"राहु": अवतरणों में अंतर
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'''राहु''' पुराणानुसार नवग्रहों में से एक है। वह सिंहिका के गर्भ से उत्पन्न विप्रचित्ति के पुत्र थे। [[देवता|देवताओं]] की पंक्ति में बैठकर इन्होंने चोरी से अमृत पी लिया था। [[सूर्य देव|सूर्य]] और [[चन्द्रमा देवता|चन्द्रमा]] ने [[राहु]] के इस कृत्य की जानकारी भगवान [[विष्णु]] को दी। विष्णु ने [[चक्र अस्त्र|चक्र]] से उसका सिर काट लिया। क्योंकि राहु अमृत पी चुके थे, इसीलिए वह अमर हो गये। उनका मस्तक 'राहु' और धड़ 'केतु' हो गया। तब से राहु सूर्य और चन्द्रमा से बैर रखते हैं। वह समय-समय पर सूर्य और चन्द्रमा को केतु और राहु के रूप में ग्रसते हैं, जिसे '[[ग्रहण]]' कहते हैं।<ref>[[मत्स्यपुराण]] 1.9; 249.14 से अंत तक; अध्याय 250, 251; [[वायुपुराण]] 23.90; 52.37; 92.9; [[विष्णुपुराण]] 1.90.80.111</ref> | |||
==परिचय== | |||
राहु का मुख भयंकर है। ये सिर पर मुकुट, गले में माला तथा शरीर पर काले रंग का वस्त्र धारण करते हैं। इनके हाथों में क्रमश:- तलवार, ढाल, त्रिशूल और वरमुद्रा है तथा ये सिंह के आसन पर आसीन हैं। ध्यान में ऐसे ही राहु प्रशस्त माने गये हैं। राहु की माता का नाम सिंहिका था, जो विप्रचित्ति की पत्नी तथा [[हिरण्यकशिपु]] की पुत्री थी। माता के नाम से राहु को 'सैंहिकेय' भी कहा जाता है। राहु के सौ और भाई थे, जिनमें राहु सबसे बढ़ा-चढ़ा था।<ref>श्रीमद्भागवत 6।6।36</ref> | |||
*[[महाभारत]] <ref> महाभारत [[भीष्म पर्व महाभारत|भीष्मपर्व]] (12।40</ref> के अनुसार राहु ग्रह मण्डलाकार होता है। ग्रहों के साथ राहु भी ब्रह्मा की सभा में बैठता है। मत्स्यपुराण <ref>मत्स्यपुराण | ====अमरता की प्राप्ति==== | ||
*[[ऋग्वेद]] <ref> ऋग्वेद | जिस समय [[समुद्र मंथन]] के बाद भगवान [[विष्णु]] मोहिनी रूप में देवताओं को अमृत पिला रहे थे, उसी समय राहु देवताओं का वेष बनाकर उनके बीच में आ बैठा और [[देवता|देवताओं]] के साथ उसने भी अमृत पी लिया। परन्तु तत्क्षण [[चंद्र देवता|चन्द्रमा]] और [[सूर्य देवता|सूर्य]] ने उसे पहचान लिया और उसकी पोल खोल दी। अमृत पिलाते-पिलाते ही भगवान विष्णु ने अपने तीखी धार वाले [[सुदर्शन चक्र]] से उसका सिर काट डाला। किंतु अमृत का संसर्ग होने से राहु अमर हो गया और [[ब्रह्मा]] ने उसे [[ग्रह]] बना दिया।<ref>श्रीमद्भागवत 8।9।26</ref> | ||
*[[मत्स्य पुराण]] के अनुसार राहु का रथ अन्धकार रूप है। इसे कवच आदि से सजाये हुए काले रंग के आठ घोड़े खींचते हैं। राहु के अधिदेवता काल तथा प्रत्यधि देवता सूर्य हैं। | ==पौराणिक तथ्य== | ||
*[[महाभारत]], भीष्मपर्व<ref> महाभारत [[भीष्म पर्व महाभारत|भीष्मपर्व]] (12।40</ref> के अनुसार राहु ग्रह मण्डलाकार होता है। ग्रहों के साथ राहु भी ब्रह्मा की सभा में बैठता है। | |||
*[[मत्स्यपुराण]] <ref>मत्स्यपुराण 28।61</ref> के अनुसार [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] की छाया मण्डलाकार होती है। राहु इसी छाया का भ्रमण करता है। यह छाया का अधिष्ठात [[देवता]] है। | |||
