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भेदाभेद

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भेदाभेद वेदांत, हिन्दू दर्शनशास्त्र की पारंपरिक प्रणाली की महत्त्वपूर्ण शाखा है। 'भेदाभेद' संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ है 'पहचान' या 'अन्तर'। भास्कर इसके प्रमुख लेखक थे, जो संभवतः 'अद्वैत मत' के महान् विचारक शंकर के युवा समकालीन थे। भास्कर के दर्शनशास्त्र का मुख्य आधार उनका यह मत था कि विशेष रूप से कर्मकांड संबंधित धार्मिक कर्म और ज्ञान एक दूसरे से अलग नहीं हैं, बल्कि एक दूसरे को बल प्रदान करते हैं।

मतभेद

भास्कर के विपरीत शंकर का मानना था कि अंततः इच्छित कर्मों से पूरी तरह पीछे हटना और उनका संपूर्ण त्याग मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक है। इस मत के विरोध में भास्कर ने कर्म तथा ज्ञान के संचयी प्रभाव के सिद्धांत[1] को उचित ठहराया और कहा कि- "किसी व्यक्ति को अपने दायित्व पूरा करने के सक्रिय जीवन के बाद ही त्याग करना चाहिए। ब्रह्म (संपूर्ण) और विश्व के बीच संबंध के महत्त्वपूर्ण विषय पर भास्कर ने सिखाया कि दोनों समतुल्य हैं। उन्होंने कहा कि यदि ब्रह्म विश्व के मुख्य या भौतिक कारण हैं, तो विश्व भी वास्तविक के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता।[2]

भतभेद तब उत्पन्न होते हैं, जब ब्रह्म पर कुछ सीमित गुण अध्यारोपित किए जाते हैं। भास्कर के सिद्धांत को कभी व्यापक मान्यता नहीं मिली, क्योंकि शंकर पहले ही अपना दृष्टिकोण रख चुके थे, जिसका तत्काल प्रभाव हुआ था। फिर भी भास्कर का कर्म महत्त्वपूर्ण बना रहा, क्योंकि यह धर्म पर ब्राह्मण वर्ग के विचारों को लिपिबद्ध करता है। धर्म अर्थात् वर्ग व व्यक्ति के वे कर्तव्य, जो विश्व का संतुलन बनाए रखते हैं और अच्छे समाज का निर्माण करते हैं। भास्कर के मतानुसार, अंततः संसार को माया समझने का सिद्धांत इस धर्म की वैधता को चुनौती देता है, और किसी भी हालत में संसार को त्यागने का प्रस्ताव धर्म के पालन में बाधक बनता है।

भेदाभेद सिद्धांत का समर्थन

लोकोत्तर और सर्वव्यापित (भेदाभेद) एक ओर अभिन्नता तथा संसार व ससीम व्यक्ति के बीच के अंतर पर और दूसरी ओर ब्रह्म पर बल देते हैं। विश्व और ससीम व्यक्ति वास्तविक हैं और फिर भी दोनों ब्रह्म से अलग हैं भी और नहीं भी। शंकर से पूर्ण वेदांत सूत्रों के टिप्पणीकारों में से भर्तृप्रपंच ने भेदाभेद के सिद्धांत का समर्थन किया और भास्कर (लगभग 9 वीं शताब्दी) ने काफ़ी हद तक उनका अनुसरण किया। भर्तृप्रपंच की टिप्पणी आज उपलब्ध नहीं है; इस बारे में जानकारी का एकमात्र स्त्रोत बृहदारण्यक उपनिषद पर शंकर की टिप्पणी में उनका उल्लेख है, जिसके अनुसार भर्तृप्रपंच ने कहा है कि यद्यपि ब्रह्म कारण के रूप में कार्यरूपी ब्रह्म से अलग है, दोनों समरूप हैं, क्योंकि कार्य कारण में उसी प्रकार विलीन हो जाता है, जैसे लहरें समुद्र में लौट आती हैं। भास्कर ने ब्रह्म को संसार का मूल और कर्ता, दोनों ही माना है। उन्होंने माया का सिद्धांत अस्वीकृत कर दिया। उनके अनुसार ब्रह्म अपनी शक्ति से स्वयं को परिवर्द्धित करता है। जिस प्रकार लहरें समुद्र से अलग और उसका समरूप, दोनों हैं, उसी तरह ब्रह्म के साथ विश्व और ससीम व्यक्तियों का संबंध है। ससीम व्यक्ति ब्रह्म का अंग है। ठीक उसी प्रकार जैसे चिंगारियाँ अग्नि का ही अंग होती है, लेकिन ससीम आत्माएं अनादि काल से अज्ञान के प्रभाव में हैं। वे अपने विस्तरण में आणविक हैं और फिर भी सारे शरीर को अनुप्राणित करती हैं।[2]

आत्म-परिवर्द्धन की शक्तियाँ

भास्कर ने भौतिक विश्व और ससीम स्वरूप के अपने दृष्टिकोण के अनुरूप ईश्वर को आत्म-परिवर्द्धन की दो शक्तियों का श्रेय दिया। ज्ञान के अपने सिद्धांत में उन्होंने सदा व्याप्त आत्म-चेतना और वस्तुनिष्ठ ज्ञान, जो उपयुक्त नैमित्तिक परिस्थितियों में निष्क्रिय तौर पर उत्पन्न होता है, किंतु स्वयं में एक क्रिया नहीं हैं, के बीच विभेद किया। इस प्रकार उनके लिए मस्तिष्क इंद्रिय है। उन्होंने वेदांत के इस सामान्य सिद्धांत का समर्थन किया कि ज्ञान मूलरूप से सत्य होता है और असत्यता इसके लिए बाहरी है। अपनी नीति विषयक स्थापनाओं में उन्होंने धार्मिक कर्तव्यों को जीवन के सभी चरणों में बाध्य माना। उन्होंने जन्म-कर्मसमुच्चय-वाद के सिद्धांत का समर्थन किया, जिसके अनुसार, ब्रह्म के ज्ञान के साथ कर्तव्यों के पालन से मोक्ष प्राप्ति होती है। धार्मिक जीवन में वह भक्ति के प्रबल समर्थक थे, लेकिन उनके लिए भक्ति ईश्वर के लिए मात्र प्रेम भावना नहीं, अपितु ध्यान है, जिससे श्रेष्ठ ब्रह्म की प्राप्ति होती है, जो अपने विविध रूप-धारण में क्षरित नहीं हुआ है। आगे भास्कर ने शरीर में रहकर मोक्ष की संभावना से इनकार किया, अर्थात् वह अवस्था, जब व्यक्ति रस्मी तौर पर जीवित होता है।

प्रतिनिधि

यह कहा जा सकता है कि 'भेदाभेद' दृष्टिकोण अन्य दार्शनिक और धर्मशास्त्रीय क्षेत्रों में भी विद्यमान है और उनमें अलग-अलग श्रेणियों में कुछ न कुछ जोड़ा गया है। विज्ञानमिक्षु, निम्बार्क, वल्लभ और चैतन्य इसके कुछ प्रतिनिधि उदाहरण माने जा सकते हैं। इनके अतिरिक्त रामानुज (11 वीं शताब्दी) ने आस्तिक धर्म का उपनिषदों के संपूर्ण एकत्ववाद[3] की लंबी परंपरा से मिश्रण का प्रयोग किया। यह एक ऐसा कार्य था, जो इससे पहले केवल 'भगवद्गीता' जैसी आधिकारिक कृति में ही किया गया था। उन्होंने अपनी सामान्य दार्शनिक अवस्थिति में वृत्तिकार बोधायन, वाक्याकार[4], नाथमुनि (1000 ई.) और उनके अपने गुरु के गुरु यामुनाचार्य (1050 ई.) का अनुसरण किया।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जन्म-कर्म समुच्चय
  2. 2.0 2.1 2.2 भारत ज्ञानकोश, खण्ड-4 |लेखक: इंदु रामचंदानी |प्रकाशक: एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली और पॉप्युलर प्रकाशन, मुम्बई |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 237 |
  3. जिसे संपूर्ण नहीं मानते थे
  4. जिनका वह संदर्भ देते हैं, लेकिन जिनकी पहचान इसके अलावा स्थापित नहीं होती कि उन्होंने ब्रह्म के वास्तविक परिवर्द्ध के सिद्धांत की हामी भरी

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