चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य

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चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की मुद्राए

चन्द्रगुप्त द्वितीय अथवा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (शासन: 380-412 ईसवी) गुप्त राजवंश का राजा था। समुद्रगुप्त का पुत्र 'चन्द्रगुप्त द्वितीय' समस्त गुप्त राजाओं में सर्वाधिक शौर्य एवं वीरोचित गुणों से सम्पन्न था। शकों पर विजय प्राप्त करके उसने 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की। वह 'शकारि' भी कहलाया। वह अपने वंश में बड़ा पराक्रमी शासक हुआ। मालवा, काठियावाड़, गुजरात और उज्जयिनी को अपने साम्राज्य में मिलाकर उसने अपने पिता के राज्य का और भी विस्तार किया। चीनी यात्री फ़ाह्यान उसके समय में 6 वर्षों तक भारत में रहा।

चन्द्रगुप्त द्वितीय का सेनापति आम्रकार्द्दव था। उसे देव, देवगुप्त, देवराज, देवश्री, श्रीविक्रम, विक्रमादित्य, परमाभागवत्, नरेन्द्रचन्द्र, सिंहविक्रम, अजीत विक्रम आदि उपाधि धारण किए थे। अनुश्रूतियों में चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वाकाटक नपरेश रुद्रसेन से किया, रुद्रसेन की मृत्यु के बाद चन्द्रगुप्त ने अप्रत्यक्ष रूप से वाकाटक राज्य को अपने राज्य में मिलाकर उज्जैन को अपनी दूसरी राजधानी बनाई। इसी कारण चन्द्रगुप्त द्वितीय को 'उज्जैनपुरवराधीश्वर' भी कहा जाता है। उसकी एक राजधानी पाटलिपुत्र भी थी। अतः चन्द्रगुप्त द्वितीय को 'पाटलिपुत्र पुरावधीश्वर' भी कहा गया है। दक्षिण भार में कुंतल एक प्रभावशाली राज्य था। 'श्रृंगार प्रकाश' तथा' कंतलेश्वरदीत्यम्' से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय का कुंतल नरेश से मैत्रीपूर्ण संबंध था। कुंतल नरेश ककुत्स्थवर्मन ने अपनी पुत्री का विवाह गुप्त नरेश से कर दिया। इस वैवाहिक संबंध की पुष्टि क्षेमेन्द्र की औचित्य विचार चर्चा से भी होती है।

  • चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन-काल भारत के इतिहास का बड़ा महत्त्वपूर्ण समय माना जाता है। चीनी यात्री फ़ाह्यान उसके समय में 6 वर्षों तक भारत में रहा। वह बड़ा उदार और न्याय-परायण सम्राट था। उसके समय में भारतीय संस्कृति का चतुर्दिक विकास हुआ। महाकवि कालिदास उसके दरबार की शोभा थे।[1] वह स्वयं वैष्णव था, पर अन्य धर्मों के प्रति भी उदार-भावना रखता था। गुप्त राजाओं के काल को भारतीय इतिहास का 'स्वर्ण युग' कहा जाता है। इसका बहुत कुछ श्रेय चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की शासन-व्यवस्था को है।
  • राजगद्दी पर आरूढ़ होने के बाद चंद्रगुप्त के सम्मुख दो कार्य मुख्य थे -
  1. रामगुप्त के समय में उत्पन्न हुई अव्यवस्था को दूर करना
  2. उन म्लेच्छ शकों का उन्मूलन करना, जिन्होंने ने केवल गुप्तश्री के अपहरण का प्रयत्न किया था, अपितु जिन्होंने कुलवधू की ओर भी दृष्टि उठाई थी।
  • चंद्रगुप्त के सम्राट बनने पर शीघ्र ही साम्राज्य में व्यवस्था क़ायम हो गई। वह अपने पिता का योग्य और अनुरूप पुत्र था। अपनी राजशक्ति को सुदृढ़ कर उसने शकों के विनाश के लिए युद्धों का प्रारम्भ किया।
  • विष्णुपुराण 4,24,68 से विदित होता है कि संभवत: गुप्तकाल से पूर्व अवन्ती पर आभीर इत्यादि शूद्रों या विजातियों का आधिपत्य था-[2] ऐतिहासिक परंपरा से हमें यह भी विदित होता है कि प्रथम शती ई. पू. में (57 ई. पू. के लगभग) विक्रम संवत के संस्थापक किसी अज्ञात राजा ने शकों को हराकर उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनाया था। गुप्तकाल में चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने अवंती को पुन: विजय किया और वहाँ से विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंका। कुछ विद्वानों के मत में 57 ई. पू. में विक्रमादित्य नाम का कोई राजा नहीं था और चंद्रगुप्त द्वितीय ही ने अवंती-विजय के पश्चात् मालव संवत् को जो 57 ई. पू. में प्रारम्भ हुआ था, विक्रम संवत का नाम दे दिया।

