यहूदी धर्म

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यहूदी धर्म
यहूदी धर्म का प्रतीक चिह्न
विवरण 'यहूदी धर्म' एक 'एकेश्वरवादी' धर्म है। इस धर्म की यह मान्यता है कि ईश्वर अपना संदेश पैगम्बरों के माध्यम से प्रेषित करता है।
संस्थापक इब्राहीम
धर्मसूत्र यहूदी धर्म में 10 धर्माचरणों का विशेष महत्त्व है, जिनका पालन करने पर 'यहोवा' की अनुपम कृपा प्राप्त होती है।
धर्म ग्रंथ 'तोरा', 'तालमुड', 'इलाका', 'अगाडा', 'तनाका'।
पैगम्बर यहूदी लोग 'अब्राहम', 'ईसाक' और 'जेकब' को अपना पितामह; 'मूसा' को मुख्य पैगम्बर तथा 'एलिजा', 'आयोस', 'होसिया', 'इजिया', 'हजकिया', 'इजकील', 'जरेमिया' आदि को अन्य पैगम्बर मानते हैं।
विशेष यहूदियों के पुरोहित को 'रबी' तथा मंदिर या पूजास्थल को 'सिनागौग' कहा जाता है।
अन्य जानकारी यहूदी धर्म 'एकेश्वरवाद' पर आधारित है। उनका ईश्वर 'यहोवा', अमूर्त, निर्गुण, सर्वव्यापी, न्यायप्रिय, कृपालु और कठोर अनुशासनप्रिय है। अपनी आज्ञाओं के उल्लंघन होने पर वह दंड भी देता है।

यहूदी धर्म (अंग्रेज़ी: Judaism) यहूदियों का एकेश्वरवादी धर्म है, जो यह मानता है कि ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव मानव गतिविधियों और इतिहास द्वारा होता है। यह उपस्थिति कुछ मान्यताओं और मूल्यों की अभिव्यक्ति है, जो कर्म, सामाजिक व्यवस्था और संस्कृति में दृष्टिगोचर होती है।

मान्यता

यहूदी धर्म का मानना है कि यहूदी समुदाय का दिव्य के साथ प्रत्यक्ष सामना होता है और स्थापित होने वाला यह संबंध, बेरित (अनुबंध), अटूट है और यह समूची मानवता के लिए महत्त्वपूर्ण है। ईश्वर को 'तोरा प्रदायक', यानी दिव्य प्रदायक के रूप में देखा जाता है। अपने पारंपरिक व्यापक रूप में 'हिब्रू ग्रंथ' और यहूदी मौखिक परंपराएं[1], धार्मिक मान्यताएँ रीति-रिवाज और अनुष्ठान, ऐतिहासिक पुनर्संकलन और इसके आधिकारिक ग्रंथों[2] की विवेचना है। ईश्वर ने दिव्य आशीष के लिए यहूदियों का चुनाव करके उन्हें मानवता तक इसे पहुँचाने का माध्यम भी बनाया और उनसे तोरा के नियमों के पालन और विश्व के अन्य लोगों के गवाह के रूप में काम करने की अपेक्षा की।

रबी

यहूदियों के पुरोहित को रबी कहते हैं।

सिनागौग

यहूदियों के मंदिर या पूजास्थल को सिनागौग कहते हैं।

धर्मपिटक

धर्मपिटक सिनागौग में रखा कीकट की लकड़ी का स्वर्णजटित एक पिटक है, जिसमें दस धर्मसूत्रों की प्रति रखी होती है। इसे धर्म प्रतिज्ञा की नौका भी कहते हैं।

