अनात्मवाद

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अनात्मवाद अर्थात् आत्मा की सत्ता को स्वीकार न करना, अथवा शरीरान्त के आथ आत्मा का भी नाश मान लेना। जिस दर्शन में 'आत्मा' के अस्तित्व को निषेध किया गया हो, उसको 'अनात्मवादी दर्शन' कहते हैं। चार्वाक दर्शन आत्मा के अस्तित्व का सर्वथा विरोध करता है। अत: वह पूरा उच्छेदवादी है। परंतु गौतम बुद्ध का अनात्मवाद इससे भिन्न है। वह वेदांत के शाश्वत आत्मवाद और चार्वाकों के 'उच्छेदवाद' है। शाश्वत आत्मवाद का अर्थ है कि आत्मा नित्य, कूटस्थ, चिरंतन तथा एक रूप है।

'अनात्मवाद' तथा 'उच्छेदवाद'

उच्छेदवाद के अनुसार आत्मा का अस्तित्व ही नहीं है। यह एक प्रकार का भौतिक आत्मवाद है। बुद्ध ने 'अनात्मवाद' तथा 'उच्छेदवाद', इन दोनों के बीच एक मध्यय मार्ग चलाया था। उनका अना-त्मवाद अभौतिक अनात्मवाद है। उपनिषदों का 'नेति नेति' सूत्र पकड़ कर उन्होंने कहा, "रूप आत्मा नहीं है। वेदना आत्मा नहीं है? विज्ञान आत्मा नहीं है? वे पाँच स्कन्ध हैं, आत्मा नहीं"। 'भगवान बुद्ध ने आत्मा का आत्यंतिक निषेघ नहीं किया, किंतु उसे अव्याकृत प्रश्न माना।

विचारधाराएँ

'अनात्मवाद' दर्शन में दो विचारधाराएँ होती हैं-

  1. आत्मवाद - जो आत्मा का अस्तित्व मानती है
  2. अनात्मवाद - जो आत्मा का अस्तित्व नहीं मानती

एक तीसरी विचारधारा 'नैरात्मवाद' की भी है, जो आत्म-अनात्म से परे नैरात्मा को देवता की तरह मानती है। कुछ दर्शनों में आत्मवाद और अनात्मवाद का समन्वय भी पाया जाता है; यथा- जैन दर्शन में। आत्मवाद ब्राह्मण पंरपरा या श्रौतदर्शन माना जाता है; अनात्मवाद के अंतर्गत चार्वाक के लोकायत और श्रमण परंपरा के बौद्ध दर्शन का समावेश होता है। पुद्गल प्रतिषेधवाद और पुद्गल नैरात्मवाद भी इसके निकटतम दर्शनाम्नाय हैं।[1]

चार्वाक दर्शन

'चार्वाक दर्शन' में परमात्म तथा आत्म दोनों तत्वों का निषेध है। वह विशुद्ध भौतिकवादी दर्शन है। किंतु समन्वयार्थी बुद्ध ने कहा कि रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान, ये पाँच स्कंध आत्मा नहीं हैं। पाश्चात्य दर्शन में ह्यूम की स्थिति प्राय: इसी प्रकार की है; वहाँ कार्य-कारण-पद्धति का प्रतिबंध है और अंतत: सब क्षणिक संवेदनाओं का समन्वय ही अनुभव का आधार माना गया है। आत्मा स्कंधों से भिन्न होकर भी आत्मा के ये सब अंग कैसे होते हैं, यह सिद्ध करने में बुद्ध और परवर्ती बौद्ध नैयायिकों ने बहुत से तर्क प्रस्तुत किए हैं। बुद्ध कई अंतिम प्रश्नों पर मौन रहे। उनके शिष्यों ने उस मौन के कई प्रकार के अर्थ लगाए। थेरवादी नागसेन के अनुसार रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान का संघात मात्र आत्मा है। उसका उपयोग प्रज्ञप्ति के लिए किया जाता है। अन्यथा वह अवस्तु है। आत्मा चूँकि नित्य परिवर्तनशील स्कंध है। अत: आत्मा इन स्कंधों की संतान मात्र है।

  • दूसरी ओर वात्सीपुत्रीय बौद्ध पुद्गलवादी हैं, इन्होंने आत्मा को 'पुद्गल' या 'द्रव्य' का पर्याय माना है। वसुबंधु ने 'अभिधर्मकोश' में इस तर्क का खंडन किया और यह प्रमाण दिया कि 'पुद्गलवाद' अंतत: पुन: शाश्वतवाद की ओर हमें घसीट ले जाता है, जो एक दोष है। केवल हेतु प्रत्यय से जनित धर्म है, स्कंध, आयतन और धातु हैं, आत्मा नहीं है।
  • सर्वास्तिवादी बौद्ध संतानवाद को मानते हैं। उनके अनुसार आत्मा एक क्षण-क्षण-परिवर्ती वस्तु है। हेराक्लीतस के अग्नितत्व की भाँति यह निरंतर नवीन होती जाती है।
  • विज्ञानवादी बौद्धों ने आत्मा को आत्मविज्ञान माना। उनके अनुसार बुद्ध ने, एक ओर आत्मा की चिर स्थिरता और दूसरी ओर उसका सर्वथा उच्छेद, इन दो अतिरेकी स्थितियों से भिन्न मध्य का मार्ग माना।
  • योगाचारियों के मत से आत्मा केवल विज्ञान है। यह आत्मविज्ञान विज्ञप्ति मात्रता को मानकर वेदांत की स्थिति तक पहुँच जाता है।
  • सौत्रांतिकों ने-दिड; नाग और धर्मकीर्ति ने-आत्मविज्ञान को ही सत्‌ और ध्रुव माना, किंतु नित्य नहीं।[1]

पाश्चात्य दार्शनिकों में अनात्मवाद

पाश्चात्य दार्शनिकों में 'अनात्मवाद' का अधिक तटस्थता से विचार हुआ, क्योंकि दर्शन और धर्म वहाँ भिन्न वस्तुएँ थीं। लॉक के संवेदनावाद से शुरु करके कांट ओर हेगेल के आदर्शवादी परा-कोटि-वाद तक कई रूप अनात्मवादी दर्शन ने लिए। परन्तु हेगेल के बाद मार्क्स, रोंगेतस आदि ने भौतिकवादी दृष्टिकोण से अनात्मवाद की नई व्याख्या प्रस्तुत की। परमात्म या अंशी आत्मतत्व के अस्तित्व को न मानने पर भी जीवजगत की समस्याओं का समाधान प्राप्त हो सकता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 अनात्मवाद (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 16 जून, 2014।

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