शक-विजय

विदेशी जातियों की शक्ति के इस समय दो बड़े केन्द्र थे -

  1. काठियावाड़ और गुजरात के शक - महाक्षत्रप
  2. गान्धार-कम्बोज के कुषाण

शक-महाक्षत्रप सम्भवतः 'शाहानुशाहि कुषाण' राजा के ही प्रान्तीय शासक थे, यद्यपि साहित्य में कुषाण राजाओं को भी शक-मुरुण्ड (शकस्वामी या शकों के स्वामी) संज्ञा कहा गया है। पहले चंद्रगुप्त द्वितीय ने काठियावाड़ - गुजरात के शक-महाक्षत्रपों के साथ युद्ध किया। उस समय महाक्षत्रप 'रुद्रसिंह तृतीय' इस शक राज्य का स्वामी था। चंद्रगुप्त के द्वारा वह परास्त हुआ, और गुजरात-काठियावाड़ के प्रदेश भी गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित हो गए।

शकों की पराजय में वाकाटकों से भी बड़ी सहायता मिली। दक्षिणापथ में वाकाटकों का शक्तिशाली राज्य था। समुद्रगुप्त ने वहाँ के राजा 'रुद्रदेव या रुद्रसेन' को परास्त किया था, पर अधीनस्थ के रूप में वाकाटक वंश की सत्ता वहाँ पर अब भी विद्यमान थी। वाकाटक राजा बड़े ही प्रतापी थे, और उनकी अधीनता में अनेक सामन्त राजा राज्य करते थे। वाकाटक राजा रुद्रसेन द्वितीय के साथ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की कन्या 'प्रभावती गुप्त' का विवाह भी हुआ था। 'रुद्रसेन द्वितीय' के साथ गुप्त वंश की राजकुमारी का विवाह हो जाने से गुप्तों और वाकाटकों में मैत्री और घनिष्ठता स्थापित हो गई थी। इस विवाह के कुछ समय बाद ही तीस वर्ष की आयु में रुद्रदेन द्वितीय की मृत्यु हो गई। उसके पुत्र अभी छोटी आयु के थे, अतः राज्यशासन प्रभावती गुप्त ने अपने हाथों में ले लिया, और वह वाकाटक राज्य की स्वामिनी बन गई। इस स्थिति में उसने 390 ई. से 410 ई. के लगभग तक राज्य किया। अपने प्रतापी पिता चंद्रगुप्त द्वितीय का पूरा साहाय्य और सहयोग प्रभावती को प्राप्त था। जब चंद्रगुप्त ने महाक्षत्रप शक-स्वामी रुद्रसिंह पर आक्रमण किया, तो वाकाटक राज्य की सम्पूर्ण शक्ति उसके साथ थी।

उपाधियाँ

गुजरात-काठियावाड़ के शकों का उच्छेद कर उनके राज्य को गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत कर लेना चंद्रगुप्त द्वितीय के शासन काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है। इसी कारण वह भी 'शकारि' और 'विक्रमादित्य' कहलाया। कई सदी पहले शकों का इसी प्रकार से उच्छेद कर सातवाहन सम्राट 'गौतमी पुत्र सातकर्णि' ने 'शकारि' और 'विक्रमादित्य' की उपाधियाँ ग्रहण की थीं। अब चंद्रगुप्त द्वितीय ने भी एक बार फिर उसी गौरव को प्राप्त किया। गुजरात और काठियावाड़ की विजय के कारण अब गुप्त साम्राज्य की सीमा पश्चिम में अरब सागर तक विस्तृत हो गई थी। नये जीते हुए प्रदेशों पर भली-भाँति शासन करने के लिए पाटलिपुत्र बहुत दूर पड़ता था। इसलिए चंद्रगुप्त द्वितीय ने उज्जयिनी को अपनी दूसरी राजधानी बनाया।

