थियोसॉफिकल सोसायटी

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थियोसॉफिकल सोसायटी का प्रतीक चिह्न

थियोसॉफिकल सोसाइटी (अंग्रेज़ी: Theosophical Society) एक अंतर्राष्ट्रीय आध्यात्मिक संस्था है। थियोसोफिकल सोसाइटी की स्थापना 1875 में 'मैडम एच.पी.ब्लैवेत्स्की' और 'कर्नल एच.एस.आल्काट' ने अन्य सहयोगियों के साथ अमेरिका में की थी। सन् 1879 में इसका मुख्यालय मुंबई में स्थानांतरित हुआ तदुपरांत सन् 1882 में अंडयार (चेन्नई) में स्थापित हो गया। यह एक अन्तरराष्ट्रीय संस्था है, इसकी शाखाएँ 56 देशों में हैं। थियोसॉफी को 'ब्रह्म विद्या' भी कहते हैं।

उद्देश्य

थियोसॉफिकल सोसाइटी के तीन उद्देश्य हैं-

  1. जाति-धर्म, नर और नारी, वर्ण तथा रंग-भेद से रहित, मानवता के विश्व बंधुत्व का सजीव केन्द्र स्थापित करना।
  2. तुलनात्मक धर्म, दर्शन और विज्ञान के अध्ययन को प्रोत्साहन देना।
  3. प्रकृति के अज्ञात नियमों तथा मानव में अन्तर्निहित शक्तियों का अनुसंधान करना।

सोसाइटी के अध्यक्ष

इस सोसाइटी के प्रथम अध्यक्ष कर्नल एच.एस.आल्काट रहे। इसके बाद क्रमश: डॉ.एनी बेसेंट (1907-1933), डॉ.जी.एस.अरुन्डेल (1934–1945), सी.जिनराजदास (1946-1953), एन.श्रीराम (1953-1973), जॉन बी.एस.कोट्स (1973–1981) बने। वर्तमान में श्रीमती राधा बर्नियर 1982 से इस अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की अध्यक्ष हैं। किसी भी धर्म का व्यक्ति जो थियोसॉफी के तीन उद्देश्यों को अनुमोदित करता हो, इसका सदस्य हो सकता है। इस संस्था के सदस्यों की आपस में समानता किसी एक विश्वास की मान्यता पर आधरित न होकर समान रूप से सत्यान्वेषण की दिशा में चलने पर आधारित है। सोसाइटी के प्रतीक चिह्न पर लिखा है- "सत्यानास्ति परो धर्म:" (सत्य से बड़ा कोई धर्म नहीं है)।

भारत में प्रचार

भारत में इस आंदोलन की गतिविधियों को व्यापक रूप से फैलाने का श्रेय मिसेज एनी बेसेंट को दिया जाता है। 1891 ई. में एनी बेसेंट भारत आई थीं, भारतीय विचार व संस्कृति उनके रोम-रोम में बस गई थी। उन्होंने पहनावे, खान-पान, शिष्टाचार आदि से अपने को पूर्णतः भारतीय बना लिया था। भारत के प्रति अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए ही उन्होंने 1898 ई. में बनारस में ‘सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज’ की स्थापना की, जो आगे चलकर लगभग 1916 ई. में ‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय’ बन गया। आयरलैण्ड के ‘होमरूल लीग’ की तरह बेसेन्ट ने भारत में होमरूल लीग की स्थापना की।

मान्यताएँ

थियोसाफी जिसे ब्रह्म विद्या भी कहते हैं, उस सत्य का स्वरूप है जो सभी धर्मों का आधार है और उस सत्य पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता है। यह जीवन को बोधगम्य बनाने का दर्शन प्रस्तुत करती है, जिसके द्वारा न्याय तथा प्रेम का निरूपण या प्रगटीकरण होता है और जीवन के विकास का मार्ग निर्देशित होता है। थियोसॉफी के अनुसार मृत्यु भी न्यायसंगत है, क्योंकि इसके द्वारा जीवन की पुनरावृत्ति की क्रियाएँ तथा नये व पूर्ण जीवन हेतु कान्तिमय एवं उल्लासमय अस्तित्व में प्रवेश मिलता है। थियोसॉफी विश्व-आत्मा के विज्ञान का बोध कराती है। मनुष्य को बताती है कि वह स्वयं आत्म-तत्व है, मन व शरीर उसके वाहक हैं। यह सभी धर्मों के धार्मिक ग्रंथों तथा गूढ़ सत्यों को अनावृत्ति करके उसे बोधगम्य बनाती है, जो बुध्दि की पहुँच से परे है किन्तु उसे अन्त: प्रज्ञा द्वारा पुष्ट किया जा सकता है।

थियोसॉफिकल सोसाइटी के आधार स्तंभ

थियोसॉफिकल सोसाइटी के दो आधार स्तंभ हैं -

  1. बंधुत्व
  2. स्वतंत्रता

थियोसोफ़िकल सोसाइटी अपने सदस्यों पर विश्वास के रूप में अपना साहित्य, संसार के संबंध में अपना दृष्टिकोण या अन्य विचार नहीं थोपती है। इसमें कोई भी ऐसी मान्यताएँ तथा धारणाएँ नहीं है जिन्हें स्वीकार करना अनिवार्य हो। जो भी जिज्ञासु विश्व बंधुत्व में आस्था रखता है वही थियोसॉफिस्ट है। थियोसॉफी की ख़ास बात यह थी कि इनसे विश्वविख्यात दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति जुड़े हुए थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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