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'''वी. वी. सुब्रमण्य अय्यर''' (जन्म- [[2 अप्रैल]], [[1881]], [[तिरुचिरापल्ली]], [[मद्रास]];  मृत्यु-[[1925]]) एक स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी राष्ट्रभक्त थे। उन्हें [[अंग्रेजी]], लैटिन, फ्रेंच, [[संस्कृत]] और [[तमिल भाषा|तमिल]] भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण फ्रांसीसी अधिकारियों ने उन्हें एक बार [[पांडिचेरी]] से देश निकाला देकर अलजीयर्स भेज दिया था।
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'''वीरेश लिंगम''' ( जन्म- [[16 अप्रैल]],1848, [[राजमहेंद्री]], मृत्यु- 1919) आंध्र प्रदेश के प्रसिद्ध समाजसेवी और [[साहित्यकार]] थे। वे जीवनभर समाज की कुरीतियों के विरुद्ध लड़ते रहे। बचपन में पिता का देहांत हो जाने के कारण उन्होंने आजीविका के लिये एक गांव के स्कूल में अध्यापक से जीवन आरंभ किया।
 
==परिचय==
 
==परिचय==
वराहनेरी वेंकटेश सुब्रमण्य अय्यर एक क्रांतिकारी राष्ट्रभक्त थे। उनका जन्म [[2 अप्रैल]] [[1881]] को [[मद्रास]] प्रदेश के [[तिरुचिरापल्ली ज़िला|तिरुचिरापल्ली जिले]] में हुआ था। शिक्षा पूरी करने के बाद वे अपने जिले में वकालत करने लगे। अय्यर अधिक सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से पहले [[रंगून]] गए और फिर बैरिस्टर बनने के लिए [[इंग्लैंड]] गये। वहां उनकी मुलाकात [[गांधीजी]] से हो गयी। सुब्रमण्य क्रांतिकारी विचारों के व्यक्ति थे। उनका मानना था कि शस्त्रों के बल पर ही [[भारत]] को आजाद करया जा सकता है। वे क्रांतिकारियों द्वारा अत्याचारी अंग्रेज शासकों की हत्या को [[स्वतंत्रता संग्राम]] का अंग मानते थे। अय्यर कई भाषाओं ([[अंग्रेजी]], लैटिन, फ्रेंच [[संस्कृत]] और [[तमिल]]) के जानकार थे।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=812|url=}}</ref>
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आंध्र प्रदेश के प्रसिद्ध समाजसेवी और साहित्यकार वीरेशलिंगम का जन्म [[16 अप्रैल]] 1848 ई. को [[संस्कृति]] और [[साहित्य]] की प्रसिद्ध नगरी राजमहेन्द्री में हुआ था। उनका पूरा नाम कंटुकूरि वीरेश लिंगम था। साहित्य की रूचि उन्हें विरासत में मिली थी। 4 वर्ष की उम्र में ही पिता का देहांत हो जाने से उन्हें अपना मार्ग स्वयं खोजना पड़ा। घर पर [[तेलुगु]] और [[संस्कृत]] का अध्ययन करने के बाद 12 वर्ष की उम्र में विद्यालय में प्रविष्ट हुए। अपनी प्रतिभा और श्रम के कारण वे हमेशा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते थे। पिता की मृत्यु के बाद मामा ने वीरेश लिंगम को सहारा दिया था। परंतु मामा का निधन हो जाने के कारण उन्हें शिक्षा रोककर आजीविका का साधन खोजना पड़ा [[अंग्रेज]] जिला अधिकारी उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें सरकारी नौकरी देना चाहता था।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=813|url=}}</ref>
==क्रांतिकारी राष्ट्राभक्त==
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==कुरीतियों से संघर्ष==
