निम्बार्क संप्रदाय

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निम्बार्क संप्रदाय
निम्बार्काचार्य
विवरण 'निम्बार्क संप्रदाय' भारत के प्रमुख सम्प्रदायों में गिना जाता है। इस सम्प्रदाय का प्राचीन मन्दिर मथुरा में ध्रुव टीले पर स्थित बताया जाता है।
संस्थापक निम्बार्काचार्य
अन्य नाम 'सनकादि सम्प्रदाय', 'हंस सम्प्रदाय' तथा 'देवर्षि सम्प्रदाय'।
उपास्य देव राधा-कृष्ण की युगल छवि
व्यापकता निम्बार्क सम्प्रदाय के लोग विशेषकर उत्तर भारत में ही रहते हैं।
विशेष एफ. एस. ग्राउस ने लिखा है कि बाटी में उन्हें इसी संप्रदाय का एक बैरागी मिला था, जिसका नाम गोवर्धनदास था। उसे 'श्रीमद्भागवत गीता' कंठस्थ थी।
अन्य जानकारी इस संप्रदाय का सिद्धान्त 'द्वैताद्वैतवाद' कहलाता है। इसी को 'भेदाभेदवाद' भी कहा जाता है। भेदाभेद सिद्धान्त के आचार्यों में औधुलोमि, आश्मरथ्य, भतृ प्रपंच, भास्कर और यादव के नाम आते हैं।

निम्बार्क सम्प्रदाय के प्रवर्तक निम्बार्काचार्य कहे जाते हैं। इनमें गृहस्थ और विरक्त दोनों प्रकार के अनुयायी होते हैं। गुरुगद्दी के संचालक भी दोनों ही वर्गों में पाये जाते हैं, जो शिष्यों को मंत्रोपदेश करते हुए कृष्ण की भक्ति का प्रचार करते रहते है। आचार्य और भक्तगण प्राय: भजन-ध्यान एवं राधा-कृष्ण की युगल उपासना की ओर ही उन्मुख रहते हैं। यह सम्प्रदाय वैष्णव चतु:सम्प्रदाय की एक शाखा है। दार्शनिक दृष्टि से यह भेदाभेदवादी है। भेदाभेद और द्वैताद्वैत मत प्राय: एक ही हैं। इस मत के अनुसार द्वैत भी सत्य है और अद्वैत भी। इस मत के प्रधान आचार्य निम्बार्क माने जाते हैं, परन्तु यह मत अति प्राचीन है। इसे 'सनकादि सम्प्रदाय' भी कहा जाता है। मथुरा में स्थित ध्रुव टीले पर निम्बार्क संप्रदाय का प्राचीन मन्दिर बताया जाता है।[1]

अन्य नाम

इस संप्रदाय को 'हंस संप्रदाय', 'देवर्षि संप्रदाय', अथवा 'सनकादि संप्रदाय' भी कहा जाता है। मान्यता है कि सनकादि ऋषियों ने भगवान के हंसावतार से ब्रह्म ज्ञान की निगूढ़ शिक्षा ग्रहण करके उसका प्रथमोपदेश अपने शिष्य देवर्षि नारद को दिया था। इसके ऐतिहासिक प्रतिनिधि हुए निम्बार्काचार्य, इससे यह 'निम्बार्क संप्रदाय' कहलाता है।

सिद्धान्त

इस संप्रदाय का सिद्धान्त 'द्वैताद्वैतवाद' कहलाता है। इसी को 'भेदाभेदवाद' भी कहा जाता है। भेदाभेद सिद्धान्त के आचार्यों में औधुलोमि, आश्मरथ्य, भतृ प्रपंच, भास्कर और यादव के नाम आते हैं। इस प्राचीन सिद्धान्त को 'द्वैताद्वैत' के नाम से पुन: स्थापित करने का श्रेय निम्बार्काचार्य को जाता है। उन्होंने निम्न ग्रंथों की रचना की थी-

  • वेदान्त पारिजात-सौरभ
  • वेदान्त-कागधेनु
  • रहस्य षोडसी
  • प्रपन्न कल्पवल्ली
  • कृष्ण स्तोत्र

'वेदान्त पारिजात' 'सौरभ ब्रह्मसूत्र' पर निम्बार्काचार्य द्वारा लिखी गई टीका है। इसमें वेदान्त सूत्रों की संक्षिप्त व्याख्या द्वारा 'द्वैता-द्वैतव' सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है।

