चाणक्य के अनमोल वचन

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
चाणक्य के अनमोल वचन
  • हाथ की शोभा दान से है। सिर की शोभा अपने से बड़ों को प्रणाम करने से है। मुख की शोभा सच बोलने से है। दोनों भुजाओं की शोभा युद्ध में वीरता दिखाने से है। हृदय की शोभा स्वच्छता से है। कान की शोभा शास्त्र के सुनने से है। यही ठाट बाट न होने पर भी सज्जनों के भूषण हैं।
  • प्रेम करने वाला पड़ोसी दूर रहने वाले भाई से कहीं उत्तम है।
  • समुद्रों में वृष्टि निरर्थक है, तृप्तों को भोजन देना वृथा है, धनाढ्यों को धन देना तथा दिन के समय दिए का जला लेना निरर्थक है।
  • जो विद्या पुस्तक में रखी हो, मस्तिष्क में संचित हो और जो धन दूसरे के हाथ में चला गया हो, आवश्यकता पड़ने पर न वह विद्या ही काम आ सकती है और न वह धन ही।
  • आंख के अंधे को दुनिया नहीं दिखती, काम के अंधे को विवेक नहीं दिखता, मद के अंधे को अपने से श्रेष्ठ नहीं दिखता और स्वार्थी को कहीं भी दोष नहीं दिखता।
  • ईश्वर न तो काष्ठ में विद्यमान रहता है, न पाषाण में और न ही मिट्टी की मूर्ति में। वह तो भावों में निवास करता है।
  • फल मनुष्य के कर्म के अधीन है, बुद्धि कर्म के अनुसार आगे बढ़ने वाली है, फिर भी विद्वान् और महात्मा लोग अच्छी तरह से विचार कर ही कोई कर्म करते हैं।
  • बुद्धिमान को चाहिए कि वह धन का नाश, मन का संताप, घर के दोष, किसी के द्वारा ठगा जाना और अमानित होना-इन बातों को किसी के समक्ष न कहे।
  • जिस गुण का दूसरे लोग वर्णन करते हैं उससे निर्गुण भी गुणवान होता है।
  • स्वयं अपने गुणों का बखान करने से इंद्र भी छोटा हो जाता है।
  • गुणों से ही मनुष्य महान् होता है, ऊंचे आसन पर बैठने से नहीं। महल के कितने भी ऊंचे शिखर पर बैठने से भी कौआ गरुड़ नहीं हो जाता।
  • गुण की पूजा सर्वत्र होती है, बड़ी संपत्ति की नहीं, जिस प्रकार पूर्ण चंद्रमा वैसा वंदनीय नहीं है जैसा निर्दोष द्वितीया का क्षीण चंद्रमा।
  • भली स्त्री से घर की रक्षा होती है।
  • पानी में तेल, दुर्जन में गुप्त बात, सत्पात्र में दान और विद्वान् व्यक्ति में शास्त्र का उपदेश थोड़ा भी हो, तो स्वयं फैल जाता।
  • तब तक ही भय से डरना चाहिए जब तक कि वह पास नहीं आ जाता। परंतु भय को अपने निकट देखकर प्रहार करके उसे नष्ट करना ही ठीक है।
  • ब्रह्मा ज्ञानी को स्वर्ग तृण है, शूर को जीवन तृण है, जिसने इंद्रियों को वश में किया उसको स्त्री तृण-तुल्य जान पड़ती है, निस्पृह को जगत् तृण है।
  • जिस देश में मान नहीं, जीविका नहीं, बंधु नहीं और विद्या का लाभ भी नहीं है, वहां नहीं रहना चाहिए।
  • दूसरों की सुन लो, लेकिन अपना फैसला गुप्त रखो।
  • दूध का आश्रय लेने वाला पानी दूध हो जाता है।
  • धीरज होने से दरिद्रता भी शोभा देती है, धुले हुए होने से जीर्ण वस्त्र भी अच्छे लगते हैं, घटिया भोजन भी गर्म होने से सुस्वादु लगता है और सुंदर स्वाभाव के कारण कुरूपता भी शोभा देती है।
  • तीर्थों के सेवन का फल समय आने पर मिलता है, किंतु सज्जनों की संगति का फल तुरंत मिलता है।
  • यदि तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे गुणों की प्रशंसा करें तो दूसरे के गुणों को मान्यता दो।
  • मेहनत वह चाबी है जो किस्मत का दरवाज़ा खोल देती है।
  • जो प्रकृति से ही महान् हैं उनके स्वाभाविक तेज को किसी (शारीरिक) ओज-प्रकाश की अपेक्षा नहीं रहती।
  • प्रजा के सुख में ही राजा का सुख और प्रजाओं के हित में ही राजा को अपना हित समझना चाहिए। आत्मप्रियता में राजा का अपना हित नहीं है, प्रजाओं की प्रियता में ही राजा का हित है।
  • कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, विद्या ही उसे पूजनीय बनाती है।
  • जहां मूर्खों की पूजा नहीं होती, जहां धान्य भविष्य के लिए संग्रहीत किया हुआ है, जहां स्त्री-पुरुष में कलह नहीं होती- वहां मानो लक्ष्मी स्वयमेव आई हुई है।
  • मर्यादा का उल्लंघन कभी मत करो।
  • शांति के समान दूसरा तप नहीं है, न संतोष से परे सुख है, तृष्णा से बढ़कर दूसरी व्याधि नहीं है, न दया से अधिक धर्म है।
  • सज्जनों का सत्संग ही स्वर्ग में निवास के समान है।
  • समृद्धि व्यक्तित्व की देन है, भाग्य की नहीं।
  • अपमानपूर्वक जीने से अच्छा है प्राण त्याग देना। प्राण त्यागने में कुछ समय का दु:ख होता है, लेकिन अपमानपूर्वक जीने में तो प्रतिदिन का दु:ख सहना होता है।
  • सुख चाहने वाले को विद्या और विद्या चाहने वाले को सुख कहां? सुख चाहने वाले को विद्या और विद्यार्थी को सुख की कामना छोड़ देनी चाहिए।
  • शांति जैसा तप नहीं है, संतोष से बढ़कर सुख नहीं है, तृष्णा से बढ़कर रोग नहीं है और दया से बढ़कर धर्मा नहीं है।

इन्हें भी देखें: अनमोल वचन, कहावत लोकोक्ति मुहावरे एवं सूक्ति और कहावत

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख