इला

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'ब्रह्मपुराण' में इला विषयक दो कथाएँ मिलती हैं-

प्रथम कथा

प्रथम कथानुसार वैवस्वत मनु के दस पुत्र हुए। उनके एक पुत्री भी थी इला, जो बाद में पुरुष बन गई। वैवस्वत मनु ने पुत्र की कामना से मित्रावरुण यज्ञ किया। उनको पुत्री की प्राप्ति हुई जिसका नाम इला रखा गया। उन्होंने इला को अपने साथ चलने के लिए कहा किन्तु 'इला' ने कहा कि क्योंकि उसका जन्म मित्रावरुण के अंश से हुआ था, अतः उन दोंनो की आज्ञा लेनी आवश्यक थी। इला की इस क्रिया से प्रसन्न होकर मित्रावरुण ने उसे अपने कुल की कन्या तथा मनु का पुत्र होने का वरदान दिया। कन्या भाव में उसने चन्द्रमा के पुत्र बुध से विवाह करके पुरूरवा नामक पुत्र को जन्म दिया। तदुपरान्त वह सुद्युम्न बन गयी और उसने अत्यन्त धर्मात्मा तीन पुत्रों से मनु के वंश की वृद्धि की जिनके नाम इस प्रकार हैं- उत्कल, गय तथा विनताश्व।[1] ऋग्वेद में इला को 'अन्न' की अधिष्ठातृ' माना गया है, यद्यपि सायण के अनुसार उन्हें पृथ्वी की अधिष्ठातृ मानना अधिक उपयुक्त है। वैदिक वाङमय में इला को मनु को मार्ग दिखलाने वाली एवं पृथ्वी पर यज्ञ का विधिवत्‌ नियमन करनेवाली कहा गया है। इला के नाम पर ही जंबूद्वीप के नवखंडों में एक खंड 'इलावृत वर्ष' कहलाता है।

द्वितीय कथा

हिमाचल स्थित एक गुफ़ा में एक यक्ष और यक्षिणी रहते थे। वे इच्छानुसार भेष बदलने में समर्थ थे। एक बार वे मृग-मृगी रूप धारण कर क्रीड़ा कर रहे थे कि वैवस्वत वंशी राजा इल शिकार खेलता हुआ उसी गुफ़ा के पास पहुँचा। उसकी इच्छा हुई कि वह उसी जंगल में रहने लगे। उसने अपने साथियों को पुत्र, भार्या आदि की रक्षा के निमित्त भेज दिया और स्वयं वहीं रहने लगा। यक्ष और यक्षिणी के कहने पर भी उसने उनकी गुफ़ा नहीं छोड़ी। दोनों ने एक युक्ति सोची। यक्षिणी मृगी का रुप धारण कर राजा को मृगया में उलझाकर उमावन में ले गयी। भगवान शिव के कथनानुसार वहाँ जो प्रवेश करता था, वह नारी हो जाता था। इल भी इला बन गया। दक्षिणी ने अपने मुल रुप में प्रकट होकर उसे स्त्रियोचित नृत्य-संगीत, हाव-भाव आदि सिखाये और नारी बनने का कारण भी बताया। कालांतर में इला का बुध से विवाह हो गया तथा उसने पुरुरवा को जन्म दिया। पुरुरवा के बड़े और योग्य होने के उपरांत इला की पुन: पुरुष रूप में अपने राज्य में जाने की इच्छा बलवती हो उठी। इला ने समस्त कथा पुरुरवा को और पुरुरवा ने बुध को सुनायी। बुध के कहने से गौतमी नदी के तट पर शिव की आराधना कर इला ने पुन: पूर्व रुप प्राप्त किया। यक्षिणि से सीखा हुआ गीत, नृत्य और मिला हुआ सौदर्य गीता, नृत्य और सौभाग्या नदियों के रुप में प्रवाहित हो चला।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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