समुद्रगुप्त

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समुद्रगुप्त (335-376)
समुद्रगुप्त गुप्त राजवंश का चौथा राजा और चन्द्रगुप्त प्रथम का उत्तरधिकरी था। वह भारतीय इतिहास में सबसे बड़े और सफल सेनानायक में से एक माना जाता है। समुद्रगुप्त का शासनकाल भारत के लिये स्वर्णयुग की शुरुआत कहा जाता है। समुद्रगुप्त एक उदार शासक, वीर योद्धा और कला का संरक्षक था। उसका नाम जावा पाठ में 'तनत्रीकमन्दका' के नाम से प्रकट है। समुद्रगुप्त के कई अग्रज भाई थे, फिर भी उसके पिता ने समुद्रगुप्त की प्रतिभा को देखकर उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। समुद्रगुप्त ने अपने जीवन काल में कभी भी पराजय का स्वाद नहीं चखा। उसके बारे में वी. ए. स्मिथ ने आकलन किया है कि समुद्रगुप्त प्राचीन काल में भारत का नेपोलियन था।

गुप्त वंश का उत्तराधिकारी

चंद्रगुप्त प्रथम के बाद समुद्रगुप्त मगध के सिंहासन पर बैठा। चंद्रगुप्त के अनेक पुत्र थे। पर गुण और वीरता में समुद्रगुप्त सबसे बढ-चढ़कर था। लिच्छवी कुमारी श्रीकुमारदेवी का पुत्र होने के कारण भी उसका विशेष महत्त्व था। चंद्रगुप्त ने उसे ही अपना उत्तराधिकारी चुना, और अपने इस निर्णय को राज्यसभा बुलाकर सभी सभ्यों के सम्मुख उद्घोषित किया। यह करते हुए प्रसन्नता के कारण उसके सारे शरीर में रोमांच हो आया था, और आँखों में आँसू आ गए थे। उसने सबके सामने समुद्रगुप्त को गले लगाया, और कहा - 'तुम सचमुच आर्य हो, और अब राज्य का पालन करो।' इस निर्णय से राज्यसभा में एकत्र हुए सब सभ्यों को प्रसन्नता हुई।

गृहकलह

सम्भवतः चंद्रगुप्त ने अपने जीवन काल में ही समुद्रगुप्त को राज्यभार सम्भलवा दिया था। प्राचीन आर्य राजाओं की यही परम्परा थी। चंद्रगुप्त के इस निर्णय से उसके अन्य पुत्र प्रसन्न नहीं हुए। उन्होंने समुद्रगुप्त के विरुद्ध विद्रोह किया। इनका नेता 'काच' था। प्रतीत होता है, कि उन्हें अपने विद्रोह में सफलता भी मिली। 'काच' नाम के कुछ सोने के सिक्के भी उपलब्ध हुए हैं। इनमें गुप्त काल के अन्य सोने की सिक्कों की अपेक्षा सोने की मात्रा बहुत कम है। इससे अनुमान होता है, कि भाइयों की इस कलह में राज्यकोष के ऊपर बहुत बुरा असर पड़ा था, और इसीलिए काच ने अपने सिक्कों में सोने की मात्रा कम कर दी थी। पर काच देर तक समुद्रगुप्त का मुक़ाबला नहीं कर सका। समुद्रगुप्त अनुपम वीर था। उसने शीघ्र ही भाइयों के इस विद्रोह को शान्त कर दिया, और पाटलिपुत्र के सिंहासन पर दृढ़ता के साथ अपना अधिकार जमा लिया। काच ने एक साल के लगभग तक राज्य किया। काच नामक गुप्त राजा की सत्ता को मानने का आधार केवल वे सिक्के हैं, जिन पर उसका नाम 'सर्वराजोच्छेता' विशेषण के साथ दिया गया है। अनेक विद्वानों का मत है, कि काच समुद्रगुप्त का ही नाम था। ये सिक्के उसी के हैं, और बाद में दिग्विजय करके जब वह 'आसमुद्रक्षितीश' बन गया था, तब उसने काच के स्थान पर समुद्रगुप्त नाम धारण कर लिया था।

दिग्विजय

गृहकलह को शान्त कर समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए संघर्ष प्रारम्भ किया। इस विजय यात्रा का वर्णन प्रयाग में अशोक के मौर्य के प्राचीन स्तम्भ पर बड़े सुन्दर ढंग से उत्कीर्ण है। सबसे पहले आर्यावर्त के तीन राजाओं को जीतकर अपने अधीन किया गया। इनके नाम हैं—

  1. अहिच्छत्र का राजा अच्युत
  2. पद्मावती का राजा नागसेन
  3. राजा कोटकुलज

सम्भवतः अच्युत और नागसेन भारशिव के वंश के साथ सम्बन्ध रखने वो राजा थे। यद्यपि भारशिव नागों की शक्ति का पहले ही पतन हो चुका था, पर कुछ प्रदेशों में इनके छोटे-छोटे राजा अब भी राज्य कर रहे थे। गुप्तों के उत्कर्ष के समय इन्होंने चंद्रगुप्त प्रथम जैसे शक्तिशाली राजा की अधीनता में 'सामन्त' की स्थिति स्वीकार कर ली थी। पर समुद्रगुप्त और उसके भाइयों की गृहकलह से लाभ उठाकर ये अब फिर से स्वतंत्र हो गए थे। यही दशा कोटकुल में उत्पन्न राजा की भी थी, जिसका नाम प्रयाग के स्तम्भ की प्रशस्ति में मिट गया है। 'कोट' नाम से अंकित सिक्के पंजाब और दिल्ली में उपलब्ध हुए है। इस कुल का राज्य सम्भवतः इसी प्रदेश में था। सबसे पूर्व समुद्रगुप्त ने इन तीनों राजाओं को जीतकर अपने अधीन किया, और इन विजयों के बाद बड़ी धूमधाम के साथ पुष्पपुर पाटलिपुत्र में पुनः प्रवेश किया।

भारतवर्ष पर एकाधिकार

उसका समय भारतीय इतिहास में `दिग्विजय` नामक विजय अभियान के लिए प्रसिद्ध है; समुद्रगुप्त ने मथुरा और पद्मावती के नाग राजाओं को पराजित कर उनके राज्यों को अपने अधिकार में ले लिया। उसने वाकाटक राज्य पर विजय प्राप्त कर उसका दक्षिणी भाग, जिसमें चेदि, महाराष्ट्र राज्य थे, वाकाटक राजा रुद्रसेन के अधिकार में छोड़ दिया था। उसने पश्चिम में अर्जुनायन, मालव गण और पश्चिम-उत्तर में यौधेय, मद्र गणों को अपने अधीन कर, सप्तसिंधु को पार कर वाल्हिक राज्य पर भी अपना शासन स्थापित किया। समस्त भारतवर्ष पर एकाधिकार क़ायम कर उसने `दिग्विजय` की। समुद्र गुप्त की यह विजय-गाथा इतिहासकारों में 'प्रयाग प्रशस्ति` के नाम से जानी जाती है।

समुद्र्गुप्त की दिग्विजय

इस विजय के बाद समुद्र गुप्त का राज्य उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विंध्य पर्वत, पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी और पश्चिम में चंबल और यमुना नदियों तक हो गया था। पश्चिम-उत्तर के मालव, यौघय, भद्रगणों आदि दक्षिण के राज्यों को उसने अपने साम्राज्य में न मिला कर उन्हें अपने अधीन शासक बनाया। इसी प्रकार उसने पश्चिम और उत्तर के विदेशी शक और 'देवपुत्र शाहानुशाही` कुषाण राजाओं और दक्षिण के सिंहल द्वीप-वासियों से भी उसने विविध उपहार लिये जो उनकी अधीनता के प्रतीक थे। उसके द्वारा भारत की दिग्विजय की गई, जिसका विवरण इलाहाबाद क़िले के प्रसिद्ध शिला-स्तम्भ पर विस्तारपूर्वक दिया है।[1]