सुब्रमण्य अय्यर क्रांतिकारी राष्ट्राभक्त थे। [[गांधीजी]] के विचारों से वे उस समय सहमत नहीं थे। वे [[भारत]] को स्वतंत्रता दिलाने के लिये बल प्रयोग के पक्षधर थे। उन दिनों अय्यर का संपर्क [[वीर सावरकर|दामोदर विनायक सावरकर]] से भी हुआ। [[इंग्लैंड]] में कानून की शिक्षा पूरी करने के बाद जैसे ही वहां के सम्राट के प्रति निष्ठा की शपथ लेने का समय आया तो सुब्रमण्य इसके लिए तैयार नहीं हुए और चुपचाप [[पांडिचेरी]] (जो [[फ्रांस]] के अधिकार में होने के कारण [[अंग्रेज|अंग्रेजों]] की पुलिस की पहुंच से बाहर था) चले गए। [[1910]] में पांडिचेरी पहुंचने पर उन्होंने युवाओं को [[शस्त्र]] चलाना सिखाया और वे देश के अन्य क्रांतिकारियों के पास भी हथियार पहुंचाते थे।
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[[आंध्र प्रदेश]] की उस समय की पिछड़ी स्थिति देखकर वीरेश लिंगम आजीविका के साथ-साथ समाज सेवा भी करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने सरकारी नौकरी स्वीकार न करके एक गांव के स्कूल में अध्यापक की नौकरी की। वे बड़े कुशल अध्यापक सिद्ध हुए। उनका ध्यान समाज को कुरीतियों से मुक्ति दिलाने की ओर भी था। उस समय [[बाल विवाह]] और वृद्ध विवाह का बोलबाला था बाल विधवाओं की बड़ी दुर्दशा थी। लड़कियों को कोई पढ़ाता नहीं था। इन कुरीतियों के समर्थन में पत्रिकाएं तक प्रकाशित होती थी।  यह देखकर वीरेश लिंगम ने अपनी लेखनी उठाई। और लेखनी के माध्यम से उन्होंने इन सभी कुप्रथाओं का विरोध आरंभ किया। उन्होंने अपने मत के प्रचार के लिए 'विवेक वर्धनी' नामक पत्रिका निकाली।
==जेल यातना==
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==योगदान==
वी. वी. सुब्रमण्य अय्यर [[1920]] तक [[पांडिचेरी]] में रहे और यहां उनकी [[अरविंद घोष|महर्षि अरविंद]] से मुलाकात हुई। वे पांडिचेरी से [[मद्रास]] आ गये और यहां उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला और सजा हुई। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण फ्रांसीसी अधिकारियों ने भी एक बार उन्हें पांडिचेरी से देश निकाला देकर अलजीयर्स पहुँचा दिया था।
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वीरेश लिंगम का [[साहित्य]] के सभी क्षेत्रों में विशेष योगदान रहा है। उन्होंने तेलुगु गद्य को स्थिरता प्रदान की। काव्य को नया रूप दिया और उच्च कोटि के ग्रंथों का अनुवाद करके अपनी [[भाषा]] का भंडार भरा। वे [[तेलुगु भाषा|तेलुगु]] के प्रथम [[उपन्यास]] लेखक, प्रथम समालोचक और प्रथम जीवन चरित्र लेखक थे। 
==बहुभाषाविद्==
 
वी. वी. सुब्रमण्य अय्यर बहुभाषाविद् थे। उन्हें [[अंग्रेजी]], लैटिन, फ्रेंच [[संस्कृत]] और [[तमिल]] भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। उन्होंने 'बाल भारती नामक' तमिल पत्रिका का संपादन किया। उनके ऊपर कंबन की रामायण का भी प्रभाव पड़ा था। उन्होंने [[तमिल भाषा]] की कई रचनाओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया। उनकी लिखी 'नेपोलियन की जीवनी' [[भारत सरकार]] ने जब्त कर ली थी।
 
 
==मृत्यु==
 
==मृत्यु==
वराहनेरी वेंकटेश सुब्रमण्य अय्यर का [[1925]] में निधन हो गया।  
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कंटुकूरि वीरेश लिंगम का [[1919]] में देहांत हो गया।
  
