वात्स्यायन

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वात्स्यायन विश्वविख्यात 'कामसूत्र' ग्रन्थ के रचयिता थे जिनका समय तीसरी शताब्दी ई.पू. माना जाता है। इनका नाम 'मल्लनाग' था, किन्तु ये अपने गोत्रनाम ‘वात्स्यायन’ के रूप में ही विख्यात हुए। कामसूत्र में जिन प्रदेशों के रीति-रिवाजों का विशेष उल्लेख किया गया है, उनसे यह अनुमान लगाया जाता है कि, वात्स्यायन पश्चिम अथवा दक्षिण भारत के निवासी रहे होंगे। कामसूत्र के अन्तिम श्लोक से यह जानकारी मिलती है कि, वात्स्यायन ब्रह्मचारी थे। कामसूत्र काम विषयक विश्व की बेजोड़ रचना है। पंचतंत्र में इन्हें 'वैद्यकशास्त्रज्ञ' बताया गया है। मधुसूदन शास्त्री ने कामसूत्रों को आयुर्वेदशास्त्र के अन्तर्गत माना है। वात्स्यायन ने प्राचीन भारतीय विचारों के अनुरूप, काम को पुरुषार्थ माना है। अत: धर्म व अर्थ के साथ ही मनुष्य को काम (पुरुषार्थ) की साधना कर जितेन्द्रिय बनना चाहिए।

जीवन परिचय

वाचस्पतिमिश्र के अनुसार वात्स्यायन नाम से प्रसिद्ध न्यायभाष्य के कर्ता का असली नाम पक्षिलस्वामिन् है, तथा ' वात्स्यायन' नाम पिता के नाम से व्युत्पादित है। विद्याभूषण का कहना है कि वात्स्यायन का नाम 'द्रामिल' (या द्राविड) था। लेकिन विद्याभूषण ने द्रामिल नाम की पुष्टि के लिए अभिधान चिंतामणि से जो श्लोक उद्धृत किया है, उसमें अर्थशास्त्रकार चाणक्य, कामसूत्रकार वात्स्यायन तथा न्यायभाष्यकार वात्स्यायन इन तीनों में भेद नहीं किया गया है।

वात्स्यायन, गौतम के समकालीन या निकट अनुवर्ती नहीं थे, बल्कि अनुमानत:, गौतम के दो तीन शतकों के बाद हुए। जाकोबी ने यह बात स्पष्ट की है कि न्यायसूत्र में अनुमान का वर्गीकरण करने वाला जो सूत्र है[1] उसके अर्थ का निर्णय करने में वात्स्यायन को कठिनाई हुई थी। इसलिए वात्स्यायन ने उसके अर्थ निर्णय के बारे में कई पर्याय प्रस्तुत किए थे। इसका अर्थ यह हो सकता है कि गौतम के समय में अनुमान के वर्गीकरण की जो परम्परा चली आयी थी, वह गौतम के बाद खंडित हुई, और वात्स्यायन तक अपने मूलरूप में पहुँच न सकी। इस प्रकार गौतम को अगर दूसरी सदी में बिठाया जाए, तो वात्स्यायन का काल चौथी या पांचवी सदी हो सकता है। वात्स्यायन के समय के बारे में विद्वानों में चर्चा जारी है। कई विद्वानों ने वात्स्यायन का काल छठी शताब्दी निश्चित किया है, तो दूसरे कई विद्वानों ने पांचवी सदी। इन दोनों मर्यादाओं के बीच वात्स्यायन का काल अलग अलग विद्वानों ने माना है। उपर्युक्त सबूत से वात्स्यायन का काल ख्रिस्तोत्तर पांचवी सदी के ही नजदीक पहुँचता है।

न्यायभाष्य

विद्वानों ने यह स्पष्ट किया है कि पतंजलि के व्याकरण महाभाष्य से वात्स्यायन अच्छी तरह से परिचित थे, तथा महाभाष्य की शैली का प्रभाव भी न्यायभाष्य में दृष्टिगोचर होता है। विंडिश ने माना है कि वात्स्यायन का यह न्यायभाष्य पूर्णतया वात्स्यायन का [2] नहीं है, बल्कि उसी में एक वार्तिक ग्रन्थ छिपा हुआ है। यह वार्तिक ग्रन्थ प्राचीन है और उसकी शैली व्याकरण महाभाष्य की शैली में मिलती है। हमारे सामने आज जो न्यायभाष्य है, उसके रचयिता ने उपलब्ध वार्तिक ग्रन्थ का अपने ही भाष्यग्रन्थ में समावेश कर दिया। वात्स्यायन ने न्यायभाष्य लिखते हुए गौतम प्रणीत न्यायदर्शन का एक विस्तृत चित्र हमारे सामने रखा है। उन्होंने केवल गौतम का अनुवाद तथा विवरण ही किया है, ऐसी बात नहीं है। विवरण करते करते उन्होंने न्यायदर्शन को आगे भी बढ़ाया है।

वात्स्यायन का योगदान

जिस प्रकार वैशेषिक दर्शन के बारे में हम कह सकते हैं कि कणाद के सूत्रों में जो ईश्वरवाद कहीं नहीं दिखाई देता है, वह प्रशस्तपाद के भाष्य में दृष्टिगोचर होता है, उसी प्रकार न्यायदर्शन के बारे में जो हम कह सकते हैं कि ईश्वरवाद गौतम के न्यायदर्शन में कहीं भी स्पष्ट नहीं है (बल्कि अन्य कई प्रमाणों से गौतम ईश्वरवादी नहीं थे, यह भी प्रतीत होता है), लेकिन वात्स्यायन के न्यायभाष्य में यह स्पष्ट होता है कि वात्स्यायन ने न्यायदर्शन को ईश्वरवादी मोड़ दिया। वात्स्यायन के बाद न्यायदर्शन हमेशा ईश्वरवादी दर्शन ही रहा है। न्यायसूत्र [3] के वात्स्यायनभाष्य में वात्स्यायन का यह ईश्वरवाद स्पष्ट हुआ है।

प्रथम योगदान

वात्स्यायन के अनुसार इस विवेचन में पूर्वपक्षी कोई वेदांती जैसा है, जो ईश्वर को उपादान कारण मानता है। पूर्वपक्षी मानता है कि मनुष्य के कर्मों का फल उसे हमेशा मिलता ही हो, ऐसी बात नहीं है, इसलिए उसका फल पराधीन मानना चाहिए। वह फल जिसके अधीन है, वही ईश्वर है। लेकिन वात्स्यायन उत्तरपक्ष में कहता है कि अगर फल प्राप्ति ईश्वर के अधीन है, तो मनुष्य के प्रयत्न के बिना ही फल मिल सकता है। इसलिए फल प्राप्ति के लिए सिर्फ़ ईश्वर को ही ज़िम्मेदार ठहराना ग़लत है। वस्तुत: मनुष्य अगर प्रयत्न करेगा, तभी ईश्वर उसे फल प्रदान करेगा। इस प्रकार फल देने वाला ईश्वर तो मानना ही चाहिए, लेकिन उसे उपादान कारण जैसा समझना ग़लत है। ईश्वर जीवत्माओं से अलग एक विशेष प्रकार की आत्मा है। वह आप्त है, तथा हम सब लोगों का पिता है। वह द्रष्टा, बोद्धा, सर्वज्ञ है। धर्म, ज्ञान तथा समाधि इस ईश्वर की संपत्ति है। अणिमा, गरिमा आदि सिद्धियाँ इस ईश्वर का ऐश्वर्य है। उसमें जो 'धर्म' है, उसी से जीवात्माओं में रहने वाले धर्म, अधर्म तथा पृथ्वी आदि महाभूत प्रवृत्त होते हैं, क्रियाशील होते हैं।

दूसरा योगदान

वात्स्यायन का दूसरा योगदान यह है कि वात्स्यायन ने न्यायदर्शन में वैशेषिक पदार्थों का अंतर्भाव करने का प्रयास किया। वात्स्यायन के बाद वैशेषिकों का सत्ताशास्त्र स्वीकृत करने की यह परम्परा भी न्यायदर्शन में चल पड़ी। धीरे धीरे 'न्याय-वैशेषिक' एक अभिन्न दर्शन ही बन गया। गौतम के न्यायसूत्र में हम देखते हैं कि वैशेषिक दर्शन का कहीं पर भी निर्देश नहीं है। गौतम ने अपने सौलह तत्वों की सूची में प्रमेय तत्व का समावेश किया था। लेकिन यह प्रमेय तत्व वैशेषिकों के छ: पदार्थों से बहुत ही भिन्न था। गौतम के प्रमेयों की सूची मोक्षोपयोगी तत्वों की सूची थी, वह 'विश्व के घटकों की' सूची के रूप में नहीं प्रस्तुत हुई थी। लेकिन वैशिकों की पदार्थ सूची विश्व के घटकों की सूची के रूप में ही प्रस्तुत की गई थी। वात्स्यायन ने गौतम के प्रमेय की यह विशिष्ट कल्पना ध्यान में रखते हुए भी वैशेषिकों की पदार्थ सूची इस प्रमेय सूची के साथ जोड़ दी, और कहा कि 'द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य विशेष तथा समवाय भी प्रमेय हैं, जो गौतमोक्त प्रमेय से सर्वथा अलग नहीं किए जा सकते। लेकिन गौतमोक्त प्रमेयों के यथार्थ ज्ञान से मोक्ष होगा तथा अयथार्थज्ञान से संसार, इसलिए गौतम ने विशेषतत् इन्हीं प्रमेयों का निर्देश किया है'। [4]

नैयायिकों की मोक्ष कल्पना का विचार करते हुए भी वात्स्यायन ने वैशेषिकों का ही अनुसरण किया है। 'तदत्यन्ततिमोक्षोऽपवर्ग:'- इस सूत्र की व्याख्या करते हुए वात्स्यायन ने स्पष्ट रूप से कहा है कि 'आत्मा को मोक्ष के समय निरतिशय नित्य सुख का अनुभव होता है, और इस प्रकार मुक्त आत्मा सुखी होता है', ऐसा कई दार्शनिक मानते हैं, लेकिन उनके मत की पुष्टि के लिए कोई प्रमाण नहीं है। आत्मा में नित्य सुख है, लेकिन उसका संवेदन नहीं हो रहा – यह संभव नहीं है। अगर सुख है तो उसका संवेदन भी अवश्यंभावही है। लेकिन ऐसा मानने से संसारी आत्मा को भी नित्यसुखी मानना पड़ेगा तथा मुक्त आत्मा और संसारी आत्मा में 'नित्यसुख' एक कल्पनामात्र है। नित्यसुख का अगर नित्य अनुभव नहीं होता तो इसका अर्थ है, नित्यसुख है ही नहीं। इस प्रकार वात्स्यायन मानते हैं कि मोक्षावस्था में आत्मा दु:खरहित होता है, सुखी नहीं होता। वैशेषिकों का भी यही अभिमत है।

कामसूत्र का विभाजन

वात्स्यायन के कामसूत्र सात अधिकरणों में विभाजित हैं-

  1. सामान्य
  2. सांप्रयोगिक
  3. कन्यासंप्रयुक्त
  4. भार्याधिकारिक
  5. पारदारिक
  6. वैशिक और
  7. औपनिषदिक

वात्स्यायन ने अपने ग्रन्थ में कुछ पूर्वाचार्यों का उल्लेख किया है, जिनसे यह जानकारी मिलती है कि, सर्वप्रथम नंदी ने एक हज़ार अध्यायों के बृहद् कामशास्त्र की रचना की, जिसे आगे चलकर औद्दालिकी श्वेतकेतु और बाभ्रव्य पांचाल ने क्रमश: संक्षिप्त रूपों में प्रस्तुत किया। वात्स्यायन का कामसूत्र इनका अधिक संक्षिप्त रूप ही है। कामसूत्रों से तत्कालीन (1700 वर्ष पूर्व के) समाज के रीति-रिवाजों की जानकारी भी मिलती है। 'कामसूत्र' पर वीरभद्र कृत 'कंदर्पचूड़ामणि', भास्करनृसिंह कृत 'कामसूत्र-टीका' तथा यशोधर कृत 'कंदर्पचूड़ामणि' नामक टीकाएँ उपलब्ध हैं।

वात्स्यायन का विचार

आचार्य वात्स्यायन से पहले भी इस विषय पर ग्रन्थ लिखे गये थे, तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कल्पना की जा चुकी है। परन्तु इन सब ग्रन्थों को छोड़कर केवल वात्स्यायन के इस ग्रन्थ को ही महान् शास्त्रीय दर्जा प्राप्त हुआ है। 1870 ई. में ‘कामसूत्र’ का अंग्रेज़ी में अनुवाद हुआ। उसके बाद संसार भर के लोग इस ग्रन्थ से परिचित हो गए। वात्स्यायन कहते हैं कि, महिलाओं को 64 कलाओं में प्रवीण होना चाहिए। इसमें केवल खाना पकाना, सीना-पिरोना और सेज सजाना ही नहीं, उन्हें नृत्य, संगीत, अध्ययन, रसायन, उद्यान कला और कविता करने में भी महारत हासिल होनी चाहिए। उन्होंने अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ में अनेक आसनों के साथ यह भी बताया है कि, किस प्रकार की महिला से विवाह अथवा प्रेम करना चाहिए और शयनागार को कैसे सजाया जाना चाहिए तथा स्त्री से कैसे व्यवहार करना चाहिए। आश्चर्य इस बात का है कि उन्हें इस प्रकार की इतनी बातों का ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ।

विभिन्न दार्शनिकों के अनुसार

वात्स्यायन ने अनुमान प्रमाण का जो विवरण किया है, उसमें भी उसकी प्रतिभा की झलक दिखाई देती है। गौतम ने अपने सूत्रों में हेतुसाध्य संबंध का [5] निर्देश भी नहीं किया था। गौतम के अनुसार शायद अनुमान साध्य और दृष्टान्त में होने वाले साधर्म्य पर अवलंबित हुआ करता था। वात्स्यायन ने सिर्फ़ साधर्म्य या वैधर्म्य पर आधारित युक्ति [6] तथा लिङ्गलिङ्गिसंबंध दर्शन के आधार पर विशेष हेतु की सहायता से किया जाने वाला अनुमान, इन दोनों में स्पष्ट भेद दिखाने का प्रयास किया। लेकिन यह भी यहाँ ध्यान में लेना ज़रूरी है कि वात्स्यायन के अनुसार भी अनुमान एक 'प्रबल साम्यानुमान' अनुभूत विश्व में देखे गए संबंध के आधार पर अननुभूत विश्व के बारे में किया जाता है। सार्वत्रिक, सार्वकालिक व्याप्ति की कल्पना हमें वात्स्यायन के भाष्य में नहीं दिखाई देती। लेकिन ऐसा हम कह सकते हैं कि इस प्रकार का संबंध उत्तरकालीन तर्कज्ञों को सुझाने के लिए वात्स्ययायन के काल में अनुकूल वातावरण तैयार हुआ। वात्स्यायन के भाष्य में जो लिङ्गलिङ्गिसंबंध यानी हेतु साध्य संबंध चर्चित है, उसकी और एक विशेषता द्रष्टव्य है। हेतु साध्य संबंध की हम इस रूप में अपेक्षा रखते हैं कि 'जहाँ जहाँ हेतु है, वहाँ वहाँ साध्य है।' जहाँ जहाँ हेतु नहीं है, वहाँ वहाँ साध्य भी नहीं होना चाहिए- यह अपेक्षा हम नहीं रखते। लेकिन वात्स्यायन ने अनुभूत विश्व में देखे गए हेतु साध्य संबंध का जो स्वरूप प्रस्तुत किया, उसमें दोनों अपेक्षाएं उन्होंने समाविष्ट कीं। इसका परिणाम यह हुआ कि दो प्रकार के सुव्यभिचार-दोष माने गए-हेतु हैं, पर साध्य नहीं, यह एक सव्यभिचार की स्थिति हुई तो 'साध्य है, पर हेतु नहीं है', यह दूसरे सव्यभिचार की स्थिति हुई। बाद में नैयायिक तथा बौद्ध तर्कज्ञों ने यह स्पष्ट रूप से माना कि इन दोनों में से पहली स्थिति असली सव्यभिचार की है, दूसरी नहीं।

