महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 84 श्लोक 1-17

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
व्यवस्थापन (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:30, 7 नवम्बर 2017 का अवतरण (Text replacement - "पश्चात " to "पश्चात् ")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें

चतुरषीतितम (84) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )

महाभारत: द्रोण पर्व:चतुरषीतितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर का अर्जुन को आशीर्वाद, अर्जुन का स्वप्र सुनकर समस्त सुहॄदों की प्रसन्नता , सात्यकि और श्रीकृष्ण के साथ रथ पर बैठकर अर्जुन की रणयात्रा तथा अर्जुन के कहने से सात्यकिका युधिष्ठिर की रक्षा के लिये जाना संजय कहते है- राजन्। इस प्रकार उन लोगो में बात-चीत हो ही रही थी कि सुहॄदोसहित भरतरश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर का दर्शन करने की इच्छा से अर्जुन वहां आ गये। उस सुन्दर डयोढी में प्रवेश करके राजा को प्रणाम करने-के पश्चात् उनके सामने खडे हुए अर्जुन को पाण्डवश्रेष्‍ठ युधिष्ठिर उठकर प्रेमपूर्वक हॄदय से लगा लिया। दनका मसतक सूंघकर और एक बांह से उनका आलिंगन करके उन्हे उत्तम आशीर्वाद देते हुए राजा ने मुस्कराकर कहा- अर्जुन। आज संग्राम में तुम्हें निश्चय ही महान् विजय प्राप्त होगी यह बात स्पष्‍टरूप से दॄष्टिगोचर हो रही है; क्योकि इसी के अनुरूप तुम्हारे मुख की कान्ति है और भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से ही वैसा स्वप्र प्रकट हूआ था। यह कहकर अर्जुन अपने सुहॄ़दों के आश्वासन के लिये जिस प्रकार भगवान् शंकर से मिलन का स्वप्र देखा था, वह सब कह सुनाया ।यह स्वप्र सुनकर वहां आये हुए सब लोग आश्‍चर्य चकित हो उठे और सबने धरती पर मस्तक टेककर भगवान् शंकर-को प्रणाम करके कहा - यह तो बहुत अच्छा हुआ। तदनन्तर धर्मपुत्र युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर कवच धारण किये हुए समस्त सुहॄद् हर्ष में भरकर शीघ्रतापूर्वक वहां से युद्ध के लिये निकले ।तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिर को प्रणाम करके सात्यकि , श्रीकृष्ण और अर्जुन बडे हर्ष्‍ के साथ उनके शिविर से बाहर निकले । दुर्धर्ष वीर सात्यकि और श्रीकृष्ण एक रथपर आरूड हो एक साथ अर्जुन के शिविर गये। वहां पहुंचकर भगवान् श्रीकृष्ण ने एक सारथि के समान रथियो में श्रेष्‍ठ अर्जुन के वानर श्रेष्‍ठ हनुमान् के चिन्ह से युक्त ध्वजा वाले रथ को युद्ध के लिये सुसज्जित किया। मेघ के समान गम्भीर घोष करने वाला और तपाये हुए सुवर्ण समान प्रभा से उद्रासित होने वाला वह सजाया हुआ श्रेष्‍ठ रथ प्रातःकाल के सूर्य की भांति प्राकाशित हो रहा था। तदनन्तर युद्ध के लिये सुसज्जित पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ पुरुष-सिहं श्रीकृष्ण ने नित्य-कर्म सम्पन्न करके बैठे हुए अर्जुन को यह सूचित किया कि रथ तैयार है। तब पुरुषो में श्रेष्‍ठ लोकप्रवर अर्जुन सोने के कवच और किरीड धारण करके धनुष -बाण लेकर उस रथ की परिक्रमा की। उस समय तपस्या, विद्या तथा अवस्था में बडे-बूढे, क्रिया-शील जितेन्द्रिय बा्रहण उन्हे विजयसूचक आशीर्वाद देते हुए उनकी स्तुति -प्रशंसा कर रहे थेा। उनकी की हुई वह स्तुति सुनते हुए अर्जुन उस विशाल रथ पर आरूढ हुए। उस उत्तम रथ को पहने से ही विजय साधक युद्धसमबन्धी मन्त्रों द्वारा अभिमन्त्रित किया गया था। उस पर आरूढ हुए तेजस्वी अर्जुन उदयाचल पर चढे हुए सूर्य के समान जान पडते थे। सुवर्णमय कवच से आवृत हो उस स्वर्णमय रथपर आरूढ हुए रथियो में श्रेष्ठ उज्ज्वल कान्तिधारी तेजस्वी अर्जुन मेरू पर्वत पर प्रकाशित होने वाले सूर्य के समान शोभा पा रहे थे।



« पीछे आगे »


टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख