सुबालोपनिषद

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शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित इस उपनिषद में कुल सोलह खण्ड हैं। इनमें प्रश्नोत्तर शैली में अध्यात्मदर्शन के गूढ़ तत्त्वों का विवेचन किया गया है।

पहला और दूसरा खण्ड

इन दोनों खण्डों में रैक्व ऋषि के द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर घोर अंगिरस ऋषि ने सृष्टि की प्रक्रिया के विषय में विवेचन करते हुए विराट ब्रह्म द्वारा सभी वर्णों, प्राण, वेदों, वृक्षों, पशु-पक्षियों तथा समस्त जीवों के सृजन का उल्लेख किया है। छान्दोग्य उपनिषद के छठे अध्याय में इसका पूरा वर्णन है।

तीसरा खण्ड

इस खण्ड में, 'आत्मतत्त्व' के स्वरूप को बताते हुए उसे जानने की विधि बतायी गयी है। इसका पहले भी उल्लेख किया जा चुका है। बृहदारण्यकोपनिषद के तीसरे अध्याय के आठवें ब्राह्मण में 'अक्षरब्रह्म' के प्रसंग में इसका विस्तृत विवेचन हैं।

चौथा खण्ड

इस खण्ड में, हृदय में आत्मा की स्थिति बतायी गयी है। यह 'आत्मा' शरीर की बहत्तर हज़ार नाड़ियों में विद्यमान है।

पांचवां खण्ड

इस खण्ड में, अजर-अमर आत्मा की उपासना का उल्लेख आंख, नाक, कान, जिह्वा, त्वचा, मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त, वाणी, हाथ, पैर, पायु और उपस्थ आदि शारीरिक अंगों के द्वारा किया गया है। यहाँ इन सभी अंगों को अध्यात्म की संज्ञा दी गयी है।

छठा खण्ड

इस खण्ड में, आंख, कान, नासिका, जिह्वा आदि इन्द्रियों को आदित्य, रुद्र, वायु बताया है और ॠग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद आदि को नारायण-रूप माना है।

सातवां खण्ड

इस खण्ड में, पृथ्वी, जल, वायु, तेज आदि में विद्यमान उस चेतना-शक्ति का उल्लेख है, जिसे पृथिवी, जल, वायु, मन, तेज, बुद्धि आदि जान नहीं पाते। वह नारायण-रूप है।

आठवां खण्ड

इस खण्ड में, हृदय-रूपी गुफ़ा में स्थित आनन्द-स्वरूप आत्मतत्त्व का उल्लेख किया गया है।

नौवां खण्ड

इस खण्ड में बताया गया है कि जगत के समस्त पदार्थ, चक्षु, श्रोत्र, नासिका आदि से होते हुए अन्तत: तुरीय (तीव्र गतिशील ब्रह्म) में विलीन हो जाते हैं।

दसवां खण्ड

इस खण्ड में, सभी जीवों और पदार्थों को विभिन्न लोकों में प्रतिष्ठित होते हुए, अन्त में आत्म-रूप ब्रह्म में प्रतिष्ठित होते हुए बताया गया है।

ग्यारहवां खण्ड

इस खण्ड में बताया गया है कि मृत्यु के उपरान्त आत्मा शरीर से किस प्रकार निकल जाता है। अंगिरस बताते हैं कि हृदय में एक श्वेत कमल है। उसके मध्य समुद्र और समुद्र में कोश है। उसमें चार प्रकार की नाड़ियां- रमा, अरमा, इच्छा और अपुनर्भवा हैं। रमा नाड़ी द्वारा पुण्यलोक, अरमा द्वारा पापलोक, इच्छा नाड़ी द्वारा इच्छितलोक, अपुनर्भवा नाड़ी द्वारा हृदय में स्थित कोश प्राप्त होता है। कोश को पार कर मस्तिष्क में 'ब्रह्मरन्ध्र' को खोला जाता है। तदुपरान्त शीर्ष (ब्रह्मरन्ध्र) से पृथ्वी को, पृथ्वी से जल को, जल से प्रकाश को, प्रकाश से वायु को, वायु से आकाश को, आकाश से मन को, मन से अहंकार को, अहंकार से महानता को, महानता से प्रकृति को, प्रकृति से अक्षर को व अक्षर से मृत्यु का भेदन करके आत्मा 'ब्रह्म' में लीन हो जाता है। यहाँ आकर सत-असत का भेद मिट जाता है।

बारहवां और तेरहवां खण्ड

इस खण्ड में, मोक्षार्थी संन्यासी के आहार-विहार और चिन्तन-मनन का ढंग वर्णित किया गया है।

चौदहवां खण्ड

इस खण्ड में परस्पर एक-दूसरे के 'अन्न' अथवा 'भक्ष्य' का उल्लेख करते हुए मृत्यु को परमात्मा के साथ एकाकार करते हुए बताया गया है।

पन्द्रहवां खण्ड

इस खण्ड में आत्मतत्त्व के उपरान्त, विज्ञान शरीर के दग्ध करने में किन-किन पदार्थों को दग्ध करता है, इसका उल्लेख है। पंचतत्त्व किस प्रकार शून्य में विलीन हो जाते हैं, इसका वर्णन है। अन्त में केवल 'सत' बचता है।

सोलहवां खण्ड

इस खण्ड में उपनिषद की महत्ता और फलश्रुति का वर्णन है। यहाँ सुबाल को ब्रह्म का बीज बताया बताया गया है। इस उपनिषद को शिष्य, पुत्र और अतिशय शान्त व्यक्ति को ही देना चाहिए। यही निर्वाण हैं।

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