मुहर्रम

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ताज़िया, मुहर्रम, उत्तर प्रदेश
Tazia, Muharram, Uttar Pradesh

मुहर्रम अथवा मोहर्रम हिजरी संवत का प्रथम मास है। पैग़म्बर मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन एवं उनके साथियों की शहादत की याद में मुहर्रम मनाया जाता है।[1] मुहर्रम एक महीना है जिसमें दस दिन इमाम, हुसैन के शोक में मनाये जाते हैं। इसी महीने में मुसलमानों के आदरणीय पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब मुस्तफा सल्लाहों अलैह व आलही वसल्लम ने पवित्र मक्का से पवित्र नगर मदीना में हिज़रत किया था। मुहर्रम कोई त्योहार नहीं है, यह सिर्फ इस्लामी हिजरी सन् का पहला महीना है। पूरी इस्लामी दुनिया में मुहर्रम की नौ और दस तारीख को मुसलमान रोज़े रखते हैं और मस्जिदों-घरों में इबादत की जाती है।

इतिहास

रसूल मोहम्मद साहब की वफ़ात के लगभग 50 वर्ष बाद इस्लामी दुनिया में ऐसा घोर अत्याचार का समय आया जबकि सन् 60 हिजरी में हमीद मावीय के पुत्र याज़ीद राज सिंहासन पर बैठे। उन्होंने सिंहासन पर बैठकर मदीना के राज्यपाल वलीद पुत्र अतुवा को फरमान लिखा कि तुम इमाम हुसैन को बुलाकर कहो कि वह मेरी आज्ञाओं का पालन करें और इस्लाम धर्म के सिद्धांतों को ध्यान में न लायें। यदि वह यह फरमान न माने तो इमाम हुसैन का सिर काट कर मेरे पास भेजा जाये। वलीद पुत्र अतुवा (राज्यपाल) ने 25 या 26 रजब सन् 60 हिजरी को रात्रि के समय हज़रत इमाम हुसैन को राजभवन में बुलाया और उनकों यजीद का फरमान सुनाया। इमाम हुसैन जो उस समय क़ुरान शरीफ़ और मोहम्मद साहिब की वीराम के वारिस थे, वह इस बात को कैसे सहन कर सकते थे कि अल्लाह के सिद्धांत और रसूल साहब का फरमान दुनिया से मिट जाये। उन्होंने वलीद से कहा कि मैं एक व्यभिचारी, भ्रष्टाचारी, दुष्ट विचारधारा वाले, अत्याचारी ख़ुदा रसूल को न मानने वाले, यजीद की आज्ञाओं का पालन नहीं कर सकता। तत्पश्चात् इमाम हुसैन साहब मक्का शरीफ़ पहुँचे ताकि हज की पवित्र प्रथा को पूरा कर सकें किंतु वहाँ पर भी इमाम हुसैन साहब को किसी प्रकार चैन नहीं लेने दिया गया। शाम के बादशाह यजीद ने अपने सैनिकों को यात्रियों के भेष में भेजा ताकि वे हुसैन को कत्ल कर सकें।

उमरा

हज़रत इमाम हुसैन को पता चल गया कि यजीद ने गुप्त रूप से सैनिकों को मुझे कत्ल करने के लिए भेजा है। मक्का एक ऐसा पवित्र स्थान है कि जहाँ पर किसी भी प्रकार की हत्या हराम है। यह इस्लाम का एक सिद्धांत है। इसी बात को मद्दे-नज़र रखते हुए कि मक्के में किसी प्रकार का ख़ून-ख़राबा न हो, इमाम हुसैन ने हज की एक उप-प्रथा जिसको इस्लामिक रूप से उमरा कहते हैं, अदा किया हज़रत हुसैन उस बड़े हज को छोटा और अदा करके अपने परिवार सहित इराक की ओर चले गये। यहाँ पर यह व्याख्या करना बहुत आवश्यक है कि इमाम हुसैन ने अपने चचाजाद भाई मुस्लिम को इराक के हाल जानने के लिए अपना दूत बनाकर भेजा था। इसी यात्रा के दौरान इमाम हुसैन को पता चला कि इराक के अत्याचारी राज्यपाल इबनेज्याद ने उस दूत को कत्ल कर दिया। इमाम हुसैन को यह सुनकर बहुत सदमा हुआ। किंतु उन्होंने अपनी यात्रा स्थगित नहीं की क्योंकि इस यात्रा का लक्ष्य केवल मानव धर्म अर्थात इस्लाम की रक्षा करना था।

इमाम हुसैन की कर्बला यात्रा

मुहर्रम मास की 2 तारीख सन् 61 हिजरी को इमाम हुसैन अपने परिवार और मित्रों सहित कर्बला की भूमि पर पहुँचे और 9 तारीख तक यजीद की सेना को इस्लामिक सिद्धांतों को समझाया। उन्होंने कहा, "कि लोगों, मैं हज़रत मोहम्मद साहब का धेवता हूँ। रसूल ने मुझे अपने कन्धों पर बिठाया है। मैं अली का बेटा और बीबी फ़ातिमा का पुत्र हूँ। तुम लोग मेरे कत्ल पर क्यों आमादा हो। इस गुनाह से बाज आ जाओं, इंसान को इंसान समझों, किसी पर अत्याचार न करों क़ुरान शरीफ़ के सिद्धांतों का पालन करों, ख़ुदा से डरो, यह संसार मानवता का संसार है। हर एक के साथ भला करो। और अच्छे-बुरे हर एक मसले में ख़ुदा निर्णायक है जो जैसा कर्म करेगा वह वैसा ही फल पायेगा।"