`विक्रमादित्य' समुद्र्गुप्त

आर्यावत में समुद्रगुप्त ने 'सर्वराजोच्छेत्ता'[2] नीति का पालन नहीं किया। आर्यावत के अनेक राजाओं को हराने के पश्चात् उसने उन राजाओं के राज्य को अपने राज्य में मिला लिया। पराजित राजाओं के नाम इलाहबाद - स्तम्भ पर मिलते हैं - अच्युत, नागदत्त, चंद्र-वर्मन, बलधर्मा, गणपति नाग, रुद्रदेव, नागसेन, नंदी तथा मातिल। इस महान् विजय के बाद उसने अश्वमेध यज्ञ किया और `विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की थी। इस प्रकार समुद्रगुप्त ने समस्त भारत पर अपनी पताका फहरा कर गुप्त-शासन की धाक जमा दी थी।

मथुरा पर विजय

उत्तरापथ के जीते गये राज्यों में मथुरा भी था, समुद्रगुप्त ने मथुरा राज्य को भी अपने साम्राज्य में शामिल किया। मथुरा के जिस राजा को उसने हराया। उसका नाम गणपति नाग मिलता है। उस समय में पद्मावती का नाग शासक नागसेन था, जिसका नाम प्रयाग-लेख में भी आता है। इस शिलालेख में नंदी नाम के एक राजा का नाम भी है। वह भी नाग राजा था और विदिशा के नागवंश से था।[3] समुद्रगुप्त के समय में गुप्त साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। इस साम्राज्य को उसने कई राज्यों में बाँटा।

समुद्रगुप्त के परवर्ती राजाओं के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गंगा-यमुना का दोआब 'अंतर्वेदी' विषय के नाम से जाना जाता था। स्कन्दगुप्त के राज्य काल में अंतर्वेदी का शासक 'शर्वनाग' था। इस के पूर्वज भी इस राज्य के राजा रहे होंगे। सम्भवः समुद्रगुप्त ने मथुरा और पद्मावती के नागों की शक्ति को देखते हुए उन्हें शासन में उच्च पदों पर रखना सही समझा हो। समुद्रगुप्त ने यौधेय, मालवा, अर्जुनायन, मद्र आदि प्रजातान्त्रिक राज्यों को कर लेकर अपने अधीन कर लिया। दिग्विजय के पश्चात् समुद्रगुप्त ने एक अश्वमेध यज्ञ भी किया। यज्ञ के सूचक सोने के सिक्के भी समुद्रगुप्त ने चलाये। इन सिक्कों के अतिरिक्त अनेक भाँति के स्वर्ण सिक्के भी मिलते है।

दक्षिण विजय

आर्यवर्त में अपनी शक्ति को भली-भाँति स्थापित कर समुद्रगुप्त ने दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया। इस विजय यात्रा में उसने कुल बारह राजाओं को जीतकर अपने अधीन किया। जिस क्रम से इनको जीता गया था, उसी के अनुसार इनका उल्लेख भी प्रशस्ति में किया गया है। ये राजा निम्नलिखित हैं -

कोशल का महेन्द्र

यहाँ कोशल का अभिप्राय दक्षिण कोशल से है, जिसमें आधुनिक मध्य प्रदेश के विलासपुर, रायपुर और सम्बलपुर प्रदेश सम्मिलित थे। इसकी राजधानी श्रीपुर (वर्तमान सिरपुर) थी। दक्षिण कोशल से उत्तर की ओर का सब प्रदेश गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत था, और अच्युत तथा नागसेन की पराजय के बाद यह पूर्णतया उसके अधीन हो गया था। आर्यावर्त में पराजित हुए नागसेन की राजधानी ग्वालियर क्षेत्र में 'पद्मावती' थी। अब दक्षिण की ओर विजय यात्रा करते हुए सबसे पहले दक्षिण कोशल का ही स्वतंत्र राज्य पड़ता था। इसके राजा महेन्द्र को जीतकर समुद्रगुप्त ने अपने अधीन किया।

