समूहवाद

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समूहवाद एक प्रकार की समष्टिवादी विचारधारा का प्रतीक है। इस विचार-पद्धति में व्यक्तिगत जीवन पर सामूहिक नियंत्रण की सार्थकता स्वीकार की जाती है। सामूहिक नियंत्रण कई प्रकार का होता है, क्योंकि व्यक्ति के जीवन का सम्पर्क समाज और समाज-स्थित विभिन्न समूहों से होता है। सम्पर्क के इन्हीं माध्यमों से सामूहिक नियंत्रणों की स्थापना होती है और इन सम्पर्कों के मूल में मनुष्य की सामाजिक भावना निहित है। समूहवाद मनुष्य की अंत:प्रकृत्तियों और इन्हीं अंत: प्रवृत्तियों द्वारा प्रभावित बौद्धिक संकल्प को ही सामाजिकता का कारण मानता है। अत: समूहवादी सामाजिक और सामूहिक संघटनों का विश्लेषण करने के लिए मनुष्य के मनोवैज्ञानिक गठन का भी परीक्षण करते हैं। इसीलिए समूहवाद का दार्शनिक आधार समाजशास्त्रीय मनोविज्ञान, अर्थात् 'सोशल साइकॉलोजी' है।[1]

दार्शनिक आंदोलन

उपर्युक्त रूप में समूहवाद बीसवीं शती का दार्शनिक आंदोलन है, किंतु मध्य युग की समूह व्यवस्था भी एक प्रकार की समूहवादी स्थिति ही थी। यह दूसरी बात है कि मध्ययुगीन समूह-व्यवस्था का सैद्धांतिक आधार मनोविज्ञान न होकर सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक परिस्थितियों की अनिवार्यताएँ थीं। मध्य युग में यूरोप में समाजवाद सर्वत्र व्याप्त था और इस नाते यूरोपीय संस्कृति का समूचा रूप ही संघात्मक हो गया। आधुनिक युग में जब समूहों की महत्ता का विश्लेषण प्रारम्भ हुआ तो बहुत-से आधुनिक विचाराकों ने अपनी दृष्टि मध्य युग की ओर डाली। इस दृष्टि से आधुनिक युग में राजनीतिक आन्दोलन भी चलाये गये और इन आंदोलनों का ध्येय राज्य की सम्प्रभुता को विभिन्न धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक समुदायों में बॉटने का था। अत: यह कहना भी सत्य है कि समूहवाद राज्य की निरंकुशता की प्रतिक्रिया है।

आधुनिक युग में समूहवाद

आधुनिक युग में समूहवाद को मनोवैज्ञानिक आधार पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया गया है। मनोवैज्ञानिकों ने समाज और उसके विभिन्न समूहों के जीवन का परीक्षण आरम्भ किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मनुष्य की विकसित समाज भावना की उत्पत्ति सुदूर अतीत में ही आदिम मानव की जाति, गोत्र और समूहभावना में हो गयी थी और प्रागैतिहासिक काल के आदिम मानवों से हमारी परम्परा ने संस्कार के रूप में इसे ग्रहण किया है। समय का अंतराल पाकर ये संस्कार हमारे आंतरिक जीवन की उस स्तर पर उतर आते हैं, जहाँ वह सहज, नैसगिंक अंत: प्रवृत्तियों का रूप धारण कर लेते है। हमारी समाज-भावना इन्हीं आंतरिक प्रवृत्तिओं से प्रस्फुटित होती है।[1]

अंतहिंत सामाजिकता का अध्ययन

समूहवाद ने मनुष्य की अंतहिंत सामाजिकता का अध्ययन दो दृष्टिकोणों से किया है-

  • पहला दृष्टिकोण तो यह है कि समूहवादी मनुष्य के मनोवैज्ञानिक संघटन पर विचार करता है। तत्पश्चात् वह इस निष्कर्ष पर पहुचता है कि समाज भावना उसकी आंतरिक प्रवृत्ति है, जिसे उसने आदिम मनुष्य का वंशज होने के नाते प्राप्त किया है। इस प्रकार के दृष्टीकोण की रेखाएँ व्यक्ति की सीमित मनोवैज्ञानिक परिधि में ही घूमती रहती है। आधुनिक युग में ट्राटर, ग्रौहम वैलेस और मैक्डूगल ने इस दृष्टिकोण को अपनाकर समूहों की व्याख्या का प्रयास किया है। ट्राटर के अनुसार मनुष्य में आत्मरक्षा, प्रजनन और अपने अहम् से स्नेह की प्रकृति-प्रदत भावनाएँ छिपी है। ये भावनाएँ मानव को पूर्ण तथा स्वसीमित बना देतीं, यदि उसके भीतर सामजिकता की भावना साथ-ही-साथ न होती। अत: समाज की उत्पत्ति का कारण मनुष्य का बौद्धिक संकल्प न होकर उसकी नैसगिंक अंत: प्रवृत्तियाँ है। ग्रैहम वैलेस भी ट्राटर के समान समाज की उत्पत्ति का तर्क मानव की अंतनिहित प्रवृत्तियों में पाता है, किंतु वह ट्राटर से एक पग आगे जाकर इन अंत:-प्रवृत्तियों पर समाज द्वारा बौद्धिक नियंत्रण की माँग प्रस्तुत करता है। मैक्डूगल की समाज-व्याख्या में ट्राटर और वैलेस से कहीं अधिक मनोवैज्ञानिकता का अंश है। उसके अनुसार मनुष्य के भीतर ग्यारह अंत:प्रवृत्तियाँ हैं और इन्हीं में से कुछ ऐसी भी हैं, जिनसे समाज और समूहों का जन्म होता है। ट्राटर, ग्रैहम वैलेस और मैक्डूगल की व्याख्याएँ व्यष्टिगत मनोविज्ञान के आधरभूत तत्त्वों का प्रक्षेपण समाज में करती है।
  • दूसरा दृष्टिकोण यह है कि समूहवादी सर्वप्रथम समूहों की स्थिति और संघटन पर विचार करता है। तत्पश्चात् वह इनकी अनिवार्यता तो सिद्ध करता है। अमेरिका में आधुनिक काल में इस विचारधारा का यथेष्ट प्रचलन हुआ है। रॉस स का नाम इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। रॉस समूहों के नियंत्रण की कल्पना बौद्धिक है।

समाजवादी परम्परा पर प्रभाव

इस प्रकार से समूहवाद मनोविज्ञान के क्षेत्र में नये मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण की सर्जना करता है, जिसे समूह-मनोविज्ञान अथवा 'ग्रूप साइकॉलोजी' कहते हैं। समूहवाद ने एक निश्चित प्रकार की समाजवादी परम्परा को भी प्रभावित किया है, जिसे 'श्रेणी-संघ-समाजवाद' अथवा 'गिल्ड सोशलिज्म' कहते हैं। श्रेणी-संघ-समाजवाद समाजवाद और मध्ययुगीन समूह व्यवस्था से प्रभावित हुआ है। समाजवाद से प्रभावित होने के नाते यह उत्पादन के साधनों पर सामूहिक नियंत्रण की माँग करता है और समाज को आर्थिक वर्गों में न विभाजित कर समूहों में विभाजित करता है। इस दृष्टि से मध्य युग की समूह व्यवस्था ने श्रेणी-संघ-समाजवाद को प्रभावित किया है। जीवन में नाना प्रकार के कर्म है और इन्हीं कर्मों को लेकर समाज में विभित्र समुदायों की रचना की गयी है। श्रेणी-संघ-समाजवाद समाज की सम्पूर्ण सत्ता राज्य के हाथों से छीनकर इन्हीं धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक समुदायों को हस्तान्तरित करता है। बीसवी शती के प्रारम्भ में यह समाजवाद इंग्लैण्ड में राजनीतिक आंदोलन के रूप में विकसित हुआ, परंतु राजनीतिक परिस्थितियों की कठोरता ने बहुत ही अल्प काल में इसकी शक्ति क्षीण कर दी। इस आंदोलन के प्रति निधियों के रूप में जी. डी. एच. कोल और हॉब्सन के नाम उल्लेखनीय हैं।[1]

जीवन का एकांगी दर्शन

समूहवाद अपने विभिन्न रूपों में समष्टि की अनिवार्यता पर इतना अधिक बल देता है कि उसकी पद्धति में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सामाजिक जीवन में कोई स्थान प्राप्त नहीं होता। राज्य की निरंकुशता पर जब कहीं भी इसने कठोर प्रहार किया है तो उसके स्थान पर इसने समूह की निरंकुशता को स्थापित करने का प्रयास किया है। ऐसी स्थिति में समूहवाद जीवन का एकांगी दर्शन है। समग्र जीवन का सफल दर्शन प्रस्तुत करने के लिए समूहवाद को व्यष्टि और समष्टि के सम्बंधों को नये प्रतिमानों की श्रृंखला में जोड़ने का प्रयास करना पड़ेगा, इस ऐतिहासिक सत्य में कम-से-कम आज कोई संदेह नहीं।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 हिन्दी साहित्य कोश, भाग 1 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 734 |
  2. सहायक ग्रंथ-मॉडर्न पोलिटिकल थ्योरी: सी.ई.एम. जोड

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