महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 42 श्लोक 42-57

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द्विचत्वारिंश (42) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्विचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 42-57 का हिन्दी अनुवाद


इन्द्रियों, उनके विषयों और पंच महाभूतों की एकता का विचार करके उसे मन में अच्छी तरह धारण कर लेना चाहिये। मन के क्षीण होने के साथ ही सब वस्तुओं का क्षय हो जाने पर मनुष्य को जन्म के सुख (लौकिक सुख भोग आदि) की इच्छा नहीं होती। जिनका अन्त:करण ज्ञान से सम्पन्न होता है, उन विद्वानों को उसी में सुख का अनुभव होता है। महर्षियो! अब मैं मन की सूक्ष्म भावना को जाग्रत् करने वाली कल्याणमयी निवृत्ति के विषय में उपदेश देता हूँ, जो कोमल और कठोर भाव से समस्त प्राणियों में रहती है। जहाँ गुण होते हुए भी नहीं के बराबर हैं, जो अभिमान से रहित और एकान्तचर्या से युक्त हैं तथा जिसमें भेद दृष्टिका सर्वथा अभाव हैं, वही ब्रह्ममय बर्ताव बतलाया गया है, वही समस्त सुखों का एकमात्र आधार है। जैस कछुआ अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है, उसी प्रकार जो विद्वान् मनुष्य अपनी सम्पूर्ण कामनाओं का सब ओर से संकुचित करके रजो गुण से रहित हो जाता है, वह सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त एवं सदा के लिये सुखी हो जाता है। जो कामनाओं को अपने भीतर लीन करके तृष्णा से रहित, एकाग्रचित्त तथा सम्पूर्ण प्राणियों का सुह्रद् और मित्र होता है, वह ब्रह्म प्राप्ति का पात्र हो जाता है। विषयों की अभिलाषा रखने वाली समस्त इन्द्रियों को रोक कर जन समुदाय के स्थान का परित्याग करने से मुनि का अध्यात्म ज्ञान रूपी तेज अधिक प्रकाशित होता है। जैसे ईंधन डालने से आग प्रज्वलित होकर अत्यन्त उद्दीप्त दिखायी देती है, उसी प्रकार इन्द्रियों का निरोध करने से परमात्मा के प्रकाश का विशेष अनुभव होने लगता है। जिस समय योगी प्रसन्नचित होकर सम्पूर्ण प्राणियेां को अपने अन्त:करण में स्थित देखने लगता है, उस समय वह स्वयंज्योति: स्वरूप होकर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म सर्वोततम परमात्मा को प्राप्त होता है। अग्नि जिसका रूप है, रुधिर जिसका प्रवाह हे, पवन जिसका स्पर्श है, पृथ्वी जिसमें हाड़-मांस आदि कठोर रूप में प्रकट है, आकाश जिसका कान है, जो रोग और शोक से चारों ओर से घिरा हुआ है, जो पाँच प्रवाहों से आवृत है, जो पाँच भूतों से भली भाँति युक्त है, जिसके नौ द्वार हैं, जिसके दो (जीव और ईश्वर) देवता हैं, जो रजोगुणमय, अदृश्य (नाशवान्), (सुख दु:ख और मोहरूप) तीन गुणों से तथा वात, पित्त और कफ इन तीन धातुओं से युक्त है, जो संसर्ग में रत और जड है, उसको शरीर समझना चाहिये। जिसका सम्पूण लोक में विचरण करना दु:खद है, जो बुद्धि के आश्रित है, वही इस लोक में कालच्रक है। यह कालचक्र और अगाध और मोह नाम से कहा जाने वाला बड़ा भारी समुद्र रूप है। यह देवताओं के सहित समस्त जागत का संक्षेप और विस्तार करता है तथा सबको जगाता है। सदा इन्द्रियों के निरोध से मनुष्य काम, क्रोध, भय, लोभ, द्रोह और असत्य- इन सब दुस्त्यज अवगुणों को त्याग देता है। जिसने इस लोक में तीन गुणों वाले पांचभौतिक देह का अभिमान त्याग दिया है, उसे अपने हृदयाकाश में पर ब्रह्मरूप उत्तम पद की उपलब्धि होती है- वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।






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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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