"कंबोडिया": अवतरणों में अंतर
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'''कंबोडिया''' | '''कंबोडिया''' या 'कंबुज' या 'कंबोज' दक्षिण-पूर्व [[एशिया]] का एक प्रमुख देश है। 'नामपेन्ह' इस राजतंत्रीय देश का सबसे बड़ा शहर और राजधानी है। पहले इस देश को 'कंपूचिया' के नाम से जाना जाता था। कंबोडिया का आविर्भाव एक समय बहुत शक्तिशाली रहे [[हिंदू]] एवं [[बौद्ध]] 'खमेर साम्राज्य' से हुआ, जिसने ग्यारहवीं से चौदहवीं [[सदी]] के बीच पूरे हिन्द-[[चीन]] क्षेत्र पर शासन किया था। कंबोडिया की सीमा पश्चिम, पश्चिमोत्तर में [[थाईलैंड]], पूर्व एवं उत्तर-पूर्व में लाओस, वियतनाम से, दक्षिण में थाईलैंड की खाड़ी से लगती हैं। | ||
==इतिहास== | |||
'कंबुज', 'कंबोज' कंबोडिया का प्राचीन [[संस्कृत]] नाम है। भूतपूर्व इंडोचीन प्राय:द्वीप में सर्वप्राचीन भारतीय उपनिवेश की स्थापना फूनान प्रदेश में प्रथम शती ई. के लगभग हुई थी। लगभग 600 वर्षों तक फूनान ने इस प्रदेश में हिंदू संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार करने में महत्वपूर्ण योग दिया। तत्पश्चात् इस क्षेत्र में 'कंबुज' या 'कंबोज' का महान् राज्य स्थापित हुआ, जिसके अद्भुत ऐश्वर्य की गौरवपूर्ण परंपरा 14वीं सदी ई. तक चलती रही। इस प्राचीन वैभव के [[अवशेष]] आज भी अंग्कोरवात, अंग्कोरथोम नामक स्थानों में वर्तमान हैं। | |||
====कंबोज उपनिवेश की नींव==== | |||
[[ | कंबोज की प्राचीन दंतकथाओं के अनुसार इस उपनिवेश की नींव 'आर्यदेश' के राजा कंबु स्वयांभुव ने डाली थी। वह भगवान [[शिव]] की प्रेरणा से कंबोज देश में आए और यहाँ बसी हुई नाग जाति के राजा की सहायता से उन्होंने इस जंगली [[मरुस्थल]] में एक नया राज्य बसाया, जो नागराज की अद्भुत जादूगरी से हरे भरे, सुंदर प्रदेश में परिणत हो गया। कंबु ने नागराज की कन्या मेरा से [[विवाह]] कर लिया और कंबुज राजवंश की नींव डाली। यह भी संभव है कि भारतीय कंबोज<ref>[[कश्मीर]] का [[राजौरी ज़िला]] तथा संवर्ती प्रदेश-द्र. 'कंबोज'</ref> से भी इंडोचीन में स्थित इस उपनिवेश का संबंध रहा हो। तीसरी शती ई. में [[भारत]] की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर बसनेवो मुरुंडों का एक राजदूत फूनान पहुँचा था और संभवत: कंबोज के घोड़े अपने साथ वहाँ लाया था। | ||
==विभिन्न शासक== | |||
{{tocright}} | |||
कंबोज के प्रथम ऐतिहासिक राजवंश का संस्थापक श्रुतवर्मन था, जिसने कंबोज देश को फूनान की अधीनता से मुक्त किया। इसके पुत्र श्रेष्ठवर्मन ने अपने नाम पर श्रेष्ठपुर नामक राजधानी बसाई, जिसके [[खंडहर]] लाओस के वाटफू पहाड़ी (लिंगपर्वत) के पास स्थित हैं। तत्पश्चात् भववर्मन ने, जिसका संबंध फूनान और कंबोज दोनों ही राजवंशों से था, एक नया वंश (ख्मेर) चलाया और अपने ही नाम भवपुर नामक राजधानी बसाई। भववर्मन तथा इसके भाई महेंद्रवर्मन के