महाकान्तार का व्याघ्रराज

महाकोशल के दक्षिण-पूर्व में महाकान्तार (जंगली प्रदेश) था। इसी के स्थान में आजकल गोंडवाना के सघन जंगल है।

कौराल का मंत्रराज

महाकान्तार के बाद 'कौराल' राज्य की बारी आई। यह राज्य दक्षिणी मध्य प्रदेश के सोनपुर प्रदेश के आसपास था।

पिष्टपुर का महेंन्द्रगिरि

गोदावरी ज़िले में स्थित वर्तमान पीठापुरम ही प्राचीन समय में पिष्टपुर कहलाता था। वहाँ के राजा महेन्द्रगिरि को भी परास्त कर के समुद्रगुप्त ने अपने अधीन किया।

कोट्टर का राजा स्वामिदत्त

कोट्टर का राज्य गंजाम ज़िले में था।

ऐरण्डपल्ल का दमन

ऐरण्डपल्ल का राज्य कलिंग के दक्षिण में था। इसकी स्थिति 'पिष्टपुर' और 'कोट्टर' के पड़ोस में सम्भवतः विजगापट्टम ज़िले में थी।

कांची का विष्णुगोप

कांची का अभिप्राय दक्षिण भारत के कांजीवरम से है। आन्ध्र प्रदेश के पूर्वी ज़िलों और कलिंग को जीतकर अपने अधीन किया।

अवमुक्त का नीलराज

यह राज्य कांची के समीप में ही था।

वेंगि का हस्तवर्मन

यह राज्य कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच में स्थित था। वेंगि नाम की नगरी इस प्रदेश में अब भी विद्यमान है।

पाल्लक का उग्रसेन

यह राज्य नेल्लोर ज़िले में था।

देवराष्ट्र का कुबेर

इस राजा के प्रदेश के सम्बन्ध में ऐतिहासिकों में मतभेद है। कुछ विद्वान इसे सतारा ज़िले में मानते हैं, और अन्य विजगापट्टम ज़िले में। काँची, वेंगि और अवमुक्त राज्यों के शासक पल्लव वंश के थे। सम्भवतः उन सब की सम्मिलित शक्ति को समुद्रगुप्त ने एक साथ ही परास्त किया था। देवराष्ट्र का प्रदेश दक्षिण से उत्तर की ओर लौटते हुए मार्ग में आया था।

कौस्थलपुर का धनंजय

यह राज्य उत्तरी आर्कोट ज़िले में था। इसकी स्मृति कुट्टलूर के रूप में अब भी सुरक्षित है।

पुन: युद्ध

दक्षिण भारत के इन विभिन्न राज्यों को जीतकर समुद्रगुप्त वापस लौट आया। दक्षिण में वह काँची से आगे नहीं गया था। इन राजाओं को केवल परास्त ही किया गया था, उनका मूल से उच्छेद नहीं किया गया था। प्रयाग की समुद्रगुप्त प्रशस्ति के अनुसार इन राजाओं को हराकर पहले क़ैद कर लिया गया था, पर बाद में अनुग्रह करके उन्हें मुक्त कर दिया गया था।

