|
|
पंक्ति 12: |
पंक्ति 12: |
| | | | | |
| <poem> | | <poem> |
− | नहीं आवाज़ होती है, दिलों के टूट जाने की
| + | एक ही दिल था, वो कमबख़्त तूने तोड़ दिया |
− | ज़रूरत क्या है फिर तुमको, इसे सुनने-सुनाने की
| + | सर तो फोड़ ही दिया था, मिलना भी छोड़ दिया |
| | | |
− | मेरे तन्हाई के आलम में सारे ख़ाब फीके थे
| + | जब नापसंद हैं तुझे तो भाड़ में जा पड़ |
− | तुम्हारी ज़िद थी फिर इनको, बहारों से सजाने की
| + | तेरी ही ख़ाइशें थी कि हमने रास्ता ही छोड़ दिया |
− | | + | </poem> |
− | जो मैं था वो तो रहने ही कहाँ तुमने दिया मुझको
| + | | |
− | जो मैं अब हो गया तुम सा, तो ज़िद है छोड़ जाने की
| + | | 23 दिसम्बर, 2014 |
− | | + | |- |
− | मैं ख़ुश कितना हूँ ये तुमको बताने के लिए आया
| + | | |
− | तुम्हें फ़ुर्सत कहाँ नाचीज़ को दिल से लगाने की
| + | <poem> |
− | | + | क्या कहें तुमसे तो अब, कहना भी कुछ बेकार है |
− | हज़ारों ख़्वाइशों को छोड़ के तुमको ही चाहा था
| + | वक़्त तुमको काटना था हमने समझा प्यार है |
− | तुम्हें बेचौनियां रहती हैं अब सारे ज़माने की
| + | </poem> |
| + | | |
| + | | 23 दिसम्बर, 2014 |
| + | |- |
| + | | |
| + | <poem> |
| + | एक दिल है, हज़ार ग़म हैं, लाख अफ़साने |
| + | तुझे सुनने का उन्हें वक़्त, कभी ना होगा |
| + | </poem> |
| + | | |
| + | | 23 दिसम्बर, 2014 |
| + | |- |
| + | | |
| + | <poem> |
| + | मर गए तो भूत बन तुम को डराने अाएँगे |
| + | डर गए तो दूसरे दिन फिर डराने अाएँगे |
| + | </poem> |
| + | | |
| + | | 23 दिसम्बर, 2014 |
| + | |- |
| + | | |
| + | <poem> |
| + | कुछ एेसा कर देऽऽऽ |
| + | सुबह को देखूँ |
| + | मैं रोज़ तेराऽऽऽ |
| + | हसीन चेहरा |
| </poem> | | </poem> |
− | | [[चित्र:Dilon-ke-toot-jane-ki-aditya-chaudhary.jpg|250px|center]] | + | | |
− | | 20 नवम्बर, 2014 | + | | 23 दिसम्बर, 2014 |
| |- | | |- |
| | | | | |
| <poem> | | <poem> |
− | पिछले दिनों, फ़ेसबुक चर्चा में एक ‘चर्च’ था (वाह ! ये तो नया शब्द ईजाद हो गया ‘चर्च’, इसका मतलब समझा जाय कि ‘Thread’ याने कोई Comment, हा हा हा)… तो ये चर्च ग्रामीण जीवन से जुड़ी बातों और शब्दों से संबंधित था। इन शब्दों की व्याख्या कर रहा हूँ...