समय से कंबोज का विकास युग प्रारंभ होता है। फूनान का पुराना राज्य अब जीर्ण-शीर्ण हो चुका था और शीघ्र ही इस नए दुर्घर्ष साम्राज्य में विलीन हो गया। महेंद्रवर्मन की मृत्यु के पश्चात् उनका पुत्र [[ईशानवर्मन]] गद्दी पर बैठा। इस प्रतापी राजा ने कंबोज राज्य की सीमाओं का दूर-दूर तक विस्तार किया। उसने [[भारत]] और चंपा के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए और [[ईशानपुर]] नाम की एक नई राजधानी का निर्माण किया। ईशानवर्मन ने चंपा के राजा जगद्धर्म को अपनी पुत्री ब्याही थी, जिसका पुत्र प्रकाशधर्म अपने [[पिता]] की मृत्यु के पश्चात् चंपा का राजा हुआ। इससे प्रतीत होता है कि चंपा इस समय कंबोज के राजनीतिक प्रभाव के अंतर्गत था। | |||
==शैलेन्द्र राजाओं का आधिपत्य== | |||
ईशानवर्मन के बाद भववर्मन द्वितीय और जयवर्मन प्रथम कंबोज नरेशों के नाम मिलते हैं। जयवर्मन के पश्चात् 674 ई. में इस राजवंश का अंत हो गया। कुछ ही समय के उपरांत कंबोज की शक्ति क्षीण होने लगी और धीरे-धीरे 8वीं सदी ई. में [[जावा द्वीप|जावा]] के [[शैलेन्द्र वंश|शैलेन्द्र]] राजाओं का कंबोज देश पर आधिपतय स्थापित हो गया। 8वीं सदी ई. का कंबोज इतिहास अधिक स्पष्ट नहीं है, किंतु 9वीं सदी का आरंभ होते ही इस प्राचीन साम्राज्य की शक्ति मानों पुन: जीवित हो उठी। इसका श्रेय जयवर्मन द्वितीय (802-854 ई.) को दिया जाता है। उसने अंगकोर वंश की नींव डाली और कंबोज को जावा की अधीनता से मुक्त किया। उसने संभवत: [[भारत]] से हिरण्यदास नामक [[ब्राह्मण]] को बुलवाकर अपने राज्य की सुरक्षा के लिए तांत्रिक क्रियाएँ करवाईं। इस विद्वान ब्राह्मण ने देवराज नामक संप्रदाय की स्थापना की, जो शीघ्र ही कंबोज का राजधर्म बन गया। जयवर्मन ने अपनी राजधानी क्रमश: कुटी, हरिहरालय और अमरेंद्रपुर नामक नगरों में बनाई, जिससे स्पष्ट है कि वर्तमान कंबोडिया का प्राय: समस्त क्षेत्र उसके अधीन था और राज्य की शक्ति का केंद्र धीरे-धीरे पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़ता हुआ अंतत: अंग्कोर के प्रदेश में स्थापित हो गया था। | |||
==कंबोज साम्राज्य का विस्तार== | |||
जयवर्मन द्वितीय को अपने समय में कंबुजराजेंद्र और उसकी महारानी को कंबुजराजलक्ष्मी नाम से अभिहित किया जाता था। इसी समय से कंबोडिया के प्राचीन नाम 'कंबुज' या 'कंबोज' का विदेशी लेखकों ने भी प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया था। जयवर्मन द्वितीय के पश्चात् भी कंबोज के साम्राज्य की निरंतर उन्नति और वृद्धि होती गई और कुछ ही समय के बाद समस्त इंडोचीन प्राय:द्वीप में कंबोज साम्राज्य का विस्तार हो गया। महाराज इंद्रवर्मन ने अनेक मंदिरों और तड़ागों का निर्माण करवाया। यशोवर्मन (889-908 ई.) [[हिंदू]] शास्त्रों और [[संस्कृत]] काव्यों का ज्ञाता था और उसने अनेक विद्वानों को राजश्रय दिया। उसके समय के अनेक सुंदर संस्कृत [[अभिलेख]] प्राप्य हैं। इस काल में [[हिंदू धर्म]], [[साहित्य]] और काल की अभूतपूर्व प्रगति हुई। यशोवर्मन ने कंबुपुरी या यशोधरपुर नाम की नई राजधानी बसाई। धर्म और संस्कृति का विशाल केंद्र अंग्कोर थोम भी इसी नगरी की शोभा बढ़ाता था। 'अंग्कोर संस्कृति' का स्वर्णकाल इसी समय से ही प्रांरभ होता है। 944 ई. में कंबोज का राजा राजेंद्रवर्मन था, जिसके समय के कई बृहद् अभिलेख सुंदर संस्कृत काव्य शैली में लिखे मिलते हैं। 1001 ई. तक का समय कंबोज के इतिहास में महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस काल में कंबोज की सीमाएँ [[चीन]] के दक्षिणी भाग छूती थीं, लाओस उसके अंतर्गत था और उसका राजनीतिक प्रभाव स्याम और उत्तरी मलाया तक फैला हुआ था। | |||
====सूर्यवर्मन प्रथम का अधिकार==== | |||
सूर्यवर्मन प्रथम (मृत्यु 1049 ई.) ने प्राय: समस्त स्याम पर कंबोज का आधिपत्य स्थापित कर दिया और दक्षिण ब्रह्मदेश पर भी आक्रमण किया। वह साहित्य, न्याय और व्याकरण का पंडित था तथा स्वयं [[बौद्ध]] होते हुए भी [[शैव]] और [[वैष्णव]] धर्मों का प्रेमी और संरक्षक था। उसने राज्यासीन होने के समय देश में चले हुए गृहयुद्ध को समाप्त कर राज्य की स्थिति को पुन: सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया। उत्तरी चंपा को जीतकर सूर्यवर्मन ने उसे कंबोज का करद राज्य बना लिया, किंतु शीघ्र ही दक्षिण चंपा के राजा जयहरि वर्मन से हार माननी पड़ी। इस समय कंबोज में गृहयुद्धों और पड़ोसी देशों के साथ अनबन के कारण काफी अशांति रही। | |||
==जयवर्मन सप्तम का राज्यकाल== | |||
जयवर्मन सप्तम (अभिषेक 1181) के राज्यकाल में पुन: एक बार कंबोज की प्राचीन यश:पताका फहराने लगी। उसने एक विशाल सेना बनाई, जिसमें स्याम और ब्रह्मदेश के सैनिक भी सम्मिलित थे। जयवर्मन ने अनाम पर आक्रमण कर उसे जीतने का भी प्रयास किया, किंतु निरंतर युद्धों के कारण शनै: शनै: कंबोज की सैनिक शक्ति का ह्रास होने लगा, यहाँ तक कि 1220 ई. में कंबोजों को चंपा से हटना पड़ा। किंतु फिर भी जयवर्मन सप्तम की गणना कंबोज के महान राज्य निर्माताओं में की जाती है, क्योंक उसके समय में कंबोज के साम्राज्य का विस्तार अपनी चरम सीमा पर पहुँचा हुआ था। जयवर्मन सप्तम ने अपनी नई राजधानी वर्तमान अंग्कोरथोम में बनाई थी। इसके [[खंडहर]] आज भी संसार के प्रसिद्ध प्राचीन अवशेषों में गिने जाते हैं। नगर के चतुर्दिक एक ऊँचा परकोटा था और 110 गज चौड़ी एक परिखा थी। इसकी लंबाई साढ़े आठ मील के लगभग थी। नगर के परकोटे के पाँच सिंहद्वार थे, जिनसे पाँच विशाल राजपथ (100 फुट चौड़े, 1 मील लंबे) नगर के अंदर जाते थे। ये राजपथ, बेयोन के विराट हिंदू मंदिर के पास मिलते थे, जो नगर के मध्य में स्थित था। मंदिर में 66,625 व्यक्ति नियुक्त थे और इसके व्यय के लिए 3,400 ग्रामों की आय लगी हुई थी। इस समय के एक [[अभिलेख]] से ज्ञात होता है कि कंबोज में 789 मंदिर तथा 102 चिकित्सालय थे और 121 वाहनी (विश्राम) गृह थे। | |||
