द्वारकानाथ कोटणीस
द्वारकानाथ कोटणीस
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पूरा नाम | द्वारकानाथ शान्ताराम कोटणीस |
जन्म | 10 अक्टूबर, 1910 |
जन्म भूमि | शोलापुर, मुम्बई |
मृत्यु | 9 दिसम्बर, 1942 |
मृत्यु स्थान | चीन |
अभिभावक | पिता- शान्ताराम कोटणीस |
पति/पत्नी | गुओ क्विंग लांग |
संतान | पुत्र- यिनहुआ |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | चिकित्सा |
विद्यालय | सेठ जी. एस. मेडिकल कॉलेज, मुम्बई |
प्रसिद्धि | चिकित्सक व सेवक |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | एक और चीनी अधिकारी ने कहा था कि- "डॉ. कोटणीस को भविष्य में वर्तमान से भी ज़्यादा सम्मान मिलेगा, क्योंकि उन्होंने भविष्य को संवारा है।" |
द्वारकानाथ शान्ताराम कोटणीस (अंग्रेज़ी: Dwarkanath Shantaram Kotnis, जन्म- 10 अक्टूबर, 1910, शोलापुर, मुम्बई; मृत्यु- 9 दिसम्बर, 1942, चीन) भारतीय चिकित्सक थे। वह दूसरे विश्व युद्ध के सिपाहियों का इलाज करते-करते प्राण त्याग देने वाले निःस्वार्थ सेवक थे। द्वारकानाथ कोटणीस को द्वितीय चीन-जापान युद्ध (1937-1945) के दौरान उनकी सेवाओं के लिए चीन में बहुत सम्मान के साथ याद किया जाता है। भारत और चीन की मैत्री का प्रतीक माने जाने वाले डॉ. द्वारकानाथ कोटणीस उन पाँच युवा डॉक्टरों में से एक थे, जिन्हें 1938 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान चीन में राहत-कार्यों के लिए भेजा गया था। चीन में अपनी सेवाओं के दौरान मात्र 32 साल की उम्र में डॉक्टर द्वारकानाथ कोटणीस की मृत्यु हो गई थी। उनकी मौत के सालों बाद भी चीन के लोग उनकी निःस्वार्थ सेवा और काम के प्रति समर्पण के लिए उन्हें आज भी याद करते हैं।
परिचय
महाराष्ट्र के शोलापुर में 10 अक्टूबर, 1910 को जन्में द्वारकानाथ कोटणीस ने यूनिवर्सिटी ऑफ़ बॉम्बे के सेठ जी. एस. मेडिकल कॉलेज से मेडिसिन की पढ़ाई पूरी की थी। चीन में रहने के दौरान मरीजों की सेवा करने वाली एक नर्स गुओ क्विंग लांग से द्वारकानाथ कोटणीस ने विवाह किया। गुओ से उनकी पहली मुलाकात डॉ. नार्मन बैथ्यून के मकबरे के उद्घाटन के दौरान हुई थी और वह उनसे काफी प्रभावित हुईं। गुओ को यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि कोटनिस चीनी भाषा बोल सकते थे और कुछ हद तक लिख भी सकते थे। युद्ध के विनाश के उस माहौल में भी उन दोनों का प्यार परवान चढ़ा और उन्होंने दिसंबर 1941 में विवाह कर लिया। चीन में ही उनके पुत्र यिनहुआ पैदा हुए।
द्वारकानाथ कोटणीस बिना सोए कई दिनों तक चीनी सैनिकों का इलाज करते रहे, जिसके कारण उन्हें मिर्गी का दौरा पड़ा और 1942 में उनकी सिर्फ 32 साल की उम्र में मौत हो गई। उनकी मौत के बाद उनकी पत्नी कई बार अपने पति के परिजनों से मिलने भारत आईं। फिर डॉक्टर कोटनिस की याद में उन्होंने 'माई लाइफ विद कोटनिस' भी लिखी, जिसमें उन्होंने लिखा है- 'भारत और भारत के लोग बहुत अच्छे हैं। शायद यह सब वहां की सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है।' साल 2011 में डॉक्टर कोटनिस की पत्नी गुओ क्विंगलांग का देहांत हो गया।[1]
चीन प्रस्थान
साल 1938 में जापान ने चीन पर हमला बोल दिया था। उस समय चीन के कम्युनिस्ट लीडर जनरल ने जवाहरलाल नेहरू से मदद मांगी। उन्होंने भारत से कुछ डॉक्टर घायल सैनिकों और जन-साधारण के इलाज हेतु भेजने के लिए कहा। इसके लिए सुभाषचंद्र बोस ने भी लोगों से एक पब्लिक प्रेस कांफ्रेंस के ज़रिये अपील की थी। उन्होंने डॉक्टरों की एक टीम, एम्बुलेंस और साथ ही कुछ आर्थिक मदद भी भारत से चीन भिजवाई। इस टीम में पाँच डॉक्टर थे, जिनमें से एक डॉ. द्वारकानाथ कोटणीस भी थे।
