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वर्तमान [[द्वारिकाधीश मन्दिर मथुरा|द्वारिकाधीश मन्दिर]] के पीछे माणिक चौक में वराह जी के दो मन्दिर हैं ।
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[[उत्तर प्रदेश]] राज्य के [[मथुरा]] नगर में वर्तमान [[द्वारिकाधीश मन्दिर मथुरा|द्वारिकाधीश मन्दिर]] के पीछे माणिक चौक में वराह जी के दो मन्दिर हैं।
*एक में कृष्णवराह मूर्ति और
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#एक में कृष्णवराह मूर्ति
*दूसरे में श्वेतवराह मूर्ति का दर्शन है ।
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#दूसरे में श्वेतवराह मूर्ति।
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ब्रह्मकल्प के स्वायम्भुव [[मन्वन्तर]] में [[ब्रह्मा]] जी के नासिका छिद्र में से कृष्णवराह का जन्म हुआ था। ये चतुष्पाद वराह मूर्ति थे। इन्होंने रसातल से [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] देवी को अपने दाँतों पर रखकर उद्धार किया था।
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चाक्षुस मन्वन्तर में [[समुद्र]] के [[जल]] से श्वेत वराह का आविर्भाव हुआ था। उनका मुखमण्डल वराह के समान और नीचे का अंग मनुष्य का था। इन्हें नृवराह भी कहते हैं। इन्होंने [[हिरण्याक्ष]] का वध और [[पृथ्वी ग्रह|पृथ्वी]] का उद्धार किया था।
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==कथा==
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[[सत युग]] के प्रारम्भ में [[कपिल मुनि|कपिल]] नामक एक ब्राह्मण ऋषि थे। वे भगवान आदिवराह के उपासक थे। देवराज [[इन्द्र]] ने उस ब्राह्मण को प्रसन्न कर पूजा करने के लिए उक्त वराह–विग्रह को स्वर्ग में लाकर प्रतिष्ठित किया। पराक्रमी [[रावण]] ने इन्द्र को पराजित कर उस वराह विग्रह को स्वर्ग से लाकर [[लंका]] में स्थापित किया। भगवान श्री [[राम]] चन्द्र ने निर्विशेषवादी [[रावण]] का वध कर उक्त मूर्ति को [[अयोध्या]] के अपने राजमहल में स्थापित किया। महाराज [[शत्रुघ्न]] [[लवणासुर]] का वध करने के लिए प्रस्थान करते समय उक्त वराह मूर्ति को ज्येष्ठ भ्राता श्रीरामचन्द्र जी से माँगकर अपने साथ लाये और [[लवणासुर]] वध के पश्चात् मथुरापुरी में उक्त मूर्ति को प्रतिष्ठित किया। यहाँ वराह जी की श्री मूर्ति दर्शनीय हैं। इसके अतिरिक्त भी बहुत से दर्शनीय स्थान हैं जिनका [[पुराण]] आदि में उल्लेख तो हैं, किन्तु अधिकांश स्थान आज लुप्त है।
  
==कृष्णवराह मूर्ति==
 
ब्रह्मकल्प के स्वायम्भुव [[मन्वन्तर]] में [[ब्रह्मा]] जी के नासिका छिद्र में से कृष्णवराह का जन्म हुआ था । ये चतुष्पाद वराह मूर्ति थे । इन्होंने रसातल से [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] देवी को अपने दाँतों पर रखकर उद्धार किया था।
 
  
==श्वेत वराह==
 
चाक्षुस मन्वन्तर में समुद्र के जल से श्वेत वराह का आविर्भाव हुआ था । उनका मुखमण्डल वराह के समान और नीचे का अंग मनुष्य का था । इन्हें नृवराह भी कहते हैं । इन्होंने [[हिरण्याक्ष]] का वध और पृथ्वी का उद्धार किया था ।
 
