्ध' का है जैसे - 'कृतान्त' का अर्थ है 'सिद्धान्त' और यह संकेत करता है कि यह कुछ लोगों की सहमति से प्रतिष्ठापित हुआ है। 8वीं एवं 9वीं शती से विक्रम संवत का नाम विशिष्ट रूप से मिलता है। संस्कृत के ज्योति:शास्त्रीय ग्रंथों में यह शक संवत से भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए यह सामान्यतः केवल संवत नाम से प्रयोग किया गया है। 'चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ' के 'वेडरावे शिलालेख' से पता चलता है कि राजा ने शक संवत के स्थान पर 'चालुक्य विक्रम संवत' चलाया, जिसका प्रथम वर्ष था - 1076-77 ई.।

नव संवत्सर

4 अप्रैल, सन् 2011 को चैत्र मास के शुक्ल पक्ष से रेवती नक्षत्र में विक्रम संवत 2068 का शुभारम्भ हुआ। पुराणों के अनुसार इसी तिथि से ब्रह्मा जी ने सृष्टि निर्माण किया था, इसलिए इस पावन तिथि को नव संवत्सर पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। संवत्सर-चक्र के अनुसार सूर्य इस ऋतु में अपने राशि-चक्र की प्रथम राशि मेष में प्रवेश करता है। भारतवर्ष में वसंत ऋतु के अवसर पर नूतन वर्ष का आरम्भ मानना इसलिए भी हर्षोल्लासपूर्ण है क्योंकि इस ऋतु में चारों ओर हरियाली रहती है तथा नवीन पत्र-पुष्पों द्वारा प्रकृति का नव श्रृंगार किया जाता है। लोग नववर्ष का स्वागत करने के लिए अपने घर-द्वार सजाते हैं तथा नवीन वस्त्राभूषण धारण करके ज्योतिषाचार्य द्वारा नूतन वर्ष का संवत्सर फल सुनते हैं। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि के दिन प्रात: काल स्नान आदि के द्वारा शुद्ध होकर हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प और जल लेकर ओम भूर्भुव: स्व: संवत्सर- अधिपति आवाहयामि पूजयामि च इस मंत्र से नव संवत्सर की पूजा करनी चाहिए तथा नववर्ष के अशुभ फलों के निवारण हेतु ब्रह्मा जी से प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हे भगवन! आपकी कृपा से मेरा यह वर्ष कल्याणकारी हो और इस संवत्सर के मध्य में आने वाले सभी अनिष्ट और विघ्न शांत हो जाएं।' नव संवत्सर के दिन नीम के कोमल पत्तों और ऋतुकाल के पुष्पों का चूर्ण बनाकर उसमें काली मिर्च, नमक, हींग, जीरा, मिश्री, इमली और अजवायन मिलाकर खाने से रक्त विकार आदि शारीरिक रोग शांत रहते हैं और पूरे वर्ष स्वास्थ्य ठीक रहता है।

राष्ट्रीय संवत

भारतवर्ष में इस समय देशी विदेशी मूल के अनेक संवतों का प्रचलन है किंतु भारत के सांस्कृतिक इतिहास की द्दष्टि से सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रीय संवत यदि कोई है तो वह विक्रम संवत ही है। आज से लगभग 2,068 वर्ष यानी 57 ईसा पूर्व में भारतवर्ष के प्रतापी राजा विक्रमादित्य ने देशवासियों को शकों के अत्याचारी शासन से मुक्त किया था। उसी विजय की स्मृति में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से विक्रम संवत का भी आरम्भ हुआ था। प्राचीनकाल में नया संवत चलाने से पहले विजयी राजा को अपने राज्य में रहने वाले सभी लोगों को ऋण-मुक्त करना आवश्यक होता था। राजा विक्रमादित्य ने भी इसी परम्परा का पालन करते हुए अपने राज्य में रहने वाले सभी नागरिकों का राज्यकोष से कर्ज़ चुकाया और उसके बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मालवगण के नाम से नया संवत चलाया। भारतीय कालगणना के अनुसार वसंत ऋतु और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि अति प्राचीनकाल से सृष्टि प्रक्रिया की भी पुण्य तिथि रही है। वसंत ऋतु में आने वाले वासंतिक नवरात्र का प्रारम्भ भी सदा इसी पुण्यतिथि से होता है। विक्रमादित्य ने भारत राष्ट्र की इन तमाम कालगणनापरक सांस्कृतिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से ही अपने नवसंवत्सर संवत को चलाने की परम्परा शुरू की थी और तभी से समूचा भारत राष्ट्र इस पुण्य तिथि का प्रतिवर्ष अभिवंदन करता है। दरअसल, भारतीय परम्परा में चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य शौर्य, पराक्रम तथा प्रजाहितैषी कार्यों के लिए प्रसिद्ध माने जाते हैं। उन्होंने 95 शक राजाओं को पराजित करके भारत को विदेशी राजाओं की दासता से मुक्त किया था। राजा विक्रमादित्य के पास एक ऐसी शक्तिशाली विशाल सेना थी जिससे विदेशी आक्रमणकारी सदा भयभीत रहते थे। ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला संस्कृति को विक्रमादित्य ने विशेष प्रोत्साहन दिया था। धंवंतरि जैसे महान वैद्य, वराहमिहिर जैसे महान ज्योतिषी और कालिदास जैसे महान साहित्यकार विक्रमादित्य की राज्यसभा के नवरत्नों में शोभा पाते थे। प्रजावत्सल नीतियों के फलस्वरूप ही विक्रमादित्य ने अपने राज्यकोष से धन देकर दीन दु:खियों को साहूकारों के कर्ज़ से मुक्त किया था। एक चक्रवर्ती सम्राट होने के बाद भी विक्रमादित्य राजसी ऐश्वर्य भोग को त्यागकर भूमि पर शयन करते थे। वे अपने सुख के लिए राज्यकोष से धन नहीं लेते थे।

राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान

पिछले दो हज़ार वर्षों में अनेक देशी और विदेशी राजाओं ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की तुष्टि करने तथा इस देश को राजनीतिक द्दष्टि से पराधीन बनाने के प्रयोजन से अनेक संवतों को चलाया किंतु भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान केवल विक्रमी संवत के साथ ही जुड़ी रही। अंग्रेज़ी शिक्षा-दीक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज भले ही सर्वत्र ईस्वी संवत का बोलबाला हो और भारतीय तिथि-मासों की काल गणना से लोग अनभिज्ञ होते जा रहे हों परंतु वास्तविकता यह भी है कि देश के सांस्कृतिक पर्व-उत्सव तथा राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक आदि महापुरुषों की जयंतियाँ आज भी भारतीय काल गणना के हिसाब से ही मनाई जाती हैं, ईस्वी संवत के अनुसार नहीं। विवाह-मुण्डन का शुभ मुहूर्त हो या श्राद्ध-तर्पण आदि सामाजिक कार्यों का अनुष्ठान, ये सब भारतीय पंचांग पद्धति के अनुसार ही किया जाता है, ईस्वी सन् की तिथियों के अनुसार नहीं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नन्द-यूप शिलालेख में 282 कृत वर्ष; तीन यूपों के मौखरी शिलालेखों में 295 कृत वर्ष; विजयगढ़ स्तम्भ-अभिलेख में 428; मन्दसौर में 461 तथा गदाधर में 480

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