 
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वराहनेरी वेंकटेश सुब्रमण्य अय्यर एक क्रांतिकारी राष्ट्रभक्त थे।उनका जन्म 2 अप्रैल 1881 को मद्रास प्रदेश की तिरुचिरापल्ली जिले में हुआ था। शिक्षा पूरी करने के बाद भी अपने जिले में वकालत करने लगे। फिर अपने कार्य में अधिक सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से पहले रंगून गए और फिर बैरिस्टर  बनने के लिए इंग्लैंड जा पहुंचे। वहां उनकी भेंट गांधी जी से हुई। सुब्रमण्य क्रांतिकारी विचारों के व्यक्ति थे। उनकी मान्यता थी के शस्त्रों के बल पर ही भारत स्वतंत्र हो सकता है। गांधीजी के विचारों से भी उस समय सहमत नहीं हुए उन्हीं दिनों उनका संपर्क दामोदर विनायक सावरकर से भी हुआ।  इंग्लैंड में कानून की शिक्षा पूरी करने के बाद वहां के सम्राट के प्रति निष्ठा की शपथ लेने का समय आया तो सुब्रमण्यम इसके लिए तैयार नहीं हुए। और चुपचाप पांडिचेरी (जो फ्रांस के अधिकार में होने के कारण अंग्रेजों की पुलिस की पहुंच से बाहर था) चले गए।  1910 में पांडिचेरी पहुंचने पर उन्होंने युवकों को शस्त्र चलाना सिखाया और देश के अन्य क्रांतिकारियों के पास हथियार भी पहुंचाने लगे। वे क्रांतिकारियों द्वारा अत्याचारी अंग्रेज शासकों की हत्या को स्वतंत्रता संग्राम का अंग मानते थे। 1920 तक वे पांडिचेरी में रहे और महर्षि अरविंद से भी उनका संपर्क हुआ। उसके बाद वे मद्रास। आए यहां उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला और सजा हुई उनकी गतिविधियों के कारण फ्रांसीसी अधिकारियों ने भी एक बार उन्हें पांडिचेरी से देश निकाला  देकर अलजीयर्स भेज दिया था।
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बीवी सुब्रमण्यम अय्यर बहुभाषाविद् थे। वे अंग्रेजी, लैटिनफ्रेंच संस्कृत और तमिल भाषाओं के जानकार थे। उन्होंने 'बाल भारती नामक' तमिल पत्रिका का संपादन किया। उनके ऊपर कंबन की रामायण का भी प्रभाव पड़ा था। उन्होंने तमिल भाषा की कहीं रचनाओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया। उनकी लिखी 'नेपोलियन की जीवनी' भारत सरकार ने जब्त कर ली थी। 1925 में उनका देहांत हो गया।  
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आंध्र प्रदेश के प्रसिद्ध समाजसेवी और साहित्यकार वीरेशलिंगम का जन्म 16 अप्रैल 1848 ईस्वी को संस्कृति और साहित्य की प्रसिद्ध नगरी राजमहेंद्री में हुआ था। उनका पूरा नाम कंटुकूरि वीरेशलिंगम था। साहित्य की रूचि उन्हें परिवार से विरासत में मिली थी परंतु 4 वर्ष की उम्र में ही पिता का देहांत हो जाने से उन्हें अपना मार्ग स्वयं बनाना पड़ा। घर पर तेलुगु और संस्कृत का अध्ययन करने के बाद 12 वर्ष की उम्र में विद्यालय में प्रविष्ट हुए। अपनी प्रतिभा और श्रम के कारण विश्व का प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते थे। पिता की मृत्यु के बाद मामा ने वीरेशलिंगम को सहारा दिया था। परंतु मामा का निधन हो जाने के कारण उन्हें शिक्षा रोककर आजीविका का साधन खोजना पड़ा अंग्रेज जिला अधिकारी उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें सरकारी नौकरी देना चाहता था।
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आंध्र प्रदेश की उस समय की पिछड़ी स्थिति देखकर वीरेश लिंगम आजीवका के साथ-साथ समाज सेवा भी करना चाहते थे इसलिए सरकारी नौकरी स्वीकार न करके उन्होंने एक गांव के स्कूल में अध्यापक के रूप में जीवन आरंभ किया। वे बड़े कुशल अध्यापक सिद्ध हुए। उनका ध्यान समाज को कुरीतियों से मुक्ति दिलाने की और भी था। उस समय बाल विवाह और वृद्ध विवाह का बोलबाला था बाल विधवाओं की बड़ी दुर्दशा थी। लड़कियों को कोई पढ़ाता नहीं था। इन कुरीतियों के समर्थन में पत्रिकाएं तक प्रकाशित होती थी।  यह देखकर वीरेशलिंगम ने  अपनी लेखनी उठाई। उन्होंने इन समस्त कुप्रथाओं का विरोध आरंभ किया अपने मत के प्रचार के लिए 'विवेक वर्धनी' नामक पत्रिका निकाली।
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साहित्य के सभी क्षेत्रों में वीरेश लिंगम का प्रभाव पड़ा। उन्होंने तेलुगु गद्य को स्थिरता प्रदान की। काव्य को नया रूप दिया और उच्च कोटि के ग्रंथों का अनुवाद करके अपनी भाषा का भंडार भरा।  वे तेलुगु के प्रथम उपन्यास लेखक, प्रथम समालोचक और प्रथम जीवन चरित्र लेखक थे। 1919 में उनका देहांत हो गया।
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भारतीय चरित्र कोश 813