| + | एक अपनी ज़िंदगी रुसवाइयों में कट गई |
− | 'चर्स' या 'पुर' :-
| + | जिसको जितनी चाहिए थी उसमें उतनी बँट गई |
− | प्राचीन भारत में सिंचाई के कुछ साधन ऐसे थे जो अब विद्यमान नहीं हैं और कुछ अब भी हैं। एक था 'चर्स' या 'पुर' द्वारा सिंचाई, यह एक जटिल और जोखिम का काम था इसमें दो बैल और दो आदमी लगते थे। जो 'न्हैचिया' पर चलते थे। न्हैचिया उस ढलान को कहते थे जिस पर चलकर बैल पानी खींचते थे।
| |
− | 'चर्स' या 'पुर' लगभग 7 मन पानी (लगभग पौने तीन सौ लीटर पानी) की क्षमता रखता था। यह चमड़े का बना होता था। जब पानी से भरा हुआ 'पुर' कुँए की मेड़ पर आता था तो एक व्यक्ति उसको अपनी तरफ़ खींचकर ख़ाली करता था। इस क्षण पर उसे ज़ोर से 'राम' कहना होता था, जिससे बैलों के साथ वाला व्यक्ति बैलों की रस्सी से 'किल्ली' (लकड़ी की मोटी कील) को निकाल देता था। पुर आसानी से ख़ाली हो जाता था। जब कुँए पर बैठा व्यक्ति 'राम' कहना भूल जाता था तो आदत के अनुसार बैल वापस चल देते थे। इससे 'पुर' भरी हुई हालत में ही कुँए में वापस जाने लगता था। यह भयानक विपत्ति होती थी जिसके कारण कभी-कभी बैल भी कुँए में चले जाते थे।
| |
− | इस दुर्घटना का नाम होता है 'मचैंड़ा बजना' ( गाँव में 'मचैंड़ौ बाजगौ')। मैंने इस प्रकार की सिंचाई अपनी आखों से देखी है। अपने ही खेत में।
| |
− | मेरे पिताजी के सामने यह दुर्घटना घटी थी। वे न्हैचिया पर कसरत करने जाते थे। जब उन्होंने देखा कि पुर वापस कुँए में जा रहा है तो उन्होंने रस्सा हाथों से पकड़ लिया और तब तक पुर को रोके रहे जब तक कि कई लोगों ने आकर साथ नहीं दिया। इसमें पिताजी के हाथों की खाल तक उतर गई थी। पिताजी बेहद शक्तिशाली थे, वरना अकेले पुर को रोकना असंभव जैसा काम माना जाता था। (चित्र में देखें)
| |
− | पासी :-
| |
− | भुस को सर पर ले जाने के लिए गाँवों में एक जालीदार गठरी बुनी जाती है। जिसमें लॉन टेनिस के नेट जैसी बुनाई होती है।
| |
− | बढ़ार:-
| |
− | बारात जब अगले दिन सुबह विदा न होकर एक दिन और रुकती है तो वह बढ़ार कहलाती है, उसे बारात की दावत न कहकर बढ़ार की दावत कहते हैं।
| |
− | भोका:- यह चमड़े, बांस की फंच्चट या टिन की सहायता से बना एक बड़े सूप की बनावट का चौकोर परात जैसा उपकरण होता है। इसमें चार रस्सियां बंधी होती हैं। दो-दो रस्सियों को दो व्यक्ति पकड़ते हैं और पानी को खेत में फेंकते हैं। केवल प्रयोग बतौर मैंने इसे चलाया है, पेट की मांस पेशियां खिंच जाती हैं। (सिक्स पॅक बनाने का देहाती साधन भी है… हा हा हा)- (चित्र में देखें)
| |
− | ढेंकली:
| |
− | ये सिंचाई का साधन था, जो कहीं-कहीं आज भी प्रयोग में है। ये एक लम्बी ‘बल्ली’ होती थी जो ‘Y’ के आकार के लकड़ी के खूंटे पर टिकी होती थी। इसका एक सिरा जिस पर कोई बड़ा सा बर्तन बंधा होता था; कुँए, बावड़ी, नदी या नहर की तरफ़ रहता था और दूसरे सिरे पर एक रस्सी बांधी जाती थी। रस्सी को ढीला करने और फिर खींचने से पानी भरकर खेत में उडेला जा सकता था। (चित्र में देखें)
| |
− | रहट:
| |
− | ये सिंचाई का साधन था। इसके बारे में तो ज़्यादातर लोग जानते होंगे। (चित्र देखें)
| |
− | लदपामरी:
| |
− | फावड़े से मिलता-जुलता उपकरण जो पूरा लकड़ी का होता है। गाय-भैंस का गोबर खिसकाने-इकट्ठा करने के काम आता है। मैंने इसका इस्तेमाल किया है।
| |
− | तिक:
| |
− | हल जोतने के लिए दो बैल या दो भैंसे चाहिए। इसके लिए अपना jargon है। सामान्यत: बाँये (अंदर वाले) बैल को ‘आ:' और दाँये (बाहरी) को तिक कहा जाता है और यही दोनों शब्द इनको क़ाबू करने के लिए भी बोले जाते हैं। बैल ज़्यादा समझदार होते हैं वे अधिक आसानी से समझ लेते हैं और भैंसा तो फिर भैंसा है ही…
| |
− | पैर:
| |
− | कटाई के समय, ‘पैर' खेत के एक हिस्से में बना लिया जाता है। इसी पैर में फ़सल से अनाज निकाला जाता है।
| |
− | पैर बनाना भी एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। एक बड़ी सी क्यारी बना ली जाती है। इसमें पानी भर देते हैं। नंगे पैरों से इसकी खुंदाई होती है। सूखने के बाद पैर तैयार हो जाता है। यहीं पर बालों से अनाज निकालने का कार्यक्रम चलता है।
| |
− | लांक:
| |
− | कटी फ़सल के ढेर को ही लांक कहते हैं।
| |
| </poem> | | </poem> |
− | | [[चित्र:Aditya-Chaudhary-facebook-post-55.jpg|250px|center]] | + | | |
− | | 17 नवम्बर, 2014 | + | | 23 दिसम्बर, 2014 |
| |- | | |- |
| | | | | |
| <poem> | | <poem> |
− | हर आन कस की दारद हुश व राइव दीन।
| + | मृत्यु तुझे मैं जीकर दिखलाता हूँ |
− | पस अज़ मर्ग बर मन कुनद आफ़रीन॥
| + | तेरे पंजे से मुक्त हुअा जाता हूँ |
− | -फ़िरदौसी
| + | |
− | इसका अर्थ है “हर वह व्यक्ति जो साहित्य को परखने की दृष्टि रखता है, वह मेरे मरने के बाद भी मेरे कृत्य की प्रशंसा अवश्य करेगा।”
| + | तेरा अपना है अहंकार |
− | ईरान के मशहूर कवि फ़िरदौसी ने दसवीं शताब्दी में 60 हज़ार शेरों का महाकाव्य ‘शाहनामा’ की रचना की। शाहनामा की तुलना महाभारत और इलियड से की जाती है।
| + | मेरा अपना भी |
| + | |
| + | तेरा विराट मैं |
| + | फिर से बिखराता हूं |
| </poem> | | </poem> |
| | | | | |
− | | 17 नवम्बर, 2014 | + | | 15 दिसम्बर, 2014 |
| |- | | |- |
| | | | | |
| <poem> | | <poem> |
− | घर में मेरा बचपन था और एक पॅट्रोमॅक्स भी था। जिसे सही तरह से जलाना मैंने सीख लिया था। हर बार जल्दी से जल्दी सही तरह से पॅट्रोमॅक्स जलाने की ज़िम्मेदारी मेरी हुआ करती थी। फंणीश्वरनाथ रेणु की कहानी पंचलाइट के गोधन का सा हाल समझिए कुछ-कुछ...
| + | नहीं कोई शाम कोई सुब्ह, जिससे बात करूँ । |
− | बिजली के जाते ही हल्ला होता था कि 'भैया कहाँ है... भैया कहाँ है...?'।
| + | एक बस रात थी, ये सिलसिला भी टूट गया ॥ |
− | घरेलू नौकर तो कई थे लेकिन 'गॅस की लालटेन' को सही तरह से जलाना मुझे ही आता था। दूसरे जलाते तो कभी फिलामेन्ट (फ़्लामेंट) फट जाता तो कभी बहुत ज़्यादा ज़ोर से आग के बढ़ जाने से काँच ही टूट जाते। मैं बाक़ायदा स्प्रिट का इस्तेमाल करके उसे बड़े सलीक़े से जलाता था।
| |
− | दीये, लालटेन, कुल्लड़ वग़ैरा... ऐसी बहुत सी चीज़े थीं जो ज़िन्दगी से जुड़ी थीं। जिनमें एक थी 'जमना जी' (यमुना नदी)। पिताजी जीप में भरकर हम बच्चों को गर्मियों की छुट्टियों में जमना निलहाने (नहलाने) ले जाते थे और वहाँ पहुँच कर हमें तरह-तरह के निर्देश दिए जाते थे। जैसे कि कछुओं से बचने के लिए पानी को हाथ से छप-छप करते रहना, नदी में आगे जाने में बड़ा बच्चा आगे चलेगा, कोई भी किसान से पूछे बिना तरबूज़ नहीं तोड़ेगा आदि-आदि। गर्मियों में पानी कम रहता था...