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13:50, 18 मई 2014 का अवतरण

कंबोडिया या 'कंबुज' या 'कंबोज' दक्षिण-पूर्व एशिया का एक प्रमुख देश है। 'नामपेन्ह' इस राजतंत्रीय देश का सबसे बड़ा शहर और राजधानी है। पहले इस देश को 'कंपूचिया' के नाम से जाना जाता था। कंबोडिया का आविर्भाव एक समय बहुत शक्तिशाली रहे हिंदू एवं बौद्ध 'खमेर साम्राज्य' से हुआ, जिसने ग्यारहवीं से चौदहवीं सदी के बीच पूरे हिन्द-चीन क्षेत्र पर शासन किया था। कंबोडिया की सीमा पश्चिम, पश्चिमोत्तर में थाईलैंड, पूर्व एवं उत्तर-पूर्व में लाओस, वियतनाम से, दक्षिण में थाईलैंड की खाड़ी से लगती हैं।
इतिहास
'कंबुज', 'कंबोज' कंबोडिया का प्राचीन संस्कृत नाम है। भूतपूर्व इंडोचीन प्राय:द्वीप में सर्वप्राचीन भारतीय उपनिवेश की स्थापना फूनान प्रदेश में प्रथम शती ई. के लगभग हुई थी। लगभग 600 वर्षों तक फूनान ने इस प्रदेश में हिंदू संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार करने में महत्वपूर्ण योग दिया। तत्पश्चात् इस क्षेत्र में 'कंबुज' या 'कंबोज' का महान् राज्य स्थापित हुआ, जिसके अद्भुत ऐश्वर्य की गौरवपूर्ण परंपरा 14वीं सदी ई. तक चलती रही। इस प्राचीन वैभव के अवशेष आज भी अंग्कोरवात, अंग्कोरथोम नामक स्थानों में वर्तमान हैं।
कंबोज उपनिवेश की नींव
कंबोज की प्राचीन दंतकथाओं के अनुसार इस उपनिवेश की नींव 'आर्यदेश' के राजा कंबु स्वयांभुव ने डाली थी। वह भगवान शिव की प्रेरणा से कंबोज देश में आए और यहाँ बसी हुई नाग जाति के राजा की सहायता से उन्होंने इस जंगली मरुस्थल में एक नया राज्य बसाया, जो नागराज की अद्भुत जादूगरी से हरे भरे, सुंदर प्रदेश में परिणत हो गया। कंबु ने नागराज की कन्या मेरा से विवाह कर लिया और कंबुज राजवंश की नींव डाली। यह भी संभव है कि भारतीय कंबोज[1] से भी इंडोचीन में स्थित इस उपनिवेश का संबंध रहा हो। तीसरी शती ई. में भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर बसनेवो मुरुंडों का एक राजदूत फूनान पहुँचा था और संभवत: कंबोज के घोड़े अपने साथ वहाँ लाया था।
विभिन्न शासक
कंबोज के प्रथम ऐतिहासिक राजवंश का संस्थापक श्रुतवर्मन था, जिसने कंबोज देश को फूनान की अधीनता से मुक्त किया। इसके पुत्र श्रेष्ठवर्मन ने अपने नाम पर श्रेष्ठपुर नामक राजधानी बसाई, जिसके खंडहर लाओस के वाटफू पहाड़ी (लिंगपर्वत) के पास स्थित हैं। तत्पश्चात् भववर्मन ने, जिसका संबंध फूनान और कंबोज दोनों ही राजवंशों से था, एक नया वंश (ख्मेर) चलाया और अपने ही नाम भवपुर नामक राजधानी बसाई। भववर्मन तथा इसके भाई महेंद्रवर्मन के समय से कंबोज का विकास युग प्रारंभ होता है। फूनान का पुराना राज्य अब जीर्ण-शीर्ण हो चुका था और शीघ्र ही