द्वैतवाद

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें

द्वैतवाद या द्वैत संस्कृत भाषा का शब्द जिसका अर्थ 'द्विवाद' है। वेदांत की रूढ़िवादी हिंदु दार्शनिक प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण मत है। द्वैतवाद दर्शन से सम्बन्धित एक वाद है, जिसके प्रणेता मध्वाचार्य थे। 'एक' से अधिक की स्वीकृति होने के कारण यह 'द्वैत' तथा 'त्रैत' दोनों ही नामों से अभिहित है। इस दर्शन के अनुसार प्रकृति, जीव तथा परमात्मा तीनों का अस्तित्त्व मान्य है। मध्वाचार्य ने 'भाव' और 'अभाव' का अंकन करते हुए भ्रम का मूल कारण अभाव को माना है। इस मत में विभिन्न दर्शनों में से अनेक तत्त्व गृहीत हैं। द्वैत में भेद की धारणा का बड़ा महत्त्व है। भेद ही पदार्थ की विशेषता कहलाता है, अत: उसे 'सविशेषाभेद' कहा गया। मुक्ति चार प्रकार की होती है:-

  1. सालोक्य
  2. सामीप्य
  3. सारूप्य
  4. सायुज्य

सिद्धांत

वो दर्शन जो द्वैतवाद के नाम से प्रसिद्ध है सबसे अधिक लोकप्रिय विचारधारा है। ये विचारधारा ईश्वर को विश्व के स्रष्टा तथा शासक मानती है। द्वैतवादियों का मानना है कि विश्व में तीन चीजों का अस्तित्व है : ईश्वर, प्रकृति तथा जीवात्मा। ईश्वर, प्रकृति तथा जीवात्मा तीनों ही नित्य हैं परन्तु प्रकृति और जीवात्मा में परिवर्तन होते रहते हैं जबकि ईश्वर में कोई परिवर्तन नहीं होता अर्थात् वो शाश्वत है। द्वैतवादी मानते हैं कि ईश्वर सगुण है अर्थात् उसमे गुण विद्यमान हैं, जैसे दयालुता, न्याय, शक्ति इत्यादि। साथ ही साथ ये मान्यता है कि ईश्वर में अच्छे मानवीय गुण तो हैं परन्तु ख़राब गुण नहीं जैसे अंधकार के बिना प्रकाश। कुल मिलाकर द्वैतवादी मानवीय ईश्वर की पूजा करते हैं लेकिन ये मानते हुए कि उसमे केवल शुभ मानवीय गुण हैं। परन्तु उनके सिद्धांत स्वविरोधी हैं।

उदाहरण के लिए एक तरफ वो कहते हैं कि ईश्वर ख़राब मानवीय गुणों से परे है वहीँ दूसरी तरफ ये भी मानते हैं कि ईश्वर प्रसन्न होता है, अप्रसन्न होता है, पीड़ितों की पीड़ा देखकर दुखी होता है आदि, लेकिन वो ये स्पष्ट नहीं करते की वो अप्रसन्न क्यों होता है जबकि ये अच्छा मानवीय गुण नहीं है। द्वैतवाद में इसी तरह के और भी स्वविरोधी सिद्धांत देखने को मिलते हैं। फिर भी वो इस बात में गहरा विश्वास रखते हैं कि ईश्वर अनंत शुभ गुणों का भंडार है। विश्व की रचना के सन्दर्भ में वो व्याख्या देते हैं कि ईश्वर बिना उपादान कारणों के विश्व की रचना नहीं कर सकता। प्रकृति ही वह उपादान कारण है जिससे वो रचना करता है। दुनिया के अधिकांश धर्म द्वैतवादी हैं या कह सकते हैं कि ऐसा होने के लिए विवश हैं क्योंकि सामान्य मनुष्य के लिए किसी अमूर्त चीज़ की कल्पना करना उतना ही कठिन है जितना किसी अनपढ़ के लिए गुरुत्वाकर्षण बल या विद्युत बल की कल्पना करना। अधिकतर लोग सूक्ष्म सिद्धांतों को समझने के लिए अपने मस्तिष्क को उच्च स्तर तक ले जाने के बजाए उन सिद्धांतों को ही निम्न स्तर तक ले आते हैं और फिर उन्हें स्थूल रूप में ग्रहण करते हैं। यद्यपि ईश्वर विषयक सच्चाई कुछ और ही है, तथापि संपूर्ण विश्व में सामान्य लोगों का यही धर्म है। वे एक ऐसे ईश्वर में विश्वास रखते हैं जो उनसे अलग रहकर उनपर एक राजा की तरह शासन करता है तथा पूरी तरह से पवित्र और दयालु है। परन्तु यहाँ एक अत्यंत स्वाभाविक प्रश्न उठता है की उस दयालु राजा का संसार इतने कष्टों से क्यों भरा है।

मध्वाचार्य

द्वैतवाद के संस्थापक माधव थे, जिन्हें आनंदतीर्थ (लगभग 1199-1278) भी कहते हैं। वह दक्षिण भारत में आधुनिक कर्नाटक राज्य के थे, जहां उनके अब भी बहुत से अनुयायी हैं। अपने जीवनकाल में ही माधव को उनके शिष्य वायु देवता का अवतार मानते थे, जिन्हें दुष्ट शक्तियों द्वारा दार्शनिक शंकर को भेजे जाने के बाद भगवान विष्णु ने अच्छाई की रक्षा के लिए पृथ्वी पर भेजा था। शंकर को अद्वैत मत का महत्त्वपूर्ण प्रतिपादक माना जाता है।

