"श्रीलाल शुक्ल" के अवतरणों में अंतर

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|अन्य जानकारी=[[1949]] में [[उत्तर प्रदेश राज्य प्रशासनिक सेवा|राज्य सिविल सेवा (पी.सी.एस.)]] में चयनित, 1983 में [[भारतीय प्रशासनिक सेवा|भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस)]] के सेवानिवृत्त।
 
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'''श्रीलाल शुक्ल''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Srilal Sukla'', जन्म: [[31 दिसंबर]], [[1925]]; मृत्यु: [[28 अक्टूबर]], [[2011]]) को [[लखनऊ|लखनऊ जनपद]] के समकालीन कथा-साहित्य में उद्देश्यपूर्ण व्यंग्य लेखन के लिये विख्यात साहित्यकार माने जाते थे। उन्होंने [[1947]] में [[इलाहाबाद विश्वविद्यालय]] से स्नातक परीक्षा पास की। [[1949]] में [[उत्तर प्रदेश राज्य प्रशासनिक सेवा|राज्य सिविल सेवा]] से नौकरी शुरू की। 1983 में [[भारतीय प्रशासनिक सेवा]] से निवृत्त हुए। उनका विधिवत लेखन [[1954]] से शुरू होता है और इसी के साथ [[हिंदी]] गद्य का एक गौरवशाली अध्याय आकार लेने लगता है।
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==व्यक्तित्व==
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श्रीलाल शुक्ल का व्यक्तित्व अपनी मिसाल आप था। सहज लेकिन सतर्क, विनोदी लेकिन विद्वान, अनुशासनप्रिय लेकिन अराजक। श्रीलाल शुक्ल [[अंग्रेज़ी]], [[उर्दू]], [[संस्कृत]] और [[हिन्दी]] भाषा के विद्वान थे। श्रीलाल शुक्ल [[संगीत]] के शास्त्रीय और सुगम दोनों पक्षों के रसिक-मर्मज्ञ थे। 'कथाक्रम' समारोह समिति के वह अध्यक्ष रहे। श्रीलाल शुक्ल जी ने ग़रीबी झेली, संघर्ष किया, मगर उसके विलाप से लेखन को नहीं भरा। उन्हें नई पीढ़ी भी सबसे ज़्यादा पढ़ती है। वे नई पीढ़ी को सबसे अधिक समझने और पढ़ने वाले वरिष्ठ रचनाकारों में से एक रहे। न पढ़ने और लिखने के लिए लोग सैद्धांतिकी बनाते हैं। श्रीलाल जी का लिखना और पढ़ना रुका तो स्वास्थ्य के गंभीर कारणों के चलते। श्रीलाल शुक्ल का व्यक्तित्व बड़ा सहज था। वह हमेशा मुस्कुराकर सबका स्वागत करते थे। लेकिन अपनी बात बिना लाग-लपेट कहते थे। व्यक्तित्व की इसी ख़ूबी के चलते उन्होंने सरकारी सेवा में रहते हुए भी व्यवस्था पर करारी चोट करने वाली '''[[रागदरबारी|राग दरबारी]]''' जैसी रचना हिंदी साहित्य को दी।
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==लखनऊ का गौरव==
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'विश्वनाथ त्रिपाठी' ने [[हरिशंकर परसाई]] के लेखन को ‘स्वतंत्र भारत की आवाज़’ कहा है। श्रीलाल शुक्ल का स्वर मिला लें तो यह आवाज़ और प्रखर व पुख्ता होती है। वैसे तो वे पूरे [[भारत]] के थे, लेकिन [[लखनऊ]] के ख़ास गौरव थे। [[यशपाल]] - [[भगवतीचरण वर्मा]] - [[अमृतलाल नागर]] के बाद रचनात्मक मानचित्र पर लखनऊ चमकता रहा तो इसका बड़ा श्रेय श्रीलाल शुक्ल को दिया जायेगा।
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==रचनाएँ==
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*10 उपन्यास, 4 कहानी संग्रह, 9 व्यंग्य संग्रह, 2 विनिबंध, 1 आलोचना पुस्तक आदि उनकी कीर्ति को बनाये रखेंगे। उनका पहला उपन्यास सूनी घाटी का सूरज 1957 में प्रकाशित हुआ. उनका सबसे लोकप्रिय उपन्यास '[[रागदरबारी|राग दरबारी]]' [[1968]] में छपा। राग दरबारी का पन्द्रह भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी में भी अनुवाद प्रकाशित हुआ। राग विराग श्रीलाल शुक्ल का आखिरी उपन्यास था। उन्होंने हिंदी साहित्य को कुल मिलाकर 25 रचनाएं दीं। इनमें मकान, पहला पड़ाव, अज्ञातवास और विश्रामपुर का संत प्रमुख हैं।
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;प्रसिद्ध रचनाएँ
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#सूनी घाट का सूरज (1957)
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#अज्ञातवास (1962)
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#[[रागदरबारी|राग दरबारी]] (1968)
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#आदमी का ज़हर (1972)
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#सीमाएँ टूटती हैं (1973)
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#‘मकान (1976)
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#‘पहला पड़ाव’(1987)
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#‘विश्रामपुर का संत (1998)
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#बब्बरसिंह और उसके साथी (1999)
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#राग विराग (2001)
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#‘यह घर मेरी नहीं (1979)
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#सुरक्षा और अन्य कहानियाँ (1991)
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#इस उम्र में (2003)
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#दस प्रतिनिधि कहानियाँ (2003)
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; प्रसिद्ध व्यंग्य रचनाएँ
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#अंगद का पाँव (1958)
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#यहाँ से वहाँ (1970)
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#मेरी श्रेष्‍ठ व्यंग्य रचनाएँ (1979)
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#उमरावनगर में कुछ दिन (1986)
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#कुछ ज़मीन में कुछ हवा में (1990)
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#आओ बैठ लें कुछ देरे (1995)
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#अगली शताब्दी का शहर (1996)
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#जहालत के पचास साल (2003)
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#खबरों की जुगाली (2005)
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;आलोचना
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#अज्ञेय:कुछ रंग और कुछ राग (1999)
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;विनिबंध
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#भगवतीचरण वर्मा (1989)
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#अमृतलाल नागर (1994)
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श्रीलाल शुक्ल का जन्म 31 दिसंबर, 1925 को लखनऊ जनपद के अतरौली गाँव में हुआ। 1947 में इलाहाबाद विश्‍वविद्‍यालय से स्नतक की उपाधि प्राप्‍त की। तत्पश्‍चात उन्होंने भारत सरकार की सेवा की।
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==भाषा शैली==
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उन्होंने शिवपालगंज के रूप में अपनी अद्भुत भाषा शैली, मिथकीय शिल्प और देशज मुहावरों से गढ़ा था। त्रासदियों और विडंबनाओं के इसी साम्य ने ‘राग दरबारी’ को महान् कृति बनाया, तो इस कृति ने श्रीलाल शुक्ल को महान् लेखक। राग दरबारी व्यंग्य है या उपन्यास, यह एक श्रेष्ठ रचना है, जिसकी तसदीक करोड़ों पाठकों ने की है और कर रहे हैं। ‘विश्रामपुर का संत’, ‘सूनी घाटी का सूरज’ और ‘यह मेरा घर नहीं’ जैसी कृतियाँ साहित्यिक कसौटियों में खरी साबित हुई हैं। बल्कि ‘विश्रामपुर का संत’ को स्वतंत्र भारत में सत्ता के खेल की सशक्त अभिव्यक्ति तक कहा गया था। राग दरबारी को इतने वर्षों बाद भी पढ़ते हुए उसके पात्र हमारे आसपास नजर आते हैं। शुक्लजी ने जब इसे लिखा था, तब एक तरह की हताशा चारों तरफ़ नजर आ रही थी। यह मोहभंग का दौर था। ऐसे निराशा भरे महौल में उन्होंने समाज की विसंगतियों को चुटीली शैली में सामने लाया था। वह श्रेष्ठ रचनाकार के साथ ही एक संवेदनशील और विनम्र इंसान भी थे।
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;ग्रामीण परिवेश
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श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं का एक बड़ा हिस्सा गाँव के जीवन से संबंध रखता है। ग्रामीण जीवन के व्यापक अनुभव और निरंतर परिवर्तित होते परिदृश्‍य को उन्होंने बहुत गहराई से विश्‍लेषित किया है। यह भी कहा जा सकता है कि श्रीलाल शुक्ल ने जड़ों तक जाकर व्यापक रूप से समाज की छान बीन कर, उसकी नब्ज को पकड़ा है। इसीलिए यह ग्रामीण संसार उनके [[साहित्य]] में देखने को मिला है। उनके साहित्य की मूल पृष्‍ठभूमि ग्राम समाज है परंतु नगरीय जीवन की भी सभी छवियाँ उसमें देखने को मिलती हैं। श्रीलाल शुक्ल ने साहित्य और जीवन के प्रति अपनी एक सहज धारणा का उल्लेख करते हुए कहा है कि -
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<blockquote>कथालेखन में मैं जीवन के कुछ मूलभूत नैतिक मूल्यों से प्रतिबद्ध होते हुए भी यथार्थ के प्रति बहुत आकृष्‍ट हूँ। पर यथार्थ की यह धारणा इकहरी नहीं है, वह बहुस्तरीय है और उसके सभी स्तर - आध्यात्मिक, आभ्यंतरिक, भौतिक आदि जटिल रूप से अंतर्गुम्फित हैं। उनकी समग्र रूप में पहचान और अनुभूति कहीं-कहीं रचना को जटिल भले ही बनाए, पर उस समग्रता की पकड़ ही रचना को श्रेष्‍ठता देती है। जैसे मनुष्‍य एक साथ कई स्तरों पर जीता है, वैंसे ही इस समग्रता की पहचान रचना को भी बहुस्तरीयता देती है।</blockquote>
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;सामाजिक व्यंग्य
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श्रीलाल शुक्ल की सूक्ष्म और पैनी दृष्‍टि व्यवस्था की छोटी-से-छोटी विकृति को भी सहज ही देख लेती है, परख लेती है। उन्होंने अपने लेखन को सिर्फ राजनीति पर ही केंद्रित नहीं होने दिया। शिक्षा के क्षेत्र की दुर्दशा पर भी उन्होंने व्यंग्य कसा। '''1963 में प्रकाशित उनकी पहली रचना ‘धर्मयुग’ शिक्षा के क्षेत्र में''' व्याप्‍त विसंगतियों पर आधारित है। व्यंग्य संग्रह ‘अंगद का पाँव’ और  उपन्यास ‘राग दरबारी’ में श्रीलाल शुक्ल ने इसे विस्तार दिया है।
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;शिक्षा व्यवस्था पर व्यंग्य
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देश के अनेक सकारी स्कूलों की स्थिति दयनीय है। उनके पास अच्छा भवन तक नहीं है। कहीं कहीं तो तंबुओं में कक्षाएँ चलाती हैं, अर्थात न्यूतम सुविधाओं का भी अभाव है। श्रीलाल शुक्ल इस पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि -
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<blockquote>"यही हाल ‘राग दरबारी’ के छंगामल विद्‍यालय इंटरमीडियेट कॉलेज का भी है, जहाँ से इंटरमीडियेट पास करने वाले लड़के सिर्फ इमारत के आधार पर कह सकते हैं, सैनिटरी फिटिंग किस चिड़िया का नाम है। हमने विलायती तालीम तक देशी परंपरा में पाई है और इसीलिए हमें देखो, हम आज भी उतने ही प्राकृत हैं, हमारे इतना पढ़ लेने पर भी हमारा पेशाब पेड़ के तने पर ही उतरता है।"</blockquote>
  
उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं - ‘सूनी घाट का सूरज’(1957), ‘अज्ञातवास’(1962), ‘राग दरबारी’(1968), ‘आदमी का जहर’(1972), ‘सीमाएँ टूटती हैं’(1973), ‘मकान’(1976), ‘पहला पड़ाव’(1987), ‘बिस्रामपुर का संत’(1998), ‘बब्बरसिंह और उसके साथी’(1999), ‘राग विराग’(2001)। ‘यह घर मेरी नहीं’(1979), ‘सुरक्षा और अन्य कहानियाँ’(1991), ‘इस उम्र में’(2003), ‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’(2003) उनके चर्चित कहानी संग्रह हैं। ‘अंगद का पाँव’(1958), ‘यहाँ से वहाँ’(1970), `मेरी श्रेष्‍ठ व्यंग्य रचनाएँ’(1979), ‘उमरावनगर में कुछ दिन’(1986), ‘कुछ जमीन में कुछ हवा में’(1990), ‘आओ बैठ लें कुछ देरे’(1995), ‘आगली शताब्दी का शहर’(1996), ‘जहालत के पचास साल’(2003) और ‘खबरों की जुगाली’(2005) उनकी प्रसिद्ध व्यंग्य रचनाएँ हैं। इसके अतिरिक्‍त ‘अज्ञेय:कुछ रंग और कुछ राग’(1999, आलोचना), ‘भगवतीचरण वर्मा’(1989, विनिबंध) और ‘अमृतलाल नागर’(1994, विनिबंध) भी उल्लेखनीय हैं।
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विडंबना यह है कि आज कल अध्यापक भी अध्यपन के अलावा सब कुछ करते हैं। ‘राग दरबारी’ के मास्टर मोतीराम की तरह वे कक्षा में पढ़ाते कम हैं और ज़्यादा समय अपनी आटे की चक्‍की को समर्पित करते हैं। ज़्यादातर शिक्षक मोतीराम ही हैं, नाम भले ही कुछ भी हो। ट्‍यूशन लेते हैं, दुकान चलाते हैं और तरह तरह के निजी धंधे करते हैं। छात्रों को देने के लिए उनके पास समय कहाँ बचता है?
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;समसामयिक स्थितियों पर व्यंग्य
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श्रीलाल शुक्ल ने अपने साहित्य के माध्यम से समसामयिक स्थितियों पर करारी चोट की है। वे कहते हैं कि -
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<blockquote>‘आज मानव समाज अपने पतन के लिए खुद जिम्‍मेदार है। आज वह खुलकर हँस नहीं सकता। हँसने के लिए भी ‘लाफिंग क्लब’ का सहारा लेना पड़ता है। शुद्ध हवा के लिए ऑक्सीजन पार्लर जाना पड़ता है। बंद बोतल का पानी पीना पड़ता है। इंस्टेंट फूड़ खाना पड़ता है। खेलने के लिए, एक-दूसरे से बात करने के लिए भी वक्‍त की कमी है।’</blockquote>
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कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि श्रीलाल शुक्ल के साहित्य में जीवन का संघर्ष है और उनका साहित्य सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है।
  
श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं का एक बड़ा हिस्सा गाँव के जीवन से संबंध रखता है। ग्रामीण जीवन के व्यापक अनुभव और निरंतर परिवर्तित होते परिदृश्‍य को उन्होंने बहुत गहराई से विश्‍लेषित किया है। यह भी कहा जा सकता है कि श्रीलाल शुक्ल ने जड़ों तक जाकर व्यापक रूप से समाज की छान बीन कर, उसकी नब्ज को पकड़ा है। इसीलिए यह ग्रामीण संसार उनके साहित्य में देखने को मिला है। उनके साहित्य की मूल पृष्‍ठभूमि ग्राम समाज है परंतु नगरीय जीवन की भी सभी छवियाँ उसमें देखने को मिलती हैं।
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==पुरस्कार==
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1969 में श्रीलाल शुक्ल को [[साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी|साहित्य अकादमी]] का पुरस्कार मिला। लेकिन इसके बाद [[ज्ञानपीठ पुरस्कार|ज्ञानपीठ]] के लिए 42 साल तक इंतज़ार करना पड़ा। इस बीच उन्हें '''बिरला फ़ाउन्डेशन का [[व्यास सम्मान]]''', '''यश भारती और [[पद्म भूषण]]''' पुरस्कार भी मिले। लंबे समय से बीमार चल रहे शुक्ल को 18 अक्टूबर को [[उत्तर प्रदेश]] के [[राज्यपाल]] बी. एल. जोशी ने अस्पताल में ही [[ज्ञानपीठ पुरस्कार]] से सम्मानित किया था। [[वर्ष]] 2008 में शुक्ल को [[पद्म भूषण|पद्मभूषण पुरस्कार]] नवाजा गया था। वह '''भारतेंदु  नाट्य अकादमी लखनऊ''' के निदेशक तथा '''भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की मानद फैलोशिप''' से भी सम्मानित थे।
  
श्रीलाल शुक्ल ने साहित्य और जीवन के प्रति अपनी एक सहज धारणा का उल्लेख करते हुए कहा है कि "कथालेखन में मैं जीवन के कुछ मूलभूत नैतिक मूल्यों से प्रतिबद्ध होते हुए भी यथार्थ के प्रति बहुत आकृष्‍ट हूँ। पर यथार्थ की यह धारणा इकहरी नहीं है, वह बहुस्तरीय है और उसके सभी स्तर - आध्यात्मिक, आभ्यंतरिक, भौतिक आदि जटिल रूप से अंतर्गुम्फित हैं। उनकी समग्र रूप में पहचान और अनुभूति कहीं-कहीं रचना को जटिल भले ही बनाए, पर उस समग्रता की पकड़ ही रचना को श्रेष्‍ठता देती है। जैसे मनुष्‍य एक साथ कई स्तरों पर जीता है, वैंसे ही इस समग्रता की पहचान रचना को भी बहुस्तरीयता देती है।"
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==यात्राएँ==
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एक लेखक के रुप में श्रीलाल शुक्ल ने [[ब्रिटेन]], [[जर्मनी]], पोलैंड, सूरीनाम, [[चीन]], यूगोस्लाविया जैसे देशों की यात्रा कर [[भारत]] का प्रतिनिधित्व किया था।
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==निधन==
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[[ज्ञानपीठ पुरस्कार]] और [[पद्म भूषण]] से सम्मानित तथा 'राग दरबारी' जैसा कालजयी व्यंग्य उपन्यास लिखने वाले मशहूर व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल को [[16 अक्टूबर]] को [[पार्किंसन]] बीमारी के कारण उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था। [[28 अक्तूबर]], [[2011]] को [[शुक्रवार]] सुबह 11.30 बजे सहारा अस्पताल में श्रीलाल शुक्ल का निधन हो गया। वह 86 वर्ष के थे। उनके निधन पर [[लखनऊ]] के साहित्य जगत में शोक की लहर दौड़ गई।
  
श्रीलाल शुक्ल की सूक्ष्म और पैनी दृष्‍टि व्यवस्था की छोटी-से-छोटी विकृति को भी सहज ही देख लेती है, परख लेती है। उन्होंने अपने लेखन को सिर्फ राजनीति पर ही केंद्रित नहीं होने दिया। शिक्षा के क्षेत्र की दुर्दशा पर भी उन्होंने व्यंग्य कसा। 1963 में प्रकाशित उनकी पहली रचना ‘धर्मयुग’ शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्‍त विसंगतियों पर आधारित है। व्यंग्य संग्रह ‘अंगद का पाँव’ और  उपन्यास ‘राग दरबारी’ में श्रीलाल शुक्ल ने इसे विस्तार दिया है।
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देश के अनेक सकारी स्कूलों की स्थिति दयनीय है। उनके पास अच्छा भवन तक नहीं है। कहीं कहीं तो तंबुओं में कक्षाएँ चलाती हैं, अर्थात न्यूतम सुविधाओं का भी अभाव है। वे इस पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि "यही हाल ‘राग दरबारी’ के छंगामल विद्‍यालय इंटरमीडियेट कॉलेज का भी है, जहाँ से इंटरमीडियेट पास करनेवाले लड़के सिर्फ इमारत के आधार पर कह सकते हैं, सैनिटरी फिटिंग किस चिड़िया का नाम है। हमने विलायती तालीम तक देशी परंपरा में पाई है और इसीलिए हमें देखो, हम आज भी उतने ही प्राकृत हैं, हमारे इतना पढ़ लेने पर भी हमारा पेशाब पेड़ के तने पर ही उतरता है।"
 
 
 
विडंबना यह है कि आज कल अध्यापक भी अध्यपन के अलावा सब कुछ करते हैं। ‘राग दरबारी’ के मास्टर मोतीराम की तरह वे कक्षा में पढ़ाते कम हैं और ज्यादा समय अपनी आटे की चक्‍की को समर्पित करते हैं। ज्यादात्र शिक्षक मोतीराम ही हैं, नाम भले ही कुछ भी हो। ट्‍यूशन लेते हैं, दुकान चलाते हैं और तरह तरह के निजी धंधे करते हैं। छात्रों को देने के लिए उनके पास समय कहाँ बचता है?
 
 
 
श्रीलाल शुक्ल ने अपने साहित्य के माध्यम से समसामयिक स्थितियों पर करारी चोट की है। वे कहते हैं कि ‘आज मानव समाज अपने पतन के लिए खुद जिम्‍मेदार है। आज वह खुलकर हँस नहीं सकता। हँसने के लिए भी ‘लाफिंग क्लब’ का सहारा लेना पड़ता है। शुद्ध हवा के लिए आक्सीजन पार्लर जाना पड़ता है। बंद बोत्ल का पानी पीना पड़ता है। इंस्टेंट फुड़ खाना पड़ता है। खेलने के लिए, एक-दूसरे से बात करने के लिए भी वक्‍त की कमी है।’ कुलमिलाकर यह कह सकते हैं कि श्रीलाल शुक्ल के साहित्य में जीवन का संघर्ष है और उनका साहित्य सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है।
 
 
 
 
 
 
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
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==बाहरी कड़ियाँ==
 
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*[http://www.gadyakosh.org/gk/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2_/_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%AF#.UOoseHl8_4I  श्रीलाल शुक्ल कौन है ?]
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*[http://fresh-cartoons.blogspot.in/2011/09/blog-post_23.html?spref=fb  भारतीय ज्ञानपीठ में भी गूंजा लखनऊ का रागदरबारी]
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
 
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[[Category:नया पन्ना अक्टूबर-2011]]
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__INDEX__
 
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[[Category:साहित्यकार]]
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__NOTOC__

12:01, 13 अक्टूबर 2022 के समय का अवतरण

श्रीलाल शुक्ल
Shrilal Shukla55.jpg
पूरा नाम श्रीलाल शुक्ल
जन्म 31 दिसंबर, 1925 ई.
जन्म भूमि अतरौली गाँव, लखनऊ
मृत्यु 28 अक्तूबर, 2011 ई.
मृत्यु स्थान लखनऊ,भारत
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र साहित्यकार, लेखक
मुख्य रचनाएँ 'सूनी घाटी का सूरज', 'आओ बैठ लें कुछ देर', 'अंगद का पांव', 'राग दरबारी', 'अज्ञातवास', 'आदमी का ज़हर', 'इस उम्र में', 'उमराव नगर में कुछ दिन', 'कुछ ज़मीन पर कुछ हवा में', 'ख़बरों की जुगाली', 'विश्रामपुर का संत', 'मकान', 'सीमाएँ टूटती हैं', 'संचयिता', 'जहालत के पचास साल', 'यह घर मेरा नहीं है'।
विषय व्यंग्य, उपन्यास, विनिबंध, आलोचना
भाषा अवधी, अंग्रेज़ी, उर्दू, संस्कृत और हिन्दी
शिक्षा इलाहाबाद विश्‍वविद्‍यालय से स्नातक
पुरस्कार-उपाधि साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1999 में व्यास सम्मान, 2005 में यश भारती, 2008 में पद्मभूषण, 2009 का ज्ञानपीठ पुरस्कार लोहिया सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, शरद जोशी सम्मान।
प्रसिद्धि राग दरबारी, व्यंग्य लेखन
विशेष योगदान उपन्यासकार व व्यंग्यकार के रूप में प्रतिष्ठित, 130 से अधिक पुस्तकों का लेखन।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी 1949 में राज्य सिविल सेवा (पी.सी.एस.) में चयनित, 1983 में भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के सेवानिवृत्त।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

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श्रीलाल शुक्ल (अंग्रेज़ी: Srilal Sukla, जन्म: 31 दिसंबर, 1925; मृत्यु: 28 अक्टूबर, 2011) को लखनऊ जनपद के समकालीन कथा-साहित्य में उद्देश्यपूर्ण व्यंग्य लेखन के लिये विख्यात साहित्यकार माने जाते थे। उन्होंने 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की। 1949 में राज्य सिविल सेवा से नौकरी शुरू की। 1983 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त हुए। उनका विधिवत लेखन 1954 से शुरू होता है और इसी के साथ हिंदी गद्य का एक गौरवशाली अध्याय आकार लेने लगता है।

व्यक्तित्व

श्रीलाल शुक्ल का व्यक्तित्व अपनी मिसाल आप था। सहज लेकिन सतर्क, विनोदी लेकिन विद्वान, अनुशासनप्रिय लेकिन अराजक। श्रीलाल शुक्ल अंग्रेज़ी, उर्दू, संस्कृत और हिन्दी भाषा के विद्वान थे। श्रीलाल शुक्ल संगीत के शास्त्रीय और सुगम दोनों पक्षों के रसिक-मर्मज्ञ थे। 'कथाक्रम' समारोह समिति के वह अध्यक्ष रहे। श्रीलाल शुक्ल जी ने ग़रीबी झेली, संघर्ष किया, मगर उसके विलाप से लेखन को नहीं भरा। उन्हें नई पीढ़ी भी सबसे ज़्यादा पढ़ती है। वे नई पीढ़ी को सबसे अधिक समझने और पढ़ने वाले वरिष्ठ रचनाकारों में से एक रहे। न पढ़ने और लिखने के लिए लोग सैद्धांतिकी बनाते हैं। श्रीलाल जी का लिखना और पढ़ना रुका तो स्वास्थ्य के गंभीर कारणों के चलते। श्रीलाल शुक्ल का व्यक्तित्व बड़ा सहज था। वह हमेशा मुस्कुराकर सबका स्वागत करते थे। लेकिन अपनी बात बिना लाग-लपेट कहते थे। व्यक्तित्व की इसी ख़ूबी के चलते उन्होंने सरकारी सेवा में रहते हुए भी व्यवस्था पर करारी चोट करने वाली राग दरबारी जैसी रचना हिंदी साहित्य को दी।

लखनऊ का गौरव

'विश्वनाथ त्रिपाठी' ने हरिशंकर परसाई के लेखन को ‘स्वतंत्र भारत की आवाज़’ कहा है। श्रीलाल शुक्ल का स्वर मिला लें तो यह आवाज़ और प्रखर व पुख्ता होती है। वैसे तो वे पूरे भारत के थे, लेकिन लखनऊ के ख़ास गौरव थे। यशपाल - भगवतीचरण वर्मा - अमृतलाल नागर के बाद रचनात्मक मानचित्र पर लखनऊ चमकता रहा तो इसका बड़ा श्रेय श्रीलाल शुक्ल को दिया जायेगा।

रचनाएँ

  • 10 उपन्यास, 4 कहानी संग्रह, 9 व्यंग्य संग्रह, 2 विनिबंध, 1 आलोचना पुस्तक आदि उनकी कीर्ति को बनाये रखेंगे। उनका पहला उपन्यास सूनी घाटी का सूरज 1957 में प्रकाशित हुआ. उनका सबसे लोकप्रिय उपन्यास 'राग दरबारी' 1968 में छपा। राग दरबारी का पन्द्रह भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी में भी अनुवाद प्रकाशित हुआ। राग विराग श्रीलाल शुक्ल का आखिरी उपन्यास था। उन्होंने हिंदी साहित्य को कुल मिलाकर 25 रचनाएं दीं। इनमें मकान, पहला पड़ाव, अज्ञातवास और विश्रामपुर का संत प्रमुख हैं।
प्रसिद्ध रचनाएँ
  1. सूनी घाट का सूरज (1957)
  2. अज्ञातवास (1962)
  3. राग दरबारी (1968)
  4. आदमी का ज़हर (1972)
  5. सीमाएँ टूटती हैं (1973)
  6. ‘मकान (1976)
  7. ‘पहला पड़ाव’(1987)
  8. ‘विश्रामपुर का संत (1998)
  9. बब्बरसिंह और उसके साथी (1999)
  10. राग विराग (2001)
  11. ‘यह घर मेरी नहीं (1979)
  12. सुरक्षा और अन्य कहानियाँ (1991)
  13. इस उम्र में (2003)
  14. दस प्रतिनिधि कहानियाँ (2003)
प्रसिद्ध व्यंग्य रचनाएँ
  1. अंगद का पाँव (1958)
  2. यहाँ से वहाँ (1970)
  3. मेरी श्रेष्‍ठ व्यंग्य रचनाएँ (1979)
  4. उमरावनगर में कुछ दिन (1986)
  5. कुछ ज़मीन में कुछ हवा में (1990)
  6. आओ बैठ लें कुछ देरे (1995)
  7. अगली शताब्दी का शहर (1996)
  8. जहालत के पचास साल (2003)
  9. खबरों की जुगाली (2005)
आलोचना
  1. अज्ञेय:कुछ रंग और कुछ राग (1999)
विनिबंध
  1. भगवतीचरण वर्मा (1989)
  2. अमृतलाल नागर (1994)

भाषा शैली

उन्होंने शिवपालगंज के रूप में अपनी अद्भुत भाषा शैली, मिथकीय शिल्प और देशज मुहावरों से गढ़ा था। त्रासदियों और विडंबनाओं के इसी साम्य ने ‘राग दरबारी’ को महान् कृति बनाया, तो इस कृति ने श्रीलाल शुक्ल को महान् लेखक। राग दरबारी व्यंग्य है या उपन्यास, यह एक श्रेष्ठ रचना है, जिसकी तसदीक करोड़ों पाठकों ने की है और कर रहे हैं। ‘विश्रामपुर का संत’, ‘सूनी घाटी का सूरज’ और ‘यह मेरा घर नहीं’ जैसी कृतियाँ साहित्यिक कसौटियों में खरी साबित हुई हैं। बल्कि ‘विश्रामपुर का संत’ को स्वतंत्र भारत में सत्ता के खेल की सशक्त अभिव्यक्ति तक कहा गया था। राग दरबारी को इतने वर्षों बाद भी पढ़ते हुए उसके पात्र हमारे आसपास नजर आते हैं। शुक्लजी ने जब इसे लिखा था, तब एक तरह की हताशा चारों तरफ़ नजर आ रही थी। यह मोहभंग का दौर था। ऐसे निराशा भरे महौल में उन्होंने समाज की विसंगतियों को चुटीली शैली में सामने लाया था। वह श्रेष्ठ रचनाकार के साथ ही एक संवेदनशील और विनम्र इंसान भी थे।

ग्रामीण परिवेश

श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं का एक बड़ा हिस्सा गाँव के जीवन से संबंध रखता है। ग्रामीण जीवन के व्यापक अनुभव और निरंतर परिवर्तित होते परिदृश्‍य को उन्होंने बहुत गहराई से विश्‍लेषित किया है। यह भी कहा जा सकता है कि श्रीलाल शुक्ल ने जड़ों तक जाकर व्यापक रूप से समाज की छान बीन कर, उसकी नब्ज को पकड़ा है। इसीलिए यह ग्रामीण संसार उनके साहित्य में देखने को मिला है। उनके साहित्य की मूल पृष्‍ठभूमि ग्राम समाज है परंतु नगरीय जीवन की भी सभी छवियाँ उसमें देखने को मिलती हैं। श्रीलाल शुक्ल ने साहित्य और जीवन के प्रति अपनी एक सहज धारणा का उल्लेख करते हुए कहा है कि -

कथालेखन में मैं जीवन के कुछ मूलभूत नैतिक मूल्यों से प्रतिबद्ध होते हुए भी यथार्थ के प्रति बहुत आकृष्‍ट हूँ। पर यथार्थ की यह धारणा इकहरी नहीं है, वह बहुस्तरीय है और उसके सभी स्तर - आध्यात्मिक, आभ्यंतरिक, भौतिक आदि जटिल रूप से अंतर्गुम्फित हैं। उनकी समग्र रूप में पहचान और अनुभूति कहीं-कहीं रचना को जटिल भले ही बनाए, पर उस समग्रता की पकड़ ही रचना को श्रेष्‍ठता देती है। जैसे मनुष्‍य एक साथ कई स्तरों पर जीता है, वैंसे ही इस समग्रता की पहचान रचना को भी बहुस्तरीयता देती है।

सामाजिक व्यंग्य

श्रीलाल शुक्ल की सूक्ष्म और पैनी दृष्‍टि व्यवस्था की छोटी-से-छोटी विकृति को भी सहज ही देख लेती है, परख लेती है। उन्होंने अपने लेखन को सिर्फ राजनीति पर ही केंद्रित नहीं होने दिया। शिक्षा के क्षेत्र की दुर्दशा पर भी उन्होंने व्यंग्य कसा। 1963 में प्रकाशित उनकी पहली रचना ‘धर्मयुग’ शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्‍त विसंगतियों पर आधारित है। व्यंग्य संग्रह ‘अंगद का पाँव’ और उपन्यास ‘राग दरबारी’ में श्रीलाल शुक्ल ने इसे विस्तार दिया है।

शिक्षा व्यवस्था पर व्यंग्य

देश के अनेक सकारी स्कूलों की स्थिति दयनीय है। उनके पास अच्छा भवन तक नहीं है। कहीं कहीं तो तंबुओं में कक्षाएँ चलाती हैं, अर्थात न्यूतम सुविधाओं का भी अभाव है। श्रीलाल शुक्ल इस पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि -

"यही हाल ‘राग दरबारी’ के छंगामल विद्‍यालय इंटरमीडियेट कॉलेज का भी है, जहाँ से इंटरमीडियेट पास करने वाले लड़के सिर्फ इमारत के आधार पर कह सकते हैं, सैनिटरी फिटिंग किस चिड़िया का नाम है। हमने विलायती तालीम तक देशी परंपरा में पाई है और इसीलिए हमें देखो, हम आज भी उतने ही प्राकृत हैं, हमारे इतना पढ़ लेने पर भी हमारा पेशाब पेड़ के तने पर ही उतरता है।"

विडंबना यह है कि आज कल अध्यापक भी अध्यपन के अलावा सब कुछ करते हैं। ‘राग दरबारी’ के मास्टर मोतीराम की तरह वे कक्षा में पढ़ाते कम हैं और ज़्यादा समय अपनी आटे की चक्‍की को समर्पित करते हैं। ज़्यादातर शिक्षक मोतीराम ही हैं, नाम भले ही कुछ भी हो। ट्‍यूशन लेते हैं, दुकान चलाते हैं और तरह तरह के निजी धंधे करते हैं। छात्रों को देने के लिए उनके पास समय कहाँ बचता है?

समसामयिक स्थितियों पर व्यंग्य

श्रीलाल शुक्ल ने अपने साहित्य के माध्यम से समसामयिक स्थितियों पर करारी चोट की है। वे कहते हैं कि -

‘आज मानव समाज अपने पतन के लिए खुद जिम्‍मेदार है। आज वह खुलकर हँस नहीं सकता। हँसने के लिए भी ‘लाफिंग क्लब’ का सहारा लेना पड़ता है। शुद्ध हवा के लिए ऑक्सीजन पार्लर जाना पड़ता है। बंद बोतल का पानी पीना पड़ता है। इंस्टेंट फूड़ खाना पड़ता है। खेलने के लिए, एक-दूसरे से बात करने के लिए भी वक्‍त की कमी है।’

कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि श्रीलाल शुक्ल के साहित्य में जीवन का संघर्ष है और उनका साहित्य सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है।

पुरस्कार

1969 में श्रीलाल शुक्ल को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। लेकिन इसके बाद ज्ञानपीठ के लिए 42 साल तक इंतज़ार करना पड़ा। इस बीच उन्हें बिरला फ़ाउन्डेशन का व्यास सम्मान, यश भारती और पद्म भूषण पुरस्कार भी मिले। लंबे समय से बीमार चल रहे शुक्ल को 18 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बी. एल. जोशी ने अस्पताल में ही ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया था। वर्ष 2008 में शुक्ल को पद्मभूषण पुरस्कार नवाजा गया था। वह भारतेंदु  नाट्य अकादमी लखनऊ के निदेशक तथा भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की मानद फैलोशिप से भी सम्मानित थे।

यात्राएँ

एक लेखक के रुप में श्रीलाल शुक्ल ने ब्रिटेन, जर्मनी, पोलैंड, सूरीनाम, चीन, यूगोस्लाविया जैसे देशों की यात्रा कर भारत का प्रतिनिधित्व किया था।

निधन

ज्ञानपीठ पुरस्कार और पद्म भूषण से सम्मानित तथा 'राग दरबारी' जैसा कालजयी व्यंग्य उपन्यास लिखने वाले मशहूर व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल को 16 अक्टूबर को पार्किंसन बीमारी के कारण उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था। 28 अक्तूबर, 2011 को शुक्रवार सुबह 11.30 बजे सहारा अस्पताल में श्रीलाल शुक्ल का निधन हो गया। वह 86 वर्ष के थे। उनके निधन पर लखनऊ के साहित्य जगत में शोक की लहर दौड़ गई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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