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चित्र:Punchri Ka Lautha Temple Govardhan Mathura-2.jpg|[[पूंछरी का लौठा]], गोवर्धन, [[मथुरा]]<br /> Punchari Ka Lautha, Govardhan, Mathura
 
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चित्र:Govardhan Parvat Govardhan Mathura.jpg|गोवर्धन पर्वत, गोवर्धन, [[मथुरा]]<br /> Govardhan Parvat, Govardhan, Mathura
 
चित्र:Govardhan Parvat Govardhan Mathura.jpg|गोवर्धन पर्वत, गोवर्धन, [[मथुरा]]<br /> Govardhan Parvat, Govardhan, Mathura
चित्र:Jatipura Temple Entry Gate Govardhan Mathura.jpg|[[जतीपुरा]] मंदिर, प्रवेश द्वार, गोवर्धन, [[मथुरा]]<br /> Jatipura Temple, Entry Gate, Govardhan, Mathura
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चित्र:Jatipura Temple Entry Gate Govardhan Mathura.jpg|[[जतीपुरा गोवर्धन|जतीपुरा]] मंदिर, प्रवेश द्वार, गोवर्धन, [[मथुरा]]<br /> Jatipura Temple, Entry Gate, Govardhan, Mathura
 
चित्र:Danghati Temple Govardhan Mathura 3.jpg|[[दानघाटी गोवर्धन|दानघाटी]], गोवर्धन, [[मथुरा]]<br /> DanGhati Temple, Govardhan, Mathura
 
चित्र:Danghati Temple Govardhan Mathura 3.jpg|[[दानघाटी गोवर्धन|दानघाटी]], गोवर्धन, [[मथुरा]]<br /> DanGhati Temple, Govardhan, Mathura
 
चित्र:Sangam Dwar Govardhan Mathura 1.jpg|संगम द्वार, [[राधाकुण्ड गोवर्धन|राधा कुण्ड]] - [[कृष्ण कुण्ड]], गोवर्धन, [[मथुरा]]<br /> Sangam Dwar, Radha Kund-Krishna Kund, Govardhan, Mathura
 
चित्र:Sangam Dwar Govardhan Mathura 1.jpg|संगम द्वार, [[राधाकुण्ड गोवर्धन|राधा कुण्ड]] - [[कृष्ण कुण्ड]], गोवर्धन, [[मथुरा]]<br /> Sangam Dwar, Radha Kund-Krishna Kund, Govardhan, Mathura

13:08, 13 जनवरी 2011 का अवतरण

मथुरा नगर (उत्तर प्रदेश) के पश्चिम में लगभग 21 किमी की दूरी पर यह पहाड़ी स्थित है। यहीं पर गिरिराज पर्वत है जो 4 या 5 मील तक फैला हुआ है। इस पर्वत पर अनेक पवित्र स्थल है। पुलस्त्य ऋषि के श्राप के कारण यह पर्वत एक मुट्ठी रोज कम होता जा रहा है। कहते हैं इसी पर्वत को भगवान कृष्ण ने अपनी छोटी अँगुली पर उठा लिया था। गोवर्धन पर्वत को गिरिराज पर्वत भी कहा जाता है। गर्ग संहिता में गोवर्धन पर्वत की वंदना करते हुए इसे वृन्दावन में विराजमान और वृन्दावन की गोद में निवास करने वाला गोलोक का मुकुटमणि कहा गया है।

दानघाटी, गोवर्धन
DanGhati Temple, Govardhan

पौराणिक मान्यता अनुसार श्री गिरिराजजी को पुलस्त्य ऋषि द्रौणाचल पर्वत से ब्रज में लाए थे। दूसरी मान्यता यह भी है कि जब राम सेतुबंध का कार्य चल रहा था तो हनुमान जी इस पर्वत को उत्तराखंड से ला रहे थे लेकिन तभी देव वाणी हुई की सेतु बंध का कार्य पूर्ण हो गया है तो यह सुनकर हनुमानजी इस पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दक्षिण की ओर पुन: लौट गए। पौराणिक उल्लेखों के अनुसार भगवान कृष्ण के काल में यह अत्यन्त हरा-भरा रमणीक पर्वत था। इसमें अनेक गुफ़ा अथवा कंदराएँ थी और उनसे शीतल जल के अनेक झरने झरा करते थे। उस काल के ब्रज-वासी उसके निकट अपनी गायें चराया करते थे, अतः वे उक्त पर्वत को बड़ी श्रद्धा की द्रष्टि से देखते थे। भगवान श्री कृष्ण ने इन्द्र की परम्परागत पूजा बन्द कर गोवर्धन की पूजा ब्रज में प्रचलित की थी, जो उसकी उपयोगिता के लिये उनकी श्रद्धांजलि थी।


भगवान श्री कृष्ण के काल में इन्द्र के प्रकोप से एक बार ब्रज में भयंकर वर्षा हुई। उस समय सम्पूर्ण ब्रज जल मग्न हो जाने का आशंका उत्पन्न हो गई थी। भगवान श्री कृष्ण ने उस समय गोवर्धन के द्वारा समस्त ब्रजवासियों की रक्षा की थी। भक्तों का विश्वास है, श्री कृष्ण ने उस समय गोवर्धन को छतरी के समान धारण कर उसके नीचे समस्त ब्रज-वासियों को एकत्र कर लिया था, उस अलौकिक घटना का उल्लेख अत्यन्त प्राचीन काल से ही पुराणादि धार्मिक ग्रन्थों में और कलाकृतियों में होता रहा है। ब्रज के भक्त कवियों ने उसका बड़ा उल्लासपूर्ण कथन किया है। आजकल के वैज्ञानिक युग में उस आलौकिक घटना को उसी रूप में मानना संभव नहीं है। उसका बुद्धिगम्य अभिप्राय यह ज्ञात होता है कि श्री कृष्ण के आदेश अनुसार उस समय ब्रजवासियों ने गोवर्धन की कंदराओं में आश्रय लेकर वर्षा से अपनी जीवन रक्षा की थी।


मानसी गंगा, गोवर्धन
Mansi Ganga, Govardhan

गोवर्धन के महत्व की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना यह है कि यह भगवान कृष्ण के काल का एक मात्र स्थिर रहने वाला चिन्ह है। उस काल का दूसरा चिन्ह यमुना नदी भी है, किन्तु उसका प्रवाह लगातार परिवर्तित होने से उसे स्थाई चिन्ह नहीं कहा जा सकता है। इस पर्वत की परिक्रमा के लिए समूचे विश्व से कृष्णभक्त, वैष्णवजन और वल्लभ संप्रदाय के लोग आते हैं। यह पूरी परिक्रमा 7 कोस (क्रोश) अर्थात लगभग 21 किलोमीटर है। यहाँ लोग दण्डौती परिक्रमा करते हैं। दण्डौती परिक्रमा इस प्रकार की जाती है कि आगे हाथ फैलाकर ज़मीन पर लेट जाते हैं और जहाँ तक हाथ फैलते हैं, वहाँ तक लकीर खींचकर फिर उसके आगे लेटते हैं।

इसी प्रकार लेटते-लेटते या साष्टांग दण्डवत्‌ करते-करते परिक्रमा करते हैं जो एक सप्ताह से लेकर दो सप्ताह में पूरी हो पाती है। यहाँ गोरोचन, धर्मरोचन, पापमोचन और ऋणमोचन- ये चार कुण्ड हैं तथा भरतपुर नरेश की बनवाई हुई छतरियां तथा अन्य सुंदर इमारतें हैं। मथुरा से डीग को जाने वाली सड़क गोवर्धन पार करके जहाँ पर निकलती है, वह स्थान दानघाटी कहलाता है। यहाँ भगवान दान लिया करते थे। यहाँ दानरायजी का मंदिर है। इसी गोवर्द्धन के पास 20 कोस के बीच में सारस्वत कल्प में वृन्दावन था तथा इसी के आसपास यमुना बहती थी।


गिरिराज जी छप्पन भोग, गोवर्धन, मथुरा
Girraj Ji Chappan Bhog, Govardhan, Mathura

मार्ग में पड़ने वाले प्रमुख स्थल आन्यौर, जतिपुरा, मुखारविंद मंदिर, राधाकुण्ड, कुसुम सरोवर, मानसी गंगा, गोविन्द कुण्ड, पूंछरी का लौठा, दानघाटी इत्यादि हैं। राधाकुण्ड से तीन मील पर गोवर्धन पर्वत है। पहले यह गिरिराज 7 कोस में फैले हुए थे, पर अब आप धरती में समा गए हैं। यहीं कुसुम सरोवर है, जो बहुत सुंदर बना हुआ है। यहाँ वज्रनाभ के पधराए हरिदेवजी थे पर औरंगजेबी काल में वह यहाँ से चले गए। पीछे से उनके स्थान पर दूसरी मूर्ति प्रतिष्ठित की गई। यह मंदिर बहुत सुंदर है। यहाँ श्री वज्रनाभ के ही पधराए हुए एकचक्रेश्वर महादेव का मंदिर है। गिरिराज के ऊपर और आसपास गोवर्द्धन ग्राम बसा है तथा एक मनसा देवी का मंदिर है। मानसी गंगा पर गिरिराज का मुखारविन्द है, जहाँ उनका पूजन होता है तथा आषाढ़ी पूर्णिमा तथा कार्तिक की अमावस्या को मेला लगता है। गोवर्द्धन में सुरभि गाय, ऐरावत हाथी तथा एक शिला पर भगवान का चरणचिह्न है। मानसीगंगा पर जिसे भगवान्‌ ने अपने मन से उत्पन्न किया था, दीवाली के दिन जो दीपमालिका होती है, उसमें मनों घी ख़र्च किया जाता है, शोभा दर्शनीय होती है। परिक्रमा की शुरुआत वैष्णवजन जतिपुरा से और सामान्यजन मानसी गंगा से करते हैं और पुन: वहीं पहुँच जाते हैं। पूंछरी का लौठा में दर्शन करना आवश्यक माना गया है, क्योंकि यहाँ आने से इस बात की पुष्टि मानी जाती है कि आप यहाँ परिक्रमा करने आए हैं।


परिक्रमा में पड़ने वाले प्रत्येक स्थान से कृष्ण की कथाएँ जुड़ी हैं। मुखारविंद मंदिर वह स्थान है जहाँ पर श्रीनाथजी का प्राकट्य हुआ था। मानसी गंगा के बारे में मान्यता है कि भगवान कृष्ण ने अपनी बाँसुरी से खोदकर इस गंगा का प्राकट्य किया था। मानसी गंगा के प्राकट्य के बारे में अनेक कथाएँ हैं। यह भी माना जाता है कि इस गंगा को कृष्ण ने अपने मन से प्रकट किया था। गिरिराज पर्वत के ऊपर गोविंदजी का मंदिर है। कहते हैं कि भगवान कृष्ण यहाँ शयन करते हैं। उक्त मंदिर में उनका शयनकक्ष है। यहीं मंदिर में स्थित गुफ़ा है जिसके बारे में कहा जाता है कि यह राजस्थान स्थित श्रीनाथ द्वारा तक जाती है।


गोवर्धन की परिक्रमा का पौराणिक महत्व है। प्रत्येक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक लाखों भक्त यहाँ की सप्तकोसी परिक्रमा करते हैं। प्रतिवर्ष गुरु पूर्णिमा पर यहाँ की परिक्रमा लगाने का विशेष महत्व है। श्रीगिरिराज पर्वत की तलहटी समस्त गौड़ीय सम्प्रदाय, अष्टछाप कवि एवं अनेक वैष्णव रसिक संतों की साधना-स्थली रही है।

वीथिका गोवर्धन

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