आसुर की रात
मुहर्रम, खंभात
Muharram, Khambhat

हज़रत इमाम हुसैन की इन बातों का यजीद की फ़ौज पर कोई असर नहीं हुआ क्योंकि वह सब अत्याचार और कपट से अन्धे हो चुके थे। जब वह किसी प्रकार भी नहीं माने तो हज़रत इमाम हुसैन ने कहा कि तुम मुझे एक रात की मोहलत दे दो ताकि मैं उस सर्व शक्तिमान ईश्वर की इबादत कर सकूं। यजीद की फ़ौजों ने किसी प्रकार इमाम हुसैन साहब को एक रात की मोहलत दे दी। उस रात को आसुर की रात कहा जाता है। हज़रत इमाम हुसैन साहब ने उस पूरी रात अपने परिवार वालों तथा साथियों के साथ अल्लाह की इबादत की। मुहर्रम की 10 तारीख को सुबह ही यजीद के सेनापति उमर बिल साद ने यह कहकर एक तीर छोड़ा कि गवाह रहे सबसे पहले तीर मैंने चलाया है। तत्पश्चात् लड़ाई आरम्भ हो गई। सुबह नमाज़ से असर तक (लगभग चार-साढ़े चार बजे तक) इमाम हुसैन के सब साथी जंग में मारे गये। इमाम हुसैन मैदान में अकेले रह गये। उन्होंने तीन दिन तक भूखे-प्यासे रहकर आवाज़ लगाई कि मैं रसूल का नवासा कर्बला में आवाज़ दे रहा हूं कि कोई है जो इस्लाम की मदद करे। हज़रत इमाम हुसैन यह कह रहे थे। कि उनमें खेमे में शोर हुआ। इमाम साहब खेमे में गये तो क्या देखा कि उनका 6 महीने का बच्चा अली असगर प्यास से बेहाल है। हज़रत इमाम हुसैन ने ने अपने बच्चे को अपने हाथों में उठा लिया और मैदाने कर्बला में ले आये।

हज़रत इमाम हुसैन साहिब ने यजीद की फ़ौजों से कहा कि बच्चे को थोड़ा-सा पानी पिला दो किंतु यजीद की फ़ौजों की तरफ से एक तीर आया और बच्चे के गले पर लगा और बच्चे ने बाप के हाथों में तड़प कर दम तोड़ दिया। तत्पश्चात् हज़रत इमाम हुसैन पर जो ज़ुल्म हुआ उसका किसी प्रकार भी शब्दों में वर्णन नहीं हो सकता। उन्होंने तीन दिन से भूखे-प्यासे हज़रत इमाम हुसैन साहब को कत्ल कर दिया। उनको कत्ल करने के बाद उनके खेमे में आग लगा दी और हज़रत इमाम हुसैन के परिवार वालों तथा बच्चों को कैदी बना लिया। फिर उनकों इराक के राज्यपाल इब्नेजाद के पास ले जाया गया। दुष्ट, भष्ट और नास्तिक इब्नेजाद ने इस क़ाफिले को शाम के बादशाह यजीद के पास भेज दिया।

बादशाह यजीद

बादशाह यजीद जो इस्लाम का दुश्मन था और हज़रत मोहम्मद साहब का मजाक उड़ाता था वह इस क़ाफिले को इस हालत में देखकर बहुत खुश हुआ, किंतु कुछ दिनों के बाद ही अत्याचारी यजीद की बादशाहत खत्म हो गई और वह बुरी मौत मरा। हज़रत इनाम हुसैन ने इस्लाम पर तथा मानवता पर अपनी जान कुर्बान की जो अमर है। हुसैन साहब पर जुल्म करने वाले कोई गैर नहीं थे बल्कि वही थे जो अपने आपको मुसलमान समझते थे। इस्लाम आज भी ज़िंदा है, क़ुरान शरीफ़ आज भी बाकी है, रोजा, नुपाश अब भी ऐसी ही है और आगे भी रहेंगे। यह सब कुछ हुसैन साहब की कमाई है।

महत्त्व

मुहर्रम मातम मनाने और धर्म की रक्षा करने वाले हजरत इमाम हुसैन की शहादत को याद करने का दिन है। इस महीने में मुसलमान शोक मनाते हैं और अपनी खुशी का त्याद करते हैं। मान्यताओं के अमुसार बादशाह यजीद ने अपनी सत्ता कायम करने के लिए हुसैन और उनके परिवार वालों पर जुल्म किया और 10 मुहर्रम को उन्हें बेदर्दी से मौत के घाट उतार दिया। दरअसल हुसैन का मकसद था खुद को मिटाकर भी इस्लाम और इंसानियत को हमेशा जिंदा रखना। यह धर्म युद्ध इतिहास के पन्‍नों पर हमेशा-हमेशा के लिए दर्ज हो गया।

कैसे मनाया जाता है मुहर्रम

मुहर्रम खुशियों का त्‍योहार नहीं बल्‍कि मातम और आंसू बहाने का महीना है। शिया समुदाय के लोग 10 मुहर्रम के दिन काले कपड़े पहनकर हुसैन और उनके परिवार की शहादत को याद करते हैं। हुसैन की शहादत को याद करते हुए सड़कों पर जुलूस निकाला जाता है और मातम मनाया जाता है। मुहर्रम की नौ और 10 तारीख को मुसलमान रोजे रखते हैं और मस्जिदों-घरों में इबादत की जाती है। वहीं सुन्‍नी समुदाय के लोग मुहर्रम के महीने में 10 दिन तक रोजे रखते हैं। कहा जाता है कि मुहर्रम के एक रोजे का सबाब 30 रोजों के बराबर मिलता है।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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