माधव का मत है कि विष्णु सर्वोच्च ईश्वर है। इस प्रकार वह उपनिषदों के ब्रह्मा को वैयक्तितक ईश्वर के रूप में मानते हैं, जैसा कि रामानुज (लगभग 1050-1137) ने उनसे पहले माना था। माधव की पद्धति में तीन शाश्वत सात्विक व्यवस्थाएं है : परमात्मा की, आत्मा की और जड़ प्रकृति की। इसके अतितिक्त ईश्वर के अस्तित्व को तार्किक प्रमाण से प्रदर्शित किया जा सकता है, यद्यपि धर्मग्रंथ ही उस की प्रकृति की शिक्षा दे सकते हैं। ईश्वर को सभी सिद्धियों का सार और निराकार माना जाता है, जो सच्चिदानंद से बना है (अस्तित्व, जीवात्मा और परमांद)। माधव के लिए ईश्वर ब्रह्मांड का कर्ता है न कि उपादन, क्योंकि ईश्वर ने स्वयं को विभाजित कर विश्व का सृजन नहीं किया होगा न ही किसी अन्य तरीक़े से, क्योंकि अगर ऐसा होता, तो यह उस सिद्धांत के विपरीत होता कि ईश्वर अपरिवर्तनीय है। इसके अलावा यह मानना ईशनिंदक भी होगा कि सर्वगुण संपन्न ईश्वर अपने को बदल कर त्रुटिपूर्ण बना सकता है।

माधव की राय में व्यक्तियों की आत्माएं संख्या में अनंत है और आणविक अनुपातों में है। वे ईश्वर का भाग हैं और उसकी कृपा से अस्तित्व में है। अपने क्रियाकलापों में वे पूरी तरह ईश्वर के नियंत्रण में हैं। यह ईश्वर ही है, जो आत्मा को सीमित स्तर तक क्रियाकलाप की स्वतंत्रता देता है। यह स्वतंत्रता आत्मा के विगत कर्मों के अनुरूप दी जाती है।

अज्ञान को कई अन्य भारतीय दार्शनिकों की तरह माधव भी दोषपूर्ण ज्ञान मानते हैं, जिसे भक्ति के माध्यम से हटाया और सही किया जा सकता है। भक्ति कई तरीक़ों से की जा सकती है; धर्मग्रंथों के एकाग्रतापूर्ण अध्ययन से, निस्वार्थ कर्तव्य पालन या भक्ति के व्यावहारिक कार्यों से। भक्ति के साथ ईश्वर की प्रकृति में सहज अंतर्दृष्टि होती है या विशेष प्रकार का ज्ञान को सकता है। भक्ति श्रद्धालुओं के लिए लक्ष्य हो सकती है। विष्णु की आराधना उससे मिलने वाले परिणाम से अधिक महत्त्वपूर्ण है। द्वैत के अनुयायियों का वर्तमान केंद्र दक्षिण भारत के कर्नाटक में उडुपी में है, जिसकी स्थापना माधव ने ही की थी और यह मठाधीशों की श्रृंखला के अंतर्गत अनवरत बना रहा ।

दार्शनिक सिद्धान्त

मध्वाचार्य का दार्शनिक सिद्धान्त द्वैतवाद है। यह शंकराचार्य के अद्वैतवाद के नितान्त प्रतिकूल है, और उसका प्रबल विरोधी है। मध्वाचार्य ने जीवन की वास्तविकता समझते हुए उसे व्यावहारिक और रुचिपूर्ण बनाने का आधार अपने द्वैतवाद में प्रस्तुत किया। इनके अनुसार दो पदार्थ या तत्त्व प्रमुख हैं, जो स्वतंत्र और अस्वतन्त्र हैं। स्वतन्त्र तत्त्व परमात्मा है, जो विष्णु नाम से प्रसिद्ध है, और जो सगुण तथा सविशेष है। अस्वतन्त्र तत्त्व जीवात्मा है। ये दोनों तत्त्व नित्य और अनादि हैं, जिनमें स्वाभाविक भेद है। यह भेद पाँच प्रकार का हैं, जिसे शास्त्रीय भाषा में 'प्रपंच' कहा जाता है।

  • ईश्वर अनादि और सत्य हैं, भ्रान्ति-कल्पित नहीं।
  • ईश्वर जीव और जड़ पदार्थों से भिन्न है।
  • जीव और जड़ पदार्थ अन्य जीवों से भिन्न है एवं एक जड़ पदार्थ दूसरे पदार्थों से भिन्न है।
  • जब तक यह तात्विक भेद बोध उदित नहीं होता, तब तक मुक्ति संभव नहीं।

मध्वाचार्य के सिद्धान्त की रूपरेखा निम्नाँकित श्लोकों में व्यक्त की गई है-

श्री मन्मध्वमते हरि: परितर: सत्यं जगत् तत्वतो,
भेदो जीवगणा हरेरनुचरा नीचोच्च भावं गता।1।
मुक्तिर्नैव सुखानुभूतिरमला भक्तिश्च तत्साधने,
ह्यक्षादि त्रितचं प्रमाण ऽ खिलाम्नावैक वेद्मो हरि:।2।

  1. विष्णु सर्वोच्च तत्त्व है।
  2. जगत सत्य है।
  3. ब्रह्म और जीव का भेद वास्तविक है।
  4. जीव ईश्वराधीन है।
  5. जीवों में तारतम्य है।
  6. आत्मा के आन्तरिक सुखों की अनुभूति ही मुक्ति है।
  7. शुद्ध और निर्मल भक्ति ही मोक्ष का साधन है।
  8. प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द तीन प्रमाण हैं।
  9. वेदों द्वारा ही हरि जाने जा सकते हैं।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख