जॉय मुखर्जी
जॉय मुखर्जी
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पूरा नाम | जॉय मुखर्जी |
जन्म | 24 फ़रवरी, 1939 |
जन्म भूमि | झाँसी |
मृत्यु | 9 मार्च, 2012 |
मृत्यु स्थान | मुम्बई |
अभिभावक | शशिधर मुखर्जी और सती देवी |
पति/पत्नी | नीलम |
संतान | दो पुत्र और एक पुत्री |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | अभिनय |
मुख्य फ़िल्में | 'लव इन शिमला', 'लव इन टोक्यो', 'फिर वही दिल लाया हूँ', 'शागिर्द', 'दिल चाहता है', 'कहीं आर कहीं पार', 'छलिया बाबू' आदि। |
प्रसिद्धि | अभिनेता |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | जॉय मुखर्जी की इच्छा टेनिस खिलाड़ी बनकर अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि प्राप्त करने की थी, किंतु पिता का कहने से वे फ़िल्मों में आये। |
जॉय मुखर्जी (अंग्रेज़ी: Joy Mukherjee; जन्म- 24 फ़रवरी, 1939, झाँसी; मृत्य- 9 मार्च, 2012, मुम्बई) हिन्दी फ़िल्मों के आकर्षक अभिनेताओं में से एक थे। वे उन अभिनेताओं में से एक थे, जिन्होंने भारतीय दर्शकों के दिलों पर बहुत लम्बे समय तक राज किया था। उन्होंने 'एक मुसाफ़िर एक हसीना', 'फिर वही दिल लाया हूँ', 'लव इन टोक्यो' और 'शागिर्द' जैसी यादगार फ़िल्में दी थीं। जॉय मुखर्जी पर फ़िल्मांकित और मोहम्मद रफ़ी के द्वारा गाये गए कई गीत आज भी लोगों की ज़ुबाँ पर हैं, जैसे- 'फिर वही दिल लाया हूँ', 'बहुत शुक्रिया बड़ी मेहरबानी', 'ले गई दिल गुड़िया जापान की', 'दुनिया पागल है या फिर मैं दीवाना' और 'बड़े मियाँ दीवाने ऐसे ना बनो' आदि। जॉय मुखर्जी के परिवार का फ़िल्मों से काफ़ी पुराना रिश्ता रहा है। वे स्वयं मशहूर अभिनेता अशोक कुमार के भांजे थे।
जन्म तथा परिवार
जॉय मुखर्जी का जन्म 24 फ़रवरी, 1939 को झाँसी में हुआ था। उनके पिता का नाम शशिधर मुखर्जी और माता सती देवी थीं, जो कि हिन्दी फ़िल्मों के मशहूर अभिनेता अशोक कुमार की बहन थीं। जॉय मुखर्जी के पिता भी फ़िल्मों से जुड़े हुए थे। वे मशहूर 'फ़िल्मालय स्टूडियो' के सह सस्थापक थे। जॉय मुखर्जी के भाई सोमू मुखर्जी प्रसिद्ध अभिनेत्री तनूजा के पति थे। तनूजा की पुत्रियाँ काजोल और तनीषा भी अभिनेत्रियाँ हैं। जॉय मुखर्जी की पत्नी का नाम नीलम है। वे दो पुत्रों और एक पुत्री के पिता थे।
अभिनय का मौका
फ़िल्म सूत्रों के आदिगुरु कहे जाने वाले शशिधर मुखर्जी का पूरा परिवार फ़िल्मी रहा, किंतु उनके बेटे जॉय मुखर्जी को फ़िल्म अभिनेता बनना क़तई पसंद नहीं था। अपने पिता के आस-पास मौजूद रहकर उनकी फ़िल्मी गतिविधियों को बालक जॉय मुखर्जी नजदीक से देखा करते थे। शूटिंग के तमाम दृश्य उन्हें किसी तमाशे के समान लगते थे। जॉय मुखर्जी का इरादा टेनिस खिलाड़ी बनकर अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि प्राप्त करने का था। जब वह बी.ए. की पढ़ाई कर रहे थे, तभी एक दिन उनके पिता ने पूछ लिया कि आखिर वह अपनी ज़िंदगी में करना क्या चाहता हैं? इस सवाल के साथ ही उन्होंने फ़िल्म "हम हिंदुस्तानी" का कांट्रेक्ट भी जॉय के सामने रख दिया। जॉय ने अनमने भाव से फ़िल्म यह सोचकर साइन कर ली कि चलो पॉकेटमनी के लिए अच्छी रकम मिल जाएगी। जब फ़िल्म का ट्रायल शो हुआ, तो प्रिव्यू थियेटर से वह भागकर घर आ गये। परदे पर अपने अभिनय तथा लुक को वह बर्दाश्त नहीं कर पाये थे।[1]