इस नए दुर्घर्ष साम्राज्य में विलीन हो गया। महेंद्रवर्मन की मृत्यु के पश्चात् उनका पुत्र ईशानवर्मन गद्दी पर बैठा। इस प्रतापी राजा ने कंबोज राज्य की सीमाओं का दूर-दूर तक विस्तार किया। उसने भारत और चंपा के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए और ईशानपुर नाम की एक नई राजधानी का निर्माण किया। ईशानवर्मन ने चंपा के राजा जगद्धर्म को अपनी पुत्री ब्याही थी, जिसका पुत्र प्रकाशधर्म अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् चंपा का राजा हुआ। इससे प्रतीत होता है कि चंपा इस समय कंबोज के राजनीतिक प्रभाव के अंतर्गत था।
शैलेन्द्र राजाओं का आधिपत्य
ईशानवर्मन के बाद भववर्मन द्वितीय और जयवर्मन प्रथम कंबोज नरेशों के नाम मिलते हैं। जयवर्मन के पश्चात् 674 ई. में इस राजवंश का अंत हो गया। कुछ ही समय के उपरांत कंबोज की शक्ति क्षीण होने लगी और धीरे-धीरे 8वीं सदी ई. में जावा के शैलेन्द्र राजाओं का कंबोज देश पर आधिपतय स्थापित हो गया। 8वीं सदी ई. का कंबोज इतिहास अधिक स्पष्ट नहीं है, किंतु 9वीं सदी का आरंभ होते ही इस प्राचीन साम्राज्य की शक्ति मानों पुन: जीवित हो उठी। इसका श्रेय जयवर्मन द्वितीय (802-854 ई.) को दिया जाता है। उसने अंगकोर वंश की नींव डाली और कंबोज को जावा की अधीनता से मुक्त किया। उसने संभवत: भारत से हिरण्यदास नामक ब्राह्मण को बुलवाकर अपने राज्य की सुरक्षा के लिए तांत्रिक क्रियाएँ करवाईं। इस विद्वान ब्राह्मण ने देवराज नामक संप्रदाय की स्थापना की, जो शीघ्र ही कंबोज का राजधर्म बन गया। जयवर्मन ने अपनी राजधानी क्रमश: कुटी, हरिहरालय और अमरेंद्रपुर नामक नगरों में बनाई, जिससे स्पष्ट है कि वर्तमान कंबोडिया का प्राय: समस्त क्षेत्र उसके अधीन था और राज्य की शक्ति का केंद्र धीरे-धीरे पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़ता हुआ अंतत: अंग्कोर के प्रदेश में स्थापित हो गया था।
कंबोज साम्राज्य का विस्तार
जयवर्मन द्वितीय को अपने समय में कंबुजराजेंद्र और उसकी महारानी को कंबुजराजलक्ष्मी नाम से अभिहित किया जाता था। इसी समय से कंबोडिया के प्राचीन नाम 'कंबुज' या 'कंबोज' का विदेशी लेखकों ने भी प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया था। जयवर्मन द्वितीय के पश्चात् भी कंबोज के साम्राज्य की निरंतर उन्नति और वृद्धि होती गई और कुछ ही समय के बाद समस्त इंडोचीन प्राय:द्वीप में कंबोज साम्राज्य का विस्तार हो गया। महाराज इंद्रवर्मन ने अनेक मंदिरों और तड़ागों का निर्माण करवाया। यशोवर्मन (889-908 ई.) हिंदू शास्त्रों और संस्कृत काव्यों का ज्ञाता था और उसने अनेक विद्वानों को राजश्रय दिया। उसके समय के अनेक सुंदर संस्कृत अभिलेख प्राप्य हैं। इस काल में हिंदू धर्म, साहित्य और काल की अभूतपूर्व प्रगति हुई। यशोवर्मन ने कंबुपुरी या यशोधरपुर नाम की नई राजधानी बसाई। धर्म और संस्कृति का विशाल केंद्र अंग्कोर थोम भी इसी नगरी की शोभा बढ़ाता था। 