हिन्दी की अखिल भारतीयता का इतिहास -प्रो. दिनेश्वर प्रसाद

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लेखक- प्रो. दिनेश्वर प्रसाद

          यद्यपि हिन्दी शब्द का प्रयोग हरियाणा ] लेकर बिहार तक प्रचलित बाँगरु, कौरवी, ब्रजभाषा, कनौजी, राजस्थानी, अवधी, भोजपुरी, मैथिली आदि कई भाषाओं के लिए यिा जाता है, किंतु वर्तमान शताब्दी में व्यवहार की दृष्टि से इसका अर्थ खड़ी बोली हो गया है। हिन्दी के रूप में यही खड़ी बोली भारतीय संविधान द्वारा स्वीकृत संपर्क भाषा है तथा हिन्दी भाषी राज्यों में राजभाषा। भौगोलिक दृष्टि से विचार करने पर यह दिल्ली, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ आदि थोड़े से जिलों तक सीमित भाषा है, जो शताब्दियों तक ब्रजभाषा और अवधी कुल तुलना में उपेक्षितप्राय रही है और ऐतिहासिक कारणों के फलस्वरूप भारतव्यापी हो गई है। ऐतिहासिक कारणों के प्रसाद से ही यह न केवल आधुनिक युग में भारत से बाहर के कई देशों में फैल गई हे, वरन् सुदूर अतीत से ही अंतर्राष्ट्रीय यात्रा करती रही है। प्राचीन काल में इस क्षेत्र से समय समय पर पश्चिम की ओर जनसमुदायों का आव्रजन हुआ है, जिनके दो सबसे बड़े साक्ष्य आज भी मौजूद है। वे हैः यूरोप के रोमनी या जिप्सी तथा सोवियत संघ के इंकी या इन्दुस्तानी, जो ताजिकस्तान और उजबेकिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्र में निवास करते हैं। जिप्सी या रोमनी भाषा के अध्ययन से यह संकेत मिलता है कि इसे बोलने वाले सुमुदाय संभवतः हरियाणा से गए होगें। पिछली शताब्दी में सर लाॅरेस ग्रुम ने अपने ‘जिप्सी फोकटेल्स’ (1899 ई.) नामक ग्रंथ की भूमिका में इस भाषा के जो नमूने दिए हैं, वे आज की खड़ी बोली के बहुत ही समीप हैः जैसे ‘जा दिक’, ‘कोन छल वेल वुदर’ (जाओ, देखो तो, कौन लड़का उधर है) और ‘जा देख कोन छल आया द्वार को’ (जाओ देखो, कौन लड़का दरवाजे पर आया है।) उन्होंने यह संभावना व्यक्त की है कि जिप्सी-भाषी ईसवी सन् की दसवी सदी से बहुत पहले भारत से बाहर गए होगें। इंकी या इन्दुस्तानी नामक भाषा की खोज डाॅ. भोलानाथ तिवारी ने की है। वह इसे ‘ताजुज्बेकी’ कहते हैं। ‘ताजुज्बेकी’ (1970 ई.) में उन्होने यह स्पष्ट किया है कि यह भाषा जिसमें एक, दो, तिन (तीन), में, (मैं), हम, तुम ओ, (वह) जैसे शब्दों का प्रयोग होता है तथा जिसकी व्याकरणिक संरचना खड़ी बोली के बहुत समीप है, मूलतः हिन्दी है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि यदि आव्रजनों के कारण हिन्दी आधुनिक युग में देशांतरव्यापी हुई, तो आज से बहुत पहले भी इन्ही कारणों से इसका अंतर्राष्ट्रीय प्रसार हुआ है।
          इसके भारतव्यापी प्रसार का इतिहास कम रोचक नहीं है। यद्यपि प्रायः सभी भाषा वैज्ञानिकों ने खड़ी बोली का संबंध शौरसेनी अपभ्रंश से माना है, किंतु ‘हिन्दीशब्दानुशासन’ (1958 ई.) में किशारीदास वाजपेयी ने इस विचार परंपरा का सप्रमाण खंडन किया है। उन्होंने अपेक्षित साक्ष्य प्रस्तुत कर यह बतलाया हैकि प्राचीन कुरु जनपद की इस भाषा की पूर्ववर्ती अपभ्रंश अर्थात् दूसरी प्राकृत के उदाहरण प्राप्त नहीं हैः ‘प्राकृत का रूप प्राप्त नहीं होता, तो इसका अर्थ यह नहीं कि उसका अस्तित्व नहीं होगा। जैसे आज भी बहुत सी भाषाओं में साहित्य रचना नहीं होती, वैसे पहले भी बहुत सी प्राकृत अपभ्रंश भाषाओं में साहित्य नहीं लिखा गया। कुरु जनवद की प्राकृत ऐसी ही थी। बाजपेयी जी इस प्राकृत या अपभ्रंश को ‘कौरवी’ कहते हैं। निश्चय ही प्राचीन कौरवी से विकसित आधुनिक भारतीय कौरवी या खड़ी बोली दसवी शताब्दी से पहले की है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि पड़ोस की ब्रजभाषा और राजस्थानी के बाद ही इसमें साहित्य लेखन प्रारंभ हुआ और वह भी उस समय, जब दिल्ली में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना हुई। इसके आरंभिक साहित्यिक नमूने या तो मुसलमान कवियों और लेखकों की रचनाओं में मिलते हैं या देश के विभिन्न भागों के साधुु सन्यासियों द्वारा रचित वाणियों में। पौराणिक मतावलंबी भक्त कवियों ने साहित्यिक अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में इसे महत्व नहीं दिया। इसके कारणों की परीक्षा के लिए हमें उस धार्मिक परिदृश्य पर विचार करना होगा, जिसका निर्माण पुराणों पर आधारित सगुण भक्ति द्वारा हुआ था। चैबीस अवतारों में क्रमशः दस अवतारों को अधिक महत्व मिला, जिसका एक उदाहरण क्षेमेद्रकृत दशावतार चरित है। किंतु इन दस अवतारों में भी राम और कृष्ण अधिक महत्व प्राप्त करते गए और अंततः समस्त उत्तर भारत की दैवत भावना इन्ही में केद्रीभूत हो गई। हिन्दी भाषी क्षेत्र में राम का आवलंबन लेने वाले काव्य की रचना मुख्यतः अवधी में हुई और कृष्ण से सबधित काव्य मुख्यतः ब्रजभाषा में लिखा गया। अवध के साथ राम और ब्रज के साथ कृष्ण के संबंध के कारण ही क्रमशः अवधी और ब्रज के साथ कृष्ण के संबंध के कारण ही क्रमशः अवधी और ब्रजभाषा को इतना महत्व मिला, यद्यपि अवध के सूफी कवियों ने भी अवधी का प्रयोग किया। अपने विशिष्ट धार्मिक आसंगों के कारण ही हिन्दी प्रदेश में ये भाषाएँ इतनी महत्वपूर्ण हो गई कि इनके सामने इस क्षेत्र की अन्य भाषाएँ उपेक्षितप्राय रही। खड़ी बोली ऐसी ही उपेक्षित प्राय भाषा थी, जिसके व्यवहार का कोई औचित्य या प्रारकता तत्कालीन पौराणिक मतावलंबी हिन्दी कवियों के लिए नहीं थी।
          किंतु जिस समय उत्तर भारत में विभिन्न भक्ति संप्रदायों का प्रवेश हुआ था, उससे पूर्व ही दिल्ली में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना हो चुकी थी। इस साम्राज्य की स्थापना के समय दिल्ली में जो मुसलमान आकर बस गए, उनमें सबसे बड़ी संख्या अविभाजित पंजाब के नव मुस्लिमों की थी, जिनकी बोली का राजधानी और उसके आस पास के क्षेत्रों पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। राजधानी और उसके आसपास की जनभाषा में परिचय दिल्ली के स्वदेशी और विदेशी मुस्लिम प्रशासकों और सैनिकों के लिएन केवल स्वाभाविक था, वरन् आवश्यक भी। स्थानीय स्त्रियों से विवाह तथा प्रशासनिक आवश्यकताओं के कारण स्थानीय भाषा से परिचय की विवशता इन दो बातों के प्रभाव स्वरूप दो तीन पीढ़ियों में ही दिल्ली के शासकों के घर की बोली खड़ी बोली हो गई और शासक जाति के साहित्यकारों ने फारसी के अतिरिक्त खड़ी बोली में भी काव्य रचना की। आश्चर्य नहीं, यदि अमीर खुसरो (1255-1324) ने हिन्दवी (हिन्दी) को अपनी मातृभाषा कहा और इसमें न केवल कविता की, वरन् इसके माधुर्य और गंभीरता पर गर्व भी प्रकट किया। अमीर खुसरों द्वारा प्रयुक्त होने के बाद खड़ी बोली मुख्यतः मुसलमान कवियों और लेखकों द्वारा ही साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त होती रही।
          खड़ी बोली के भारतव्यापी प्रचार में दिल्ली के मुस्लिम साम्राज्य की राजधानी होने की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है, क्योंकि भारत में मुस्लिम के विस्तार के साथ इसका भी प्रसार हुआ है। खिलजी वंश के राजत्व काल में उत्तर भारत के बंगाल तक का क्षेत्र इस साम्राज्य का अंग बन गया और उत्तर भारतीय नगरों और कस्बों, सैनिक छावनियों ओर छोटे-बड़े प्रशासन केंद्रों की, संपर्क भाषा खड़ी बोली हो गई। इन केंद्रों में दिल्ली और उसके आसपास के खड़ी बोली भाषी मुस्लिम और हिन्दू राजकर्मचारी, सैनिक और व्यापारी बस गए। उनके आवागमन का क्रम कई शताब्दियों तक चलता रहा। इससे उत्तर भारतीय नगरों और कस्बों की शिष्ट संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी की जड़े मजबूत होती चली गई।
          मुस्लिम साम्राज्य के दक्षिण भारत में विस्तार के साथ हिन्दी का प्रसार आंध्र, कर्नाटक आदि प्रदेशों में भी हुआ। अलाउद्दीन ने 1296 ई. में दक्षिण भारत के देवगिरि पर आक्रमण किया। बाद के आक्रमणों द्वारा उसके राजत्व काल में विध्यापर्वत क्षेत्र से लेकर दक्षिण के समुद्र तट की भूमि दिल्ली साम्राज्य के अधीन हो गई। मुहम्मद तुगलक के समय दक्षिण का अधिकांश भाग इस साम्राज्य के अधीन हो गया, जिसे उसने पाँच भागों में विभाजित किया। उसने देवगिरि या दौलताबाद में अपनी राजधानी बनाई, जो मध्यकालीन इतिहास की बहुचर्चित घटनाओं में हैं। यद्यपि उसने परिस्थितियों के दबाव के कारण पुनः दिल्ली को राजधानी बनाया, किंतु उसके साथ बहुत बड़ी संख्या में दिल्ली के मुसलमानों और हिन्दुओं का आव्रजन दक्षिण भारत में हुआ। उनका एक बड़ा समुदाय दक्षिण में स्थायी रूप में बस गया, किंतु उनके आव्रजन से पूर्व ही, अलाउ्दीन के राजत्वकाल में खड़ी बोली बोलने वाले हिन्दू और मुस्लिम राजकर्मचारियों, सैनिक और व्यापारियों के दल दक्षिण भारत में फैल चुके थे। बाद में अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुंडा और बीदर में निजामशाही, आदिलशाही, कुतुबशाही और बरीदशाही वंशों ने स्वतंत्र राज्यों की स्थापना की, जिनमें बरीदशाही वंश का अस्तित्व शीघ्र ही समाप्त हो गया। दक्षिण के साथ मुगलों के युग में भी दिल्ली की राजनीतिक प्रतियोगिताएँ चलती रही तथा आक्रमणों का क्रम अटूट जैसा रहा। परिणाम यह हुआ कि दक्षिण में खड़ी बोली न केवल जड़ पकड़ती गई, बल्कि यह वहाँ के साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य का स्वाभाविक अंग बन गई। वहाँ दक्कनी या दक्खिनी के नाम से खड़ी बोली का विपुल साहित्य रचना गया। इसमें न सिर्फ साहित्य लेखन का कार्य हुआ, वरन बीजापुर, गोलकुंडा, आदि मुस्लिम रियासतों में राजकाज की भाषा के रूप में इसे प्रतिष्ठा मिली। उल्लेख्य है कि जिस खड़़ी बोली को भारतीय संविधान द्वारा स्वतंत्रता के बाद प्रशासनिक महत्व मिला है, उसे लगभग प्रायः छह सौ वर्ष पूर्व ही दक्षिण में यह महत्व प्राप्त हो चुका था।
          दकनी या दक्खिनी हिन्दी के रचनाकारों की संख्या बहुत बड़ी है। खड़ी बोली गद्य की पहली प्रप्य पुस्तक ख्वाजा बंदेनवाज गेसूदराज की ‘मिराजुल आशिकीन’ है, जो सूफी विचारधारा से संबंधित है। इसकी रचना पंद्रहवीं शताब्दी के आरंभ में हुई है। गेसूदराज की अन्य कई गद्य रचनाओं का भी उल्लेख मिलता है। मुल्ला वजही की ‘सबरस’ (1636 ई.) शायद दक्खिनी गद्य परंपरा की सर्वाेत्तम रचना हे। दक्खिनी में मीराजी, निजामी, मुहम्मदकुली कुतुबशाही आदि ने उत्कृष्ण कोटि की कविता की है। दक्खिनी कोई कृत्रिम भाषा नहीं थी, बल्कि यह वहाँ आव्रजन कर बस गए समुदायों की सहज, स्वाभाविक मातृभाषा थी। इसका प्रमाण मीराजी या शाह मीरन की निम्नलिखित पंक्तियों में मौजूद हैः

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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