गुप्त साम्राज्य में विलय

ऐसा प्रतीत होता है, कि जब समुद्रगुप्त विजय यात्रा के लिए दक्षिण गया हुआ था, उत्तरी भारत (आर्यावर्त) के अधीनस्थ राजाओं ने फिर से विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया। उन्हें फिर से दोबारा जीता गया। इस बार समुद्रगुप्त उनसे अधीनता स्वीकार कराके ही संतुष्ट नहीं हुआ, अपितु उसने उनका मूल से उच्छेद कर दिया। इस प्रकार जड़ से उखाड़े हुए राजाओं के नाम ये हैं - रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चन्द्रवर्मा, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युतनन्दी और बलवर्मा। इनमें से नागसेन और अच्युत के साथ समुद्रगुप्त के युद्ध हो चुके थे। उन्हीं को परास्त करने के बाद समुद्रगुप्त ने धूमधाम के साथ पाटलिपुत्र (पुष्पपुर) में प्रवेश किया था। अब ये राजा फिर से स्वतंत्र हो गए थे, और इस बार समुद्रगुप्त ने इनका समूलोन्मूलन करके इनके राज्यों को अपने राज्य में मिला लिया। रुद्रदेव वाकाटक वंशी प्रसिद्ध राजा रुद्रसेन प्रथम था। मतिल की एक मुद्रा बुलन्दशहर के समीप मिली है। इसका राज्य सम्भवतः इसी प्रदेश में था। नागदत्त और गणपतिनाथ के नामों से यह सूचित होता है, कि वे भारशिव नागों के वंश के थे, और उनके छोटे-छोटे राज्य आर्यावर्त में ही विद्यमान थे। गणपतिनाथ के कुछ सिक्के बेसनगर में भी उपलब्ध हुए हैं। चन्द्रवर्मा पुष्करण का राजा था। दक्षिणी राजपूताना में सिसुनिया की एक चट्टान पर उसका एक शिलालेख भी मिला है। सम्भवतः बलवर्मा कोटकुलज नृपति था, जिसे पहली बार भी समुद्रगुप्त ने पराजित किया था। ये सब आर्यावर्ती राजा इस बार पूर्ण रूप से गुप्त सम्राट द्वारा परास्त हुए, और इनके प्रदेश पूरी तरह से गुप्त साम्राज्य में शामिल कर लिए गए।

कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार

आटविक राजाओं के प्रति समुद्रगुप्त ने प्राचीन मौर्य नीति का प्रयोग किया। कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार आटविक राजाओं को अपना सहयोगी और सहायक बनाने का उद्योग करना चाहिए। आटविक सेनाएँ युद्ध के लिए बहुत उपयोगी होती थीं। समुद्रगुप्त ने इन राजाओं का अपना 'परिचारक' बना लिया था।

समुद्रगुप्त की अधीनता

इसके बाद समुद्रगुप्त को युद्धों की आवश्यकता की नहीं हुई। इन विजयों से उसकी धाक ऐसी बैठ गई थी, कि अन्य प्रत्यन्त (सीमा-प्रान्तों में वर्तमान) नृपतियों तथा यौधेय, मालव आदि गणराज्यों ने स्वयमेव उसकी अधीनता स्वीकृत कर ली थी। ये सब कर देकर, आज्ञाओं का पालन कर, प्रणाम कर, तथा राजदरबार में उपस्थित होकर सम्राट समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकृत करते थे। इस प्रकार करद बनकर रहले वाले प्रत्यन्त राज्यों के नाम हैं -

  1. समतट या दक्षिण-पूर्वी बंगाल
  2. कामरूप या असम
  3. नेपाल
  4. डवाक या असम का नोगाँव प्रदेश
  5. कर्तृपुर या कुमायूँ और गढ़वाल के पार्वत्य प्रदेश।

