महाभारत आदि पर्व अध्याय 43 श्लोक 1-21

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त्रिचत्‍वारिंश (43) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: त्रिचत्‍वारिंश अध्‍याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

तक्षक बोला—कश्यप ! यदि इस जगत् में मेरे डँसे हुए रोगी की कुछ भी चिकित्सा करने में तुम समर्थ हो तो मेरे डँसे हुए इस वृक्ष को जीवित कर दो। द्विजश्रेष्ठ ! तुम्हारे पास जो उत्तम मन्त्र का बल है, उसे दिखाओ और यत्न करो। लो, तुम्हारे देखते-देखते इस वटवृ़क्ष को मैं भस्म कर देता हूँ। कश्यप ने कहा—नागराज ! यदि तुम्हें इतना अभिमान है तो इस वृक्ष को डँसोे। भुजगम ! तुम्हारे डँसे हुए इस वृक्ष को मैं अभी जीवित कर दूँगा। उग्रश्रवाजी कहते हैं—महात्‍मा कश्यप के ऐसा कहने पर सर्पों में श्रेष्ठ नागराज तक्षक ने निकट जाकर बरगद के वृक्ष को डँस लिया। उस महाकाय विषधर सर्प के डँसते ही उसके विष से व्याप्त हो वह वृक्ष सब ओर से जल उठा। इस प्रकार उस वृक्ष को जलाकर नागराज पुनः कश्यप से बोला—‘द्विजश्रेष्ठ ! अब तुम यत्न करो और इस वृ़क्ष को ज़िला दो।' उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनकजी ! नागराज के तेज से भस्म हुए उस वृ़क्ष की सारी भस्म राशि को एकत्र करके का(कश्यप ने कहा— ‘नागराज ! इस वनस्पति पर आज मेरी विद्या का बल देखो। भुजगमे ! मैं तुम्हारे देखते-देखते इस वृ़क्ष को जीवित कर देता हूँ।' तदनन्तर सौभाग्यशाली विद्वान् द्विजश्रेष्ठ कश्यप ने भस्म राशि के रूप में विद्यमान उस वृ़क्ष को विद्या के बल से जीवित कर दिया। पहले उन्होंने उसमें से अंकुर निकाला, फिर उसे दो पत्ते का कर दिया। इसी प्रकार क्रमशः पल्लव शाखाओं, प्रशाखाओं से युक्त उस महान् वृक्ष को पुनः पूर्ववत खड़ा कर दिया। महात्मा कश्यप द्वारा जलाये हुए उस वृक्ष को देखकर तक्षक ने कहा-‘ब्राम्हन ! तुम जैसे मन्त्रवेत्ता में ऐसे चमत्कार का होना कोई अत: बात नहीं हैं। ‘तपस्या के धनी द्विजेन्द्र ! जब तुम मेरे या मेरे जैसे दूसरे सर्प के विष को अपनी विद्या के बल से नष्ट कर सकते हो तो बताओ, तुम कौन- सा प्रयोजन सिद्ध करने की इच्छा से वहाँ जा रहे हो। ‘उस श्रेष्ठ राजा से जो फल प्राप्त करना तुम्हें अभीष्ट है, यह अत्यन्त दुर्लभ हो तो भी मैं ही तुम्हें दे दूँगा। ‘विप्रवर ! महाराज परीक्षित ब्राह्मण के शाप से तिरस्कृत हैं और उनकी आयु भी समाप्त हो चली है। ऐसी दशा में उन्हें जिलाने के लिये चेष्टा करने पर तुम्‍हें सिद्धि प्राप्त होगी, इसमें संदेह है। ‘यदि तुम सफल न हुए तो तीनों लोकों में विख्यात एवं प्रकाशित तुम्हारा यश किरणरहित सूर्य के मसान इस लोक से अदृश्य हो जायेगा। कश्यप ने कहा—नागराज तक्षक ! मैं तो वहाँ धन के लिये ही जाता हूँ, वह तुम्हीं मुझे दे दो तो उस धन को लेकर मैं घर लौट जाऊंगा। तक्षक बोला—द्विजश्रेष्ठ ! तुम राजा परीक्षित से जितना धन पाना चाहते हो, उससे अधिक मैं ही दे दूँगा, अतः लौट जाओ। उग्रश्रवाजी कहते हैं—तक्षक की बात सुनकर परम बुद्धिमान महातेजस्वी विप्रवर कश्यप ने परीक्षित के विषय में कुछ देर ध्यान लगाकर सोचा। तेजस्वी कश्यप दिव्यज्ञान से सम्पन्न थे। उस समय उन्होंने जान लिया कि पाण्डववंशी राजा परीक्षित की आयु अब समाप्त हो गयी है, अतः वे मुनिश्रेष्ठ तक्षक से अपनी रुचि के अनुसार धन लेकर वहाँ से लौट गये। महात्मा कश्यप के समय रहते लौट जाने पर तक्षक तुरंत हस्तिनापुर नगर में जा पहुँचा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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