बी.ए. में तृतीय श्रेणी
जॉय मुखर्जी की किस्मत में टेनिस खिलाड़ी बनने की लकीरें नहीं थीं। उन्हें दो-तीन फ़िल्मों के और प्रस्ताव मिले। शुरू-शुरू में उन्हें झिझक रही। धीरे-धीरे उनकी फ़िल्मों में दिलचस्पी बढ़ती चली गई। इसका परिणाम भी सामने आ गया। वे अपनी बी.ए. की पढ़ाई में पिछड़ गए और तृतीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। उन्हीं दिनों फ़िल्मकार बिमल राय फ़िल्म 'परख' बनाने जा रहे थे। उन्होंने जॉय की कुछ फ़िल्में देखीं और 'परख' के लिए नायक की भूमिका उनके सामने रखी। अपनी जरुरत से ज़्यादा व्यस्तता के चलते जॉय ने मना कर दिया। बिमल राय ने बसंत चौधरी को लेकर वह फ़िल्म पूरी की।[1]
सफलता की प्राप्ति
जॉय मुखर्जी की दूसरी फ़िल्म थी 'लव इन शिमला'। इसे नए डायरेक्टर आर. के. नय्यर निर्देशित कर रहे थे। एक सिंधी फ़िल्म में काम कर चुकी अभिनेत्री साधना को नायिका के तौर पर लिया गया था। इस फ़िल्म की अधिकांश शूटिंग शिमला में हुई थी। शूटिंग के दौरान आस-पास के दर्शकों की जमा भीड़ में से कुछ तानाकशी की आवाज़ें जॉय मुखर्जी के कानों में गूँजती थीं- "ये क्या हीरो बनेगा? ये क्या एक्टिंग करेगा? आइने में इसने अपनी सूरत देखी है?" यह सब सुनकर जॉय चुप रहते थे, क्योंकि जवाब के लिए कोई सुपरहिट फ़िल्म उनके पास नहीं थी। 'लव इन शिमला' फ़िल्म सुपरहिट साबित हुई। जॉय को स्टार का दर्जा मिल गया। साधना ने बालों की नई स्टाइल इजाद की, जो लड़कियों में 'साधना कट' नाम से लोकप्रिय हुई। 'लव इन शिमला' के दौरान ही आर. के. नय्यर और साधना को भी प्यार हो गया और उन्होंने विवाह कर लिया। सन 1963 में बनी फ़िल्म फिर 'वहीं दिल लाया हूँ' जॉय मुखर्जी के कॅरिअर की उल्लेखनीय फ़िल्म रही, जिसमें उन्होंने अपने कॅरिअर की सबसे यादगार भूमिका निभायी। देखते-ही-देखते जॉय सफलता की बुलंदियों पर पहुँच गए।
रोमांटिक फ़िल्में
'लव इन शिमला' के बाद इसे महज संयोग ही मानना होगा कि जॉय मुखर्जी को लगातार रोमांटिक फ़िल्में करना पड़ीं, जैसे- 'लव इन टोकियो', आशा पारेख के साथ; 'शागिर्द', सायरा बानो के साथ; 'एक मुसाफिर एक हसीना' और 'एक बार मुस्करा दो'। 'शागिर्द' फ़िल्म के तमाम गाने शिमला में फ़िल्माए जाने थे। लगातार बारह दिनों तक पूरी यूनिट के लोग प्रातः जल्दी से तैयार होकर बर्फीले पहाड़ों पर पहुँचते, लेकिन बादलों की लुकाछिपी में सूर्य डूबता-तैरता चलता था और शूटिंग का सारा समय बरबाद हो गया। यूनिट को इस बहाने इस ख़ूबसूरत शहर में ठहरने और पिकनिक मनाने का मौका मिल गया। जॉय मुखर्जी की अधिकांश फ़िल्मों की कहानी प्रेम पर आधारित थी। इसलिए तमाम फ़िल्मों को कश्मीर के सुंदर लोकेशन पर फ़िल्माया गया।[1]
समकालीन अभिनेत्रियाँ
जॉय मुखर्जी ने अपनी समकालीन जिन तारिकाओं के साथ काम किया, उनमें वैजयंती माला के प्रति हमेशा उनके मन में हमेशा आदर भाव रहा। माला सिन्हा, शर्मिला टैगोर, आशा पारेख और सायरा बानो सबसे उनके अच्छे संबंध रहे। विदेशी कलाकारों में जॉय को ग्रेगरी पैक ने आकर्षित किया। देव आनंद जिस तरह ग्रेगरी को कॉपी करते थे और अपनी हेअर स्टाइल भी वैसी ही रखते थे, कुछ इस तरह के रोल मॉडल का भाव जॉय के मन में बराबर बना रहा। अपने प्रशंसकों से लगातार मिलना या हाथ मिलाना अथवा ऑटोग्राफ़ देना जॉय मुखर्जी को पसंद नहीं था। उनका मानना था कि दो-चार प्रशंसकों से तो हाथ मिलाया जा सकता है, लेकिन सौ-दो सौ के साथ कोई कलाकार ऐसा नहीं कर सकता। प्रेस से भी जॉय ने दूरी बनाए रखी। वे अभिनेता नहीं बनना चाहते थे, मगर बना दिए गए। इसलिए ग्लैमर वर्ल्ड के लटकों-झटकों से अनजान थे।
निर्देशन
समय व्यतीत होता गया और धर्मेन्द्र, जितेंद्र, राजेश खन्ना जैसे अन्य अभिनेताओं के उभरने से जॉय मुखर्जी की छवि धूमिल होने लगी। अपनी गिरती लोकप्रियता के मद्देनजर जॉय चुनींदा फ़िल्में ही करने लगे। प्रकृति के सुंदर दृश्य तो जॉय मुखर्जी को आनंद से भर देते थे, मगर बार-बार और हर बार हिरोइन को देख नकली मुस्कराहटें चेहरे पर लाना। गाने गाना। पेड़ों के इर्दगिर्द घूमकर नाचना उन्हें क़तई रास नहीं आता था। वे ज़िंदगी का ट्रेक बदलना चाहते थे। उन्होंने फ़िल्म 'हमसाया' का निर्देशन किया, लेकिन फ़िल्म फ्लॉप हो गई। इस पर जॉय का सोचना था कि यह उनका ग़लत समय में लिया गया ग़लत फैसला था। उन्होंने 'हमसाया' के बाद राजेश खन्ना और जीनत अमान को लेकर उन्होंने 'छैला बाबू' फ़िल्म भी निर्देशित की, किंतु इस बार भी नाकामयाबी हाथ लगी। माता-पिता की मौत से जॉय मुखर्जी को ज़िंदगी का नया चेहरा देखने को मिला।[1]
प्रमुख फ़िल्में
वर्ष | फ़िल्म | वर्ष | फ़िल्म |
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1960 | लव इन शिमला | 1960 | हम हिन्दुस्तानी |
1962 | उम्मीद | 1962 | एक मुसाफिर एक हसीना |
1963 | फिर वही दिल लाया हूँ | 1964 | जिद्दी |
1964 | जी चाहता है | 1964 | इशारा |
1964 | दूर की आवाज़ | 1964 | आओ प्यार करें |
1965 | बहू बेटी | 1966 | ये ज़िंदगी कितनी हसीन है |
1966 | साज और आवाज़ | 1966 | लव इन टोकियो |
1966 | शागिर्द | 1968 | हमसाया (निर्माता-निर्देशक) |
1968 | एक कली मुस्कायी | 1968 | दिल और मुहब्बत |
1969 | दुपट्टा | 1970 | पुरस्कार |
1970 | मुजरिम | 1970 | इंस्पेक्टर |
1970 | एहसान | 1970 | आग और दाग |
1971 | कहीं आर कहीं पार | 1972 | एक बार मुस्कुरा दो |
1977 | हैवान | 1977 | छलिया बाबू (निर्देशक) |
1985 | इंसाफ मैं करूँगा |
निधन
हिन्दी फ़िल्मों के इस मशहूर अभिनेता का 9 मार्च, 2012 को मुम्बई में निधन हुआ। एक लम्बी बीमारी के बाद उन्हें मुम्बई के लीलावती अस्पताल में भर्ती कराया गया था। मार्च 2012 की सुबह 9:30 बजे उनका निधन हुआ। उनके फेफड़े काम नहीं कर रहे थे और वह साँस नहीं ले पा रहे थे। यद्यपि जॉय मुखर्जी हिन्दी फ़िल्मों के बेहद सफल अभिनेताओं की सूची में शामिल नहीं हो पाए थे, फिर भी वे कला के प्रति समर्पित थे और दर्शकों पर उनकी छाप थी। फ़िल्मी बाज़ार में सौदेबाजी करने से वे हमेशा ही दूर रहे, किंतु सिल्वर स्क्रीन के इस रोमांटिक अभिनेता पर फ़िल्माए गए सुरीले और मधुर गीत आज भी उनके प्रशंसकों के दिलों में गूँजते हैं।
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