चित्रकला

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कृष्ण जन्म वसुदेव, कृष्ण को कंस के कारागार मथुरा से गोकुल ले जाते हुए, द्वारा- राजा रवि वर्मा

आत्माभिव्यक्ति मानव की प्राकृतिक प्रवृत्ति है। अपने अंदर के भाव प्रकट किए बिना वह रह नहीं सकता। और, भावों का आधार होता है, मनुष्य का परिवेश। विद्वानों की मान्यता है कि आदिम काल में जब भाषा और लिपि-चिह्नों का आविर्भाव नहीं हुआ था, रेखाओं के संकेत से ही व्यक्ति स्वयं को अभिव्यक्त करता था। गुफाओं के अंदर आज जो शिलाचित्र मिलते हैं, वे ही चित्रकला के आदि प्रमाण हैं। तब का मानवजीवन पशुओं आदि के अधिक निकट था, जीवन के अन्य पक्ष अभी विकसित होने थे, इसलिए तत्कालीन भारतीय चित्रांकन भी इतने तक ही सीमित मिलता है।

भारत की चित्रकला

  • सभ्यता के विकास के साथ परिस्थितियाँ बदलती गई। भारत धर्म और आध्यात्म की ओर आकृष्ट हुआ। यहाँ बाह्य सौंदर्य की अपेक्षा आंतरिक भावों को प्रधानता दी गई। इसलिए भारत की चित्रकला में भाव-भंगिमा, मुद्रा तथा अंगप्रत्यंगों के आकर्षण के अंदर से भावपक्ष अधिक स्पष्ट उभरकर सामने आया।
  • कालांतर में राजनीतिक कारणों से भारत की चित्रकला पर ग्रीक कला का प्रभाव पड़ा। फिर आया भारतीय संस्कृति का स्वर्ण युग। इस युग की चित्रकला की सर्वोत्तम कृतियाँ हैं- अजंता के चित्र, देवी-देवताओं की मूर्तियाँ आदि जिनको देखकर लोग आश्चर्यचकित रह जाते हैं।
  • इस्लाम धर्म चित्रकला के प्रति उदासीन ही नहीं वरन् वर्जना-भाववाला रहा है। इसलिए मुस्लिम शासन के आरंभिक काल में भारतीय चित्रकला का विकास रुक सा गया। किंतु अकबर के समय में इसमें परिवर्तन हुआ। धर्मग्रंथों के अलंकरण के रूप में चित्रकला फिर पनपने लगी। साथ ही फ़ारसी शैली का भी उस पर प्रभाव पड़ा। मुग़ल शासन के अवसान के बाद यह चित्रकला देशी राज्यों तक सीमित रह गई। इसी बीच राजस्थानी शैली, कांगड़ा या पहाड़ी शैली के चित्र बने। राग-रागनियों के चित्रों के निर्माण का भी यही समय है।
  • अंग्रेज़ यथार्थवादी भौतिक संस्कृति लेकर भारत आए। उनकी चित्रकला बाह्य को ही यथावत उतारती है। इसका प्रभाव भारत के चित्रकारों पर भी पड़ा। रवि वर्मा (1848-1905 ई.) के चित्र इसके प्रमाण हैं।
  • वर्तमान समय में अभिव्यक्ति और अलंकरण के आधार पर चित्रकला दो मोटे भागों में बांटी जाती है- 'फ़ाइन आर्ट' जिसमें भावाभिव्यक्ति की प्रधानता है और 'कामर्शियल आर्ट' जो अलंकरण प्रधान है।