| |
− | जीप, रेत पर किनारे खड़ी कर दी जाती और हम बच्चे यमुना को देखते ही जीप में ही कपड़े उतारना शुरू कर देते और जीप से कूद कर नदी की तरफ़ भाग लेते। बालू, रेत, तरबूज़ की बाड़ी और सरकंडों की झाड़ी...।
| |
− | यमुना का पानी निर्मल जल हुआ करता था और झर-झर बहता था उसमें हम नौनिहाल किलोल किया करते थे।
| |
− | एक बार मैं अकेला ही नदी में अंदर तक चला गया... पानी बहुत गहरा था अचानक से एक गड्ढे जैसे में गुड़ुम्म से डूब गया। मुझे लगा कि भीमसेन की तरह पाताल लोक में चला गया.... लेकिन मुझे तैरना बचपन से ही आता था तो हाथ-पैर चला कर ऊपर आ गया लेकिन नाक में पानी भर गया था। बहुत देर तक चुपचाप किनारे पर बैठा रहा। किसी को बताया नहीं और किसी को पता भी नहीं चला। थोड़ी देर बाद तरबूज़ आ गया। उस वक़्त हम इसे 'तरबूजा' कहते थे। तरबूज़ मेरे लिए हमेशा चुनौती रहा। एक तो ये पता करना असंभव होता था कि कौन सा अंदर से लाल और मीठा निकलेगा दूसरा ये कि बाड़ी वाले किसान को ये बात कैसे पता चलती थी। ख़ैर तरबूज़ खाने में ये कम्पटीशन ज़रूर होता था कि बीज को कौन कितनी दूर तक फेंक सकता है। अब ध्यान तरबूज़ खाने पर कम और मुँह से बीज को दूर तक फेंकने में ज़्यादा रहता था।
| |
− | जब में साइकिल चलाना सीख गया तो मैंने कई दु:साहसिक क़दम उठाए जैसे कि तरबूज़ की ख़रीदारी...। मंडी हमारे घर से पास ही थी। मैंने एक बड़ा सा गोल तरबूज़ ख़रीदा और साइकिल के कॅरियर पर पीछे बाँध लिया। अब साइकिल चलाना अपने आप में एक सरकस था। साइकिल थी कि संभलती ही नहीं थी। ऐसा लगता था कि मैं नहीं बल्कि तरबूज़ साइकिल को कंट्रोल कर रहा है। जैसे-तैसे घर पहुँचा, तरबूज़ काटा तो सफ़ेद निकला... अम्माजी ने समझाया कि 'टांकी' लगवा के देख लिया कर कि कैसा है ! चल छोड़ इसे गंगा खा लेगी। गंगा हमारी गाय का नाम था।
| |
− | साइकिल से जुड़ाव होना बचपन की सहज प्रक्रिया होती है लेकिन साइकिल को खाट (चारपाई) के सिरहाने रखकर सोना मेरी बहुत बड़ी ख़ुशी रही। क्या आनंद आता था सोने में... खाट के सिरहाने साइकिल और तकिये के बग़ल में अपने नये जूते। एक वक़्त में 'बाटा' की भूमिका ज़िन्दगी में फ़ेसबुक और वॉट्स ऍप से ज़्यादा हुआ करती थी। जब भी बाटा के नए काले बूट मिलते मैं कई दिन तक उन्हें सिरहाने रखकर सोता...
| |
− | साइकिल की ओवरहॉलिंग मेरे पसंदीदा कामों में से एक हुआ करता था। रीम की लहक निकालना, तानों का जाल कसना सब सीख लिया था, पिताजी ने सिखाया। ये सब तो सीखा लेकिन एक खेल मैं कभी नहीं खेल पाया, वो था साइकिल के टायर या रीम को लकड़ी से चलाते हुए खेतों की पगडंडी पर भागते चला जाना। जब कभी पिताजी-अम्माजी के साथ गाँवों में जाता तो साथ के बच्चों को पहिया घुमाते हुए भागते देखता तो ईर्ष्या और आश्चर्य से भर जाता। कई बार कोशिश की लेकिन ज़्यादा दूर तक नहीं ले जा पाता था।
| |
− | एक बार एक लड़की को भी पहिया भगाते देखा तो शर्म से मर ही गया... आज भी मैं पहिया नहीं चला पाता...
| |
− | - बाक़ी फिर कभी...
