धर्मसूत्र

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धर्मसूत्रों का उद्भव एवं विकास

धर्मसूत्रों में वर्णाश्रम-धर्म, व्यक्तिगत आचरण, राजा एवं प्रजा के कर्त्तव्य आदि का विधान है। ये गृह्यसूत्रों की श्रृंखला के रूप में ही उपलब्ध होते हैं। श्रौतसूत्रों के समान ही, माना जाता है कि प्रत्येक शाखा के धर्मसूत्र भी पृथक्-पृथक् थे। वर्तमान समय में सभी शाखाओं के धर्मसूत्र उपलब्ध नहीं होते। इस अनुपलब्धि का एक कारण यह है कि सम्पूर्ण प्राचीन वाङ्मय आज हमारे समक्ष विद्यमान नहीं है। उसका एक बड़ा भाग कालकवलित हो गया। इसका दूसरा कारण यह माना जाता है कि सभी शाखाओं के पृथक्-पृथक् धर्मसूत्रों का संभवत: प्रणयन ही नहीं किया गया, क्योंकि इन शाखाओं के द्वारा किसी अन्य शाखा के धर्मसूत्रों को ही अपना लिया गया था। पूर्वमीमांसा में कुमारिल भट्ट ने भी ऐसा ही संकेत दिया है।[1] आर्यों के रीति-रिवाज वेदादि प्राचीन शास्त्रों पर आधृत थे किन्तु सूत्रकाल तक आते-आते इन रीति-रिवाजों, सामाजिक संस्थानों तथा राजनीतिक परिस्थितियों में पर्याप्त परिवर्तन एवं प्रगति हो गयी थी अत: इन सबको नियमबद्ध करने की आवश्यकता अनुभव की गयी। सामाजिक विकास के साथ ही उठी समस्याएँ भी प्रतिदिन जटिल होती जा रही थीं। इनके समाधान का कार्यभार अनेक वैदिक शाखाओं ने संभाल लिया,जिसके परिणामस्वरूप गहन विचार-विमर्श पूर्वक सूत्रग्रन्थों का सम्पादन किया गया। इन सूत्रग्रन्थों ने इस दीर्घकालीन बौद्धिक सम्पदा को सूत्रों के माध्यम से सुरक्षित रखा, इसका प्रमाण इन सूत्रग्रन्थों में उद्धृत अनेक प्राचीन आचार्यों के मत-मतान्तरों के रूप में मिलता है। यह तो विकास का एक क्रम था जो तत्कालिक परिस्थिति के कारण निरन्तर हो रहा था। यह विकासक्रम यहीं पर नहीं रुका अपितु सूत्रग्रन्थों में भी समयानुकूल परिवर्तन एवं परिवर्धन किया गया जिसके फलस्वरूप ही परवर्ती स्मृतियों का जन्म हुआ। नयी-नयी समस्याएँ फिर भी उभरती रहीं। उनके समाधानार्थ स्मृतियों पर भी भाष्य एवं टीकाएँ लिखी गयीं जिनके माध्यम से प्राचीन वचनों की नवीन व्याख्याएँ की गयीं। इस प्रकार अपने से पूर्ववर्ती आधार को त्यागे बिना ही नूतन सिद्धान्तों तथा नियमों के समयानुकूल प्रतिपादन का मार्ग प्रशस्त कर लिया गया।

धर्म का स्वरूप

जैसा कि नाम से ही विदित है कि धर्मसूत्रों में व्यक्ति के धर्मसम्बन्धी क्रियाकलापों पर विचार किया गया है, किन्तु धर्मसूत्रों में प्रतिपादित धर्म किसी विशेष पूजा-पद्धति पर आश्रित न होकर समस्त आचरण व व्यवहार पर विचार करते हुए सम्पूर्ण मानवजीवन का ही नियन्त्रक है। ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग वैदिक संहिताओं तथा उनके परवर्ती साहित्य में प्रचुर मात्रा में होता जा रहा है। यहाँ पर यह अवधेय है कि परवर्ती साहित्य में धर्म शब्द का वह अर्थ दृष्टिगोचर नहीं होता, जो कि वैदिक संहिताओं में उपलब्ध है। संहिताओं में धर्म शब्द विस्तृत अर्थ में प्रयुक्त है। अथर्ववेद में पृथिवी के ग्यारह धारक तत्त्वों की गणना ‘पृथिवीं स्धारयन्ति’ कहकर की गयी है।[2] इसी प्रकार ॠग्वेद[3] में ‘तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्’ कहकर यही भाव प्रकट किया गया है। इस प्रकार यह धर्म किसी देशविशेष तथा कालविशेष से सम्बन्धित न होकर ऐसे तत्वों को परिगणित करता है जो समस्त पृथिवी अथवा उसके निवासियों को धारण करते हैं। वे नियम शाश्वत हैं तथा सभी के लिए अपरिहार्य हैं। मैक्समूलर ने भी धर्म के इस स्वरूप की ओर इन शब्दों में इंगित किया है- प्राचीन भारतवासियों के लिए धर्म सबसे पहले अनेक विषयों के बीच एक रुचि का विषय नहीं था अपितु वह सबका आत्मसमर्पण कराने वाली विधि थी। इसके अन्तर्गत न केवल पूजा और प्रार्थना आती थी अपितु वह सब भी आता था जिसे हम दर्शन, नैतिकता, क़ानून और शासन कहते हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन उनके लिए धर्म था तथा दूसरी चीज़ें मानों इस जीवन की भौतिक आवश्यकताओं के लिए निमित्त मात्र थीं।‘[4] संहिताओं के परवर्ती साहित्य में धर्म केवल वर्णाश्रम के आचार-विचार तथा क्रियाकलापों तक ही सीमित रह गया। उपनिषित-काल में धर्म का यही स्वरूप उपलब्ध होता है। छान्दोग्य उपनिषद[5] में धर्म के तीन स्कन्ध गिनाए गये हैं। इनमें यज्ञ, अध्ययन तथा दान प्रथम, तप द्वितीय तथा आचार्यकुल में वास तृतीय स्कन्ध है।[6] स्पष्ट ही इनके अन्तर्गत वर्गों में रूढ़ होकर परवर्ती काल में पूजापद्धति को भी धर्म ने अपने में समाविष्ट कर लिया।

इतना होने पर भी सभी ने धर्म का मूल वेद को माना जाता है। मनु ने तो इस विषय में 'धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुति:' तथा 'वेदोऽखिलो धर्ममूलम्' आदि घोषणा करके वेदों को ही धर्म का मूल कहा है।[7] गौतम धर्मसूत्र में तो प्रारम्भ में ही 'वेदों धर्ममूलम'।[8] ‘तद्विदां च स्मृतिशीले’[9] सूत्रों द्वारा यही बात कही गयी है। ये दोनों सूत्र मनुस्मृति के 'वेदोंऽखिलो धर्ममूलम स्मृतिशीले च तद्विदाम्' श्लोकांश के ही रूपान्तर मात्र हैं। इसी प्रकार वासिष्ठ धर्मसूत्र[10] में भी 'श्रुतिस्मृतिविहितो धर्म:' कहकर धर्म के विषय में श्रुति तथा स्मृति को प्रमाण माना है। बौधायन धर्मसूत्र में श्रुति तथा स्मृति के अतिरिक्त शिष्टाचरण को भी धर्म का लक्षण कहकर मनुस्मृति में प्रतिपादित श्रुति, स्मृति तथा शिष्टाचरण को ही सूत्र रूप में निबद्ध किया है।[11] इस प्रकार धर्म के लक्षण में श्रुति के साथ स्मृति तथा शिष्टाचरण को भी सम्मिलित कर लिया गया। दर्शनशास्त्र में धर्म का लक्ष्य लोक-परलोक की सिद्धि[12] कहकर अत्यन्त व्यापक कर दिया गया तथा एक प्रकार से समस्त मानव-जीवन को ही इसके द्वारा नियन्त्रित कर दिया गया। वैशेषिक दर्शन के उक्त लक्षण का यही अर्थ है कि समस्त जीवन का, जीवन के प्रत्येक श्वास एवं क्षण का उपयोग ही इस रीति से किया जाए कि जिससे अभ्युदय तथा नि:श्रेयस की सिद्धि हो सके। इसमें ही अपना तथा दूसरों का कल्याण निहित है। धर्म मानव की शक्तियों एवं लक्ष्य को संकुचित नहीं करता अपितु वह तो मनुष्य में अपरिमित शक्ति देखता है जिसके आधार पर मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अभ्युदय तथा नि:श्रेयस की सिद्धि नामक लक्ष्य इतना महान् है कि इससे बाहर कुछ भी नहीं है। इसे प्राप्त करने की नि:सीम सम्भावनाएँ मनुष्य में निहित हैं। इस प्रकार जीवन के प्रत्येक पक्ष पर धर्म विचार करता है तथा अपनी व्यवस्था देता है।

धर्मसूत्रों का महत्त्व एवं प्राथमिकता

इस व्यवस्था के प्रतिपादक ही धर्मसूत्र तथा स्मृतियाँ हैं। धर्मसूत्रकारों ने अपने-अपने ग्रन्थों द्वारा मानवजीवन को इस प्रकार नियंत्रित करने का यत्न किया कि जिससे वह उक्त दोनों लक्ष्यों को प्राप्त कर सके। धर्मसूत्रकारों ने मानव जीवन से सम्बन्धित प्रत्येक समस्या पर विचार करके अपनी व्यवस्था दी है जिससे कि मानव जीवन व्यवस्थित रूप से चल सके। इसीलिए उन्होंने वर्णधर्म, आश्रम-धर्म, राजधर्म, प्रजाधर्म, खानपान, पाप, प्रायश्चित्त, जाति-प्रथा, दायाद, विवाह आदि प्रत्येक प्रमुख विषयों पर उत्तम रीति से विवेचन किया। धर्मसूत्रों का व्यक्ति के सामाजिक जीवन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहकर ही उसे अपने आचार-व्यवहार, नैतिकता आदि का पालन करना होता है। समाज की दृष्टि से अपने आप को नियन्त्रित करना होता है। उच्छृङ्-खलता-नियम-रहितता या अनैतिकता के रहते समाज चल नहीं सकता। धर्मसूत्रों में व्यक्ति के सामाजिक जीवन के सम्पादनार्थ नियम बनाए गये हैं। उन नियमों के द्वारा ही समाज में व्यक्ति के कर्त्तव्य तथा अधिकारों का नियन्त्रण होता है। धर्मसूत्रों में समाज के विभिन्न वर्गों के पारस्परिक आचार-व्यवहार आदि का भी क्रमिक वर्णन रहता है तथा विभिन्न स्थितियों से गुजरते हुए व्यक्ति के कर्तव्य एवं अधिकारों का भी उल्लेख रहता है। कभी-कभी धर्मसूत्र गृह्यसूत्रों के प्रतिपाद्य विषयों पर भी विचार करते प्रतीत होते हैं किन्तु ऐसा कम स्थानों पर ही है। गृह्यसूत्रों में पाकयज्ञ, विवाह, संस्कार, श्राद्ध, मधुपर्क आदि का वर्णन रहता है। इस प्रकार गृह्यसूत्रों में व्यक्ति के गृहस्थ जीवन के संचालनार्थ ऐसे रीति-रिवाज तथा नियमों का वर्णन है जो व्यक्ति के धार्मिक जीवन को संयमित तथा अनुशासित करते हैं किन्तु व्यक्ति का जीवन केवल धर्म तक ही तो सीमित नहीं है। उसे सामाजिक जीवन भी जीना होता है जहाँ उसकी कुछ सामाजिक समस्याएँ होती हैं, उसके सामाजिक एवं नैतिक दायित्व भी होते हैं जिनके पूर्ण न करने पर या उनको तोड़ने पर दण्ड का विधान भी किया जाता है। धर्मसूत्रों का महत्त्व इसी दृष्टि से है कि इन सामाजिक एवं नैतिक दायित्वों तथा इनके पूर्ण न करने पर विविध प्रकार के दण्डों का विधान धर्मसूत्रकार ही करते हैं। इस प्रकार धर्मसूत्रों का क्षेत्र समाज में व्याप्त विविध वर्गों तथा आश्रमों के जीवन और उनकी समस्याओं तक विस्तृत है, जबकि गृह्यसूत्रों का क्षेत्र अपनी शाखाओं के अन्तर्गत प्रचलित नियमों तथा रीति-रिवाजों तक ही सीमित है।

धर्मसूत्रों का महत्त्व उनके विषय-प्रतिपादन के कारण है। सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्णाश्रम-पद्धति है। धर्मसूत्रों में वर्णाश्रम-व्यवस्था के आधार पर ही विविध विषयों का प्रतिपादन किया गया है। इनमें वर्णों के कर्तव्यों तथा अधिकारों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। धर्मसूत्रकार आपत्काल में भी मन से ही आचार-पालन पर बल देते हैं।[13] अयोग्य तथा दूषित व्यक्ति से परिग्रह का सर्वथा निषेध किया गया है। वर्णों एवं आश्रमों के कर्तव्य-निर्धारण की दृष्टि से भी धर्मसूत्र पर्याप्त महत्त्व रखते हैं। धर्मसूत्रों के काल तक आश्रमों का महत्त्व पर्याप्त बढ़ गया था अत: धर्मसूत्रों में एताद्विषयक पर्याप्त निर्देश दिये गये हैं। सभी आश्रमों का आधार गृहस्थाश्रम है तथा उसका आधार है विवाह। धर्मसूत्रों में विवाह पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। यहाँ पर यह विशेष है कि अष्टविध विवाहों में सभी धर्मसूत्रकारों ने न तो एक क्रम को अपनाया तथा न ही उनकी श्रेष्ठता के तारतम्य को सभी ने स्वीकार किया। प्रतोलोम विवाह की सर्वत्र निन्दा की गयी है। विवाहोपरान्त पति-पत्नी के धार्मिक कृत्य एक साथ करने का विधान है। धन-सम्पत्ति पर दोनों का समान रूप से अधिकार माना गया है। गृहस्थ के लिए पञ्च महायज्ञ तथा सभी संस्कारों की अनिवार्यता यहाँ पर प्रतिपादित की गयी है। धर्मसूत्रकार इस बात से भी भलीभाँति परिचित थे कि मर्यादा-उल्लंघन से समाज में वर्णसंकरता उत्पन्न होती है। धर्मसूत्रकारों ने वर्णसंकर जातियों को भी मान्यता प्रदान करके उनकी सामाजिक स्थिति का निर्धारण कर दिया तथा वर्णव्यवस्था का पालन कराकर वर्णसंकरता को रोकने का दायित्व राजा को सौंप दिया गया। गौतम धर्मसूत्र[14] में जात्युत्कर्ष तथा जात्यपकर्ष का सिद्धान्त भी प्रतिपादित किया गया है। इस प्रकार वर्णाश्रम के विविध कर्तव्यों का प्रतिपादन करके इसके साथ पातक, महापातक, प्रायश्चित्त, भक्ष्याभक्ष्य, श्राद्ध, विवाह और उनके निर्णय, साक्षी, न्यायकर्ता, अपराध, दण्ड, ॠण, ब्याज, जन्म-मृत्युविषयक अशौच, स्त्री-धर्म आदि ऐसे सभी विषयों पर धर्मसूत्रों में विचार किया गया है, जिनका जीवन में उपयोग है।

आचार की महत्ता

धर्मसूत्रकारों ने व्यक्ति के आचार एवं व्यवहार पर बहुत बल दिया है। आचार ही मानव का आधार है; वही धर्म का तत्त्व है, इस बात को धर्मशास्त्रकार भली-भाँति जानते थे। मनुस्मृति में तो आचार पर यहाँ तक बल दिया गया है कि उसे ही परम धर्म[15] कह दिया गया तथा कहा गया है कि आचारभ्रष्ट व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकता।[16] इसी प्रकार का विचार वसिष्ठ धर्मसूत्र[17] में व्यक्त किया गया है। हमें धर्म को अपने व्यवहार में उतारना चाहिए, न कि केवल शब्दमात्र में। यद्यपि सदाचार का पालन अत्यन्त अपरिहार्य है। तभी समाज स्थिर रह सकता है, किन्तु इसके साथ ही यह तथ्य भी स्मरणीय है कि सदाचार का पालन अत्यन्त ही कठिन कार्य है। सतत प्रयत्न करते रहने पर भी आचरण-भ्रष्टता सम्भव है तथा कुछ व्यक्ति जानबूझकर भी समाज-विरोधी तथा शास्त्र-विरोधी आचरण कर देते हैं। आचारहीनता किसी भी कारण से हो, ऐसा व्यक्ति पतित कहलाता है। धर्मसूत्रकार इस बात को अच्छी प्रकार जानते थे। वे यह भी जानते थे कि ऐसे व्यक्ति को दुराचरण अथवा उसके अपराध का दण्ड तो मिलना ही चाहिए, किन्तु यदि वह मन से अपने पापकर्म पर पाश्चाताप करता है तो पुन: उसे श्रेष्ठ बनने का अवसर प्रदान करना चाहिए न कि सदैव के लिए ही उसके जीवन को अन्धकारमय बना देना चाहिए। इसी उद्देश्य से धर्मसूत्रकारों ने दुष्टाचारी के लिए अनेक प्रकार के दण्डों एवं प्रायाश्चितों का विधान किया जाता है जिससे वह व्यक्ति शुद्ध हो सके। धर्मसूत्रों की दृष्टि में अपराधी व्यक्ति घृणा का पात्र नहीं हैं, बल्कि वह स्नेह एवं सहानुभूति का पात्र है।

धर्मसूत्रकारों की मान्यता के मूल में कर्म सिद्धान्त हैं, जिसके अनुसार किया हुआ कोई भी शुभाशुभ कर्म नष्ट नहीं होता, अपितु अच्छे-बुरे किसी न किसी फल को अवश्य ही उत्पन्न करता है। उन कर्मों का फल चाहे इसी जन्म में मिल जाए, चाहे अगले जन्म में, किन्तु वह मिलेगा अवश्य। इसलिए वर्तमान तथा भावी दोनों ही जन्म शुद्ध हो सकें, यही धर्मसूत्रकारों का यत्न है। आचारशास्त्र के मूल में कर्मसिद्धान्त ही है। यही पाप को दूर करने की प्रेरणा देता है। वर्णाश्रम धर्म के साथ ही धर्मसूत्रों में राजधर्म का भी गहन विवेचन किया गया है। राजा में दैवीय अंश की कल्पना की गयी है। धर्मसूत्रों में राजा के कर्तव्य, अधिकार एवं समाजविरोधी तत्वों के लिए दण्ड-व्यवस्था पर भी विचार किया गया है। धर्म तथा अर्थ के विरोध की स्थिति में राजा को धर्म का ही पक्ष लेना चाहिए। राजा के लिए युद्धादि के नियमों का उल्लेख भी इन ग्रन्थों में किया गया है यथा ब्राह्मण, पीठ दिखाने वाला, भूमि पर बैठने वाला ये अवध्य कहे गये हैं। इस प्रकार धर्मसूत्र राजशास्त्र के प्रमुख विषयों तथा उपादानों की सामान्य विवेचना प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार अपने समय में वर्णाश्रम के कर्तव्यों का निर्धारण करके धर्मसूत्रकारों ने समाज को उचित दिशा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। साथ ही अपराधों के लिए विविध प्रकार के प्रायश्चित तथा दण्ड-विधान करके समाज को अपराधमुक्त करने का भी यत्न किया। सामाजिक रीति-रिवाजों एवं आचार-व्यवहार को मान्यता प्रदान करना धर्मसूत्रकारों का ही कार्य था। प्रतीत होता है कि उस काल में धर्मसूत्रकार समाज को सामाजिक एवं नैतिक दृष्टि से नियन्त्रित एवं संयमित करने में लगे हुए थे। एक सभ्य एवं स्वस्थ समाज के लिए यह अनिवार्य था।

प्रासंगिकता

आज समाज में पूर्वापेक्षया अनेक परिवर्तन हो चुके हैं। यथा-आज राजनीतिक प्रणाली एवं न्याय-व्यवस्था बदल चुकी है। शिक्षा का स्वरूप तथा संस्थाएँ भी वे नहीं हैं, जो प्राचीनयुग में थीं। वर्णव्यवस्था का स्थान जन्मगत जाति-प्रथा ने ले लिया है। सामाजिक तथा नैतिक मूल्य भी पूर्वापेक्षया परिवर्तित हुए हैं। दायाद तथा सम्पत्ति-विभाजन आदि के लिए भी आज राजनीतिक क़ानून ही सर्वमान्य हैं, इत्यादि। ऐसे समय में इन धर्मसूत्रों की परिमित प्रासंगिकता ही मानी जा सकती है। गौतम तथा बौधायन आदि धर्मसूत्रों से हमें पर्याप्त मात्रा में भौगोलिक संकेत भी प्राप्त होते हैं, यथा बौधायन धर्मसूत्र[18] में शिष्टों के देश की सीमा बतलायी गयी है। यही आर्यावर्त है तथा इस प्रदेश का आचरण अन्यों के लिए प्रमाण है। मनुस्मृति में भी इसका उल्लेख किया गया है।[19] में अन्य आचार्यों का मत भी दिया गया है कि गंगा तथा यमुना के बीच का प्रदेश भी आर्यावर्त है। इस प्रकार भौगोलिक जानकारी देने के रूप में भी ये सूत्रग्रन्थ महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन धर्मग्रन्थों में अनेक प्राचीन आचार्यों के मतों का नाम लेकर या बिना नाम लिए ही उल्लेख किया गया जिससे हमें उनके मत जानने में भी सहायता मिलती है। धर्मसूत्रों[20] से हमें जातियों की उत्पत्ति का इतिहास जानने में भी पर्याप्त सहायता मिलती है।

धर्मसूत्रों का रचना-काल

गौतम, बौधायन तथा आपस्तम्ब धर्मसूत्रों को अन्य धर्मसूत्रों की अपेक्षा प्राचीन माना जता है तथा इनका काल 300 ई.पू. तथा 600 ई.पू. के मध्य रखा जाता है। मानव-जीवन को नियंत्रित करने के लिए मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्र तथा गौतमादि के द्वारा प्रणीत धर्मसूत्रों के रूप में दो प्रकार के ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। प्रश्न है कि धर्मशास्त्र पूर्ववर्ती है या धर्मसूत्र पूर्ववर्ती हैं? विद्वानों ने दोनों ही पक्षों में अपनी व्यवस्था दी है। अन्त: आक्ष्य के आधार पर धर्मशास्त्रों को धर्मसूत्रों से पूर्ववर्ती माना जा सकता है, क्योंकि धर्मसूत्रों में धर्मशास्त्र तथा इनके कर्ताओं का उल्लेख अनेकत्र हुआ है। इसके लिए निम्न उदाहरण द्रष्टव्य हैं जहाँ पर कि[21] धर्मशास्त्र का उल्लेख हुआ है-'तस्य च व्यवहारो वेदे धर्मशास्त्राख्याङ्गानि उपवेदा: पुराणम्।' इतना ही नहीं, अपितु गौतम धर्मसूत्र में मनु का साक्षात् नाम भी लिया गया है।[22] धर्मसूत्रों में अनेक स्थानों पर 'एके'[23] तथा 'आचार्य'[24] आदि शब्दों द्वारा अन्यों के मत का भी उल्लेख किया गया है। इस आधार पर कुछ विद्वानों ने निष्कर्ष निकाला है कि ये संकेत धर्मशास्त्रों की ओर ही हैं।[25] किन्तु उक्त कथन अनुमान पर ही आधृत है। 'एके' तथा 'आचार्य:' आदि शब्दों के द्वारा अन्य धर्मसूत्रकारों का स्मरण भी किया जा सकता है केवल धर्मशास्त्रकारों का ही नहीं। अत: इस हेतु को धर्मशास्त्रों की पूर्वकालिकता के रूप में उपस्थित नहीं किया जा सकता। पुनरपि गौतम धर्मसूत्र में मनु धर्मशास्त्रों का उल्लेख होने से इनको गौतम धर्मसूत्र से पूर्ववर्ती मानना ही समीचीन है। कुन्दनलाल शर्मा ने अपना आशय इन शब्दों में व्यक्त किया है- सूत्र-रचना से पूर्व भी पद्यात्मक रचना थी किन्तु वह नष्ट हो गयी। ब्यूहलर के अनुसार इस प्रकार के श्लोक स्मृतिसहायभूत लोकप्रचलित पद्यों के अंश थे।[26] मैक्समूलर ने धर्मशास्त्रों की अपेक्षा धर्मसूत्रों को पूर्ववर्ती माना है। स्टेन्त्सलर का अनुवाद करते हुए मैक्समूलर ने बलपूर्वक यह मत व्यक्त किया है कि सभी पदयात्मक धर्मशास्त्रों की रचना बिना किसी अपवाद के प्राचीन सूत्र-रचनाओं के आधार पर की गयी थी।[27] डॉ. भाण्डारकर का भी यही विचार है कि धर्मसूत्रों की रचना के पश्चात् ही अनुष्टुप छन्द वाले धर्मशास्त्रों की रचना की गयी। म.म.पी.वी. काणे इससे सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार धर्मसूत्र पूर्ववर्ती हैं तथा धर्मशास्त्र परवर्ती- 'इसी प्रकार कुछ बहुत पुराने सूत्रों यथा बौधायन धर्मसूत्र में भी एक श्लोक उद्धृत हैं', इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि श्लोकबद्ध धर्मग्रन्थ धर्मसूत्रों से भी पूर्व विद्यमान थे।[28] मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों के काल पर विचार करते हुए हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि यास्काचार्य ने निरुक्त में मनु का नाम लिया है।[29] अत: मानना होगा कि यास्क से पूर्व धर्मशास्त्र विद्यमान थे। यास्क का काल 800 ई. पू. माना जाता है। मनुस्मृत्यादि धर्मशास्त्र इससे पूर्ववर्ती हैं तथा धर्मसूत्र यास्क के समकालीन या इससे भी उत्तरवर्ती सिद्ध होते हैं। इतना तो निश्चित है कि धर्मसूत्रों में प्राचीनतम गौतम, बौधायन और आपस्तम्ब के धर्मसूत्र ईसा पूर्व 600 और 300 के बीच के समय के हैं।[30]

धर्मसूत्र तथा धर्मशास्त्र में अन्तर

(1) अधिकतर धर्मसूत्र या तो किसी सूत्रचरण से सम्बद्ध कल्प के भाग है या गृह्यसूत्रों से सम्बन्ध रखते हैं, जबकि धर्मशास्त्र किसी भी सूत्रचरण से सम्बन्धित नहीं हैं।
(2) धर्मशास्त्र पद्यमय हैं, जबकि धर्मसूत्र गद्य या गद्य-पद्य में होते हैं।
(3) धर्मसूत्रों में अपनी शाखा के वेद अथवा चरण के प्रति आदर विशेष रहता है, जबकि धर्मशास्त्रों में ऐसा नहीं है।
(4) धर्मसूत्रों में विषय-विवेचन का कोई निश्चित क्रम नहीं रहता, जबकि धर्मशास्त्रों में सभी विषयों का आचार, व्यवहार तथा प्रायश्चित्त इन तीन भागों में विभाजन करके क्रमबद्ध तथा व्यवस्थित विवेचन उपलब्ध होता है।
मैक्समूलर के अनुसार धर्मशास्त्र धर्मसूत्रों के रूपान्तर मात्र हैं। उनका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। तदनुसार मनुस्मृति मैत्रायणी शाखा के किसी प्राचीन मानव धर्मसूत्र का नवीन संस्करण मात्र है।[31]

धर्मसूत्र तथा गृह्यसूत्र

गृह्यसूत्र तथा धर्मसूत्र दोनों ही स्मार्त्त हैं। कभी-कभी धर्मसूत्र अपने कल्प के गृह्यसूत्रों का अनुसरण भी करते हैं तथा गृह्यसूत्रों के ही विषय का प्रतिपादन करते हैं।[32] तथापि उनकी सत्ता एवं प्रामाणिकता स्वतंत्र है। इस समय चार ही धर्मसूत्र ऐसे उपलब्ध हैं जो अपने गृह्यसूत्रों का अनुसरण करते हैं। ये हैं – बौधायन, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी तथा वैखानस गृह्यसूत्र। अन्य गृह्यसूत्रों का अनुसरण करने वाले धर्मसूत्र इस समय उपलब्ध नहीं हैं। यह भी माना जाता है कि अपने-अपने कल्प के गृह्यसूत्र तथा धर्मसूत्र का कर्त्ता एक ही व्यक्ति होता था। डॉ. रामगोपाल ने इस विषय में यह विचार प्रकट किया है- 'यह तो सिद्ध है कि एक ही कल्प के गृह्यसूत्र तथा धर्मसूत्र का कर्त्ता कए ही व्यक्ति था, किन्तु इस विषय में मतभेद पाया जाता है कि एक ही शाखा के सभी गृह्यसूत्रों के अनुरूप धर्मसूत्रों की भी रचना की गयी थी या केवल कुछ शाखाओं के कल्पों में ही यह विशेषता रखी गयी थी।' कुन्दल लाला शर्मा भी धर्म, श्रौत तथा गृह्यसूत्र इन तीनों का कर्त्ता एक ही व्यक्ति को मानते हुए लिखते हैं- 'यह सिद्धान्त स्थिर समझना चाहिए कि एक कल्प के श्रौत, गृह्य तथा धर्मसूत्रों के कर्त्ता एक ही व्यक्ति थे।[33]' यदि इनके कर्त्ता एक ही व्यक्ति थे तो ये ग्रन्थ समकालिक रहे होंगे। एक ही कर्त्ता ने कौन-सा सूत्रग्रन्थ पहले रचा तथा कौन-सा बाद में, इससे इनके पौर्वापर्य पर विशेष अन्तर नहीं पड़ता। डॉ. उमेश चन्द्र पाण्डेय ने धर्मसूत्रों के टीकाकारों के आधार पर ऐसा संकेत भी दिया है कि धर्मसूत्र, श्रौत तथा गृह्यसूत्रों से पूर्व विद्यमान थे, किन्तु डॉ. पाण्डेय ने इस तथ्य को अस्वीकार करते हुए प्रतिपादन किया है कि धर्मसूत्र श्रौतसूत्र तथा गृह्यसूत्रों के बाद की रचनाएँ हैं।[34]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कुमारिलभट्ट 8, पूर्वमीमांसासूत्र 1.3.11 स्वशाखाविहितैश्चापि शाखान्तरगतान् विधीन्। कल्पकारा निबध्नन्ति सर्वानेवं विकल्पितान्॥ स्वशाखोपसंहारो जैमिनेश्चापि सम्मत:॥
  2. सत्यं बृहद्ॠतमुग्रं दीक्षातपोब्रह्मयज्ञ: पृथिवीं धारयन्ति-अथर्ववेद, पृथिवीसूक्त, 1।
  3. ॠग्वेद, 10, 90, 16
  4. मैक्समूलर, इण्डिया व्हॉट कैन इट टीच अस, हिन्दी अनुवाद, दिल्ली पृष्ठ 107।
  5. छान्दोग्य उपनिषद 2.23
  6. छान्दोग्य उपनिषद, 2.23
  7. मनुस्मृति अ., 2
  8. गौतम धर्मसूत्र, 1.1.1
  9. गौतम धर्मसूत्र, 1.1.2
  10. वासिष्ठ धर्मसूत्र, 1.4.6
  11. उपदिष्टो धर्म: प्रतिवेदम् स्मार्तों द्वितीय: तृतीय: शिष्टागम: बौधायन धर्म सूत्र, 1.1 सूत्र 1-3
  12. यतोऽभ्युदयनि: श्रेयससिद्धि: स धर्म:- वैशेषिक सूत्र 1.1.2
  13. मनसा वा तत्समग्रमाचारमनुपालयेदापत्कल्प:। बौधायन धर्मसूत्र 1-9-67
  14. गौतम धर्मसूत्र 1.4.18-19
  15. आचार: परमो धर्म: सर्वेषामिति निश्चय:- वसिष्ठ धर्मसूत्र 6.1
  16. आचारहीनं न पुनन्ति वेदा:- मनुस्मृति।
  17. वसिष्ठ धर्मसूत्र 6, 4
  18. बौधायन धर्मसूत्र 1.2-1
  19. मनुस्मृति 1.2-11
  20. बौधायनधर्म सूत्र प्रश्न प्रश्नकर्ता अध्याय 8-9
  21. गौतम धर्मसूत्र 2.2.19 में
  22. गौतमधर्म सूत्र 3.3.7 त्रीणि प्रथमान्यनिर्देश्यान्मनु:।
  23. गौतमधर्मसूत्र, 1.2.15.1.2.56.1.3.1, 1.3.1, 2.9.7, 1.4.17, 3.3-14 आदि
  24. गौतमधर्मसूत्र, 1.3-35, 1.4.18
  25. बौधायनधर्म सूत्र, संपादन उमेशचन्द्र पाण्डेय, चौखम्भा सं. सीरीज 1972, प्रस्तावना, पृष्ठ 10।
  26. कुन्दनलाल शर्मा, वै. वाङ्. का बृहद इति. (कल्पसूत्र) 1989, पृष्ठ 472
  27. मैक्स. दि. ऐ. सं. लिड़रेचर पृष्ठ 70 (वै. वा. का बृहद इति.) पृष्ठ 472।
  28. धर्मशास्त्र का इतिहास, प्रथम खण्ड म.म. काणे (हिन्दी अनुवाद) पृष्ठ 8
  29. अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मत:। मिथुनानां विसर्गादौ मनु: स्वायम्भुवोऽब्रवीत्-निरुक्त 3.4-5
  30. गौतमधर्मसूत्र, वाराणसी 1966, भूमिका, पृष्ठ 7
  31. हि.ऐ.सं.लिट्., इलाहाबाद संस्करण, पृ. 32।
  32. रामगोपाल, इण्डिया आप वैदिक कल्पसूत्राज पृ0 7।
  33. वै.वा.का बृहद् इति. पृ. 492।
  34. गौतमधर्मसूत्र – भूमिका, पृष्ठ 6

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