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"महाभारत आदि पर्व अध्याय 51 श्लोक 1-17" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व: एकपञ्चाशत्तम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व: एकपञ्चाशत्तम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनक ! श्रीमान राजा जनमेजय ने जब ऐसा कहा, तब उनके मन्त्रियों ने भी उस बात का समर्थन किया। तत्पश्चात राजा सर्पयज्ञ करने की प्रतिज्ञा पर आरूढ़ हो गये। ब्रह्मन ! सम्पूर्ण वसुधा के स्वामी भरतवंशियों में श्रेष्ठ परीक्षितकुमार राजा जनमेजय ने उस समय पुरोहित तथा ऋत्विजों को बुलाकर कार्य सिद्ध करने वाली बात कही—‘ब्राह्माणों ! जिस दुरात्मा तक्षक ने मेरे पिता की हत्या की है, उससे मैं उसी प्रकार का बदला लेना चाहता हूँ। इसके लिये मुझे क्या कहना चाहिये, यह आप लोग बतावें।  क्या आप लोगों को ऐसा कोई कर्म विदित है जिसके द्वारा मैं तक्षक नाग को उसके बन्धु-बान्धवों सहित जलती हुई आग में झोंक सकूँ? उसने अपनी विषाग्नि से पूर्वकाल में मेरे पिता को जिस प्रकार दग्ध किया था, उसी प्रकार मैं भी उस पापी सर्प को जलाकर भस्म कर देना चाहता हूँ।' ऋ़त्विजों ने कहा—राजन ! इसके लिये एक महान् यज्ञ है, जिसका देवताओं ने आपके लिये पहले से ही निर्माण कर रखा है। उसका नाम है सर्पसत्र। पुराणों में उसका वर्णन आया है। नरेश्वर! उस यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है—ऐसा पौराणिक विद्वान् कहते हैं। उस यज्ञ का विधान हम लोगों को मालूम है। साधुशिरोमणे ! ऋत्विजों के ऐसा कहने पर राजर्षि जनमेजय को विश्वास हो गया कि अब तक्षक निश्चय ही प्रज्वलित अग्नि के मुख में समाकर भस्म हो जायेगा। तब राजा ने उस समय उन मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणों से कहा— ‘मैं उस यज्ञ का अनुष्ठान करूँगा। आप लोग उसके लिये आवश्यक सामग्री संग्रह कीजिये।' द्विजश्रेष्ठ ! तब उन ऋत्विजों ने शास्त्रीय विधि के अनुसार यज्ञमण्डप बनाने के लिये वहाँ की भूमि नाप ली। वे सभी ऋत्विज वेदों के यथावत विद्वान् तथा परम बुद्धिमान थे। उन्होंने विधिपूर्वक मन के अनुरूप एक यज्ञमण्डप बनाया, जो परम समृद्धि से सम्पन्न, उत्तम द्विजों के समुदाय से सुशोभित, प्रचुर धनधान्य से परिपूर्ण तथा ऋत्विजों से सुसेवित था। उस यज्ञमण्डप का निर्माण कराकर ऋत्विजों से सर्पयज्ञ की सिद्धि के लिये उस समय राजा जनमेजय को दीक्षा दी। इसी समय जबकि सर्पसत्र अभी प्रारम्भ होने वाला था, वहाँ पहले ही यह घटना घटित हुई। उस यज्ञ में विघ्न डालने वाला बहुत बड़ा कारण प्रकट हो गया। जब वह यज्ञमण्डप बनाया जा रहा था, उस समय वास्तुशास्त्र के पारंगत विद्वान, बुद्धिमान एवं अनुभवी सूत्रधार शिल्पवेत्ता सूत ने वहाँ आकर कहा—‘जिस स्थान और समय में यह यज्ञमण्डप मापने की क्रिया प्रारम्भ हुई है, उसे देखकर यह मालूम होता है कि एक ब्राह्मण को निमित्त बनाकर यह यज्ञ पूर्ण न हो सकेगा।' यह सुनकर राजा जनमेजय ने दीक्षा लेने से पहले ही सेवक को यह आदेश दे दिया—‘मुझे सूचित किये बिना किसी अपरिचित व्यक्ति को यज्ञमण्डप में प्रवेश न करने दिया जाये।'
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उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनक ! श्रीमान राजा जनमेजय ने जब ऐसा कहा, तब उनके मन्त्रियों ने भी उस बात का समर्थन किया। तत्पश्चात् राजा सर्पयज्ञ करने की प्रतिज्ञा पर आरूढ़ हो गये। ब्रह्मन ! सम्पूर्ण वसुधा के स्वामी भरतवंशियों में श्रेष्ठ परीक्षितकुमार राजा जनमेजय ने उस समय पुरोहित तथा ऋत्विजों को बुलाकर कार्य सिद्ध करने वाली बात कही—‘ब्राह्माणों ! जिस दुरात्मा तक्षक ने मेरे पिता की हत्या की है, उससे मैं उसी प्रकार का बदला लेना चाहता हूँ। इसके लिये मुझे क्या कहना चाहिये, यह आप लोग बतावें।  क्या आप लोगों को ऐसा कोई कर्म विदित है जिसके द्वारा मैं तक्षक नाग को उसके बन्धु-बान्धवों सहित जलती हुई आग में झोंक सकूँ? उसने अपनी विषाग्नि से पूर्वकाल में मेरे पिता को जिस प्रकार दग्ध किया था, उसी प्रकार मैं भी उस पापी सर्प को जलाकर भस्म कर देना चाहता हूँ।' ऋ़त्विजों ने कहा—राजन ! इसके लिये एक महान् यज्ञ है, जिसका देवताओं ने आपके लिये पहले से ही निर्माण कर रखा है। उसका नाम है सर्पसत्र। पुराणों में उसका वर्णन आया है। नरेश्वर! उस यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है—ऐसा पौराणिक विद्वान् कहते हैं। उस यज्ञ का विधान हम लोगों को मालूम है। साधुशिरोमणे ! ऋत्विजों के ऐसा कहने पर राजर्षि जनमेजय को विश्वास हो गया कि अब तक्षक निश्चय ही प्रज्वलित अग्नि के मुख में समाकर भस्म हो जायेगा। तब राजा ने उस समय उन मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणों से कहा— ‘मैं उस यज्ञ का अनुष्ठान करूँगा। आप लोग उसके लिये आवश्यक सामग्री संग्रह कीजिये।' द्विजश्रेष्ठ ! तब उन ऋत्विजों ने शास्त्रीय विधि के अनुसार यज्ञमण्डप बनाने के लिये वहाँ की भूमि नाप ली। वे सभी ऋत्विज वेदों के यथावत विद्वान् तथा परम बुद्धिमान थे। उन्होंने विधिपूर्वक मन के अनुरूप एक यज्ञमण्डप बनाया, जो परम समृद्धि से सम्पन्न, उत्तम द्विजों के समुदाय से सुशोभित, प्रचुर धनधान्य से परिपूर्ण तथा ऋत्विजों से सुसेवित था। उस यज्ञमण्डप का निर्माण कराकर ऋत्विजों से सर्पयज्ञ की सिद्धि के लिये उस समय राजा जनमेजय को दीक्षा दी। इसी समय जबकि सर्पसत्र अभी प्रारम्भ होने वाला था, वहाँ पहले ही यह घटना घटित हुई। उस यज्ञ में विघ्न डालने वाला बहुत बड़ा कारण प्रकट हो गया। जब वह यज्ञमण्डप बनाया जा रहा था, उस समय वास्तुशास्त्र के पारंगत विद्वान, बुद्धिमान एवं अनुभवी सूत्रधार शिल्पवेत्ता सूत ने वहाँ आकर कहा—‘जिस स्थान और समय में यह यज्ञमण्डप मापने की क्रिया प्रारम्भ हुई है, उसे देखकर यह मालूम होता है कि एक ब्राह्मण को निमित्त बनाकर यह यज्ञ पूर्ण न हो सकेगा।' यह सुनकर राजा जनमेजय ने दीक्षा लेने से पहले ही सेवक को यह आदेश दे दिया—‘मुझे सूचित किये बिना किसी अपरिचित व्यक्ति को यज्ञमण्डप में प्रवेश न करने दिया जाये।'
  
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत आदि पर्व अध्याय 50 श्लोक 39-54|अगला=महाभारत आदि पर्व अध्याय 52 श्लोक 1-10}}
 
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07:36, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

एकपञ्चाशत्तम (51) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: एकपञ्चाशत्तम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनक ! श्रीमान राजा जनमेजय ने जब ऐसा कहा, तब उनके मन्त्रियों ने भी उस बात का समर्थन किया। तत्पश्चात् राजा सर्पयज्ञ करने की प्रतिज्ञा पर आरूढ़ हो गये। ब्रह्मन ! सम्पूर्ण वसुधा के स्वामी भरतवंशियों में श्रेष्ठ परीक्षितकुमार राजा जनमेजय ने उस समय पुरोहित तथा ऋत्विजों को बुलाकर कार्य सिद्ध करने वाली बात कही—‘ब्राह्माणों ! जिस दुरात्मा तक्षक ने मेरे पिता की हत्या की है, उससे मैं उसी प्रकार का बदला लेना चाहता हूँ। इसके लिये मुझे क्या कहना चाहिये, यह आप लोग बतावें। क्या आप लोगों को ऐसा कोई कर्म विदित है जिसके द्वारा मैं तक्षक नाग को उसके बन्धु-बान्धवों सहित जलती हुई आग में झोंक सकूँ? उसने अपनी विषाग्नि से पूर्वकाल में मेरे पिता को जिस प्रकार दग्ध किया था, उसी प्रकार मैं भी उस पापी सर्प को जलाकर भस्म कर देना चाहता हूँ।' ऋ़त्विजों ने कहा—राजन ! इसके लिये एक महान् यज्ञ है, जिसका देवताओं ने आपके लिये पहले से ही निर्माण कर रखा है। उसका नाम है सर्पसत्र। पुराणों में उसका वर्णन आया है। नरेश्वर! उस यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है—ऐसा पौराणिक विद्वान् कहते हैं। उस यज्ञ का विधान हम लोगों को मालूम है। साधुशिरोमणे ! ऋत्विजों के ऐसा कहने पर राजर्षि जनमेजय को विश्वास हो गया कि अब तक्षक निश्चय ही प्रज्वलित अग्नि के मुख में समाकर भस्म हो जायेगा। तब राजा ने उस समय उन मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणों से कहा— ‘मैं उस यज्ञ का अनुष्ठान करूँगा। आप लोग उसके लिये आवश्यक सामग्री संग्रह कीजिये।' द्विजश्रेष्ठ ! तब उन ऋत्विजों ने शास्त्रीय विधि के अनुसार यज्ञमण्डप बनाने के लिये वहाँ की भूमि नाप ली। वे सभी ऋत्विज वेदों के यथावत विद्वान् तथा परम बुद्धिमान थे। उन्होंने विधिपूर्वक मन के अनुरूप एक यज्ञमण्डप बनाया, जो परम समृद्धि से सम्पन्न, उत्तम द्विजों के समुदाय से सुशोभित, प्रचुर धनधान्य से परिपूर्ण तथा ऋत्विजों से सुसेवित था। उस यज्ञमण्डप का निर्माण कराकर ऋत्विजों से सर्पयज्ञ की सिद्धि के लिये उस समय राजा जनमेजय को दीक्षा दी। इसी समय जबकि सर्पसत्र अभी प्रारम्भ होने वाला था, वहाँ पहले ही यह घटना घटित हुई। उस यज्ञ में विघ्न डालने वाला बहुत बड़ा कारण प्रकट हो गया। जब वह यज्ञमण्डप बनाया जा रहा था, उस समय वास्तुशास्त्र के पारंगत विद्वान, बुद्धिमान एवं अनुभवी सूत्रधार शिल्पवेत्ता सूत ने वहाँ आकर कहा—‘जिस स्थान और समय में यह यज्ञमण्डप मापने की क्रिया प्रारम्भ हुई है, उसे देखकर यह मालूम होता है कि एक ब्राह्मण को निमित्त बनाकर यह यज्ञ पूर्ण न हो सकेगा।' यह सुनकर राजा जनमेजय ने दीक्षा लेने से पहले ही सेवक को यह आदेश दे दिया—‘मुझे सूचित किये बिना किसी अपरिचित व्यक्ति को यज्ञमण्डप में प्रवेश न करने दिया जाये।'


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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