इलौरा महाराष्ट्र
इलौरा महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले से 14 मील दूर शैलकृत गुफा मंदिरों के लिए संसार-प्रसिद्ध स्थान है। विभिन्न कालों में बनी अनेक गुफाएं बौद्ध, हिंदू तथा जैन संप्रदाय से संबंधित हैं। इलौरा में स्थित गुफ़ाओं को एलोरा नाम से जाना जाता है। इलौरा से थोड़ी दूर पर अहल्याबाई का बनवाया ज्योतिर्लिंग का मंदिर है। इलौरा के कई प्राचीन नाम मिलते हैं, जिनमें इल्वलपुर, एलागिरि और इलापुर मुख्य हैं।
स्थापत्य काल
कहा जाता है कि इलौरा को इलिचपुर के राजा यदु ने 8वीं शती में बसाया था। किंतु महाभारत तथा पुराणों की गाथाओं के आधार पर प्राचीन इल्वलपुर को जहां अगस्त्य ऋषि ने इल्वलदैत्य को मारा था[1] वर्तमान इलौरा माना जाता है। कुछ बौद्धगुफाएं तो अवश्य 8वीं शती से पहले की हैं। यह जान पड़ता है कि राष्ट्रकूटों का सम्बंध इस स्थान से 8वीं शती में प्रथम बार हुआ होगा। ऐतिहासिक जनश्रुति में प्रचलित है कि जब अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात पर 1297 ई. में आक्रमण किया तो वहां के राजा कर्ण की कन्या देवलदेवी ने भाग कर देवगिरि-नरेश रामचंद्र के यहां शरण ली और तब वह इलौरा की गुफाओं में जा छिपी थी। किंतु दुर्भाग्यवश अलाउद्दीन के दुष्ट गुलाम सेनापति मलिक काफूर ने उसे वहां से पकडकर दिल्ली भिजवा दिया था।
गुफ़ाओं की स्थापत्य कला
इलौरा की गुफ़ाएं अजंता के समान ही शैलकृत हैं और इनकी समग्र रचना तथा मूर्तिकारी पहाड़ी के भीतरी भाग को काटकर ही निर्मित की गई है। बौद्ध गुफाएं संभवतः 550 ईस्वी से 750 ईस्वी तक की हैं। इनमें से विश्वकर्मा गुहा मंदिर (सं. 10) सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। यह विशाल चैत्य के रूप में बना है। इसके ऊंचे स्थम्भों पर तक्षण-कला का सुंदर काम है। इनमें बौनों की अनेक प्रतिमाएं हैं जिनके शरीर का ऊपरी भाग बहुत स्थूल है। भिक्षुओं के निवास के लिए बनी हुई गुफाओं में सं. 2,5,8,11 और 12 मुख्य हैं। सं. 12 जिसे तिनथाल कहते हैं लगभग 50 फुट ऊंची है। इसके भीतरी भाग में बुद्ध की सुंदर मूर्तियां हैं। अजंता के विपरीत यहां की बौध्द-गुफाओं में चैत्यवातायन नहीं है। बौद्ध गुफाओं की संख्या 12 है। ये पहाड़ी के दक्षिणी पार्श्व में अवस्थित हैं। इनके आगे 17 हिंदू गुफा-मंदिर हैं जिनमें से अधिकांश दक्षिण के राष्ट्रकूट नरेशों के समय (7वीं-8वीं शती ई.) बने थे। इनमें कैलाश मंदिर, प्राचीन भारतीय वास्तु एवं तक्षण-कला का भारत भर में शायद सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। यह समूचा मंदिर गिरिपार्श्व में से तराशा गया है। इसके भीमकाय स्तंभ, विस्तीर्ण प्रांगण, विशाल वीथियों तथा दालान, मूर्ति कारी से भरी छतें, और मानव और विविध जीव जंतुओं की मूर्तियां- सारा वास्तु और तक्षण का स्थूल और सूक्ष्म काम आश्चर्यजनक जान पड़ता है। यहां की शिल्पियों ने विशालकाय पहाड़ी को और उसके विभिन्न भागों को तराशकर मूर्तियों की आकृतियां, उनके अंग प्रत्यगों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवरण, यहां तक कि हाथियों की आंखों की पलकें तक इतने अद्भुत कौशल से गढी हैं कि दर्शक आत्मविभोर होकर उन महान कलाकारों के सामने श्रृध्दा से नतमस्तक हो जाता है। कैलाश मंदिर अथवा रंग महल के प्रांगण की लंबाई 276 फुट और चौड़ाई 154 फुट है। मंदिर के चार खंड और कई प्रकोष्ठ हैं और इसका शिखर भी कई तलों से मिलकर बना है। जैसा अभी कहा गया है, संपूर्ण मंदिर पहाड़ी के कोड़ में से तराश कर बना है, जिससे शिल्पकला के इस अद्भुत कृत्य की महत्ता सिद्ध होती है। सिर्फ छेनी और हथौडे की सहायता से यहां के कर्मठ और श्रध्दावान् शिल्पियों ने देव,देवी, यक्ष, गंधर्व, स्त्री-पुरुष, पशुपक्षी, पुष्पपत्र आदि को वज्रकठोर पहाड़ी के भीमकाय अंतराल में से काटकर सुकुमारता एवं सौंदर्य की जो अनोखी सृष्टि की है वह शिल्प के इतिहास में अभूतपूर्व है।
उदाहरण के लिए-
एक लंबी पंक्ति में अनेक हाथियों की मूर्तियां हैं जो चट्टानों में से काटकर बनाई गई हैं। इनकी आंखों की बारीक पलकें तक भी शैल से काटकर बनाई गई हैं। यह सूक्ष्मता और सुकुमारता की दृष्टि से असंभव जान पड़ता है ।
हिंदू मंदिर
इन गुफ़ाओं के अन्य हिंदू मंदिरों में रवण की खाई, देववाड़ा, दशावतार, लम्बेश्वर, रामेश्वर, नीलकंठ, धुमार-लेण या सीता चावड़ी विशेष उल्लेखनीय हैं। 8वीं शती ई. में क्षंतिदुर्ग राष्ट्रकूट ने दशावतार मंदिर का निर्माण किया था। इसमें विष्णु के दशावतारों की कथा मूर्तियों के रूप में अंकित है। इनमें गोवर्धनधारी कृष्ण, शेषशायी नारायण, गरुडाधिद्ष्ठ्त विष्णु, पृथ्वी को धारण करने वाले वराह, बलि से याचना करते हुए वामन और हिरण्यकशिपु का संहार करते हुए नृसिंह कला की दृष्टि से श्रेष्ठ हैं।
जैन मंदिर इंद्रसभा
9वीं शती में राष्ट्रकूटों की सत्ता के क्षीण होने पर इलौरा पर जैन-शासकों का आधिपत्य स्थापित हुआ। यहां के पांच जैन-मंदिर इन्हीं के द्वारा बनवाए गये थे। इनमें इंद्रसभा नामक भवन विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसे छोटा कैलास मंदिर भी कहा जाता है। इसके प्रांगण, छतों व स्तम्भों की सुंदर कारीगरी और सजीव देवप्रतिमाएं सभी अनुपम हैं। 24 तीर्थकरों की अनेक मूर्तियों से यह मंदिर सुसज्जित है। समाधिस्थ पार्श्वनाथ की प्रतिमा के ऊपर शेषनाग के फनों की छाया है और कई दैत्य उनकी तपस्या भंग करने का विफल प्रयास कर रहे हैं। इलापुर में घुश्मेश्वर तीर्थ का उल्लेख आदि शंकराचार्य ने किया है।[2] प्राकृत साहित्य में एलउर नाम भी प्राप्त होता है। धर्मोपदेशमाला नामक जैन ग्रंथ (858 ई.) में उल्लिखित समयज्ञ मुनि की कथा से ज्ञात होता है कि उस समय एलउर काफी प्रसिध्द नगर था-
'तओ नंदणाहिहाणो साहू कारणांतरेण पट्ठविओ गुरुणा दक्खिणावहं। एगागी वच्चं तो अप ओसे पत्तो एलउरं'।[3]
इलौरा की ख्याति 17वीं शती तक भी थी। जैन कवि मेघविजय ने मेघदूत की छाया पर जो ग्रंथ रचा था उसमें इलौरा के तत्कालीन वैभव का वर्णन है। एक अन्य जैन विद्वान विबुध विमलसूर ने इलौरा की यात्रा की थी। जैन मुनि शीलविजय ने 18वीं शती में इलौरा की यात्रा की थी-
'इलौरा अति कौतक वस्यूं जोतां हीयँडु अति उल्हस्यूं विश्वकरमा कीधुं मंडाण त्रिभुवन भातबणु सहिनाण'[4]
इससे 18वीं शती में भी इलौर की अद्भुत कला का विश्वकर्मा द्वारा निर्मित माना जाता था, यह तथ्य प्रमाणित होता है। अजंता के विपरीत इलौरा के गुफा मंदिर इतिहास के सभी युगों में विश्रुत तथा विख्यात रहे हैं।[5]
इन्हें भी देखें: एलोरा की गुफाएं एवं अजंता की गुफाएं
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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