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[[सत युग]] के प्रारम्भ में [[कपिल मुनि|कपिल]] नामक एक ब्राह्मण ऋषि थे । वे भगवान आदिवराह के उपासक थे । देवराज [[इन्द्र]] ने उस ब्राह्मण को प्रसन्न कर पूजा करने के लिए उक्त वराह–विग्रह को स्वर्ग में लाकर प्रतिष्ठित किया । पराक्रमी [[रावण]] ने इन्द्र को पराजित कर उस वराह विग्रह को स्वर्ग से लाकर लंका में स्थापित किया । भगवान श्री [[राम]] चन्द्र ने निर्विशेषवादी [[रावण]] का वध कर उक्त मूर्ति को [[अयोध्या]] के अपने राजमहल में स्थापित किया । महाराज [[शत्रुघ्न]] [[लवणासुर]] का वध करने के लिए प्रस्थान करते समय उक्त वराह मूर्ति को ज्येष्ठ भ्राता श्रीरामचन्द्र जी से माँगकर अपने साथ लाये और [[लवणासुर]] वध  के पश्चात मथुरापुरी में उक्त मूर्ति को प्रतिष्ठित किया । यहाँ वराह जी की श्री मूर्ति दर्शनीय हैं । इसके अतिरिक्त भी बहुत से दर्शनीय स्थान हैं जिनका [[पुराण]] आदि में उल्लेख तो हैं, किन्तु अधिकांश स्थान आज लुप्त है ।
 
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07:47, 23 जून 2017 के समय का अवतरण

उत्तर प्रदेश राज्य के मथुरा नगर में वर्तमान द्वारिकाधीश मन्दिर के पीछे माणिक चौक में वराह जी के दो मन्दिर हैं।

  1. एक में कृष्णवराह मूर्ति
  2. दूसरे में श्वेतवराह मूर्ति।

कृष्णवराह मूर्ति

ब्रह्मकल्प के स्वायम्भुव मन्वन्तर में ब्रह्मा जी के नासिका छिद्र में से कृष्णवराह का जन्म हुआ था। ये चतुष्पाद वराह मूर्ति थे। इन्होंने रसातल से पृथ्वी देवी को अपने दाँतों पर रखकर उद्धार किया था।

श्वेतवराह मूर्ति

चाक्षुस मन्वन्तर में समुद्र के जल से श्वेत वराह का आविर्भाव हुआ था। उनका मुखमण्डल वराह के समान और नीचे का अंग मनुष्य का था। इन्हें नृवराह भी कहते हैं। इन्होंने हिरण्याक्ष का वध और पृथ्वी का उद्धार किया था।

कथा

सत युग के प्रारम्भ में कपिल नामक एक ब्राह्मण ऋषि थे। वे भगवान आदिवराह के उपासक थे। देवराज इन्द्र ने उस ब्राह्मण को प्रसन्न कर पूजा करने के लिए उक्त वराह–विग्रह को स्वर्ग में लाकर प्रतिष्ठित किया। पराक्रमी रावण ने इन्द्र को पराजित कर उस वराह विग्रह को स्वर्ग से लाकर लंका में स्थापित किया। भगवान श्री राम चन्द्र ने निर्विशेषवादी रावण का वध कर उक्त मूर्ति को अयोध्या के अपने राजमहल में स्थापित किया। महाराज शत्रुघ्न लवणासुर का वध करने के लिए प्रस्थान करते समय उक्त वराह मूर्ति को ज्येष्ठ भ्राता श्रीरामचन्द्र जी से माँगकर अपने साथ लाये और लवणासुर वध के पश्चात् मथुरापुरी में उक्त मूर्ति को प्रतिष्ठित किया। यहाँ वराह जी की श्री मूर्ति दर्शनीय हैं। इसके अतिरिक्त भी बहुत से दर्शनीय स्थान हैं जिनका पुराण आदि में उल्लेख तो हैं, किन्तु अधिकांश स्थान आज लुप्त है।


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