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[[कृषि]] से जुडे हुए कार्यों को 'महाक्षटलिक' एवं 'कारणिक' देखता था। गुप्त काल में सिंचाई के साधनों के अभाव के कारण अधिकांश कृषि [[वर्षा]] पर आधारित थी। [[वराहमिहिर]] की 'वृहत्तसंहिता' में वर्षा की संभावना और वर्षा के अभाव के प्रश्न पर काफ़ी विचार विमर्श हुआ है। 'वृहत्तसंहिता' में ही वर्षा से होने वाली तीन फ़सलों का उल्लेख है। [[स्कन्दगुप्त]] के [[जूनागढ़]] के अभिलेख से यह प्रमाणित होता है कि इसने 'सुदर्शन झील' की मरम्मत करवाई थी। सिंचाई में '[[रहट]]' या 'घटीयंत्र' या प्रयोग होता था। गुप्त काल में [[सोना]], [[चाँदी]], [[ताँबा]] एवं [[लोहा]] जैसी धातुओं का प्रचलन था। पालने योग्य पशुओं में '[[अमरकोष]]' में घोड़े, भैंस, ऊँट, बकरी, भेड़, गधा, कुत्ता, बिल्ली आदि का विवरण प्राप्त होता है।
  
[[ह्वेन त्सांग]] ने गुप्तकालीन फ़सलों के विषय में बताया है कि पश्चिमोत्तर भारत में ईख और [[गेहूँ]] तथा [[मगध]] एवं उसके पूर्वी क्षेत्रों में चावल की पैदावार होती थी। अमरकोष में उल्लिखित कताई-बुनाई, हथकरघा एवं धागे के विवरण से लगता है कि गुप्तकाल में वस्त्र निर्माण के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। श्रेणियां, व्यवसायिक उद्यम एवं निर्माण के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। श्रेणियां अपने आन्तरिक मामलों में पूर्ण स्वतंत्र होती थी। श्रेणी के प्रधान को ‘ज्येष्ठक‘ कहा जाता था। यह पद आनुवंशिक होता था। [[नालन्दा]] एवं [[वैशाली]] से गुप्तकालीन श्रेष्ठियों, सार्थवाहों एवं कुलिकों की मुहरें प्राप्त होती है। श्रेणियां आधुनिक बैंक का भी काम करती थी। ये धन को अपने पास जमा करती एवं ब्याज पर धन उधार देती थी। ब्याज के रूप में प्राप्त धन का उपयोग मंदिरों में दीपक जलाने के काम में किया जाता था। 437 - 38 ई के ‘मंदसौर अभिलेख‘ में रेशम बुनकरों की श्रेणी के द्वारा विशाल 'सूर्य मंदिर' के निर्माण एवं मरम्मत का उल्लेख मिलता है। स्कन्दगुप्त के इंदौर ताम्रपत्र अभिलेख में इंद्रपुर के देव विष्णु ब्राह्मण द्वारा ‘तैलिक श्रेणी‘ का उल्लेख मिलता है जो ब्याज के रुपये में से सूर्य मंदिर में दीपक जलाने में प्रयुक्त तेज़ के खर्च को वहन करता था। गुप्त काल में श्रेणी से बड़ी संस्था, जिसकी शिल्प श्रेणियां सदस्य होती थी, उसे निगम कहा जाता था। प्रत्येक शिल्पियों की अलग-अलग श्रेणियां होती थी। ये श्रेणियां अपने क़ानून एवं परम्परा की अवहेलना करने वालों को सज़ा देने का अधिकार रखती थीं। व्यापारिक का नेतृत्व करने वाला ‘सार्थवाह‘ कहलाता था। निगम का प्रधान ‘श्रेष्ठी‘ कहलाता था। व्यापारिक समितियों को निगम कहते थे।
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चीनी यात्री [[ह्वेन त्सांग]] ने [[गुप्त काल]] की फ़सलों के विषय में बताया है कि पश्चिमोत्तर [[भारत]] में ईख ([[गन्ना]]) और [[गेहूँ]] तथा [[मगध]] एवं उसके पूर्वी क्षेत्रों में [[चावल]] की पैदावार होती थी। 'अमरकोष' में उल्लिखित कताई-बुनाई, हथकरघा एवं धागे के विवरण से लगता है कि गुप्त काल में वस्त्र निर्माण के क्षेत्र में श्रेणियाँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। श्रेणियाँ, व्यवसायिक उद्यम एवं निर्माण के क्षेत्र में भी वे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। श्रेणियाँ अपने आन्तरिक मामलों में पूर्ण स्वतंत्र होती थीं। श्रेणी के प्रधान को 'ज्येष्ठक' कहा जाता था। यह पद आनुवंशिक होता था। [[नालन्दा]] एवं [[वैशाली]] से गुप्त कालीन श्रेष्ठियों, सार्थवाहों एवं कुलिकों की मुहरें प्राप्त होती है। श्रेणियाँ आधुनिक बैंक का भी काम करती थीं। ये धन को अपने पास जमा करती एवं ब्याज पर धन उधार देती थी। ब्याज के रूप में प्राप्त धन का उपयोग मंदिरों में [[दीपक]] जलाने के काम में किया जाता था। 437-438 ई के 'मंदसौर अभिलेख' में रेशम बुनकरों की श्रेणी के द्वारा विशाल सूर्य मंदिर के निर्माण एवं मरम्मत का उल्लेख मिलता है। [[स्कन्दगुप्त]] के [[इंदौर]] के ताम्रपत्र [[अभिलेख]] में इंद्रपुर के देव विष्णु ब्राह्मण द्वारा 'तैलिक श्रेणी' का उल्लेख मिलता है, जो ब्याज के रुपये में से सूर्य मंदिर में दीपक जलाने में प्रयुक्त तेल के खर्च को वहन करता था। [[गुप्त काल]] में श्रेणी से बड़ी संस्था, जिसकी शिल्प श्रेणियाँ सदस्य होती थी, उसे 'निगम' कहा जाता था। प्रत्येक शिल्पियों की अलग-अलग श्रेणियाँ होती थी। ये श्रेणियाँ अपने क़ानून एवं परम्परा की अवहेलना करने वालों को सज़ा देने का अधिकार रखती थीं। व्यापारिक नेतृत्व करने वाला 'सार्थवाह' कहलाता था। निगम का प्रधान 'श्रेष्ठी'<ref>महाजन या नगर का धनवान व्यक्ति</ref> कहलाता था। व्यापारिक समितियों को 'निगम' कहते थे।
 
 
 
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06:45, 28 अप्रैल 2013 का अवतरण

गुप्त काल 'भारत का स्वर्ण युग' कहा जाता है। गुप्त साम्राज्य में राजपद वंशानुगत सिद्धान्त पर आधारित था। राजा अपने बड़े पुत्र को युवराज घोषित करता था। अपने उत्कर्ष के समय में गुप्त साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंध्य पर्वत तक एवं पूर्व में 'बंगाल की खाड़ी' से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैला हुआ था। गुप्त वंश के कुछ अन्य शासक, जैसे- नरसिंहगुप्त (बालदिल्य), कुमारगुप्त द्वितीय, बुधगुप्त, वैण्यगुप्त, भानुगुप्त, कुमारगुप्त तृतीय, विष्णुगुप्त आदि में मिलकर कुल 476 ई. से 550 ई. तक शासन किया था।

राजकीय आय का स्रोत

'प्रयाग प्रशस्ति' में शक्तिशाली गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त को पृथ्वी पर शासन करने वाला ईश्वर का प्रतिनिधि कहा गया है। साथ ही उसकी तुलना कुबेर, वरुण, इन्द्रयमराज आदि देवताओं से भी की गई है। गुप्त राजाओं ने अपने साम्राज्य के भीतर अनेक छोटे-छोटे राजाओं पर शासन किया था। साम्राज्य की प्रशासन व्यवस्था और राजस्व आदि की नीति बहुत सुदृढ़ थी। गुप्त काल में राजकीय आय के प्रमुख स्रोत 'कर' थे, जो निम्नलिखित थे-