निःसन्देह ये सब गुप्त साम्राज्य के प्रत्यन्त या सीमा प्रदेश में स्थित राज्य थे।

अधीनस्थ राज्य

इस प्रकार जिन गणराज्यों ने गुप्त सम्राट की अधीनता को स्वीकार किया, वे निम्नलिखित थे - मालव, आर्जुनायन, यौधेय, मद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानिक, काक़ और ख़रपरिक। इनमें से मालव, आर्जुनायन, यौधेय, मद्रक और आभीर प्रसिद्ध गणराज्य थे। कुषाण साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर इन्होंने अपनी स्वतंत्रता को पुनः स्थापित किया था, और धीरे-धीरे अपनी शक्ति बहुत बढ़ा ली थी। अब समुद्रगुप्त ने इन्हें अपने अधीन कर लिया, पर उसने इनको जड़ से उखाड़ फैंकने का प्रयत्न नहीं किया। वह केवल कर, प्रणाम, राजदरबार में उपस्थिति तथा आज्ञाविर्तिता से ही संतुष्ट हो गया। इन गणराज्यों ने भी सम्राट की अधीनता स्वीकार कर अपनी पृथक् सत्ता को बनाए रखा। प्रार्जुन, काक, सनकादिक और ख़रपरिक छोटे-छोटे गणराज्य थे, जो विदिशा के समीपवर्ती प्रदेश में स्थित थे। अनेक विद्वानों के मत में इनकी स्थिति उत्तर-पश्चिम के गन्धार सदृश राज्यों के क्षेत्र में थी।

समुद्रगुप्त का प्रशस्ति गायन

दक्षिण और पश्चिम के अन्य बहुत से राजा भी सम्राट समुद्रगुप्त के प्रभाव में थे, और उसे आदरसूचक उपहार आदि भेजकर संतुष्ट रखते थे। इस प्रकार के तीन राजाओं का तो समुद्रगुप्त प्रशस्ति में उल्लेख भी किया गया है। ये 'देवपुत्र हिशाहानुशाहि', 'शक-मुरुण्ड' और 'शैहलक' हैं। दैवपुत्र शाहानुशाहि से कुषाण राजा का अभिप्राय है। शक-मुरुण्ड से उन शक क्षत्रपों का ग्रहण किया जाता है, जिनके अनेक छोटे-छोटे राज्य इस युग में भी उत्तर-पश्चिमी भारत में विद्यमान थे। उत्तरी भारत से भारशिव, वाकाटक और गुप्त वंशों ने शकों और कुषाणों के शासन का अन्त कर दिया था। पर उनके अनेक राज्य उत्तर-पश्चिमी भारत में अब भी विद्यमान थे। सिंहल के राजा को सैहलक कहा गया है। इन शक्तिशाली राजाओं के द्वारा समुद्रगुप्त का आदर करने का प्रकार भी प्रयाग की प्रशस्ति में स्पष्ट रूप से लिखा गया है।

कन्योपायन

ये राजा आत्मनिवेदन, कन्योपायन, दान, गरुड़ध्वज से अंकित आज्ञापत्रों के ग्रहण आदि उपायों से सम्राट समुद्रगुप्त को प्रसन्न रखने का प्रयत्न करते थे। आत्मनिवेदन का अभिप्राय है, अपनी सेवाओं को सम्राट के लिए अर्पित करना। कन्योपायन का अर्थ है - कन्या विवाह में देना। राजा लोग किसी शक्तिशाली सम्राट से मैत्री सम्बन्ध बनाये रखने के लिए इस उपाय का प्रायः प्रयोग करते थे। सम्भवतः सिंहल, शक और कुषाण राजाओं ने भी समुद्रगुप्त को अपनी कन्याएँ विवाह में प्रदान की थीं। दान का अभिप्राय भेंट-उपहार से है। सम्राट समुद्रगुप्त से ये राजा शासन (आज्ञापत्र) भी ग्रहण करते थे। इन सब उपायों से वे महाप्रतापी गुप्त सम्राट को संतुष्ट रखते थे, और उसके कोप से बचे रहते थे। इस प्रकार पश्चिम में गान्धार से लगाकर पूर्व में असम तक और दक्षिण में सिंहल (लंका) द्वीप से शुरू कर उत्तर में हिमालय के कीर्तिपुर जनपद तक, सर्वत्र समुद्रगुप्त का डंका बज रहा था। आर्यावर्त के प्रदेश सीधे उसके शासन में थे, दक्षिण के राजा उसके अनुग्रह से अपनी सत्ता क़ायम रखे हुए थे। सीमाप्रदेशों के जनपद और गणराज्य उसे बाक़ायदा कर देते थे, और दूरस्थ राजा भेंट-उपहार से तथा अपनी सेवाएँ समर्पण कर उसके साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित किए हुए थे। प्रयाग की प्रशस्ति में गुप्त सम्राट की इस अनुपम शक्ति को कितने सुन्दर शब्दों में यह कहकर प्रकट किया है, कि पृथ्वी भर में कोई उसका 'प्रतिरथ' (ख़िलाफ़ खड़ा हो सकने वाला) नहीं था, सारी धरणी को उसने एक प्रकार से अपने बाहुबल से बाँध सा रखा था।