06:19, 10 जुलाई 2018 का अवतरण

वीरेश लिंगम ( जन्म- 16 अप्रैल,1848, राजमहेंद्री, मृत्यु- 1919) आंध्र प्रदेश के प्रसिद्ध समाजसेवी और साहित्यकार थे। वे जीवनभर समाज की कुरीतियों के विरुद्ध लड़ते रहे। बचपन में पिता का देहांत हो जाने के कारण उन्होंने आजीविका के लिये एक गांव के स्कूल में अध्यापक से जीवन आरंभ किया।

परिचय

आंध्र प्रदेश के प्रसिद्ध समाजसेवी और साहित्यकार वीरेशलिंगम का जन्म 16 अप्रैल 1848 ई. को संस्कृति और साहित्य की प्रसिद्ध नगरी राजमहेन्द्री में हुआ था। उनका पूरा नाम कंटुकूरि वीरेश लिंगम था। साहित्य की रूचि उन्हें विरासत में मिली थी। 4 वर्ष की उम्र में ही पिता का देहांत हो जाने से उन्हें अपना मार्ग स्वयं खोजना पड़ा। घर पर तेलुगु और संस्कृत का अध्ययन करने के बाद 12 वर्ष की उम्र में विद्यालय में प्रविष्ट हुए। अपनी प्रतिभा और श्रम के कारण वे हमेशा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते थे। पिता की मृत्यु के बाद मामा ने वीरेश लिंगम को सहारा दिया था। परंतु मामा का निधन हो जाने के कारण उन्हें शिक्षा रोककर आजीविका का साधन खोजना पड़ा अंग्रेज जिला अधिकारी उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें सरकारी नौकरी देना चाहता था।[1]

