च्यवन

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संक्षिप्त परिचय
च्यवन
च्यवन ऋषि
वंश-गोत्र भृगु वंश
पिता भृगु
माता पुलोमा
जन्म विवरण जब पुलोमा गर्भवती थी, तब पुलोमन राक्षस ने उन्हें जबरन अपने साथ ले जाना चाहा। पुलोमन से संघर्ष में पुलोमा का शिशु गर्भ से बाहर गिर गया और च्यवन का जन्म हुआ।
विवाह सुकन्या तथा आरुषी से
संतान और्व
रचनाएँ 'च्यवनस्मृति'
संबंधित लेख शर्याति, सुकन्या, इन्द्र
विशेष च्यवन ने अश्विनीकुमारों को सौम पान का अधिकार दिलाने का वचन दिया था। वे एक यज्ञ का आयोजन करते हैं और इन्द्र द्वारा आपत्ति करने पर भी उसे अश्विनीकुमारों को यज्ञ का भाग प्रदान करने के लिए विवश कर देते हैं।
अन्य जानकारी 'भास्करसंहिता' में च्यवन ने सूर्य उपासना और दिव्य चिकित्सा से युक्त "जीवदान तंत्र" भी रचा है, जो एक महत्वपूर्ण मंत्र है। अनेक महान् राजाओं ने इनके निर्णयों को अपने धर्म-कर्म में शामिल किया।

च्यवन ऋषि महान् भृगु ऋषि के पुत्र थे। इनकी माता का नाम 'पुलोमा' था। ऋषि च्यवन को महान् ऋषियों की श्रेणी में रखा जाता है। इनके विचारों एवं सिद्धांतों द्वारा ज्योतिष में अनेक महत्वपूर्ण बातों का आगमन हुआ। इस कारण यह ज्योतिष गुरू के रूप में भी प्रसिद्ध हुए थे। इनके द्वारा रचित ग्रंथों से ज्योतिष तथा जीवन के सही मार्गदर्शन का बोध हुआ।

जन्म कथा

ऋषि भृगु की पत्नी का नाम पुलोमा था। एक बार जब भृगु ऋषि अपनी पत्नी के पास नहीं थे, तब राक्षस पुलोमन उनकी पत्नी को जबरन अपने साथ ले जाने के लिए आया। वह पुलोमा को बलपूर्वक ले जाने लगता है। उस समय पुलोमा गर्भवती थी और इस कारण पुलोमन से संघर्ष में उनका शिशु गर्भ से बाहर गिर जाता है। बालक के तेज से राक्षस पुलोमन भस्म हो जाता है तथा पुलोमा पुन: अपने निवास स्थान भृगु ऋषि के पास आ जाती है। गर्भ से गिर जाने के कारण ही बालक नाम 'च्यवन' पड़ा।

च्यवन से संबंधित घटनाएँ

च्यवन ऋषि के जीवन से कई महत्त्वपूर्ण घटनाएँ जुड़ी हुई हैं, जिनमें से मुख्य घटनाएँ इस प्रकार हैं-

च्यवन और सुकन्या

जन्म से ही च्यवन विद्वान् और ज्ञानी थे। वह एक महान् ऋषि थे। इनका विवाह आरुषी से हुआ था, जिससे इन्हें 'और्व' नामक पुत्र प्राप्त हुआ। इनका अन्य विवाह राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से भी हुआ था। ऋषि च्यवन ने बहुत कठोर तपस्या की थी। वह लंबे समय तक निश्चल रहकर एक ही स्थान पर बैठे रहे। जैसे-जैसे समय बीतता गया, उनका शरीर घास और लताओं से ढक गया तथा चीटियों ने उनकी देह पर अपना निवास बना लिया। वह दिखने में मिट्टी का टिला-सा जान पड़ते थे।[1]

इस तरह बहुत समय गुज़र गया। एक दिन राजा शर्याति की पुत्रि सुकन्या अपनी सखियों के साथ टहलती हुई च्यवन मुनि के स्थान पर जा पहुँची। वहाँ पर मिट्टी के टीले में चमकते दो छिद्रों को देखकर चकित रह गई और कौतुहल वश देह को बांबी समझकर उन छिद्रों को कुरेदने लगती है। उसके इस कृत्य से ऋषि की आँखों से रक्त की धारा निकलने लगती है और ऋषि च्यवन अंधे हो जाते हैं। वे क्रोधित होकर शर्याति के परिवार तथा उनके अनुचरों को मल-मूत्र रुक जाने का शाप दे देते हैं। राजा शर्याति इस घटना से दु:खी होकर उनसे विनय निवेदन करते हैं। क्षमा-याचना स्वरूप वह अपनी पुत्री सुकन्या को उनके सुपुर्द कर देते हैं। इस प्रकार सुकन्या का विवाह च्यवन ऋषि से हो जाता है।

अश्चिनीकुमार और च्यवन

सुकन्या बहुत पतिव्रता थी। वह च्यवन ऋषि की सेवा में दिन-रात लगी रहती थी। एक दिन च्यवन ऋषि के आश्रम में देवों के वैद्य अश्विनीकुमार आते हैं। सुकन्या उचित प्रकार से उनका आदर-सत्कार एवं पूजन करती है। उसके इस आदर भाव व पतिव्रत से से प्रसन्न अश्विनीकुमार उसे आशीर्वाद प्रदान करते हैं। वह च्यवन ऋषि को उनका यौवन व आंखों की ज्योति प्रदान करते हैं। आँखों की ज्योति और नव यौवन पाकर च्यवन मुनि बहुत प्रसन्न होते हैं। वह अश्चिनीकुमारों को सौम पान का अधिकार दिलवाने का वचन देते हैं।[1]

यह सुनकर अश्विनीकुमार प्रसन्न होकर और उन दोनों को आशीर्वाद देकर वहाँ से चले जाते हैं। शर्याति जब च्यवन ऋषि के युवा हो जाने के बारे में सुनते हैं तो बहुत प्रसन्न होते हैं व उनसे मिलने जाते हैं। ऋषि च्यवन राजा से कहकर एक यज्ञ का आयोजन कराते हैं। जहाँ वह यज्ञ का कुछ भाग अश्विनीकुमारों को प्रदान करते हैं। तब देवराज इन्द्र आपत्ति जताते हैं और अश्विनीकुमारों को यज्ञ का भाग देने से मना करते हैं। परंतु च्यवन ऋषि, इन्द्र की बातों को अनसुना कर देते हैं। इससे क्रोधित होकर इन्द्र उन पर वज्र का प्रहार करने लगते हैं, किंतु ऋषि च्यवन अपने तपोबल से वज्र को रोककर एक भयानक राक्षस उत्पन्न करते हैं। वह राक्षस इन्द्र को मारने के लिए दौड़ता है। इन्द्र भयभीत होकर अश्विनीकुमारों को यज्ञ का भाग देना स्वीकार कर लेते हैं और च्यवन ऋषि से क्षमा मांगते हैं। च्यवन ऋषि का क्रोध शांत होता है और वह उस राक्षस को भस्म करके इन्द्र को कष्ट से मुक्ति प्रदान करते हैं।

जाल के साथ नदी में से निकाले गए महर्षि च्यवन

च्यवन तथा मछुआरे

एक बार च्यवन ने महान् व्रत का आश्रय लेकर जल के भीतर रहना आरंभ कर दिया। वे गंगा-यमुना-संगम स्थल पर रहते थे। वहां उनकी जलचरों से प्रगाढ़ मैत्री हो गयी। एक बार मछवाहों ने मछलियाँ पकड़ने के लिए जाल डाला तो मत्स्यों सहित च्यवन ऋषि भी जाल में फंस गये। नदी से बाहर निकलने पर उन्हें देख समस्त मछवाहे उनसे क्षमा मांगने लगे। च्यवन ने कहा कि उनके प्राण मत्स्यों के साथ ही त्यक्त अथवा रक्षित रहेंगे। उस नगर के राजा को जब च्यवन की इस घटना का ज्ञान हुआ तो उसने भी मुनि से उचित सेवा पूछी। मुनि ने उससे मछलियों के साथ-साथ अपना मूल्य मछवारों को देने के लिए कहा। राजा ने पूरा राज्य देना भी स्वीकार कर लिया, किंतु च्यवन उसे अपने समकक्ष मूल्य नहीं मान रहे थे। तभी गौर के पेट से जन्मे गोताज मुनि उधर आ पहुंचे। उन्होंने राजा नहुष से कहा- "जिस प्रकार च्यवन अमूल्य हैं, उसी प्रकार गाय भी अमूल्य होती है, अत: आप उनके मूल्यस्वरूप एक गौर दे दीजिए।" राजा के ऐसा ही करने पर च्यवन प्रसन्न हो गये। मछवाहों ने क्षमा-याचना सहित वह गाय च्यवन मुनि को ही समर्पित कर दी तथा उनके आशीर्वाद से वे लोग मछलियों के साथ ही स्वर्ग सिधार गये। च्यवन तथा गोताज अपने-अपने आश्रम चले गये।

राजा कुशिक को वरदान

एक बार च्यवन मुनि को यह ज्ञात हुआ कि उनके वंश में कुशिक वंश की कन्या के संबंध से क्षत्रियत्व का दोष आने वाला है। अत: उन्होंने कुशिक वंश को भस्म करने की ठान ली। वे राजा कुशिक के यहाँ अतिथि रूप में गये। राजा-रानी उनकी सेवा में लग गये। उन दोनों से यह कहकर कि वे उन्हें जगाये नहीं और उनके पैर दबाते रहें, वे सो गये। इक्कीस दिन तक वे लगातार एक करवट सोते रहे और राजा-रानी उनके पैर दबाते रहें। फिर वे अंतर्धान हो गये। पुन: प्रकट हुए और इसी प्रकार वे दूसरी करवट सो गये। जागने पर भोजन में आग लगा दी। तदनंतर एक गाड़ी में दान, युद्ध इत्यादि की विपुल सामग्री भरकर उसमें राजा-रानी को जोतकर सवार हो गये तथा राजा-नारी पर चाबुक से प्रहार करते रहे।[1]

इस प्रकार के अनेक कृत्य होने पर भी जब राजा कुशिक तथा रानी क्रोध अथवा विकार से अभिभूत नहीं हुए तो च्यवन उन पर प्रसन्न हो गये। उन्हें गाड़ी से मुक्त कर अगले दिन आने के लिए कहा और राजमहल में भेज दिया तथा स्वयं गंगा के किनारे रुक गये। अगले दिन वहां पहुंचकर राजा-रानी ने एक अद्भुत स्वर्णमहल देखा, जो चित्र-विचित्र उपवन से घिरा था। उसके चारों ओर छोटे-छोटे महल तथा मानव-भाषा बोलने वाले पक्षी थे। दिव्य पलंग पर च्यवन ऋषि लेटे थे। राजा-रानी मोह में पड़ गये। च्यवन ने उन दोनों को अपने आने का उद्देश्य बताकर कहा कि उनसे वे इतने प्रसन्न हुए हैं कि वे उनके बिना मांगे ही इच्छित वर देंगे। तदनुसार राजा कुशिक की तीसरी पीढ़ी से कौशिक वंश (ब्राह्मणों का एक वंश) प्रारंभ हो जायेगा। च्यवन ऋषि बोले- 'चिरकाल से भृगुवंशी लोगों के यजमान क्षत्रिय रहे हैं, किंतु भविष्य में उनमें फूट पड़ेगी। मेरे वंश में 'ऊर्व' नाम का तेजस्वी बालक त्रिलोक-संहार के लिए अग्नि की सृष्टि करेगा। ऊर्व के पुत्र ऋचीक होंगे। वे तुम्हारी पौत्री (गाधि की पुत्री) से विवाह करके ब्राह्मण-पुत्र को जन्म देंगे, जिसका पुत्र क्षत्रिय होगा। ऋचीक की कृपा से तुम्हारे वंश गाधि को विश्वामित्र नामक ब्राह्मण-पुत्र की प्राप्ति होगी। जो कुछ दिव्य तुम यहाँ देख रहे हो, वह स्वर्ग की एक झलक मात्र है। इतना कहकर ऋषि ने उन दोनों से विदा ली।[2]

ग्रंथ

च्यवन मुनी द्वारा अनेक ग्रंथों की रचना हुई। उनके द्वारा रचित 'च्यवनस्मृति' में उन्होंने विभिन्न तथ्यों के महत्व को दर्शाया है। इसमें उन्होंने गोदान के महत्व के विषय में लिखा। इसके साथ ही बुरे कार्यों से बचने का मार्ग एवं प्रायश्चि का विधान भी बताया। 'भास्करसंहिता' में इन्होंने सूर्य उपासना और दिव्य चिकित्सा से युक्त "जीवदान तंत्र" भी रचा है, जो एक महत्वपूर्ण मंत्र है। अनेक महान् राजाओं ने इनके निर्णयों को अपने धर्म-कर्म में शामिल किया।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 च्यवन ऋषि (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 01 अप्रैल, 2014।
  2. महाभारत, दान धर्म पर्व, अध्याय 50-56,अध्याय 156, श्लोक 17-35

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