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कृष्ण का अंतिम समय

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कृष्ण विषय सूची
संक्षिप्त परिचय
कृष्ण का अंतिम समय
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अन्य नाम वासुदेव, मोहन, द्वारिकाधीश, केशव, गोपाल, नंदलाल, बाँके बिहारी, कन्हैया, गिरधारी, मुरारी, मुकुंद, गोविन्द, यदुनन्दन, रणछोड़ आदि
अवतार सोलह कला युक्त पूर्णावतार (विष्णु)
वंश-गोत्र वृष्णि वंश (चंद्रवंश)
कुल यदुकुल
पिता वसुदेव
माता देवकी
पालक पिता नंदबाबा
पालक माता यशोदा
जन्म विवरण भाद्रपद, कृष्ण पक्ष, अष्टमी
समय-काल महाभारत काल
परिजन रोहिणी (विमाता), बलराम (भाई), सुभद्रा (बहन), गद (भाई)
गुरु संदीपन, आंगिरस
विवाह रुक्मिणी, सत्यभामा, जांबवती, मित्रविंदा, भद्रा, सत्या, लक्ष्मणा, कालिंदी
संतान प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, सांब
विद्या पारंगत सोलह कला, चक्र चलाना
रचनाएँ 'गीता'
शासन-राज्य द्वारिका
संदर्भ ग्रंथ 'महाभारत', 'भागवत', 'छान्दोग्य उपनिषद'।
मृत्यु पैर में तीर लगने से।
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प्रभास के यादव युद्ध में चार प्रमुख व्यक्तियों ने भाग नहीं लिया, जिससे वे बच गये, ये थे- कृष्ण, बलराम, दारुक सारथी और वभ्रु। बलराम दु:खी होकर समुद्र की ओर चले गये और वहाँ से फिर उनका पता नहीं चला। कृष्ण बड़े मर्माहत हुए। वे द्वारका गये और दारुक को अर्जुन के पास भेजा कि वह आकर स्त्री-बच्चों को हस्तिनापुर लिवा ले जायें। कुछ स्त्रियों ने जलकर प्राण दे दिये।

अर्जुन आये और शेष स्त्री-बच्चों को लिवा कर चले।[1] कहते हैं कि मार्ग में पश्चिमी राजपूताना के जंगली आभीरों से अर्जुन को मुक़ाबला करना पड़ा। कुछ स्त्रियों को आभीरों ने लूट लिया।[2] शेष को अर्जुन ने शाल्व देश और कुरु देश में बसा दिया। कृष्ण शोकाकुल होकर घने वन में चले गये थे। वे चिंतित हो लेटे हुए थे कि 'जरा' नामक एक बहेलिये ने हिरण के भ्रम से तीर मारा। वह बाण श्रीकृष्ण के पैर में लगा, जिससे शीघ्र ही उन्होंने इस संसार को छोड़ दिया। मृत्यु के समय वे संभवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर थे। कृष्ण के देहांत के बाद द्वापर युग का अंत और कलियुग का आरंभ हुआ।

श्रीकृष्ण के अंत का इतिहास वास्तव में यादव गणतंत्र के अंत का इतिहास है। कृष्ण के बाद उनके प्रपौत्र बज्र यदुवंश के उत्तराधिकारी हुए। पुराणों के अनुसार वे मथुरा आये और इस नगर को उन्होंने अपना केन्द्र बनाया। कहीं-कहीं उन्हें इन्द्रप्रस्थ का शासक कहा गया है।

श्रीमद्भागवत महापुराण का उल्लेख

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[3] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! बलरामजी ने समुद्र तट पर बैठकर एकाग्र-चित्त से परमात्मचिन्तन करते हुए अपने आत्मा को आत्मस्वरूप में ही स्थिर कर लिया और मनुष्य शरीर छोड़ दिया। जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरे बड़े भाई बलरामजी परमपद में लीन हो गये, तब वे एक पीपल के पेड़ के तले जाकर चुपचाप धरती पर ही बैठ गये। भगवान श्रीकृष्ण ने उस समय अपनी अंगकान्ति से देदीप्यमान चतुर्भुत रूप धारण कर रखा था और धूम से रहित अग्नि के समान दिशाओं को अन्धकार रहित-प्रकाशमान बना रहे थे। वर्षा कालीन मेघ के समान साँवले शरीर से तपे हुए सोने के समान ज्योति निकल रही थी। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह शोभायमान था। वे रेशमी पीताम्बर की धोती और वैसा ही दुपट्टा धारण किये हुए थे। बड़ा ही मंगलमय रूप था। मुखकमल पर सुन्दर मुसकान और कपोलों पर नीली-नीली अलकें बड़ी ही सुहावनी लगती थीं। कमल के समान सुन्दर-सुन्दर एवं सुकुमार नेत्र थे। कानों में मकराकृत कुण्डल झिलमिला रहे थे। कमर में करधनी, कंधे पर यज्ञोपवीत, माथे पर मुकुट, कलाइयों में कंगन, बाँहों में बाजूबंद, वक्षःस्थल पर हार, चरणों में नूपुर, अँगुलियों में अँगूठियाँ और गले में कौस्तुभमणि शोभायमान हो रही थी। घुटनों तक वनमाला लटकी हुई थी। शंख, चक्र, गदा आदि आयुध मुर्तिमान होकर प्रभु की सेवा कर रहे थे। उस समय भगवान अपनी दाहिनी जाँघ पर बायाँ चरण रखकर बैठे हुए थे, लाल-लाल तलवा रक्त कमल के समान चमक रहा था।

परीक्षित! जरा नाम का एक बहेलिया था। उसने मूसल के बचे हुए टुकड़े से अपने बाण की गाँसी बना ली थी। उसे दूर से भगवान का लाल-लाल तलवा हरिन के मुख के समान जान पड़ा। उसने उसे सचमुच हरिन समझकर अपने उसी बाण से बींध दिया। जब वह पास आया, तब उसने देखा कि "अरे! ये तो चतुर्भुज पुरुष हैं।" अब तो वह अपराध कर चुका था, इसलिये डर के मारे काँपने लगा और दैत्यदलन भगवान श्रीकृष्ण के चरणों पर सिर रखकर धरती पर गिर पड़ा। उसने कहा- "हे मधुसुदन! मैंने अनजान में यह पाप किया है। सचमुच मैं बहुत बड़ा पापी हूँ; परन्तु आप परमयशस्वी और निर्विकार हैं। आप कृपा करके मेरा अपराध क्षमा कीजिये। सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान प्रभो! महात्मा लोग कहा करते हैं कि आपके स्मरण मात्र से मनुष्यों का अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है। बड़े खेद की बात है कि मैंने स्वयं आपका ही अनिष्ट कर दिया। वैकुण्ठनाथ! मैं निरपराध हरिणों को मारने वाला महापापी हूँ। आप मुझे अभी-अभी मार डालिये, क्योंकि मर जाने पर मैं फिर कभी आप-जैसे महापुरुषों का ऐसा अपराध न करूँगा। भगवन! सम्पूर्ण विद्याओं के पारदर्शी ब्रह्माजी और उनके पुत्र रुद्र आदि भी आपकी योग माया का विलास नहीं समझ पाते; क्योंकि उनकी दृष्टि भी आपकी माया से आवृत है। ऐसी अवस्था में हमारे-जैसे पापयोनि लोग उसके विषय में कह ही क्या सकते हैं?"

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- "हे जरे! तू डर मत, उठ-उठ! यह तो तूने मेरे मन मन का काम किया है। जा, मेरी आज्ञा से तू उस स्वर्ग में निवास कर, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े पुण्यवानों को होती है।" श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण तो अपनी इच्छा से शरीर धारण करते हैं। जब उन्होंने जरा व्याध को यह आदेश दिया, तब उसने उनकी तीन बार परिक्रमा की, नमस्कार किया और विमान पर सवार होकर स्वर्ग को चला गया। भगवान श्रीकृष्ण का सारथि दारुक उनके स्थान का पता लगाता हुआ उनके द्वारा धारण की हुई तुलसी की गन्ध से युक्त वायु सूँघकर और उससे उनके होने के स्थान का अनुमान लगाकर सामने की ओर गया।

दारुक ने वहाँ जाकर देखा कि भगवान श्रीकृष्ण पीपल के वृक्ष के नीचे आसन लगाये बैठे हैं। असह्य तेज वाले आयुध मुर्तिमान होकर उनकी सेवा में संलग्न हैं। उन्हें देखकर दारुक के हृदय में प्रेम की बाढ़ आ गयी। नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी। वह रथ से कूदकर भगवान के चरणों पर गिर पड़ा। उसने भगवान से प्रार्थना की- "प्रभो! रात्रि के समय चन्द्रमा के अस्त हो जाने पर राह चलने वाले की जैसी दशा हो जाती है, आपके चरणकमलों का दर्शन न पाकर मेरी भी वैसी ही दशा हो गयी है। मेरी दृष्टि नष्ट हो गयी है, चारों ओर अँधेरा छा गया है। अब न तो मुझे दिशाओं का ज्ञान है और न मेरे हृदय में शान्ति ही है।" परीक्षित! अभी दारुक इस प्रकार कह ही रहा था कि उसके सामने ही भगवान का गरुड़ ध्वज रथ पताका और घोड़ों के साथ आकाश में उड़ गया। उसके पीछे-पीछे भगवान के दिव्य आयुध भी चले गये। यह सब देखकर दारुक के आश्चर्य की सीमा न रही। तब भगवान ने उससे कहा- "दारुक! अब तुम द्वारका चले जाओ और वहाँ यदुवंशियों के पारस्परिक संहार, भैया बलरामजी की परम गति और मेरे स्वधाम-गमन की बात कहो। उनसे कहना कि "अब तुम लोगों को अपने परिवार वालों के साथ द्वारका में नहीं रहना चाहिये। मेरे न रहने पर समुद्र उस नगरी को डुबो देगा। सब लोग अपनी-अपनी धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब और मेरे माता-पिता को लेकर अर्जुन के संरक्षण में इन्द्रप्रस्थ चले जायँ। दारुक! तुम मेरे द्वारा उपदिष्ट भागवत धर्म का आश्रय लो और ज्ञाननिष्ठ होकर सबकी उपेक्षा कर दो तथा इस दृश्य को मेरी माया की रचना समझकर शान्त हो जाओ।" भगवान का यह आदेश पाकर दारुक ने उनकी परिक्रमा की और उनके चरणकमल अपने सिर पर रखकर बारम्बार प्रणाम किया। तदनन्तर वह उदास मन से द्वारका के लिये चल पड़ा।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संभवत: इस अवसर पर अर्जुन की कृष्ण से भेंट न हो सकी। कृष्ण पहले ही द्वारका छोड़ गये होंगे। महाभारत (16,7) में श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव से अर्जुन के मिलने का उल्लेख है, जिससे पता चलता है कि वसुदेव इस समय तक जीवित थे। इसके बाद वसुदेव की मृत्यु तथा उनके साथ चार विधवा पत्नियों के चितारोहण का कथन मिलता है।
  2. महाभारत 16,8,60; ब्रह्म. 212,26।
  3. एकादश स्कन्ध, अध्याय 30, श्लोक 26-50

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