  • भाग - यह कर राजा को भूमि के उत्पादन से प्राप्त होने वाले भाग का छठा हिस्सा था।
  • भोग - सम्भवतः राजा को हर दिन फल-फूल एवं सब्जियों के रूप में दिया जाने वाला कर।
  • प्रणयकर - गुप्त काल में यह ग्रामवासियों पर लगाया गया अनिवार्य या स्वेच्छा चन्दा था। भूमिकर भोग का उल्लेख 'मनुस्मृति' में भी हुआ है। इसी प्रकार 'भेंट' नामक कर का उल्लेख 'हर्षचरित' में आया है।
  • उपरिकर एवं उद्रंगकर - यह एक प्रकार का भूमि कर होता था। भूमि कर की अदायगी दोनों ही रूपों में 'हिरण्य' (नकद) या 'मेय' (अन्न) में किया जा सकता था, किन्तु छठी शती के बाद किसानों को भूमि कर की अदायगी अन्न के रूप में करने के लिए बाध्य होना पड़ा। भूमि का स्वामी कृषकों एवं उनकी स्त्रियों से बेकार या विष्टि लिया करता था। गुप्त अभिलेखों में भूमिकर को 'उद्रंग' या 'भागकर' कहा गया है। स्मृति ग्रंथों में इसका 'राजा की वृत्ति' के रूप में उल्लेख किया गया है।
  • हलदण्ड कर - यह कर हल पर लगता था। गुप्त काल में वणिकों, शिल्पियों, शक्कर एवं नील बनाने वाले पर राजकर लगता था।

राजस्व के अन्य स्रोत

गुप्त काल में राजस्व के अन्य महत्त्वपूर्ण स्रोतों में भूमि, रत्न, छिपा हुआ गुप्त धन, खान एवं नमक आदि थे। इन पर सीधे सम्राट का एकाधिपत्य होता था[1] पर कदाचित यदि इस तरह की खान या गुप्त धन किसी ऐसी भूमि पर निकल आये, जो किसी को पहले से अनुदान में मिली है तो इस पर राजा का कोई भी अधिकार नहीं रह जाता था। संभवतः गुप्त काल में भू-राजस्व कुल उत्पादन का 1/4 से 1/6 तक होता था। स्मृतिकार मनु ने 'मनुस्मृति' कहा है कि- "भूमि पर उसी का अधिकार होता है, जो भूमि को सर्वप्रथम जंगल से भूमि में परिवर्तित करता है।" बृहस्पति और नारद स्मृतियों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति का ज़मीन पर मालिकाना अधिकार तभी माना जा सकता है, जब उसके पास क़ानूनी दस्तावेज हो। इस समय प्रचलन में क़रीब 5 प्रकार की भूमि का उल्लेख मिलता है-

  1. क्षेत्र भूमि- ऐसी भूमि जो खेती के योग्य होती हो।
  2. वास्तु भूमि- ऐसी भूमि जो निवास के योग्य होती हो।
  3. चारागाह भूमि - पशुओं के चारा योग्य भूमि।
  4. सिल - ऐसी भूमि जो जोतने योग्य नहीं होती थी।
  5. अग्रहत - ऐसी भूमि जो जंगली होती थी।
नोट

अमरसिंह ने 'अमरकोष' में 12 प्रकार की भूमि का उल्लेख किया है, जो निम्नलिखित हैं-

  1. उर्वरा
  2. ऊसर
  3. मरु
  4. अप्रहत
  5. सद्वल
  6. पंकिल
  7. जल
  8. कच्छ
  9. शर्करा
  10. शर्कावती
  11. नदीमातृक
  12. देवमातृक

कृषि की स्थिति

कृषि से जुडे हुए कार्यों को 'महाक्षटलिक' एवं 'कारणिक' देखता था। गुप्त काल में सिंचाई के साधनों के अभाव के कारण अधिकांश कृषि वर्षा पर आधारित थी। वराहमिहिर की 'वृहत्तसंहिता' में वर्षा की संभावना और वर्षा के अभाव के प्रश्न पर काफ़ी विचार विमर्श हुआ है। 'वृहत्तसंहिता' में ही वर्षा से होने वाली तीन फ़सलों का उल्लेख है। स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ के अभिलेख से यह प्रमाणित होता है कि इसने 'सुदर्शन झील' की मरम्मत करवाई थी। सिंचाई में 'रहट' या 'घटीयंत्र' या प्रयोग होता था। गुप्त काल में सोना, चाँदी, ताँबा एवं लोहा जैसी धातुओं का प्रचलन था। पालने योग्य पशुओं में 'अमरकोष' में घोड़े, भैंस, ऊँट, बकरी, भेड़, गधा, कुत्ता, बिल्ली आदि का विवरण प्राप्त होता है।

चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने गुप्त काल की फ़सलों के विषय में बताया है कि पश्चिमोत्तर भारत में ईख (गन्ना) और गेहूँ तथा मगध एवं उसके पूर्वी क्षेत्रों में चावल की पैदावार होती थी। 'अमरकोष' में उल्लिखित कताई-बुनाई, हथकरघा एवं धागे के विवरण से लगता है कि गुप्त काल में वस्त्र निर्माण के क्षेत्र में श्रेणियाँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। श्रेणियाँ, व्यवसायिक उद्यम एवं निर्माण के क्षेत्र में भी वे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। श्रेणियाँ अपने आन्तरिक मामलों में पूर्ण स्वतंत्र होती थीं। श्रेणी के प्रधान को 'ज्येष्ठक' कहा जाता था। यह पद आनुवंशिक होता था। नालन्दा एवं वैशाली से गुप्त कालीन श्रेष्ठियों, सार्थवाहों एवं कुलिकों की मुहरें प्राप्त होती है। श्रेणियाँ आधुनिक बैंक का भी काम करती थीं। ये धन को अपने पास जमा करती एवं ब्याज पर धन उधार देती थी। ब्याज के रूप में प्राप्त धन का उपयोग मंदिरों में दीपक जलाने के काम में किया जाता था। 437-438 ई के 'मंदसौर अभिलेख' में रेशम बुनकरों की श्रेणी के द्वारा विशाल सूर्य मंदिर के निर्माण एवं मरम्मत का उल्लेख मिलता है। स्कन्दगुप्त के इंदौर के ताम्रपत्र अभिलेख में इंद्रपुर के देव विष्णु ब्राह्मण द्वारा 'तैलिक श्रेणी' का उल्लेख मिलता है, जो ब्याज के रुपये में से सूर्य मंदिर में दीपक जलाने में प्रयुक्त तेल के खर्च को वहन करता था। गुप्त काल में श्रेणी से बड़ी संस्था, जिसकी शिल्प श्रेणियाँ सदस्य होती थी, उसे 'निगम' कहा जाता था। प्रत्येक शिल्पियों की अलग-अलग श्रेणियाँ होती थी। ये श्रेणियाँ अपने क़ानून एवं परम्परा की अवहेलना करने वालों को सज़ा देने का अधिकार रखती थीं। व्यापारिक नेतृत्व करने वाला 'सार्थवाह' कहलाता था। निगम का प्रधान 'श्रेष्ठी'[2] कहलाता था। व्यापारिक समितियों को 'निगम' कहते थे।

गुप्तकालीन अभिलेख एवं उनके प्रवर्तक

गुप्तकालीन अभिलेख एवं प्रवर्तक
शासक/प्रर्वतक प्रमुख अभिलेख
1- समुद्रगुप्त प्रयाग प्रशस्ति, एरण प्रशस्ति, गया ताम्र शासनलेख, नालंदा शासनलेख
2- चन्द्रगुप्त द्वितीय सांची शिलालेख, उदयगिरि का प्रथम एवं द्वितीय शिलालेख, गढ़वा का प्रथम शिलालेख, मथुरा स्तम्भलेख, मेहरौली प्रशस्ति।
3- कुमार गुप्त मंदसौर शिलालेख, गढ़वा का द्वितीय एवं तृतीय शिलालेख, विलसड़ स्तम्भलेख, उदयगिरि का तृतीय गुहालेख, मानकुंवर बुद्धमूर्ति लेख, कर्मदाडा लिंकलेख, धनदेह ताम्रलेख, किताईकुटी ताम्रलेख, बैग्राम ताम्रलेख, दामोदर प्रथम एवं द्वितीय ताम्रलेख।
4- स्कन्दगुप्त जूनागढ़ प्रशस्ति, भितरी स्तम्भलेख, सुपिया स्तम्भलेख, कहांव स्तम्भलेख, इन्दौर ताम्रलेख।
5- कुमारगुप्त द्वितीय सारनाथ बुद्धमूर्ति लेख
6- भानुगुप्त एरण स्तम्भ लेख।
7- विष्णुगुप्त पंचम दोमोदर ताम्रलेख।
8- बुधगुप्त एरण स्तम्भ लेख, राजघाट (वाराणसी) स्तम्भ लेख, पहाड़ ताम्रलेख, नन्दपुर ताम्रलेख, चतुर्थ दामोदर ताम्रलेख।
9- वैण्यगुप्त टिपरा (गुनईधर) ताम्रलेख।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नारद स्मृति
  2. महाजन या नगर का धनवान व्यक्ति

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