कुरीतियों से संघर्ष

आंध्र प्रदेश की उस समय की पिछड़ी स्थिति देखकर वीरेश लिंगम आजीविका के साथ-साथ समाज सेवा भी करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने सरकारी नौकरी स्वीकार न करके एक गांव के स्कूल में अध्यापक की नौकरी की। वे बड़े कुशल अध्यापक सिद्ध हुए। उनका ध्यान समाज को कुरीतियों से मुक्ति दिलाने की ओर भी था। उस समय बाल विवाह और वृद्ध विवाह का बोलबाला था बाल विधवाओं की बड़ी दुर्दशा थी। लड़कियों को कोई पढ़ाता नहीं था। इन कुरीतियों के समर्थन में पत्रिकाएं तक प्रकाशित होती थी। यह देखकर वीरेश लिंगम ने अपनी लेखनी उठाई। और लेखनी के माध्यम से उन्होंने इन सभी कुप्रथाओं का विरोध आरंभ किया। उन्होंने अपने मत के प्रचार के लिए 'विवेक वर्धनी' नामक पत्रिका निकाली।

योगदान

वीरेश लिंगम का साहित्य के सभी क्षेत्रों में विशेष योगदान रहा है। उन्होंने तेलुगु गद्य को स्थिरता प्रदान की। काव्य को नया रूप दिया और उच्च कोटि के ग्रंथों का अनुवाद करके अपनी भाषा का भंडार भरा। वे तेलुगु के प्रथम उपन्यास लेखक, प्रथम समालोचक और प्रथम जीवन चरित्र लेखक थे।

मृत्यु

कंटुकूरि वीरेश लिंगम का 1919 में देहांत हो गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 813 |

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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आंध्र प्रदेश के प्रसिद्ध समाजसेवी और साहित्यकार वीरेशलिंगम का जन्म 16 अप्रैल 1848 ईस्वी को संस्कृति और साहित्य की प्रसिद्ध नगरी राजमहेंद्री में हुआ था। उनका पूरा नाम कंटुकूरि वीरेशलिंगम था। साहित्य की रूचि उन्हें परिवार से विरासत में मिली थी परंतु 4 वर्ष की उम्र में ही पिता का देहांत हो जाने से उन्हें अपना मार्ग स्वयं बनाना पड़ा। घर पर तेलुगु और संस्कृत का अध्ययन करने के बाद 12 वर्ष की उम्र में विद्यालय में प्रविष्ट हुए।  अपनी प्रतिभा और श्रम के कारण विश्व का प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते थे।  पिता की मृत्यु के बाद मामा ने वीरेशलिंगम को सहारा दिया था। परंतु मामा का निधन हो जाने के कारण उन्हें शिक्षा रोककर आजीविका का साधन खोजना पड़ा अंग्रेज जिला अधिकारी उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें सरकारी नौकरी देना चाहता था।

आंध्र प्रदेश की उस समय की पिछड़ी स्थिति देखकर वीरेश लिंगम आजीवका के साथ-साथ समाज सेवा भी करना चाहते थे इसलिए सरकारी नौकरी स्वीकार न करके उन्होंने एक गांव के स्कूल में अध्यापक के रूप में जीवन आरंभ किया। वे बड़े कुशल अध्यापक सिद्ध हुए। उनका ध्यान समाज को कुरीतियों से मुक्ति दिलाने की और भी था। उस समय बाल विवाह और वृद्ध विवाह का बोलबाला था बाल विधवाओं की बड़ी दुर्दशा थी। लड़कियों को कोई पढ़ाता नहीं था। इन कुरीतियों के समर्थन में पत्रिकाएं तक प्रकाशित होती थी। यह देखकर वीरेशलिंगम ने अपनी लेखनी उठाई। उन्होंने इन समस्त कुप्रथाओं का विरोध आरंभ किया अपने मत के प्रचार के लिए 'विवेक वर्धनी' नामक पत्रिका निकाली। साहित्य के सभी क्षेत्रों में वीरेश लिंगम का प्रभाव पड़ा। उन्होंने तेलुगु गद्य को स्थिरता प्रदान की। काव्य को नया रूप दिया और उच्च कोटि के ग्रंथों का अनुवाद करके अपनी भाषा का भंडार भरा। वे तेलुगु के प्रथम उपन्यास लेखक, प्रथम समालोचक और प्रथम जीवन चरित्र लेखक थे। 1919 में उनका देहांत हो गया।

भारतीय चरित्र कोश 813