सितम्बर, 1938 में यह टीम चीन पहुंची, जहाँ चीन के सभी बड़े नेताओं ने उनका स्वागत किया। यह टीम उस समय चीन के लिए किसी भी दूसरे एशियाई देश से आने वाली पहली मदद थी। इसके बाद डॉ. कोटणीस ने लगभग पाँच सालों तक चीन के लोगों की बिना किसी स्वार्थ के सेवा की। डॉ. द्वारकानाथ कोटणीस की बहन ने एक बार बताया था कि- "उनका भाई नियमित रूप से परिवार को पत्र लिखता था। हमेशा ही उनके पत्रों से ख़ुशी झलकती थी। उन्होंने कभी भयानक युद्ध की स्थितियों या फिर अपनी परेशानियों के बारे में नहीं लिखा। दूसरों की सेवा और अपना धर्म निभाते हुए वे बहुत खुश थे।"
बताया जाता है कि कभी-कभी तो डॉ. कोटणीस ने लगातार 72 घंटों तक युद्ध में घायल सैनिकों के ऑपरेशन कर, उनकी जान बचायी। उन्होंने सैंकड़ों सैनिकों का इलाज किया और साथ ही आम चीनी लोगों के लिए मसीहा बने रहे। उनकी इस सद्भावना और कर्तव्यनिष्ठा से प्रभावित होकर ही चीनी नर्स गुओ क्विंग लांग उन्हें पसंद करने लगी थीं।
कर्तव्यनिष्ठा
डॉ. द्वारकानाथ कोटणीस बिना अपनी परवाह किये लोगों की सेवा करते रहते थे। उस समय चिकित्सा और उपचार के सीमित साधन थे। राहत शिविरों में प्रकाश तथा साधनों के अभाव में लैम्पों की रौशनी में काम करना बेहद कठिन था, किंतु उनका सेवा-भाव इतना प्रबल था कि वह अधिक-से-अधिक सैनिकों की प्राण रक्षा करना चाहते थे। एक भारतीय डॉक्टर को इस तरह सच्ची लगन से काम करते देखकर चीनी लोग भी उनकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह पाते थे।
मृत्यु
युद्ध के तनावपूर्ण माहौल में लगातार काम करते हुए उनकी तबीयत बिगड़ने लगी थी। नींद की कमी और अत्यधिक थकान के चलते उन्हें मिर्गी के दौरे पड़ने लगे। धीरे-धीरे यह बिमारी इतनी बढ़ गयी कि डॉ. द्वारकानाथ कोटणीस को बचाना मुश्किल हो गया। 1942 में 9 दिसंबर को केवल 32 साल की उम्र में उनका देहांत हो गया।
डॉ. द्वारकानाथ कोटणीस ने देश, जाति व धर्म की सीमाओं से परे जाकर मानवता की सच्ची सेवा में अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। उनकी मृत्यु पर चीनी नेता माओ ज़ेडोंग ने कहा- सेना ने अपने सहायक हाथ को खो दिया और देश ने अपने एक दोस्त को खोया है।
एक और चीनी अधिकारी ने कहा था कि- "डॉ. कोटणीस को भविष्य में वर्तमान से भी ज़्यादा सम्मान मिलेगा, क्योंकि उन्होंने भविष्य को संवारा है।"
डॉ. कोटणीस को चीन में बहुत ही सम्मान के साथ याद किया जाता है। उनके सम्मान में चीन में डाक टिकट जारी किए गए हैं। उनकी याद में वहां स्मारक भी बनाए गए हैं। इतना ही नहीं कुछ समय पहले डॉ. कोटणीस के गाँव में जब सुखा पड़ा तो चीनी सरकार ने मदद के लिए 30 लाख रूपये भी भिजवाए। साल 2017 में चीन ने वह सांत्वना पत्र भी उनके परिवार को ससम्मान दिया, जिसे उस समय चीन के लीडर माओ ने अपने हाथ से डॉ. कोटणीस की मृत्यु के बाद उनके लिए लिखा था।[2]
भारत के इस महान डॉक्टर की कहानी को सिनेमा के परदे पर भी उतारा गया। फ़िल्मकार वी. शांताराम ने साल 1946 में उनके जीवन पर आधारित ‘डॉ. कोटणीस की अमर कहानी’ नामक फ़िल्म बनाई थी। इस फ़िल्म की पटकथा डॉ. कोटनिस पर लिखे गए उपन्यास 'And One Did Not Come Back' पर आधारित थी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 75 साल बाद फिर भारतीय डॉक्टर का सम्मान करेगा चीन (हिंदी) navbharattimes.indiatimes.com। अभिगमन तिथि: 16 मई, 2020।
- ↑ द्वारकानाथ शान्ताराम कोटणीस (हिंदी) thebetterindia.com। अभिगमन तिथि: 16 मई, 2020।