अश्वमेध यज्ञ

सम्पूर्ण भारत में एकछत्र अबाधित शासन स्थापित कर और दिग्विजय को पूर्ण कर समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया। शिलालेखों में उसे 'चिरोत्सन्न अश्वमेधाहर्ता' (देर से न हुए अश्वमेध को फिर से प्रारम्भ करने वाला) और 'अनेकाश्वमेधयाजी' (अनेक अश्वमेध यज्ञ करने वाला) कहा गया है। इन अश्वमेधों में केवल एक पुरानी परिपाटी का ही अनुसरण नहीं किया गया था, अपितु इस अवसर से लाभ उठाकर कृपण, दीन, अनाथ और आतुर लोगों को भरपूर सहायता देकर उनके उद्धार का भी प्रयत्न किया गया था। प्रयाग की प्रशस्ति में इसका बहुत स्पष्ट संकेत है। समुद्रगुप्त के कुछ सिक्कों में यज्ञीय अश्व का भी चित्र दिया गया है। ये सिक्के अश्वमेध यज्ञ के उपलक्ष्य में ही जारी किए गए थे। इन सिक्कों में एक तरफ़ जहाँ यज्ञीय अश्व का चित्र है, वहीं दूसरी तरफ़ अश्वमेध की भावना को इन सुन्दर शब्दों में प्रकट किया गया है - 'राजाधिराजः पृथिवीमवजित्य दिवं जयति अप्रतिवार्य वीर्यः'—राजाधिराज पृथ्वी को जीतकर अब स्वर्ग की जय कर रहा है, उसकी शक्ति और तेज़ अप्रतिम है।

गुण और चरित्र

सम्राट समुद्रगुप्त के वैयक्तिक गुणों और चरित्र के सम्बन्ध में प्रयाग की प्रशस्ति में बड़े सुन्दर संदर्भ पाये जाते हैं। इसे महादण्ड नायक ध्रुवभूति के पुत्र, संधिविग्रहिक महादण्डनायक हरिषेण ने तैयार किया था। हरिषेण के शब्दों में समुद्रगुप्त का चरित्र इस प्रकार का था - 'उसका मन विद्वानों के सत्संग-सुख का व्यसनी था। उसके जीवन में सरस्वती और लक्ष्मी का अविरोध था। वह वैदिक मार्ग का अनुयायी था। उसका काव्य ऐसा था, कि कवियों की बुद्धि विभव का भी उससे विकास होता था, यही कारण है कि उसे 'कविराज' की उपाधि दी गई थी। ऐसा कौन सा ऐसा गुण है, जो उसमें नहीं था। सैकड़ों देशों में विजय प्राप्त करने की उसमें अपूर्व क्षमता थी। अपनी भुजाओं का पराक्रम ही उसका सबसे उत्तम साथी था। परशु, बाण, शंकु, शक्ति आदि अस्त्रों-शस्त्रों के सैकड़ों घावों से उसका शरीर सुशोभित था। उसकी नीति यह थी, कि साधु का उदय और असाधु का प्रलय हो। उसका हृदय इतना कोमल था, कि भक्ति और झुक जाने मात्र से वश में आ जाता था।'