*[[ऋग्वेद]]<ref> ऋग्वेद 5।40।5</ref> के अनुसार 'असूया' (सिंहिका) पुत्र राहु जब सूर्य और चन्द्रमा को तम से [[आच्छन्न]] कर लेता है, तब इतना अधेरा छा जाता है कि लोग अपने स्थान को भी नहीं पहचान पाते। ग्रह बनने के बाद भी राहु बैर-भाव से [[पूर्णिमा]] को चन्द्रमा और [[अमावस्या]] को सूर्य पर आक्रमण करता है। इसे [[ग्रहण]] या 'राहु पराग' कहते हैं। | |||
*[[मत्स्य पुराण]] के अनुसार राहु का रथ अन्धकार रूप है। इसे कवच आदि से सजाये हुए काले रंग के आठ घोड़े खींचते हैं। राहु के अधिदेवता काल तथा प्रत्यधि देवता सूर्य हैं। नवग्रह मण्डल में इसका प्रतीक पायव्य कोण में काला ध्वज है। | |||
*राहु की महादशा 18 वर्ष की होती है। अपवाद स्परूप कुछ परिस्थितियों को छोड़कर यह क्लेशकारी ही सिद्ध होता है। | *राहु की महादशा 18 वर्ष की होती है। अपवाद स्परूप कुछ परिस्थितियों को छोड़कर यह क्लेशकारी ही सिद्ध होता है। | ||
*ज्योतिषशास्त्र के अनुसार यदि कुण्डली में राहु की स्थिति प्रतिकूल या अशुभ है तो यह अनेक प्रकार की शारीरिक व्याधियाँ उत्पन्न करता है। कार्य सिद्धि में बाधा उत्पन्न करने वाला तथा दुर्घटनाओं का यह जनक माना जाता है। | *ज्योतिषशास्त्र के अनुसार यदि कुण्डली में राहु की स्थिति प्रतिकूल या अशुभ है तो यह अनेक प्रकार की शारीरिक व्याधियाँ उत्पन्न करता है। कार्य सिद्धि में बाधा उत्पन्न करने वाला तथा दुर्घटनाओं का यह जनक माना जाता है। | ||
==शान्ति के उपाय== | ==शान्ति के उपाय== | ||
राहु की शान्ति के लिये मृत्युंजय, जप तथा फिरोजा धारण करना श्रेयस्कर है। इसके लिये अभ्रक, लोहा, तिल, नील वस्त्र, ताम्रपात्र, सप्तधान्य, उड़द, गोमेद, तेल, कम्बल, घोड़ा तथा [[खड्ग]] का दान करना चाहिये। | राहु की शान्ति के लिये मृत्युंजय, जप तथा फिरोजा धारण करना श्रेयस्कर है। इसके लिये अभ्रक, लोहा, तिल, नील वस्त्र, ताम्रपात्र, सप्तधान्य, उड़द, गोमेद, तेल, कम्बल, घोड़ा तथा [[खड्ग]] का दान करना चाहिये। | ||
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10:03, 18 जुलाई 2013 का अवतरण
राहु पुराणानुसार नवग्रहों में से एक है। वह सिंहिका के गर्भ से उत्पन्न विप्रचित्ति के पुत्र थे। देवताओं की पंक्ति में बैठकर इन्होंने चोरी से अमृत पी लिया था। सूर्य और चन्द्रमा ने राहु के इस कृत्य की जानकारी भगवान विष्णु को दी। विष्णु ने चक्र से उसका सिर काट लिया। क्योंकि राहु अमृत पी चुके थे, इसीलिए वह अमर हो गये। उनका मस्तक 'राहु' और धड़ 'केतु' हो गया। तब से राहु सूर्य और चन्द्रमा से बैर रखते हैं। वह समय-समय पर सूर्य और चन्द्रमा को केतु और राहु के रूप में ग्रसते हैं, जिसे 'ग्रहण' कहते हैं।[1]
परिचय
राहु का मुख भयंकर है। ये सिर पर मुकुट, गले में माला तथा शरीर पर काले रंग का वस्त्र धारण करते हैं। इनके हाथों में क्रमश:- तलवार, ढाल, त्रिशूल और वरमुद्रा है तथा ये सिंह के आसन पर आसीन हैं। ध्यान में ऐसे ही राहु प्रशस्त माने गये हैं। राहु की माता का नाम सिंहिका था, जो विप्रचित्ति की पत्नी तथा हिरण्यकशिपु की पुत्री थी। माता के नाम से राहु को 'सैंहिकेय' भी कहा जाता है। राहु के सौ और भाई थे, जिनमें राहु सबसे बढ़ा-चढ़ा था।[2]
