महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 36 श्लोक 1-19

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षट्-त्रिंश (36) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: पञ्चत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

कर्ण का युद्ध के लिये प्रसथान और शल्य से उसकी बातचीत

दुर्योधन बोला-कर्ण ! ये मद्रराज शल्य तुम्हारा सारथ्यकर्म करेंगे। देवराज इन्द्र के सारथि मातलि के समान ये श्रीकृष्ण से भी श्रेष्ठ संचालक हैं। जैसे मातलि इन्द्र के घोड़ों से जुते हुए रथ की बागडोर सँभालते हैं,उसी प्रकार ये तुम्हारे रथ के घोड़ों को काबू में रखेंगे। जब तुम योद्धा बनकर रथ पर बैठोगे और मद्रराज शल्य सारथि के रूप में प्रतिष्ठित होंगे,उस समय वह श्रेष्ठ रथ निश्चय ही युद्वस्थल में कुन्ती पुत्रों को पराजित कर देगा।

संजय कहते हैं-राजन् ! तदनन्तर दुर्योधन ने प्रातःकाल युद्ध उपस्थित होने पर पुनः वेगशाली मद्रराज शल्य से कहा-। ‘मद्रराज ! आप संग्राम में कर्ण के इन उत्तम घोड़ों को वश में कीजिये। आपसे सुरक्षित होकर राधापुत्र कर्ण निश्चय ही अर्जुन को जीत लेगा। भारत ! दुर्योधन के ऐसा करने पर शल्य ने रथ का स्पर्श करके कहा- ‘तथास्तु। ‘जब शल्य ने सारथि होना पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया,तब कर्ण ने प्रसन्नचित होकर बारंबार अपने पूर्व सारथि से शीघ्रता पूर्वक कहा- ‘सूत ! तुम मेरा रथ सजाकर तैयार करो। तब सारथि ने गन्धर्वनगर के समान विशाल, विजयशील श्रेष्ठ और मंगलकारक राि को विधिपूर्वक सुसज्जित करके सूचित किया- ‘स्वामिन् ! आपकी जय हो ! रथ तैयार है। रथियों में श्रेष्ठ कर्ण ने वेदज्ञ प्ररोहित द्वारा रहले से ही जिसका मांगलिक कृत्य सम्पन्न कर दिया था,उस रथ की विधि पूर्वक पूजा और प्रदक्षिणा की। तत्पश्चात् सूर्यदेव का प्रयत्न पूर्वक उपस्थान करके पास ही खड़े हुए मद्रराज से कहा ‘पहले आप रथ पर बैठिये। तदननतर जैसे सिंहपर्वत पर चढ़ता है,उसी प्रकार महातेजस्वीशल्य कर्ण के दुर्जय,विशाल एवं श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हुए। कर्ण अपने उत्तम रथ को सारथि शल्य से सनाथ हुआ देख स्वयं भी उसपर आरूढ़ हूआ,मानो सूर्यदेव बिजलियों से युक्त मेघपर प्रतिष्ठित हुए हों। जैसे आकाश में किसी महान् मेघखण्ड पर एक साथ बैठे हुए सूर्य और अग्नि प्रकाशित हो रहे हों,उसी प्रकार सूर्यं और अग्नि के समान तेजस्वी कर्ण और शल्य उस एक ही रथ पर आरूढ़ हो बड़ी शोभा पाने लगे। उस समय उन दोनों परम तेजस्वी वीरों की उसी प्रकार स्तुमि होने लगी,जैसे यज्ञमण्डप में ऋत्विजों और सदस्यों द्वारा इन्द्र और अग्नि देवता का सतवन किया जाता है। शल्य ने घोड़ों की बागडोर हाथ में ली। उस रथ पर बैठा हुआ कर्ण अपने भयंकर धनुष को फैलाकर उसी प्रकार सुशोभित हो रहा था,मानो सूर्य मण्डल पर घेरा पड़ा हो।। उस श्रेष्ठ रथ पर चढ़ा हुआ पुरुषसिंह कर्ण अपनी बाणमयी किरणों से युक्त हो मन्दराचल के शिखर पर देदीप्यमान होने वाले सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था। युद्ध के लिये रथ पर बैइे हुए अमित तेजस्वी महाबाह राधापुत्र कर्ण से दुर्योधन ने इस प्रकार कहा- ‘वीर ! अधिरथ कुमार ! युद्ध स्थल में द्रोणाचार्य और भीष्म भी जिसे न कर सके,वही दुष्कर कर्म तुम सम्पूर्ण धनुर्धरों के देखते-देखते कर डालो। ‘मेरे मन में यह विश्वास था कि ‘महारथी भीष्म और द्रोणाचार्य अर्जुन और भीमसेन को अवश्य मार डालेंगे ‘। ‘वीर राधापुत्र ! वे दोनों जिसे न कर सके,वही वीराचित कर्म आज महासमर में दूसरे वज्रधारी इन्द्र के समान तुम निश्चय ही पूर्ण करो।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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