अनुमान का विवेचन करते समय वात्स्यायन ने और एक चमत्कारपूर्ण विचार प्रकट किया है। गौतम ने चार प्रमाण माने थे- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द। जब अनुमान को शब्दों से प्रकट किया जाता है तो नैयायिकों के अनुसार वह पंचावयवी वाक्य के रूप में होता है। पहले प्रतिज्ञा की जाती है, यानी साध्य का कथन किया जाता है। उसके बाद हेतु प्रदर्शित किया जाता है। उसके बाद दृष्टांत का कथन किया जाता है। उसके बाद उपनय वाक्य के सहारे दृष्टांत और पक्ष में परस्पर सामर्थ्य या वैधर्म्य प्रतिपादित किया जाता है और अन्त में निगमन वाक्य में साध्य का निष्कर्ष के रूप में पुन: कथन किया जाता है। इसका वर्णन करते समय वात्स्यायन कहते हैं कि इन पांच अवयवों में से पहले चार अवयवों में चार प्रमाणों का उपयोग किया जाता है, तथा पांचवें निगमन नामक अवयव में इन चारों प्रमाणों का संकलित निष्कर्ष निकाला जाता है।

प्रतिज्ञावास्य शब्द प्रमाण है, क्योंकि वह आप्त (अनुमान) का यथार्थ वाक्य है। हेतु वाक्य अनुमान प्रमाण है, जो 'प्रत्यक्षपूर्वक' है (गौतम ने अनुमान को 'तत्पूर्वक' यानी 'प्रत्यक्षपूर्वक' कहा है)। दृष्टांत वाक्य प्रत्यक्ष प्रमाण का द्योतक है, क्योंकि दृष्टांत 'दृष्ट', प्रत्यक्ष का विषय होता है। उपनय में दृष्टांत तथा साध्य में होने वाला साधर्म्य या वैधर्म्य दिखाया जाता है, इसलिए उपनय उपमान प्रमाण ही है और निगमन में इन चारों प्रमाणों के अन्योन्य संबंध से निकलने वला निष्कर्ष होता है। निगमन से सूचित होता है कि अन्तिमत: इन सब प्रमाणों का विषय एक ही है, और वह है साध्य। इस सारे कथन का तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि स्वार्थानुमान और परार्थानुमान में यह एक स्पष्ट भेद है कि स्वार्थानुमान यद्यपि शुद्ध यप से अनुमान ही है, तथापि इस शुद्ध अनुमान के समर्थन के लिए शब्द जैसे अन्य प्रमाणों का भी सहारा लेना ज़रूरी होता है।

वात्स्यायन के अवयव

इस पंचावयवी का वर्णन करते समय वात्स्यायन ने दशावयवी वाक्य का भी निर्देश किया है। वात्स्यायन के अनुसार कई नैयायिक इन पांच अवयवों के अलावा और भी पांच अवयव मानते थे, जो थे- जिज्ञासा, संशय, शक्य प्राप्ति प्रयोजन और संशयव्युदास। हैंब्लिन ने अपने 'fallacies' नामक ग्रन्थ में [7] इस दशावयवी का निर्देश करते हुए सूचित किया है कि यह दशावयवी परार्थानुमान एक संवाद के रूप में प्रस्तुत करता है-

  • अ-(प्रतिज्ञा)- यह पर्वत अग्नियुक्त है।
  • ब-(जिज्ञासा)- कैसे।
  • अ-(हेतु)- क्योंकि पर्वत धूमयुक्त है।
  • ब-(संशय)- लेकिन क्या इससे साध्य सिद्ध होगा।
  • अ-(दृष्टांत)- जी हाँ। क्योंकि इम पाकशाला में भी धूम और वहनि एक जगह पर देखते हैं।
  • ब-(शाक्य प्राप्ति)- हाँ, अब जरा साध्य की संभावना दीखने लगी।
  • अ-(उपनय)- और पर्वत पर तो हम धूम देख ही रहे हैं।
  • ब-(प्रयोजन)- जी हाँ, लगता है, हम उद्देश्य की ओर बढ़ रहे हैं।
  • अ-(निगमन)- तो इसलिए पर्वत अग्नियुक्त है।
  • ब-(संशयव्युदास)- अब मेरा संशय दूर हो गया।

यद्यपि हैंब्लिन के इस दृष्टिकोण में (विशेषत: शक्य प्राप्ति तथा प्रयोजन के स्पष्टीकरण में) अस्वाभाविकता महसूस होती है, फिर भी यह स्पष्टीकरण वास्तविकता के बहुत नजदीक आता है। यह स्पष्ट है कि अक्षपाद का जो न्यायसूत्र ग्रन्थ आज उपलब्ध है, उसमें कई सूत्रों में बौद्धदर्शन के विचारों की चर्चा की गई है। कई विद्वानों के अनुसार यह सूत्र पहले न्यायसूत्र में नहीं थे, पर वे बाद में, शायद वात्स्यायन के ही समय न्यायसूत्र में प्रविष्ट किये गए। इन सूत्रों पर भाष्य करते हुए वात्स्यायन ने भी कई मुद्दों पर प्रकाश डाला है। माध्यमिक बौद्ध मानते हैं कि ह्रस्व, दीर्घ आदि सापेक्ष कल्पानायें होने से स्वभावत: कुछ भी ह्रस्व या दीर्घ नहीं है। इस प्रकार वे कहते हैं कि अंतिमत: वस्तुओं का कुछ स्वभाव ही नहीं होता। इस मत का खंडन करते हुए वात्स्यायन कहते हैं कि ह्रस्व की अपेक्षा दीर्घ है और दीर्घ की अपेक्षा ह्रस्व है- यह अन्योन्याश्रय होगा। अगर ह्रस्वत्व दीर्घत्व आदि स्वाभाविक नहीं है, तो समान लम्बाई की दो वस्तुएं भी ह्रस्व तथा दीर्घ क्यों न कही जाएं। दूसरी बात यह है कि अगर दो द्रव्य विद्यमान है, तभी उनमें से एक ह्रस्व तथा दूसरा दीर्घ हो सकता है। अगर दो द्रव्य हैं, तो दोनों का कोई न कोई स्वभाव भी होना चाहिए। इस प्रकार वात्स्यायन ने शून्यवाद का खंडन करने का प्रयास किया है। इसके साथ साथ सारा ज्ञान मिथ्या है[8], 'सर्व क्षणिक है' [9] सिद्धांत भी, जिनका वात्स्यायन ने विस्तृत विवेचन तथा खंडन किया है, बौद्धों के ही सिद्धांत हैं। इस प्रकार बौद्धों को प्रधान प्रतिपक्ष समझने की न्याय की परम्परा शायद वात्स्यायन से ही शुरू होती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (तत्वपूर्वकं त्रिविध-मनुमानं पूर्ववत् शेषवत् नामान्यतोदृष्टं च)
  2. या किसी एक कर्ता का
  3. 4.1.19.21
  4. देखिए, न्यायभाष्य, 1.1.9 सूत्र सूत्रपर
  5. लिङ्गलिङ्गिसंबंध का
  6. जिसे वात्स्यायन ने जाति की कोटि में डाल दिया
  7. पृष्ठ 179
  8. न्यायसूत्र 4.2.24.27
  9. न्यायसूत्र 3.2.11

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