'अंग्कोर संस्कृति' का स्वर्णकाल इसी समय से ही प्रांरभ होता है। 944 ई. में कंबोज का राजा राजेंद्रवर्मन था, जिसके समय के कई बृहद् अभिलेख सुंदर संस्कृत काव्य शैली में लिखे मिलते हैं। 1001 ई. तक का समय कंबोज के इतिहास में महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस काल में कंबोज की सीमाएँ चीन के दक्षिणी भाग छूती थीं, लाओस उसके अंतर्गत था और उसका राजनीतिक प्रभाव स्याम और उत्तरी मलाया तक फैला हुआ था।
सूर्यवर्मन प्रथम का अधिकार
सूर्यवर्मन प्रथम (मृत्यु 1049 ई.) ने प्राय: समस्त स्याम पर कंबोज का आधिपत्य स्थापित कर दिया और दक्षिण ब्रह्मदेश पर भी आक्रमण किया। वह साहित्य, न्याय और व्याकरण का पंडित था तथा स्वयं बौद्ध होते हुए भी शैव और वैष्णव धर्मों का प्रेमी और संरक्षक था। उसने राज्यासीन होने के समय देश में चले हुए गृहयुद्ध को समाप्त कर राज्य की स्थिति को पुन: सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया। उत्तरी चंपा को जीतकर सूर्यवर्मन ने उसे कंबोज का करद राज्य बना लिया, किंतु शीघ्र ही दक्षिण चंपा के राजा जयहरि वर्मन से हार माननी पड़ी। इस समय कंबोज में गृहयुद्धों और पड़ोसी देशों के साथ अनबन के कारण काफी अशांति रही।
जयवर्मन सप्तम का राज्यकाल
जयवर्मन सप्तम (अभिषेक 1181) के राज्यकाल में पुन: एक बार कंबोज की प्राचीन यश:पताका फहराने लगी। उसने एक विशाल सेना बनाई, जिसमें स्याम और ब्रह्मदेश के सैनिक भी सम्मिलित थे। जयवर्मन ने अनाम पर आक्रमण कर उसे जीतने का भी प्रयास किया, किंतु निरंतर युद्धों के कारण शनै: शनै: कंबोज की सैनिक शक्ति का ह्रास होने लगा, यहाँ तक कि 1220 ई. में कंबोजों को चंपा से हटना पड़ा। किंतु फिर भी जयवर्मन सप्तम की गणना कंबोज के महान राज्य निर्माताओं में की जाती है, क्योंक उसके समय में कंबोज के साम्राज्य का विस्तार अपनी चरम सीमा पर पहुँचा हुआ था। जयवर्मन सप्तम ने अपनी नई राजधानी वर्तमान अंग्कोरथोम में बनाई थी। इसके खंडहर आज भी संसार के प्रसिद्ध प्राचीन अवशेषों में गिने जाते हैं। नगर के चतुर्दिक एक ऊँचा परकोटा था और 110 गज चौड़ी एक परिखा थी। इसकी लंबाई साढ़े आठ मील के लगभग थी। नगर के परकोटे के पाँच सिंहद्वार थे, जिनसे पाँच विशाल राजपथ (100 फुट चौड़े, 1 मील लंबे) नगर के अंदर जाते थे। ये राजपथ, बेयोन के विराट हिंदू मंदिर के पास मिलते थे, जो नगर के मध्य में स्थित था। मंदिर में 66,625 व्यक्ति नियुक्त थे और इसके व्यय के लिए 3,400 ग्रामों की आय लगी हुई थी। इस समय के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि कंबोज में 789 मंदिर तथा 102 चिकित्सालय थे और 121 वाहनी (विश्राम) गृह थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कश्मीर का राजौरी ज़िला तथा संवर्ती प्रदेश-द्र. 'कंबोज'