इतिहास

  • भारतीय चित्रकला का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। यद्यपि आधुनिक शैली की चित्रकला को अधिक पुरानी घटना नहीं माना जाता, परंतु भारत में चित्रकला के बीज तो आदिमानव ने ही डाल दिये थे। पाषाण काल में ही मानव ने गुफ़ा चित्रण करना प्रारम्भ कर दिया था, जिसके प्रमाण होशंगाबाद और भीमवेतका आदि स्थानों की कंदराओं और गुफ़ाओं में मिले हैं। इन चित्रों में शिकार, स्त्रियों तथा पशु-पक्षियों आदि के दृश्य चित्रित हैं।
  • सिंधु घाटी सभ्यता में भवनों के ध्वस्त हो जाने के कारण चित्रकला के प्रमाण स्पष्ट नहीं हैं। तत्पश्चात् प्रथम सदी ईसा पूर्व से चित्रकला के अधिक स्पष्ट प्रमाण मिलना शुरू हो गये। अजंता की गुफ़ाओं में की गई चित्रकारी कई शताब्दियों में तैयार हुई थी, परंतु इसकी सबसे प्राचीन चित्रकला ई. पू. प्रथम शताब्दी की है। इन चित्रों की विषय वस्तु भगवान बुद्ध के विभिन्न जन्मों की कथाओं अर्थात् जातक को बनाया गया है।
  • छठी शताब्दी में चालुक्यों द्वारा बादामी में, सातवीं शताब्दी में पल्लवों द्वारा पनमलै में, नवीं शताब्दी में पांड्यों द्वारा सित्तन्नवासल में बारहवीं बारहवीं शताब्दी में चोलों द्वारा तंजौर में तथा सोलहवीं शताब्दी के विजयनगर साम्राज्य के शासकों द्वारा लेपाक्षी में भित्ति चित्रकारी के उत्कृष्ट नमूने तैयार करवाये गये। इसी प्रकार केरल में भी इस कला के कई उत्कृष्ट उदाहरण मिलते हैं। बंगाल के पाल शासकों के काल दसवीं और बारहवीं शताब्दी में ताड़ के पत्तों तथा बाद में काग़ज़ पर लघु चित्रकारी का प्रचलन बढ़ा।
  • मुग़ल काल की चित्रकला अपनी उत्कृष्टता के लिए विश्व विख्यात है। अकबर के दरबार में अनेक फ़ारसी तथा भारतीय चित्रकार मौजूद थे। इस काल की कला की एक उल्लेखनीय विशेषता थी एक ही चित्र को विभिन्न कलाकारों द्वारा मिलकर तैयार किया जाना। एक कलाकार चित्र का रेखांकन करता था, दूसरा उसमें रंग भरता था और तीसरा तफसील तैयार करता था। अकबर ने रामायण और महाभारत का अनुवाद तैयार कराके उसे चित्रकारी से सजाने का आदेश दिया था। जहाँगीर के काल में चित्रकला अपनी पराकाष्ठा कर पहुँच गई।
  • मुग़ल दरबार में अनेक नये चित्रकला भी प्रशिक्षित हुए और वे विभिन्न राजपूत राज्यों की राजधानियों में अपनी कला का प्रदर्शन करने लगे। इन चित्रकारों ने देश की महान् कथाओं और आख्यानों राम तथा कृष्ण की कथाओं, भागवत तथा गीतगोविंद के आख्यानों आदि का आकर्षक चित्रण किया। किशनगढ़ शैली तथा कोटा शैली ऐसी ही चित्रकला शैली थी। इसी प्रकार हिमालय, कुल्लू और कांगड़ा घाटियों में भी उत्कृष्ट चित्रकला का विकास हुआ।

चित्रकार

परंतु ब्रिटिश काल में चित्रकला के विकास में कुछ मंदी आ गयी। इसके बाद भारत के नवजागरण से प्रभावित चित्रकला का नया रूप सामने आया। इसके मुख्य प्रवर्तक रहे हैं- रविवर्मा, अवनीन्द्रनाथ ठाकुर, नंदलाल बोस, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, यामिनी राय, असित हालदार, अमृता शेरगिल आदि ने धीरे-धीरे इस कला को पुन: प्रगति की लीक पर लाने का प्रयास किया। इस युग से कला राजपूताना या कांगड़ा शैली के नख-शिख चित्रण से हटकर रंग और रेखाओं के माध्यम से भावनाओं को व्यक्त करने की ओर अभिमुख हुई और आज के भारतीय चित्रकारों की कृतियाँ इस प्रयोगवादी शैली से प्रभावित हैं। तत्पश्चात् गगनेंद्रनाथ टैगोर, अमृता शेरगिल, नंदलाल बोस, जैमिनी राय तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि कलाकारों ने भारतीय चित्रकला को नये आयाम प्रदान किये। मक़बूल फिदा हुसैन, चित्रकला के प्रमुख उन्नायक हैं।