इतिहास

समझा जाता है कि यहूदी धर्म के संस्थापक इब्राहीम 20वीं शताब्दी ई. पू. के मध्य में उत्तरी मेसोपोटामिया से कानान[3]) चले गए थे। वहाँ से इब्राहीम के अर्द्ध ख़ानाबदोश वंशज और उनके पुत्र इसाक और जेकब, जो तब तक 12 यहूदी परिवार बन चुके थे, मिस्र चले गए, जहाँ उन्हें कई पीढ़ियों तक ग़ुलाम बनाकर रखा गया और ई.पू 13वीं शताब्दी में वे वहाँ पलायन करके इज़राइली कानान[4] लौटे। यहूदी धर्म की तरह धर्माध्यक्षों का धर्म भी युगों-युगों तक विविध विदेशी विचारो के संपर्क में आया, इनमें मारी, उगारित,[5] बेबिलोनिया, मेसोपोटामिया और मिस्र के प्रभाव सम्मिलित हैं। इज़राइली ईश्वर को विश्व का सृजनहार माना जाता है, जिसकी खोज इब्राहीम ने नहीं की थी, परंतु वह ईश्वर के साथ प्रतिज्ञाबद्ध हुए थे। ईश्वर ने इब्राहीम के साथ अपने वायदे मोजेज़ के माध्यम से पूरे किए, जिन्होंने पलायन का नेतृत्व किया और माउंट सिनाई में इज़राइल पर और प्रतिज्ञाओं का दायित्व रखा और अपने साथियों को कानान ले आए। धर्माध्यक्षों की कहानियों के अनुसार, कानान में बसना ईश्वर द्वारा प्रतिज्ञा पालन का अभिन्न अंग है। मिस्र में ग़ुलाम बने रहने के अनुभव से केवल उक्त मान्यता की नहीं, इसकी भी पुष्टि हुई कि इज़राइली ईश्वर क्षेत्रीय सीमाओं से परे समूची पृथ्वी का ईश्वर है।

यहूदी और यहूदत

प्राचीन मेसोपोटामिया[6] में सामी मूल की विभिन्न भाषाएँ बोलने वाले अक्कादी, कैनानी, आमोरी, असुरी आदि कई खानाबदोश कबीले रहा करते थे। इन्हीं में से एक कबीले का नाम हिब्रू था। वे यहोवा को अपना ईश्वर और अब्राहम को आदि-पितामह मानते थे। उनकी मान्यता थी कि यहोवा ने अब्राहम और उनके वंशजों के रहने के लिए इस्त्राइल प्रदेश नियत किया है। प्रारम्भ में गोशन के मिस्त्रियों के साथ हिब्रुओं के सम्बंध अच्छे थे, परन्तु बाद में दोनों में तनाव उत्पन्न हो गया। अत: मिस्त्री फराओं के अत्याचारों से परेशान होकर हिब्रू लोग मूसा के नेतृत्व में इस्त्राइल की ओर चल पड़े। इस यात्रा को यहूदी इतिहास में 'निष्क्रमण' कहा जाता है। इस्त्राइल के मार्ग में सिनाई पर्वत पर मूसा को ईश्वर का संदेश मिला कि यहोवा ही एकमात्र ईश्वर है, अत: उसकी आज्ञा का पालन करें, उसके प्रति श्रद्धा रखें और 10 धर्मसूत्रों का पालन करें। मूसा ने यह संदेश हिब्रू कबीले के लोगों को सुनाया। तत्पश्चात् अन्य सभी देवी-देवताओं को हटाकर सिर्फ़ यहोवा की आराधना की जाने लगी। इस प्रकार यहोवा की आराधना करने वाले 'यहूदी' और उनका धर्म 'यहूदत' कहलाया।

यहूदियों के पैगम्बर

यहूदी धर्म की मानता है कि ईश्वर अपना संदेश पैगम्बरों के माध्यम से प्रेषित करता है। यहूदी लोग अब्राहम, ईसाक और जेकब को अपना पितामह पैगम्बर, मूसा को मुख्य पैगम्बर तथा एलिजा, आयोस, होसिया, इजिया, हजकिया, इजकील, जरेमिया आदि को अन्य पैगम्बर मानते हैं। यहूदी धर्म एकेश्वरवाद पर आधारित है। उनका ईश्वर 'यहोवा' अमूर्त, निर्गुण, सर्वव्यापी, न्यायप्रिय, कृपालु और कठोर अनुशासनप्रिय है। अपनी आज्ञाओं के उल्लंघन होने पर वह दंड भी देता है। इतना ही नहीं, यहूदी लोग यहोवा की आज्ञाओं में सैन्य कृत्यों का भी संदेश पाते हैं। यहोवा उनको धर्म रक्षा के लिए सैन्य संघर्ष का भी आदेश देता है।

दस धर्म सूत्र

यहूदी धर्म में 10 धर्माचरणों का विशेष महत्त्व है, जिनका पालन करने पर यहोवा की अनुपम कृपा प्राप्त होती है। ये दस धर्म सूत्र निम्न हैं-

  1. मैं स्वामी हूँ तेरा ईश्वर, तुझे मिस्त्र की दासता से मुक्त कराने वाला।
  2. मेरे सिवा तू किसी दूसरे देवता को नहीं मानेगा।
  3. तू अपने स्वामी और अपने प्रभु का नाम व्यर्थ ही न लेगा।
  4. सबाथ (अवकाश) का दिन सदैव याद रखना और उसे पवित्र रखना। छ: दिन तू काम करेगा, अपने सब काम, किन्तु सातवाँ दिन सबाथ का दिन है। याद रखना कि छ: दिन तक तेरे प्रभु ने आकाश, पृथ्वी और सागर तथा उन सबमें विद्यमान सभी कुछ की रचना की, फिर सातवें दिन विश्राम किया था। अत: यह प्रभु के विश्राम का दिन है। इस दिन तू कोई भी काम नहीं कर सकता।
  5. अपने माता-पिता का सम्मान कर, उन्हें आदर दे ताकि प्रभु प्रदत्त इस भूमि पर तू दीर्घायु हो सके।
  6. तू हत्या नहीं करेगा।
  7. तू परस्त्री, परपुरुष गमन नहीं करेगा।
  8. तू चोरी नहीं करेगा।
  9. तू अपने पड़ोसी के ख़िलाफ़ झूठी गवाही नहीं देगा।
  10. तू अपने पड़ोसी के मकान, पड़ोसी की पत्नी, पड़ोसी के नौकर या नौकरानी, उसके बैल, उसके गधे पर बुरी नज़र नहीं रखेगा।

धर्मग्रंथ

यहूदियों के बीच अनेक धर्मग्रंथ प्रचलित हैं, जिसमें कुछ प्रमुख हैं-

  1. तोरा, जो बाइबिल के प्रथम पाँच ग्रंथों का सामूहिक नाम है और यहूदी लोग इसे सीधे ईश्वर द्वारा मूसा को प्रदान की गई थी,
  2. तालमुड, जो यहूदियों के मौखिक आचार व दैनिक व्यहार संबंधी नियमों, टीकाओं तथा व्याख्याओं का संकलन है,
  3. इलाका, जो तालमुड का विधि संग्रह है,
  4. अगाडा, जिसमें धर्मकार्य, धर्मकथाएं, किस्से आदि संग्रहीत हैं,
  5. तनाका, जो बाइबिल का हिब्रू नाम है, आदि।

मान्यताएँ

यहूदी धर्म के अन्य तत्त्व मोजेज़ के साथ उभरे। इनमें यह मूल मान्यता भी शामिल है कि नैतिक चयन की कुशलता ही मानव जाति को परिभाषित करती है। इसीलिए सभी व्यक्ति ईश्वर के साथ एक प्रतिज्ञा द्वारा जुड़े हैं। यह एक ऐसा संबंध है, जिसे यहूदी उदाहरण और प्रमाण द्वारा सामने रखते हैं। मनुष्य के पास ईश्वर के क़ानून के आज्ञापालन (अच्छाई) और आज्ञा का उल्लंघन (बुराई), दो विकल्प हैं और इसी संदर्भ में वह किसी एक का नैतिक चुनाव करता है। पाप को क़ानून या तोरा का जान-बूझकर किया गया उल्लंघन माना जाता है और तोरा की ओर पुनः वापस जाना एक विमर्शित चयन कहा जाता है। यही नहीं, मनुष्य की नैतिक प्रवृत्ति न्यायपूर्ण समाज की स्थापना तक विस्तृत और उससे गुंथी है। कानान पर विजय को 'पलायन' हेतु ईश्वर के हस्तक्षेप और सहायता के एक अंग के रूप में देखा जाता है। तब फ़िलीस्तीन जैसे नए शत्रु सामने आए और 'न्यायाधीशों की पुस्तक' में उल्लिखित परिवर्तन के दौर की शुरुआत हुई। इज़राइल की 12 बिखरी हुई जनजातियों को बुजुर्गों या मत के दृढ़ समर्थकों के नेतृत्व में एकजुट होने का अवसर मिला। जॉर्डन नदी के दोनों ओर बहुत से पूजा स्थल और वेदियाँ स्थापित की गईं और प्रतिज्ञापत्र की मंजूषा[7], जिसे अक्सर शिलो[8] में ही रखा जाता था, चल वस्तु मानी गई थी।

येरुशलम

न्यायाधीशों के काल के दौरान निरंतर नेतृत्व की आवश्यकता को देखते हुए राजशाही की माँग सामने आई। रुढ़िवादी धार्मिक लोगों के विरोध के बावजूद लगभग 1021 ई. पू. में सॉल को राजा बनाया गया, किंतु 1000 ई. पू में डेविड के शासन काल की शुरुआत तक राजशाही के प्रति धार्मिक आपत्तियाँ होती रहीं। डेविड ने ही येरुशलम पर विजय प्राप्त की और इसे राष्ट्रीय राजधानी बनाया और मंजूषा (आर्क) को यहाँ राष्ट्रीय ईश्वर के देवालय के रूप में लाए। डेविड के पुत्र सॉलोमन ने पहला मंदिर बनवाया। सॉलोमन द्वारा राजशाही को अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सम्राटशाही में विकसित करने का धार्मिक और लौकिक विरोध हुआ और लगभग 922 ई. पू. में उत्तरी जनजातियों ने संबंध विच्छेद कर लिया।

राजाओं की पुस्तक[9] के अनुसार, अगले 200 वर्ष के दौरान विदेशी संप्रदायों ने यहूदी धर्म पर असर डाला, उत्तरी राज्य (इज़राइल) के विरुद्ध विशेष रूप से आवाज़ उठाई गई। जहाँ येरुशलम की प्रतिद्वंद्विता में धार्मिक राजधानी समदिया स्थापित की गई। जब राजा अहाब ने अपनी सीरियाई पत्नी जेज़ेबल को इज़राइल में अपने विदेशी ईश्वर की पूजा करने की अनुमति दी, तो पैग़ंबर एलिजा ने समूचे उत्तर को अधर्मी घोषित कर दिया। उनका दावा था कि तीन वर्ष का सूखा, ईश्वर के हित में न रहने के पाप का समृद्धि-क्षति के पहले दंड के रूप में था।

धर्म-युद्ध

नौवीं से आठवीं शताब्दी ई. पू तक इज़राइल, असम[10] के साथ चली आ रही पुरानी लड़ाई में उलझा रहा, परिणामस्वरूप इज़राइल में मुठ्टी भर अमीरों और ग़रीब जनता के बीच ध्रवीकरण हो गया। इस स्थिति से साहित्यिक या ज्ञानवान पैग़ंबरों की शुरुआत हुई, जिनमें से पहले अमोस थे। उन्होंने यह सोच आरंभ किया कि प्रतिज्ञापत्र के सामाजिक नैतिक नियमों के उल्लंघन से ईश्वर समुदाय के विरुद्ध हो जाएगा। आठवीं शताब्दी के अंत में जब असीरिया ने इज़राइल का विरोध किया, तो पैग़ंबर होसिया ने कहा कि ईश्वर को भुला देने के कारण नई मुसीबतों की शुरुआत हुई है। जूडा के राजा एहज़ के असीरिया के सामने समर्पण से आइज़े और माइक पैग़ंबरों को यहूदी भविष्यवाणी में युगांतक विचार शामिल करना पड़ा, जिसमें सही मायनों में भावी पवित्र धार्मिक समुदाय की बात की गई, जो पृथ्वी पर एक एक आदर्श शासक के नेतृत्व में एक सामान्य सामाजिक राजनीतिक इकाई के रूप में काम करे। बेबीलोनिया द्वारा जूडा पर विजय और बाद में यहूदियों के निर्वासन (597 ई. पू. से) से इस विचारधारा में भविष्यगामी तत्त्व को बल मिला। ऐसा ही जेरमाइ और आइज़ेकल की भविष्यवाणियों में था और इससे ड्यूटेरो ईसाइयों की भविष्यवाणी को भी बल मिला कि इज़राइल की पुनर्स्थापना से विश्व को इज़राइल के ईश्वर के प्रति समर्पित करने में मदद मिलेगी।

फ़ारस द्वारा बेबीलोन को हराए जाने से निर्वासन का अंत हुआ और जूडा फिर से हासिल हो गया (538 ई. पू.) इज़राइल को दुबारा स्थापित करने की मेसियानी आशाएँ अधूरी रह गईं, लेकिन मेलेकी द्वारा 'मोजेज़ की तोरा' के पालन की चेतावली के साथ पैग़ंबरी काल का अंत हो गया। 444 ई. पू में ...I ने तोरा को देश के क़ानून के रूप में मान्यता दी। इस तोरा को प्रकाशित किया जाना था। तोरा की इस प्रकार मान्यता से अलिखित क़ानून का व्यापक आधार बना, जो यहूदी धर्म की विशेषता है। सिकंदर महान् द्वारा 332 ई. पू. फ़िलिस्तीन पर विजय से यूनानी यहूदी धर्म[11] युग की शुरुआत हुई। यहूदी धर्म और संस्कृति पर यूनानी प्रभाव दूसरी शताब्दी ई. पू. के प्रारंभ में उस समय स्पष्ट हो गया, जब यूनान के यहूदी कट्टर पुरोहितों के प्रभाव में आ गए। एंटिओकस IV आइपिफ़निज़ द्वारा यहूदी धर्म के विरुद्ध आदेशों के फलस्वरूप मेकबीज़[12] ने विद्रोह किया और तभी से यहूदी और ईसाई धर्म में शहीदों का आर्विभाव हुआ। विद्रोह के बावजूद यूनानीवाद जारी रहा, जो जूडा के हेरोड I के काल (37 से 4 ई. पू.) के दौरान चरम पर पहुँचा। इसी काल में धार्मिक नेताओं के दो समूह बन गए। फ़ारसी, जो अलिखित क़ानून के दिव्य लेखन में विश्वास करते थे और सद्जोसी, जो तोरा के लिखित स्वरूप को मानते थे।

यहूदी धर्म के प्रमुख केंद्र

यूनानीवाद की अवधि में सीरिया, एशिया माइनर, बेबीलोनिया और विशेषतः अलेक्ज़ेंडर, मिस्र में यहूदी धर्म के प्रमुख केंद्र थे। पंचग्रंथ[13] का यूनानी भाषा में अनुवाद किया गया, जिससे यूनानीवाद का आकर्षण बढ़ा और मिस्र में इतिहास, कविता, नाटक और दर्शनशास्त्र का पर्याप्त साहित्य रचा गया।

यहूदी राज्य की स्थापना

63 ई. पू. से 135 ई. के दौरान रोम के शासन में स्वतंत्र यहूदी राज्य की स्थापना की कोशिशें की गईं। हेरोडियन, जीलॉट और कई अर्द्ध मठ समूहों ने यह कोशिश की और यह सभी तोरा के सख़्ती से पालन के पक्षधर थे। रोम काल के दौरान समस्त मानवता पर फिर से दिव्य संप्रभुता स्थापित किए जाने की इज़राइल की आशा आदर्श राजा के विचार पर केंद्रित होने के समय ईसाई धर्म का उदय सबसे महत्त्वपूर्ण जातीय घटनाक्रम था।

हालांकि रोम के राज्य की अच्छी शुरुआत हुई थी, लेकिन रोम से प्रतिकूल आदेशों के कारण विद्रोहों की लगातार असफल कोशिशें हुईं, इनमें से पहली (66-73) के दौरान 'दूसरा मंदिर' नष्ट कर दिया गया। इन त्रासदियों से यहूदी धर्म संकुचित हुआ और तालमुद का विकास हुआ।

तनैम युग

रब्बानियाई यहूदी धर्म, जिसके दौरान तालमुद का विकास हुआ, दूसरी से अठारहवीं शताब्दी तक फैला रहा। तनैम युग कहे जाने काल में फ़िलीस्तीन में एक उच्च न्यायालय के प्रमुख, धर्मगुरु सिमियन बेन गामालिएल (135-175) और जूडा-हा-नासी (175-220) थे, जिन्हें मिशना नामक अलिखित क़ानून के अंतिम स्वरूप के निर्माण का श्रेय जाता है।

अमोरैम काल

मिशना लागू किए जाने से अमोरैम काल[14] की शुरुआत हुई। मिशना को मानक पुस्तक मानते हुए फ़िलीस्तीन के अमोरैम (220-400) और बेबीलोनिया (200-650) ने इसे स्पष्ट किया, अन्य पुस्तकों के साथ मिलान किया और इसके सिद्धांतों को नई परिस्थितियों पर लागू किया। उन्होंने फ़िलीस्तीन तालमुद और बेबीलोनिया तालमुद तैयार किए, जिनमें से बेबीलोनिया तालमुद यहूदी जीवन की केंद्रीय संहिता बन गया। हालांकि अंतिम धर्मगुरु गामालिएल IV की 425 में मृत्यु से भूमध्यीय यहूदी धर्म बिखर गया, लेकिन यहूदी कैलेंडर और रब्बाइयों द्वारा पालित नियम जारी रहने से यूरोप में यहूदी समुदाय का बना रहना सुनिश्चित रहा।

बेबीलोनिया में निर्वासकों के प्रमुख का पद 10वीं से 11वीं शताब्दी के मध्य तक रब्बाइयों के साथ-साथ चलता रहा। फ़िलीस्तीन से प्रत्यारोपित रब्बी पदाधिकारियों ने नई भूमि में यहूदी क़ानूनी धार्मिक प्रणाली के मूल्यों और अंतर्वस्तु को सफलतापूर्वक अनुकूलित कर लिया। सातवीं और आठवीं शताब्दी में इस्लाम के विस्तार के बाद बेबीलोनिया के धार्मिक नेताओं या 'जियोनिम' ने सभी यहूदी समुदायों में अपनी परंपराओं को पहुँचाया।

