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*जिस 'ब्रह्म' की अनुभूति मन के साथ होती है और जिसे वाणी द्वारा अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता, उसे जब कोई साधक अपनी साधना से जान लेता है, तब उसे किसी बात की भी चिन्ता अथवा भय नहीं सताता। | *जिस 'ब्रह्म' की अनुभूति मन के साथ होती है और जिसे वाणी द्वारा अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता, उसे जब कोई साधक अपनी साधना से जान लेता है, तब उसे किसी बात की भी चिन्ता अथवा भय नहीं सताता। | ||
− | *जो | + | *जो विद्वान् पाप-पुण्य के कर्मों को समान भाव से जानता है, वह पापों से अपनी रक्षा करने में पूरी तरह समर्थ होता है। |
− | *जो | + | *जो विद्वान् पाप-पुण्य, दोनों ही कर्मों के बन्धन को जान लेता है, वह दोनों में आसक्त न होकर अपनी रक्षा करने में समर्थ होता है। |
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14:22, 6 जुलाई 2017 के समय का अवतरण
- तैत्तिरीयोपनिषद के ब्रह्मानन्दवल्ली का यह नौवाँ अनुवाक है।
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- इस अनुवाक में ब्रह्मा का बोध कर लेने वाले साधक को पाप-पुण्य के भय से दूर बताया गया है।
- जिस 'ब्रह्म' की अनुभूति मन के साथ होती है और जिसे वाणी द्वारा अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता, उसे जब कोई साधक अपनी साधना से जान लेता है, तब उसे किसी बात की भी चिन्ता अथवा भय नहीं सताता।
- जो विद्वान् पाप-पुण्य के कर्मों को समान भाव से जानता है, वह पापों से अपनी रक्षा करने में पूरी तरह समर्थ होता है।
- जो विद्वान् पाप-पुण्य, दोनों ही कर्मों के बन्धन को जान लेता है, वह दोनों में आसक्त न होकर अपनी रक्षा करने में समर्थ होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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