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सौर सम्प्रदाय

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सौर सम्प्रदाय एक हिन्दू सम्प्रदाय था, जो गुप्त काल तथा मध्य काल में सम्पूर्ण भारत भर में फैला हुआ था। इसके सदस्य सूर्य की उपासना करते थे और उन्हें ही सर्वोच्च देवता मानते थे। सूर्य की पूजा भारतीयों द्वारा वैदिक काल से ही की जाती रही है, जिसका उद्देश्य पापों से मुक्ति पाना और आशीर्वाद प्राप्त करना था।

मान्यता

सौर सम्प्रदाय के अनुयायी अन्य सम्प्रदाय के भाँति ही विभिन्न ग्रन्थों का आशय सूर्यदेव की सर्वोच्चता की घोषणा के रूप में निकालते हैं। विश्वास किया जाता है कि मुक्ति पाने के लिए उदीयमान तथा अस्ताचलगामी सूर्य की आराधना करनी चाहिए। सूर्य के चिह्न (जैसे मस्तक पर गोलाकार लाल तिलक) धारण करने चाहिए और सूर्यदेव की स्तुति की जानी चाहिए।

प्राचीन तथ्य

इस सम्प्रदाय का ईरानी मिथ्र सम्प्रदाय से भी पहली शताब्दी जितना पुराना सम्बन्ध दृष्टिगत होता है। इसके बाद उत्तर भारतीय मन्दिरों में सूर्य को विशिष्ट उत्तर भारतीय वेशभूषा में दर्शाया गया है, जैसे जूते और कमर के आसपास करधनी या अव्यंग (आवेष्टन) पहने हुए। ‘मग’ लोग (ईरानी पुरोहित मागी) सूर्य देवता के विशिष्ट पुरोहित होते थे, जो हिन्दू जाति संरचना में ब्राह्मण माने जाते थे। मुल्तान में निर्मित मन्दिर, जो चंद्रभागा नदी (वर्तमान चिनाब नदी, अब पाकिस्तान में) पर बना है, सातवीं सदी में इस सम्प्रदाय का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था।

सूर्य स्तुति

यद्यपि सौर सम्प्रदाय अब भारत का प्रमुख सम्प्रदाय नहीं रहा, लेकिन सूर्य की स्तुति गायत्री मन्त्र का पाठ बहुत से हिन्दू धर्मावलंबियों की दैनिक क्रिया का भाग है। सूर्य को स्मार्त सम्प्रदाय के पंच महादेवों में विष्णु, शिव, शक्ति और गणेश के साथ प्रतिष्ठित किया गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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