| |
| </poem> | | </poem> |
− | | [[चित्र:Aditya-Chaudhary-facebook-post-52.jpg|250px|center]] | + | | |
− | | 6 नवम्बर, 2014 | + | | 13 दिसम्बर, 2014 |
| |- | | |- |
| | | | | |
| <poem> | | <poem> |
− | कल उसे मुर्ग़ा बनाया था, भरे दरबार में
| + | मैंने देखा था, ज़िन्दगी से छुप के एक ख़्वाब कोई । |
− | आज बत्तीसी दिखाता चित्र है, अख़बार में
| + | वो भी कमबख़्त मिरे दिल की तरहा टूट गया ॥ |
| + | </poem> |
| + | | |
| + | | 13 दिसम्बर, 2014 |
| + | |- |
| + | | |
| + | <poem> |
| + | मेरे पसंदीदा शायर अहमद फ़राज़ साहब की मशहूर ग़ज़ल का मत्ला और मक़्ता अर्ज़ है… |
| + | |
| + | अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें। |
| + | जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें॥ |
| + | |
| + | अब न वो मैं हूँ न तू है न वो माज़ी है “फ़राज़"। |
| + | जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें॥ |
| + | |
| + | 10 दिसम्बर, अाज पिताजी की पुण्यतिथि है। मैं गर्व करता हूँ कि मैं चौधरी दिगम्बर सिंह जी जैसे पिता का बेटा हूँ। वे स्वतंत्रता सेनानी थे और चार बार संसद सदस्य रहे। वे मेरे गुरु और मित्र भी थे। |
| + | |
| + | उनके स्वर्गवास पर मैंने एक कविता लिखी थी... |
| + | |
| + | ये तो तय नहीं था कि |
| + | तुम यूँ चले जाओगे |
| + | और जाने के बाद |
| + | फिर याद बहुत आओगे |
| + | |
| + | मैं उस गोद का अहसास |
| + | भुला नहीं पाता |
| + | तुम्हारी आवाज़ के सिवा |
| + | अब याद कुछ नहीं आता |
| | | |
− | ज़ोर से दुम को हिलाना सीख लें, काम आएगी
| + | तुम्हारी आँखों की चमक |
− | ये कला बेजोड़ है, हर एक कारोबार में
| + | और उनमें भरी |
| + | लबालब ज़िन्दगी |
| + | याद है मुझको |
| | | |
− | नाक को भी काटकर रख लें, छुपाकर जेब में
| + | उन आँखों में |
− | ज़िन्दगी का फ़लसफा है, नाक के आकार में
| + | सुनहरे सपने थे |
| + | वो तुम्हारे नहीं |
| + | मेरे अपने थे |
| | | |
− | रुक गया ट्रॅफ़िक, संभल के सांस को भी रोक लो
| + | मैं उस उँगली की पकड़ |
− | उनका कुत्ता सो रहा, लम्बी सी काली कार में
| + | छुड़ा नहीं पाता |
| + | उस छुअन के सिवा |
| + | अब याद कुछ नहीं आता |
| | | |
− | अब झुका लो गर्दनें वरना कटेंगी खच्च से
| + | तुम्हारी बलन्द चाल |
− | बहुत सारे जोखिमों का रिस्क है दीदार में
| + | की ठसक |
| + | और मेरा उस चाल की |
| + | नक़ल करना |
| + | याद है मुझको |
| | | |
− | कौन से सपने सुनहरे देखते रहते हो तुम
| + | तुम्हारे चौड़े कन्धों |
− | अनगिनत हैं, जिनको चुनवाया गया दीवार में
| + | और सीने में समाहित |
| + | सहज स्वाभिमान |
| + | याद है मुझको |
| | | |
− | जाने कब होगा सवेरा ? मौन क़ब्रस्तान का
| + | तुम्हारी चिता का दृश्य |
− | इस तरह की बात मत करना यहाँ बेकार में
| + | मैं अब तक भुला नहीं पाता |
| + | तुम्हारी याद के सिवा कुछ भी |
| + | मुझे रुला नहीं पाता |
| </poem> | | </poem> |
− | | [[चित्र:Yahan-bekar-me-aditya-chaudhary.jpg|250px|center]] | + | | [[चित्र:Chaudhary-Digambar-Singh with family.jpg|250px|center]] |
− | | 2 नवम्बर, 2014 | + | | 10 दिसम्बर, 2014 |
| |} | | |} |
| |} | | |} |