मध्यकालीन युग

मध्यकालीन युग में समान धार्मिक आधार के बावजूद यहूदी संस्कृति की दो शाखाएँ विकसित हुईं। सेफ़ार्डी समुदाय की सांस्कृतिक संबद्धता बेबीलोनिया से थी और यह अरबी मुस्लिम माहौल से प्रभावित था। अशकेनाजी समुदाय यूरोप की लैटिन ईसाई संस्कृति में विकसित हुई और इसकी पृष्ठभूमि रोम और फ़िलीस्तीन में थी। इस अवधि में यहूदी अध्यात्मवाद के दो प्रकार उभरकर सामने आए, 12 वीं शताब्दी के जर्मन अशकेनाज़िम के बीच तथा कथित मध्ययुगीन हसीदीवार और प्रोवेंस की तालमुदिक अकादमियों तथा 13वीं शताब्दी में उत्तरी स्पेन के बीच अनुमानात्मक कब्बाला शैली।[15] प्रोवेंस और उत्तरी स्पेन में सेफ़ारडिम और अशकेनाज़िम संस्कृतियों के बीच झपड़ें हुईं।

ईसाई धर्म की स्वीकृति

ईसाई अधिकारियों द्वारा तालमुद पर हमलों के कारण और 1306 में फ़्रांस में यहूदियों के निष्कासन से विवाद का समाधान नहीं हो पाया और रुढ़िवादियों की दो शाखाएँ जैसे-तैसे साथ-साथ चलती रहीं। यूरोप में यहूदियों पर 18वीं शताब्दी में मुक़द मे जारी रहने से स्वधर्म त्याग और ईसाई धर्म स्वीकार करने (मारानिज़्म) के मामले सामने आए और शब्बेताई त्ज़ेवी और जैक़ब फ्रेंक जैसे छद्म-मसीहाई उग्रवादी मतों का उदय हुआ।

यहूदी बोध काल

मध्य और पूर्वी यूरोप में 18वीं शताब्दी 'हसकाला' या यहूदी बोध का काल था। इस अवधि में यहूदियों ने मेसियानी मान्यताओं से हटकर अपने जीवनकाल में इस पृथ्वी पर अपनी या राष्ट्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति करना शुरू कर दिया। मोजेज़े मंडिलस्ज़ोन विशेष तौर पर महत्त्वपूर्ण थे, जिनके येरुशलम ने यहूदी धर्म की वैधता और अपने सार्वभौमिक तार्किक धर्म के विश्वास की वकालत की। नफ़ताली हर्ज़ वेसली के साथ मिलकर उन्होंने जर्मन बाइबिल की रचना की, जिसने मध्य यूरोपीय यहूदीवाद को जर्मन संस्कृति में प्रस्तुत किया।

आंदोलन

पूर्वी यूरोप और विशेषतः रूस में हसकाला ने पुरोहितवाद का विरोध और व्यावहारिक सामाजिक और आर्थिक सुधारों की माँग करने का रूप ले लिया। हिब्रू और रूसी भाषा का साहित्य उन लेखकों के बीच फलने-फूलने लगा, जिन्होंने स्वयं को रूसी नागरिक और यहूदी धर्म को अपना धर्म घोषित किया। यिद्दिश साहित्य, जो पूर्वी यूरोपीय देशों में 12वीं और 13वीं शताब्दी में शुरू हुआ था, 19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में पनपा। हालांकि 1881 की सामूहिक हत्याओं के कारण इस आंदोलन का अंत हो गया, हसकाला से यहूदी धार्मिक सुधार की उत्पत्ति हुई। जिसकी नेपोलियन युग (1800-1815) दौरान पश्चिमी यूरोप में शुरुआत हुई। फ़्रांस में सुधार सैद्धांतिक थे, जबकि जर्मनी में यह पूजा की सुंदर विधियों पर केंद्रित थे। जर्मन सुधार 1840 में संस्थागत हो गए, हालांकि ये अधिकांश यूरोप में विफल रहे और आसानी से अमेरिका में स्वीकार किए गए, जहाँ ये सुधार के प्रारंभिक रुझान के साथ घुलमिल गए।

अब इस सुधार आंदोलन से संकुचित विचार वाले यहूदी धर्म की शुरुआत हुई, जो जर्मनी में 1845 में प्रारंभ हुआ। इसने विकासात्मक धर्म के रूप में यहूदी धर्म की परिकल्पना की, लेकिन रीति-रिवाजों में मुख्यतः पारंपरिक नियमों के पालन पर आ गया।

यूरोप के अधिकांश यहूदियों ने सुधार आंदोलन को ठुकरा दिया। यद्यपि कुछ उल्लेखनीय हासिडिम ने पश्चिमीकरण का पूरी तरह बहिष्कार जारी रखा और इनमें से अधिकांश धर्म में रूढ़िवादी, लेकिन संस्कृति और तौर-तरीक़ो में पश्चिमी बन गए। पश्चिमीकरण के विकास के साथ विद्वानों ने यहूदी इतिहास और संस्कृति के धर्मनिरपेक्ष अध्ययन तथा विज्ञान, चिकित्सा और गणित में यहूदी धर्म के योगदान का अध्ययन शुरू कर दिय। जब अधिकांश यहूदियों ने मौखिक क़ानून की दिव्यता के विधान को अस्वीकार कर दिया। उस समय यहूदी दार्शनिकों ने निरंतरता के प्रश्न का विरोध किया। विभिन्न उत्तरों में से उन्होंने यहूदी धर्म को ईश्वर के साथ व्यक्तिगत साक्षात्कार के सघन स्वरूप या धार्मिक राष्ट्रवाद के रूप में ऐतिहासिक या नैतिक प्रक्रिया का वाहक माना।

यहूदी धर्म को उसके धर्मनिरपेक्ष पहलुओं में सुधार आंदोलन के परिणाम को देखा जा सकता है, 19वीं शताब्दी के आगमन के साथ यूरोपीय राष्ट्रवाद और सामीवाद के विरोध की प्रतिक्रिया से यहूदी धर्म ने राष्ट्र-पुनर्जागरण और पुनर्वास का कार्यक्रम प्रस्तुत किया, जो 1948 में इज़राइल देश के गठन के साथ संपन्न हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद यहूदी धर्म ग़ैर यूरोपीय धर्म बन गया, जो इज़राइल, अमेरिका और रूस तथा अन्य पूर्व सोवियत गणराज्यों में केंद्रित था। विश्व में यहूदी धर्म का अरब राष्ट्रों के साथ टकराव हुआ, जबकि यहूदी धर्म के प्रत्येक समुदाय में धर्मनिरपेक्षता की भावना बढ़ती गई है। फिर भी यहूदियों में अपने धर्म के प्रति अत्यधिक उत्साह और उसकी ऐतिहासिक परंपराओं के अहसास से लगाव दिखाई देता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मिश्ना और तालमुद
  2. मिदराश
  3. लगभग आधुनिक इज़राइल और लेबनान
  4. ऐतिहासिक और बाइबिल विषयक साहित्य में विविध रूप से परिभाषित क्षेत्र, किंतु सदैव फ़िलीस्तीन से संबंधित
  5. अब दोनों सीरिया में
  6. वर्तमान ईराक तथा सीरिया
  7. आर्क: अलंकृत, सोने से जड़ी लकड़ी की तिजोरी, जिसमें बाइबिल काल में ईश्वर द्वारा मोजेज़ को दी गई क़ानून की दो पट्टिकाएँ रखी गई थीं
  8. कानान का क़स्बा
  9. बुक ऑफ़ किंग्स
  10. उत्तरी सीरिया का क्षेत्र
  11. चौथी शताब्दी से दूसरी शताब्दी ई. पू
  12. यहूदी पुरोहित परिवार
  13. ओल्ड टेस्टामेंट की पहली पाँच पुस्तकें
  14. प्रवक्ता या विवेचक
  15. हिब्रू शब्द, अर्थात 'प्राप्त करना' या धार्मिक परंपरा'

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