साम्राज्य विस्तार

गुजरात-काठियावाड़ के शक-महाक्षत्रपों के अतिरिक्त गान्धार कम्बोज के शक-मुरुण्डों (कुषाणों) का भी चंद्रगुप्त ने संहार किया था। दिल्ली के समीप महरौली में लोहे का एक 'विष्णुध्वज (स्तम्भ)' है, जिस पर चंद्र नाम के एक प्रतापी सम्राट का लेख उत्कीर्ण है। ऐतिहासिको का मत है, कि यह लेख गुप्तवंशी चंद्रगुप्त द्वितीय का ही है। इस लेख में चंद्र की विजयों का वर्णन करते हुए कहा गया है, कि उसने सिन्ध के सप्तमुखों (प्राचीन सप्तसैन्धव देश की सात नदियों) को पार कर वाल्हीक (बल्ख) देश तक युद्ध में विजय प्राप्त की थी। पंजाब की सात नदियों यमुना, सतलुज, व्यास, रावी, चिनाब, जेलहम और सिन्धु का प्रदेश प्राचीन समय में 'सप्तसैन्धव' कहाता था। इसके परे के प्रदेश में उस समय शक-मुरुण्डों या कुषाणों का राज्य विद्यमान था। सम्भवतः इन्हीं शक-मुरुण्डों ने ध्रुवदेवी पर हाथ उठाने का दुस्साहस किया था। अब ध्रुवदेवी और उसके पति चंद्रगुप्त द्वितीय के प्रताप ने बल्ख तक इन शक-मुरुण्डों का उच्छेद कर दिया, और गुप्त साम्राज्य की पश्चिमोत्तर सीमा को सुदूर वंक्षु नदी तक पहुँचा दिया।

बंगाल

महरौली के इसी स्तम्भलेख में यह भी लिखा है, कि बंगाल में प्रतिरोध करने के लिए इकट्ठे हुए अनेक राजाओं को भी चंद्रगुप्त ने परास्त किया था। सम्भव है, कि जब चंद्रगुप्त द्वितीय काठियावाड़-गुजरात के शकों को परास्त करने में व्यापृत था, बंगाल के कुछ पुराने राजकुलों ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया हो, और उसे बंगाल जाकर भी अपनी तलवार का प्रताप दिखाने की आवश्यकता हुई हो।

दक्षिणी भारत

चंद्रगुप्त द्वितीय के समय में गुप्त साम्राज्य अपनी शक्ति की चरम सीमा पर पहुँच गया था। दक्षिणी भारत के जिन राजाओं को समुद्रगुप्त ने अपने अधीन किया था, वे अब भी अविकल रूप से चंद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार करते थे। शक-महाक्षत्रपों और गान्धार-कम्बोज के शक-मुरुण्डों के परास्त हो जाने से गुप्त साम्राज्य का विस्तार पश्चित में अरब सागर तक और हिन्दूकुश के पार वंक्षु नदी तक हो गया था।

अश्वमेध

  • चंद्रगुप्त की उपाधि केवल 'विक्रमादित्य' ही नहीं थी। शिलालेखों में उसे 'सिंह-विक्रम', 'सिंहचन्द्र', 'साहसांक', 'विक्रमांक', 'देवराज' आदि अनेक उपाधियों से विभूषित किया गया है। उसके भी अनेक प्रकार के सिक्के मिलते हैं। शक-महाक्षत्रपों को जीतने के बाद उसने उनके प्रदेश में जो सिक्के चलाए थे, वे पुराने शक-सिक्कों के नमूने के थे। उत्तर-पश्चिमी भारत में उसके जो बहुत से सिक्के मिले हैं, वे कुषाण नमूने के हैं। चंद्रगुप्त की वीरता उसके सिक्कों के द्वारा प्रकट होती है। सिक्कों पर उसे भी सिंह के साथ लड़ता हुआ प्रदर्शित किया गया है, और साथ में यह वाक्य दिया गया है, क्षितिमवजित्य सुचरितैः दिवं जयति विक्रमादित्यः पृथिवी का विजय प्राप्त कर विक्रमादित्य अपने सुकार्य से स्वर्ग को जीत रहा है। अपने पिता के समान चंद्रगुप्त ने भी अश्वमेध यज्ञ किया।

विभिन्न संदर्भ

शकारि समुद्रगुप्त के पुत्र एवं उज्जयनी के विख्यात विद्याप्रेमी सम्राट के रूप में ये प्रसिद्ध हैं। इनका वास्तविक नाम चन्द्रगुप्त है। अश्वमेध के अनंतर इन्होंने 'विक्रमादित्य' की उपाधि ग्रहण की थी। इतिहास में इनकी सभा के नौ रत्न उस समय के अपने विषय में पारंगत एवं मनीषी विद्वान् थे। इनके नाम क्रमश: कालिदास, वररुचि, अमर सिंह, धंवंतरि, क्षपणक, वेतालभट्ट, वराहमिहिर, घटकर्पर, और शंकु थे। इनका समय इतिहास के विद्वान् लेखकों द्वारा ईसा पूर्व पह्ली शती निर्धारित होता है। इनके नाम से चलाया गया विक्रमी संवत संवत्सर की गणना में आज भी प्रयुक्त होता है।[3] इन्हें भी देखें: चंद्र

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह तथ्य निश्चित नहीं है क्योंकि कालिदास के काल निर्णय पर अभी तक विद्वानों का मतैक्य नहीं है
  2. 'सौराष्ट्रावन्ति.. विषयांश्च- आभीर शूद्राद्या भोक्ष्यन्ते'।
  3. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2 पृष्ठ संख्या- 557

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