भारतीय चित्रकला शैलियाँ

'जमुना' (गोपियों के साथ कृष्ण), द्वारा- राजा रवि वर्मा

जैन चित्रकला

  • 7वीं से 12वीं शताब्दी तक सम्पूर्ण भारत को प्रभावित करने वाली शैलियों में जैन शैली का प्रमुख स्थान है।
  • जैन चित्रकला शैली में जैन तीर्थंकरों-पार्श्वनाथ, नेमिनाथ, ऋषभनाथ, महावीर स्वामी आदि के चित्र सर्वाधिक प्राचीन हैं।
  • जैन चित्रकला का नमूना जैन ग्रंथों के ऊपर लगी दफ्तियों या लकड़ी की पटरियों पर भी मिलता है जिसमें सीमित रेखाओं के माध्यम से तीव्र भावाभिव्यक्ति तथा आंखों के बड़े सुन्दर चित्र बनाये गये है।

पाल चित्रकला

  • 9वीं से 12वीं शताब्दी तक बंगाल में पाल वंश के शासकों धर्मपाल और देवपाल के शासन में विशेष रूप से विकसित होने वाली पाल शैली की चित्रकला की विषयवस्तु बौद्ध धर्म से प्रभावित रही है।
  • प्रारम्भ में ताड़ पत्र और बाद में काग़ज़ पर बनाये जाने वाले चित्रों में वज्रयान बौद्ध धर्म के दृश्य चित्रित हैं।

अपभ्रंश चित्रकला

  • अपभ्रंश शैली 11 वीं से 15 वीं शताब्दी के बीच प्रारम्भ में ताड़ पत्रों पर और बाद में काग़ज़ पर चित्रित हुई।
  • अपभ्रंश शैली के चित्रों की सर्वप्रमुख विशेषता है:- चेहरे की विशेष बनावट, नुकीली नाक तथा आभूषणों की अत्यधिक सज्जा।

मुग़ल चित्रकला

पटना या कम्पनी चित्रकला

  • जनसामान्य के आम पहलुओं के चित्रण के लिए प्रसिद्ध पटना या कम्पनी चित्रकला शैली का विकास मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद हुआ जब चित्रकारों ने पटना एवं उसके समीपवर्ती क्षेत्र को अपना कार्य-क्षेत्र बनाया।
  • इन चित्रकारों द्वारा चित्र बनाकर ब्रिटेन भी भेजे गये जो आज भी वहाँ के संग्रहालयों में विद्यमान हैं।

दक्कन चित्रकला

  • दक्कन चित्रकला शैली का प्रधान केन्द्र बीजापुर था परंतु इसका विस्तार गोलकुण्डा एवं अहमदनगर राज्यों में भी था।
  • 'रागमाला' के चित्रों का चित्रांकन दक्कन चित्रकला शैली में विशेष रूप से किया गया है।

गुजरात चित्रकला

  • गुर्जर या गुजरात शैली के नाम से अभिहित की जाने वाली चित्रकला की इस शैली में पर्वत, नदी, सागर, पृथ्वी, अग्रि, बादल, क्षितिज, वृक्ष आदि विशेषरूप से बनाये गये हैं।
  • गुजरात चित्रकला शैली के चित्रों की प्राप्ति मारवाड़, अहमदनगर, मालवा, जौनपुर, अवध, पंजाब, नेपाल, उड़ीसा, तक होती है। जिससे सिद्ध होता है कि इसका प्रभाव क्षेत्र काफ़ी विस्तृत था।

राजपूत चित्रकला

  • मुग़ल काल के अंतिम दिनों में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक राजपूत राज्यों की उत्पत्ति हो गई।
  • राजपूत चित्रकला में मेवाड़, बूँदी, मालवा आदि उल्लेखनीय हैं। इन राज्यों में विशिष्ट प्रकार की चित्रकला शैली का विकास हुआ।
  • इन विभिन्न शैलियों में कुछ विशेषताएँ, उभयनिष्ट दिखाई दीं, जिसके आधार पर उन्हें 'राजपूत' शैली नाम प्रदान किया गया।
  • चित्रकला की यह शैली काफ़ी प्राचीन प्रतीत होती है किंतु इसका वास्तविक स्वरूप 15वीं शताब्दी के बाद ही प्राप्त होता है।
  • यह वास्तव में राजदरबारों से प्रभावित शैली है जिसके विकास में कन्नौज, बुन्देलखण्ड तथा चन्देल राजाओं का सराहनीय योगदान रहा है।
  • राजपूत चित्रकला शैली विशुद्ध हिन्दू परम्पराओं पर आधारित है।

पहाड़ी चित्रकला

  • राजपूत शैली से ही प्रभावित पहाड़ी चित्रकला हिमालय के तराई में स्थित विभिन्न क्षेत्रों में विकसित हुई। परंतु इस पर मुग़लकालीन चित्रकला का भी प्रभाव दृष्टिगत होता है।
  • पाँच नदियों-सतलुज, रावी, व्यास, झेलम तथा चिनाव का क्षेत्र पंजाब, तथा अन्य पर्वतीय केन्द्रों जैसे जम्मू, कांगड़ा, गढ़वाल आदि में विकसित इस चित्रकला शैली पर पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों की भावानाओं तथा संगीत व धर्म सम्बन्धी परम्पराओं की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है।
  • पहाड़ी शैली के चित्रों में प्रेम का विशिष्ट चित्रण दृष्टिगत होता हैं। कृष्ण-राधा के प्रेम के चित्रों के माध्यम से इनमें स्त्री-पुरुष प्रेम सम्बंधों को बड़ी बारीकी एवं सहजता से दर्शाने का प्रयास किया गया है।

नाथद्वार चित्रकला

  • 1671 में ब्रज से श्रीनाथजी को मूर्ति के नाथद्वार लाये जाने के पश्चात् ब्रजवासी चित्रकारों द्वारा मेवाड़ में ही चित्रकला की स्वतंत्र नाथद्वारा शैली का विकास किया गया है।
  • इस शैली में बने चित्रों में श्रीनाथजी की प्राकट्य छवियों, आचार्यों के दैनिक जीवन सम्बंधी विषयों तथा कृष्ण की विविध लीलाओं को दर्शाया गया है।

सिक्ख चित्रकला

  • सिक्ख शैली का विकास लाहौर स्टेट के राजा महाराजा रणजीत सिंह के शासन काल (1803 से 1839) में हुआ।
  • सिक्ख शैली के विषयों का चयन पौराणिक महाकाव्यों से किया गया है जबकि इसका स्वरूप पूर्णत: भारतीय है।

बशोली चित्रकला

पुस्तक चित्रण की पहाड़ी शैली, जो भारतीय पहाड़ी राज्यों में 17वीं शताब्दी के अंत व 18वीं शताब्दी में फली-फूली बशोली चित्रकला अपने रंगों और रेखाओं की सजीवता के लिए जानी जाती है। यद्यपि इस शैली का नाम एक छोटे से स्वतंत्र राज्य बशोली के नाम पर पड़ा, जो इस शैली का मुख्य केंद्र है, इसके नमूने क्षेत्र में पाए जाते हैं।

मेवाड़ की चित्रकला

मेवाड़ की चित्रकला काफ़ी लम्बे समय से ही लोगों का ध्यान आकर्षित करती रही है। यहाँ चित्रांकन की अपनी एक विशिष्ट परंपरा है, जिसे यहाँ के चित्रकार पीढ़ियों से अपनाते रहे हैं। 'चितारे' अपने अनुभवों एवं सुविधाओं के अनुसार चित्रण के कई नए तरीके भी खोजते रहे। रोचक तथ्य यह है कि यहाँ के कई स्थानीय चित्रण केन्द्रों में वे परंपरागत तकनीक आज भी जीवित हैं। रेखा, रंग, रूप एवं संयोजन का विश्लेषणात्मक प्रयोग मेवाड़ चित्र शैली में संतुलित ढ़ंग से किया गया है। यही मेवाड़ के परंपरागत चित्रकारों की कुशल सुझ-बुझ का प्रतीक है। चित्र संयोजन के साथ आत्मिक सात्विकता के आधार पर श्रृंगारिक एवं रीतिकालीन राग-रागिनियों का चित्रण हुआ है, उनमें भी वही सात्विक कौमार्य भाव है, जिन्हें दर्शक ईश्वरीय गुणों के अनुरूप मान लेता है। यह इस चित्र शैली के चित्रों की मनोवैज्ञानिक संयोजन प्रणाली की विशेषता है। परंपरागत मेवाड़ चित्रशैली में सभी प्रेरक तत्व इस चित्रशैली के कलावादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हैं।


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