अमरता की प्राप्ति
जिस समय समुद्र मंथन के बाद भगवान विष्णु मोहिनी रूप में देवताओं को अमृत पिला रहे थे, उसी समय राहु देवताओं का वेष बनाकर उनके बीच में आ बैठा और देवताओं के साथ उसने भी अमृत पी लिया। परन्तु तत्क्षण चन्द्रमा और सूर्य ने उसे पहचान लिया और उसकी पोल खोल दी। अमृत पिलाते-पिलाते ही भगवान विष्णु ने अपने तीखी धार वाले सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट डाला। किंतु अमृत का संसर्ग होने से राहु अमर हो गया और ब्रह्मा ने उसे ग्रह बना दिया।[3]
पौराणिक तथ्य
- महाभारत, भीष्मपर्व[4] के अनुसार राहु ग्रह मण्डलाकार होता है। ग्रहों के साथ राहु भी ब्रह्मा की सभा में बैठता है।
- मत्स्यपुराण [5] के अनुसार पृथ्वी की छाया मण्डलाकार होती है। राहु इसी छाया का भ्रमण करता है। यह छाया का अधिष्ठात देवता है।
- ऋग्वेद[6] के अनुसार 'असूया' (सिंहिका) पुत्र राहु जब सूर्य और चन्द्रमा को तम से आच्छन्न कर लेता है, तब इतना अधेरा छा जाता है कि लोग अपने स्थान को भी नहीं पहचान पाते। ग्रह बनने के बाद भी राहु बैर-भाव से पूर्णिमा को चन्द्रमा और अमावस्या को सूर्य पर आक्रमण करता है। इसे ग्रहण या 'राहु पराग' कहते हैं।
- मत्स्य पुराण के अनुसार राहु का रथ अन्धकार रूप है। इसे कवच आदि से सजाये हुए काले रंग के आठ घोड़े खींचते हैं। राहु के अधिदेवता काल तथा प्रत्यधि देवता सूर्य हैं। नवग्रह मण्डल में इसका प्रतीक पायव्य कोण में काला ध्वज है।
- राहु की महादशा 18 वर्ष की होती है। अपवाद स्परूप कुछ परिस्थितियों को छोड़कर यह क्लेशकारी ही सिद्ध होता है।
- ज्योतिषशास्त्र के अनुसार यदि कुण्डली में राहु की स्थिति प्रतिकूल या अशुभ है तो यह अनेक प्रकार की शारीरिक व्याधियाँ उत्पन्न करता है। कार्य सिद्धि में बाधा उत्पन्न करने वाला तथा दुर्घटनाओं का यह जनक माना जाता है।
शान्ति के उपाय
राहु की शान्ति के लिये मृत्युंजय, जप तथा फिरोजा धारण करना श्रेयस्कर है। इसके लिये अभ्रक, लोहा, तिल, नील वस्त्र, ताम्रपात्र, सप्तधान्य, उड़द, गोमेद, तेल, कम्बल, घोड़ा तथा खड्ग का दान करना चाहिये।
वैदिक मन्त्र
इसके जप का वैदिक मन्त्र-'ॐ कया नश्चित्र आ भुवदूती सदावृध: सखा। कया शचिष्ठया वृता॥'
पौराणिक मन्त्र
पौराणिक मन्त्र- 'अर्धकायं महावीर्यं चन्द्रादित्यविमर्दनम्। सिंहिकागर्भसम्भूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम्॥',
बीज मन्त्र
बीज मन्त्र- 'ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं स: राहवे नम:' तथा
सामान्य मन्त्र
सामान्य मन्त्र- 'ॐ रां राहवे नम:' है। इसमें से किसी एक का निश्चित संख्या में नित्य जप करना चाहिये। जप का समय रात्रि तथा कुल संख्या 18000 है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मत्स्यपुराण 1.9; 249.14 से अंत तक; अध्याय 250, 251; वायुपुराण 23.90; 52.37; 92.9; विष्णुपुराण 1.90.80.111
- ↑ श्रीमद्भागवत 6।6।36
- ↑ श्रीमद्भागवत 8।9।26
- ↑ महाभारत भीष्मपर्व (12।40
- ↑ मत्स्यपुराण 28।61
- ↑ ऋग्वेद 5।40।5
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