द्वैताद्वैत सिद्धान्त

इसके अनुसार ब्रह्म जीव से भिन्न भी है और अभिन्न भी। ब्रह्म सर्वज्ञ, विभु (व्यापक) और अच्युत स्वभाव है। जीव अल्पज्ञ और अणु है। इसे अर्थ में ब्रह्म जीव से भिन्न है। किन्तु जैसे पत्ते, प्रभा तथा इन्द्रियाँ पृथक् स्थिति रखते हुए भी क्रमश: वृक्ष, दीपक और प्राण से अभिन्न हैं, उसी प्रकार जीव भी ब्रह्म से अभिन्न है। ब्रह्म और जीव की यह अभिन्नता-भिन्नता ही द्वैताद्वैत सिद्धान्त का मूल तत्त्व है।

उपास्य देव

इस संप्रदाय के परमाराध्य और परमोपास्य युगल रूप राधा-कृष्ण हैं। श्रीकृष्ण सर्वेश्वर है और राधा सर्वेश्वरी। श्रीकृष्ण आनन्द स्वरूप है और राधा आल्हाद-स्वरूपिणी। राधा का स्वरूप श्रीकृष्ण के स्वरूप के सर्वथा अनुरूप माना गया है। धर्मोपासना में राधा की यह महत्ता निम्बार्क संप्रदाय में ही प्रथम बार स्वीकृति हुई थी। श्री निम्बार्काचार्य के दशश्लोकी के प्रसिद्ध श्लोक में राधा के इसी महत्तम स्वरूप का स्मरण किया गया है-

अंगे तु वामे वृषभानुजा मुदा विराजमाना मनुरूपसौभगा।
सख्यै सहस्त्रै: परिसेवितां सदा, स्मरेमि देवीं सकलेष्ट कामदां॥

इस संप्रदाय में राधाकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक सर्वेश्वर शालिग्राम की प्रमुख रूप से सेवा पूजा होती है। इस संप्रदाय का प्रमुख केन्द्र राजस्थान का सलेमाबाद है। मथुरा के ध्रुव टीला और नारद टीला नामक प्राचीन स्थलों पर इस संप्रदाय के मन्दिर और आचार्यों की समाधियाँ है। वृन्दावन इसका केन्द है।

ग्राउस का कथन

एफ. एस. ग्राउस ने लिखा है कि बाटी में उन्हें इसी संप्रदाय का एक बैरागी मिला था, जिसका नाम गोवर्धनदास था। उसे श्रीमद्भागवतगीता कंठस्थ थी। उसने बताया था कि संप्रदाय की प्रमुख गद्दी जोधपुर, राजस्थान में सलेमावाद में थी, जहाँ के गुसाईं के पास संप्रदाय के ग्रंथों का पुस्तकालय था। ग्रंथ थे 'सिद्धान्त रत्नांजलि', 'गिरिब्रज रत्नमाला', 'सेतुका', 'जान्हवी' और 'रत्न मंजूषा'। वह ग्रंथों के लेखकों के नाम नहीं बता सका और न वह सिद्धान्तों की व्याख्या बता सका। कोकिला वन के रामदास पंडित का ज़ोर इस एक बिन्दु पर था कि जो भी दृश्य-मान जगत् है, वह स्रष्टा की छाया मात्र है और इसलिये स्वतन्त्र अस्तित्व से वंचित एवं नि:सार होते हुए भी वह सत्य है। यह इन पंक्तियों से प्रमाणित होता है-

सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र मंडल, पर्वत और मैदान,
हे आत्मन्, क्या ये सब उसका दर्शन नहीं है
जो शास्ता है ? क्या वह दृश्य नहीं है ?
यद्यपि जैसा वह प्रतीत होता है वह न हो।
स्वप्न सत्य हैं जब तक वे अस्तित्व में रहते हैं
और क्या हम स्वप्नों में नहीं जीते ?
हममें जो देखने की शक्ति है, वह तालाब में
डूबी हुई एक सीधी लकड़ी है।


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टीका टिप्पणी और संदंर्भ

  1. हिन्दू धर्मकोश |लेखक: डॉ. राजबली पाण्डेय |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 368 |

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