समुद्रगुप्त के सिक्के

समुद्रगुप्त के सात प्रकार के सिक्के इस समय में मिलते हैं।

  1. पहले प्रकार के सिक्कों में उसका जो चित्र है, उसमें वह युद्ध की पोशाक पहने हुए है। उसके बाएँ हाथ में धनुष है, और दाएँ हाथ में बाण। सिक्के के दूसरी तरफ़ लिखा है, "समरशतवितत-विजयी जितारि अपराजितों दिवं जयति" सैकड़ों युद्धों के द्वारा विजय का प्रसार कर, सब शत्रुओं को परास्त कर, अब स्वर्ग को विजय करता है।
  2. दूसरे प्रकार के सिक्कों में उसका जो चित्र है, उसमें वह परशु लिए खड़ा है। इन सिक्कों पर लिखा है, "कृतान्त (यम) का परशु लिए हुए अपराजित विजयी की जय हों।
  3. तीसरे प्रकार के सिक्कों में उसका जो चित्र है, उसमें उसके सिर पर उष्णीष है, और वह एक सिंह के साथ युद्ध कर उसे बाण से मारता हुआ दिखाया गया है। ये तीन प्रकार के सिक्के समुद्रगुप्त के वीर रूप को चित्रित करते हैं।
  4. पर इनके अतिरिक्त उसके बहुत से सिक्के ऐसे भी हैं, जिनमें वह आसन पर आराम से बैठकर वीणा बजाता हुआ प्रदर्शित किया गया है। इन सिक्कों पर समुद्रगुप्त का केवल नाम ही है, उसके सम्बन्ध में कोई उक्ति नहीं लिखी गई है। इसमें सन्देह नहीं कि जहाँ समुद्रगुप्त वीर योद्धा था, वहाँ वह संगीत और कविता का भी प्रेमी था।

सिंहल से सम्बन्ध

समुद्रगुप्त के इतिहास की कुछ अन्य बातें भी उल्लेख योग्य हैं। इस काल में सीलोन (सिंहल) का राजा मेघवर्ण था। उसके शासन काल में दो बौद्ध-भिक्षु बोधगया की तीर्थयात्रा के लिए आए थे। वहाँ पर उनके रहने के लिए समुचित प्रबन्ध नहीं था। जब वे अपने देश को वापिस गए, तो उन्होंने इस विषय में अपने राजा मेघवर्ण से शिकायत की। मेघवर्ण ने निश्चय किया, कि बोधगया में एक बौद्ध-विहार सिंहली यात्रियों के लिए बनवा दिया जाए। इसकी अनुमति प्राप्त करने के लिए उसने एक दूत-मण्डल समुद्रगुप्त की सेवा में भेजा। समुद्रगुप्त ने बड़ी प्रसन्नता से इस कार्य के लिए अपनी अनुमति दे दी, और राजा मेघवर्ण ने 'बौधिवृक्ष' के उत्तर में एक विशाल विहार का निर्माण करा दिया। जिस समय प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्यू-त्सांग बोधगया की यात्रा के लिए आया था, यहाँ एक हज़ार से ऊपर भिक्षु निवास करते थे।

पटरानी

सम्राट समुद्रगुप्त की अनेक रानियाँ थी, पर पटरानी (अग्रमहिषी पट्टमहादेवी) का पद दत्तदेवी को प्राप्त था। इसी से चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का जन्म हुआ था। पचास वर्ष के लगभग शासन करके 378 ई. में समुद्रगुप्त स्वर्ग को सिधारे।

पुत्र

समुद्र गुप्त के दो पुत्र थे-

  1. रामगुप्त
  2. चंद्रगुप्त
  • समुद्र गुप्त के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त मगध का सम्राट हुआ था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इसी स्तम्भ पर सम्राट अशोक का एक लेख भी ख़ुदा हुआ है।
  2. समुद्र्गुप्त के कुछ सिक्कों पर 'सर्वराजोच्छेत्ता' उपाधि मिलती है। उसकी दूसरी प्रसिद्ध उपाधि 'पराक्रमांक ' से भी समुद्रगुप्त के पराक्रम का पता चलता है।
  3. शिशुनंदि नामक एक राजा का उल्लेख पुराणों में मिलता है।

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