बौद्ध दर्शन

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भगवान बुद्ध द्वारा प्रवर्तित होने पर भी बौद्ध दर्शन कोई एक दर्शन नहीं, अपितु दर्शनों का समूह है। कुछ बातों में विचार साम्य होने पर भी परस्पर अत्यन्त मतभेद हैं। शब्द साम्य होने पर भी अर्थ भेद अधिक हैं। अनेक शाखोपशाखाओं में विभक्त होने पर भी दार्शनिक मान्यताओं में साम्य की दृष्टि से बौद्ध विचारों का चार विभागों में वर्गीकरण किया गया है, यथा-

  1. वैभाषिक,
  2. सौत्रान्तिक,
  3. योगाचार एवं
  4. माध्यमिक।
  • यद्यपि अठारह निकायों का वैभाषिक दर्शन में संग्रह हो जाता है और अठारह निकायों में स्थविरवाद भी संग्रहीत है, जागतिक विविध दु:खों के दर्शन से तथागत शाक्यमुनि भगवान बुद्ध में सर्वप्रथम महाकरुणा का उत्पाद हुआ। तदनन्तर उस महाकरुणा से प्रेरित होने की वजह से 'मैं इन दु:खी प्राणियों को दु:ख से मुक्त करने और उन्हें सुख से अन्वित करने का भार अपने कन्धों पर लेता हूँ और इसके लिए बुद्धत्व प्राप्त करूंगा'- इस प्रकार का उनमें बोधिचित्त उत्पन्न हुआ।
  • उनकी देशनाएं तीन पिटकों और तीन यानों में विभक्त की जाती हैं।
  1. सूत्र,
  2. विनय और
  3. अभिधर्म- ये तीन पिटक हैं।
  4. श्रावकयान,
  5. प्रत्येक बुद्धयान और
  6. बोधिसत्त्वयान- ये तीन यान हैं।
  • श्रावकयान और प्रत्येकबुद्धयान को हीनयान और बोधिसत्त्वयान को महायान कहते हैं।

श्रावकयान

जो विनेय जन दु:खमय संसार-सागर को देखकर तथा उससे उद्विग्न होकर तत्काल उससे मुक्ति की अभिलाषा तो रखते हैं, किन्तु तात्कालिक रूप से सम्पूर्ण प्राणियों के हित और सुख के लिए सम्यक सम्बुद्धत्व की प्राप्ति का अध्याशय (इच्छा) नहीं रखते- ऐसे विनेय जन श्रावकयानी कहलाते हैं। उनके लिए प्रथम धर्मचक्र का प्रवर्तन करते हुए भगवान ने चार आर्यसत्व और उनके अनित्यता आदि सोलह आकारों की देशना की और इनकी भावना करने से पुद्गलनैरात्म्य का साक्षात्कार करके क्लेशावरण का समूल प्रहाण करते हुए अर्हत्त्व की और निर्वाण की प्राप्ति का मार्ग उपदिष्ट किया।

प्रत्येकबुद्धयान

श्रावक और प्रत्येकबुद्ध के लक्ष्य में भेद नहीं होता। प्रत्येक बुद्ध भी स्वमुक्ति के ही अभिलाषी होते हैं। श्रावक और प्रत्येकबुद्ध के ज्ञान में और पुण्य संचय में थोड़ा फ़र्क़ अवश्य होता है। प्रत्येकबुद्ध केवल ग्रह्यशून्यता का बोध होता है, ग्राहकशून्यता का नहीं। पुण्य भी श्रावक की अपेक्षा उनमें अधिक होता है। प्रत्येकबुद्ध उस काल में उत्पन्न होते हैं, जिस समय बुद्ध का नाम भी लोक में प्रचलित नहीं होता। वे बिना आचार्य या गुरु के ही, पूर्वजन्मों की स्मृति के आधार पर अपनी साधना प्रारम्भ करते हैं और प्रत्येकबुद्ध-अर्हत्त्व और निर्वाण पद प्राप्त करते हैं। इनकी यह भी विशेषता है कि ये वाणी के द्वारा धर्मोपदेश नहीं करते तथा संघ बनाकर नहीं रहते अर्थात् एकाकी विचरण करते हैं।

बोधिसत्त्वयान

जो विनेय जन सम्पूर्ण सत्त्वों के हित और सुख के लिए सम्यक सम्बुद्धत्व प्राप्त करना चाहते हैं, ऐसे विनेय जन बोधिसत्त्वयानी कहलाते हैं। उन लोगों के लिए भगवान ने बोधिचित्त का उत्पाद कर छह या दस पारमिताओं की साधना का उपदेश दिया तथा पुद्गलनैरात्म्य के साथ धर्मनैरात्म्य का भी विभिन्न युक्तियों से प्रतिवेध कर क्लेशावरण और ज्ञेयावरण दोनों के प्रहाण द्वारा सम्यक सम्बुद्धत्व की प्राप्ति के मार्ग का उपदेश किया। इसे महायान भी कहते हैं।

महायान की व्युत्पत्ति

'यायते अनेनेति यानम्' अर्थात् जिससे जाया जाता है, यह 'यान' है। इस विग्रह के अनुसार मार्ग, जिससे गन्तव्य स्थान तक जाया जाता है, 'यान' है। अर्थात् यान-शब्द मार्ग का वाचक है। 'यायते अस्मिन्निति यानम्' अर्थात् जिसमें जाया जाता है, यह भी 'यान' है। इस दूसरे विग्रह के अनुसार 'फल' भी यान कहलाता है। फल ही गन्तव्य स्थान होता है। इस तरह यान-शब्द फलवाचक भी होता है। 'महच्च तद् यानं महायानम्' अर्थात् वह यान भी है और बड़ा भी है, इसलिए महायान कहलाता है।

हीनयान और महायान

वैभाषिक और सौत्रान्तिक दर्शन हीनयानी तथा योगाचार और माध्यमिक महायान दर्शन हैं इसमें कुछ सत्यांश होने पर भी दर्शन-भेद यान-भेद का नियामक क़तई नहीं होता, अपितु उद्देश्य-भेद या जीवनलक्ष्य का भेद ही यानभेद का नियामक होता है। उद्देश्य की अधिक व्यापकता और अल्प व्यापकता ही महायान और हीनयान के भेद का अधार है। यहाँ 'हीन' शब्द का अर्थ 'अल्प' है, न कि तुच्छ, नीच या अधम आदि, जैसा कि आजकल हिन्दी में प्रचलित है। महायान का साधक समस्त प्राणियों को दु:ख से मुक्त करके उन्हें निर्वाण या बुद्धत्व प्राप्त कराना चाहता है। वह केवल अपनी ही दु:खों से मुक्ति नहीं चाहता, बल्कि सभी की मुक्ति के लिए व्यक्तिगत निर्वाण से निरपेक्ष रहते हुए अप्रतिष्ठित निर्वाण में स्थित होता है। जो व्यक्ति व्यक्तिगत निर्वाण प्राप्त करता हे, वह भी कोई छोटा नहीं, अपितु महापुरुष होता है। महायान के आचार्य भी हुए है। इतना सौभाग्य भी कम लोगों को प्राप्त होता है। बड़े पुण्यों का फल है यह। प्राय: सभी बौद्धेतर दर्शनों का भी अन्तिम लक्ष्य स्वमुक्ति ही है। अत: यह लक्ष्य श्रेष्ठ नहीं है, फिर भी अपने निर्वाण को स्थगित करके सभी प्राणि-मात्र को दु:खों से मुक्ति को लक्ष्य बनाना और उसके लिए प्रयास और साधना करना, अवश्य ही अधिक श्रेष्ठ है।

महाकरुणा

दु:ख करुणा का आलम्बन होता है तथा दु:ख को सहन नहीं कर पाना इसका आकार होता है। विविध प्रकार की शिरोवेदना आदि शारीरिक वेदनाएं दु:ख-दु:ख हैं। वर्तमान में सुखवत् प्रतीत होने पर भी परिणाम में दु:खदायी धर्म विपरिणाम दु:ख कहलाते हैं। सभी अनित्यों से वियोग दु:खप्रद होता है, इसलिए सभी अनित्य धर्म संस्कार-दु:ख हें। करुणा भी प्रारम्भ में 'सत्वालम्बना' होती है। अर्थात् प्राणियों को और उनके दु:खों को आलम्बन बनाती है। किन्तु भावना के बल से विकसित होकर बाद में 'धर्मालम्बना' हो जाती है। बौद्ध दर्शन के अनुसार पुद्गल की सत्ता नहीं होती, वह जड़ और चेतना का पुंजमात्र होता है, फिर भी दु:खों से मुक्त करने की अभिलाषा 'धर्मालम्बना' करुणा होती है। वस्तुत: प्रज्ञा द्वारा विचार करने पर सभी धर्म नि:स्वभाव (शून्य) होते हैं। वस्तुत: सभी सत्त्व और उनके दु:ख भी नि:स्वभाव ही हैं, फिर भी अर्थात् शून्यता का अवबोध रखते हुए भी करुणावश बुद्ध एवं बोधिसत्त्व दु:खी प्राणियों के दु:ख को दूर करने का प्रयास करते हैं। उनकी ऐसी करुणा 'निरालम्ब' करुणा कहलाती है।

बोधिचित्त

बोधिचित्त ही महायान में प्रवेश कर द्वार होता है। बोधिचित्त के उत्पाद के साथ व्यक्ति महायानों और बोधिसत्त्व कहलाने लगता है तथा बोधिचित्त से भ्रष्ट होने पर महायान से च्युत हो जाता है। 'बुद्धो भवेयं जगतो हिताय[1]' अर्थात् सभी प्राणियों को दु:खों से मुक्त करने के लिए मैं बुद्धत्व प्राप्त करूँगा-ऐसी अकृत्रिम अभिलाषा 'बोधिचित्त' कहलाती है। इस प्रकार बुद्धत्व महायान के अनुसार साध्य नहीं, अपितु साधनमात्र है। साध्य तो समस्त प्राणियों की दु:खों से मुक्ति ही है। बोधिचित्त भी प्रणिधि और प्रस्थान के भेद से द्विविध होता है। ऊपर जो बुद्धत्व प्राप्ति की अकृत्रिम अभिलाषा को बोधिचित्त कहा गया है, वह 'प्रणिधि-बोधिचित्त' है। इसके उत्पन्न हो जाने पर साधक महायान-संवर ग्रहण करके ब्रह्मविहार, संग्रहवस्तु एवं पारमिता आदि की साधना में प्रवृत्त होता है, यह 'प्रस्थान-बोधिचित्त' कहलाता है। शास्त्रों में प्रणिधि-बोधिचित्त का भी विपुल फल और महती अनुशंसा वर्णित है।

पारमिताओं की साधना

पारमिताएं दस होती हैं, किन्तु उनका छह में भी अन्तर्भाव किया जाता है। दान, शील, क्षान्ति, वीर्य, ध्यान एवं प्रज्ञा-ये छह पारमिताएं हैं। उपाय कौशल पारमिता, प्रणिधान पारमिता, बल पारमिता एवं ज्ञान पारमिता-इन चार को मिलाकर पारमिताएं दस भी होती हैं। शास्त्रों में अधिकतर छह पारमिताओं की चर्चा की उपलब्ध होती है। इन छह पारमिताओं में छठवीं प्रज्ञापारमिता ही 'प्रज्ञा' है तथा शेष पांच पारमिताएं 'पुण्य' कहलाती हैं। इन पांचों को एक शब्द द्वारा 'करुणा' भी कहते हैं। प्रज्ञा और करुणा ये दोनों बुद्धत्व प्राप्ति के उत्तम उपाय हैं। अभ्यास या भावना के द्वारा विकास की पराकाष्ठा को प्राप्त कर ये दोनों बुद्धत्व अवस्था में समरस होकर स्थित होती हैं। प्रज्ञा और करुणा की यह सामरस्यावस्था ही बुद्धत्व है। त्रिकायात्मक बुद्धत्व की प्राप्ति, बिना इन पारमिताओं के, सम्भव नहीं है।

  1. धर्मकाय,
  2. सम्भोगकाय और
  3. निर्माणकाय- ये तीन कार्य हैं। बुद्धत्व की प्राप्ति के साथ इन तीन कार्यों की प्राप्ति होती है।
  • महायान के पारमितानय के अनुसार अभ्यास द्वारा प्रज्ञा विकसित होते हुए अन्त में बुद्ध के ज्ञान-धर्मकाय के रूप में परिणत हो जाती है। किन्तु सम्भोग और निर्माण कार्यों की प्राप्ति पुण्य अर्थात् शेष पांच पारमिताओं के बल से ही होती है। इसीलिए बोधिसत्त्व बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए तीन असंख्येय कल्प पर्यन्त ज्ञान और पुण्य सम्भारों का अर्जन करता है।
  • महायान सूत्रों में व्रत, उपवास, स्नान, मन्त्र आदि का विधान है, जिसके द्वारा पापों का प्रक्षालन और मुक्ति की प्राप्ति का उल्लेख है, जैसा कि ब्राह्मण धर्म में है- यह आक्षेप भी नितान्त ही सारहीन है। क्योंकि अनन्तद्वारधारणी की साधना के अनुसार इस धारणी की भावना करने वाला साधक (बोधिसत्व) संस्कृत और असंस्कृत किसी भी धर्म की कल्पना नहीं करता, केवल बुद्धानुस्मृति की भावना करता है।
  • नागराजपरिपृच्छासूत्र में भी कहा गया है कि सभी धर्म आदित: विशुद्ध हैं, इसलिए धारणी में स्थित बोधिसत्व शून्यस्वरूप बीजाक्षरों का अनुसरण करता है, उनकी खोज करता है और उनमें स्थित होता है, जिससे उसमें राग, द्वेष, मोह आदि उत्पन्न नहीं होते। यह साधना भी वैसे ही है, जैसे अनित्यता, अशुचि आदि की भावना अर्थात् धारणीमन्त्र और विद्यामन्त्र का तथागत के उपदेशानुसार जप, ध्यान एवं भावना करने से पाप का क्षय तथा चित्त सन्तति शान्त होती है। यह मार्ग सत्य की भावना के समान ही है। धारणीमन्त्र के जप के समय साधक में पाप से उत्पन्न होने वाले विपाक के प्रति भय तथा पाप कर्म के प्रति हेयता का भाव होता है और अन्त में उस पाप की पुनरावृत्ति न हो, ऐसी प्रतिज्ञा करना अनिवार्य होता है। ये सब पाप प्रायश्चित्त के अंग हैं।
  • अठारहों निकायों को दार्शनिक विभाजन के अवसर पर वैभाषिक कहने की बौद्ध दार्शनिकों की परम्परा रही है। इसलिए हम भी वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार और माध्यमिक इन प्रसिद्ध चार बौद्ध दर्शनों के विचारों को ही तुलनात्मक दृष्टि से प्रस्तुत करेंगे। यह भी ज्ञात है कि वैभाषिक और सैत्रान्तिकों को हीनयान तथा योगाचार और माध्यमिकों को महायान कहने की परम्परा है। यद्यपि हीनयान और महायान के विभाजन का आधार दर्शन बिलकुल नहीं है।

वस्तुसत्ता
वैभाषिक बाह्यार्थवादी हैं। वे आन्तरिक एवं बाह्य सभी पदार्थों की वस्तुसत्ता स्वीकार करते हैं। सौत्रान्तिक भी बाह्यार्थवादी है और स्वभावसत्तावादी भी। सौत्रान्तिक आचार्य शुभगुप्त ने 'बाह्यार्थसिद्धकारिका' नामक अपने ग्रन्थ में बड़े विस्तार से युक्तिपूर्वक विज्ञानवादियों का खण्डन करके बाह्यार्थ की सत्ता सिद्ध की है। बाह्यार्थ को सिद्ध करने में सौत्रान्तिकों ने अभूतपूर्व एवं स्तुत्य प्रयास किया है। विज्ञानवादी निर्बाह्यार्थवादी हैं। इनके मत में बाह्यार्थ परिकल्पित मात्र हैं अर्थात् बाह्यार्थ खपुष्पवत अलीक है। वे केवल विज्ञान-परिणाम की ही द्रव्यत: सत्ता स्वीकार करते हैं। चित्त-चैतसिकों के बाहर कोई धर्म नहीं है। परमाणु की सत्ता का उन्होंने बड़े ज़ोरदार ढंग से निषेध किया है। फलत: परमाणुओं से संचित स्थूल बाह्यार्थ का निषेध अपने-आप हो जाता है।
परमाणु

  • वैभाषिक परमाणुवादी हैं। यद्यपि परमाणु के स्वरूप के बारे में उनमें परस्पर अनेकविध मतभेद हें, तथापि सभी परमाणु की सत्ता स्वीकार करते हैं। सौत्रान्तिक भी परमाणु मानते हैं। बाह्यर्थवादियों के लिए परमाणु मानना आवश्यक भी है। विज्ञानवादी परमाणु नहीं मानते। बाह्यार्थ का अभाव एवं विज्ञान की सत्ता सिद्ध करने के लिए परमाणु का निषेध करना आवश्यक होता है। इसीलिए आचार्य वसुबन्धु ने विंशिका में निरवयव परमाणु का ज़ोरदार खण्डन किया है।
  • प्रासंगिक माध्यमिक भी वैभाषिकों की भाँति परमाणुवादी हैं, तथापि दोनों के मत में मौलिक अन्तर है। सभी प्रकार के वैभाषिक निरवयव परमाणु मानते हैं। प्रासंगिक परमाणु को कल्पित मानते हैं। वह कल्पित परमाणु भी उनके मतानुसार निरवयव नहीं हो सकते, अपितु सावयव होते हैं। वे कहते हैं कि जैसे व्यवहार में घट, पट आदि की सत्ता है, उसी प्रकार परमाणु का भी अस्तित्व है।

आलयविज्ञान

  • स्थविरवादी यद्यपि आलयविज्ञान नहीं मानते, फिर भी कर्म, कर्मफल, पुनर्जन्म आदि की व्यवस्था के लिए एक 'भवाङ्ग' नामक चित्त स्वीकार करते हैं। इनके मतानुसार भावाङ्ग ही व्यक्तित्व है, जो कुछ अवस्थाओं को छोड़कर समुद्र की भाँति भीतर ही भीतर निरन्तर प्रवाहित होता रहता है। जैसे आलयविज्ञान जब तक बुद्धत्व प्राप्त नहीं होता, तब तक निरन्तर अविच्छिन्न रूप से प्रवृत्त होता रहता है, वैसे ही भवाङ्ग चित्त भी अर्हत के निरूपधिशेष निर्वाणधातु में लीन होते तक प्रवृत्त होता रहता है। समुद्र से तरङ्गों की भांति आलयविज्ञान से जैसे सात प्रवृत्तिविज्ञानों की की प्रवृत्ति होती है और अन्त में वे उसी में विलीन हो जाते हैं, वैसे ही भवाङ्ग चित्त से छह प्रवृत्तिविज्ञानों (वीथिचित्तो) की प्रवृत्ति होती है और प्रवृत्त होकर उसी में विलीन हो जाते हैं। *विज्ञानवादी आलयविज्ञान को जैसे कुशल, अकुशल का विपाक मानते हैं, स्थविरवादियों के मत में भवाङ्ग चित्त भी कुशल, अकुशल कर्मों का विपाक होता है। आलयविज्ञान की भांति भवाङ्ग चित्त भी प्रतिसन्धि (पुनर्जन्म ग्रहण) और च्युति (मरण) कृत्य करता है। आलयविज्ञान और भवाङ्ग दोनों संस्कृत और क्षणिक होते हैं। विज्ञानवाद के अनुसार आलयविज्ञान में कुशल, अकुशल, अव्याकृत सभी चित्तों की वासनाएं निहित रहती हैं। वह समस्त धर्मों के बीजों का आधार होता है, वैसे भवाङ्ग चित्त से भी षड् विज्ञानवीथियाँ उत्पन्न होती हैं और अन्त में उसी में पतित हो जाती हैं। फलत: वह भी वासनाओं का आधार हो जाता है।

निर्वाण

  • वैभाषिक निरोध को निर्वाण मानते हैं। वह भी प्रतिसंख्यानिरोध और अप्रतिसंख्यानिरोध के भेद से द्विविध हैं। इन दोनों में प्रतिसंख्यानिरोध ही मुख्य है। निरुपधिशेषनिर्वाण की अवस्था में सभी संस्कृत धर्म निरुद्ध हो जाते हैं और वह (संस्कृत धर्मों का निरोध) अप्रति संख्या निरोध स्वरूप होता है। वह असंस्कृत होता है और द्रव्यत: सत होता है।
  • सौत्रान्तिकों के मत में निर्वाण अभावमात्र (प्रसज्यप्रतिषेधस्वरूप) होता है, जो समस्त क्लेशों से रहित मात्र है।
  • विज्ञानवादियों के मत में निर्वाणयद्रव्यत: सत नहीं है। वह क्लेशावरण का अभावमात्र है। महानिर्वाण भी क्लेशावरण और ज्ञेयावरण दोनों का अभावमात्र ही है और वह एक नित्य धर्म है। महायाननिर्वाण की अवस्था बुद्धत्व की अवस्था है। इस अवस्था में यद्यपि सास्त्रव पंच स्कन्ध अर्थात् सास्त्रव शरीर एवं चित्तसन्तति विद्यमान नहीं होते, तथापि अनास्त्रव पंच स्कन्ध विद्यमान होते हैं, जो समस्त जीवों का कल्याण सिद्ध करते हैं। माध्यमिक भी ऐसी ही मानते हैं।

बुद्धवचन
वैभाषिक महायानसूत्रों को बुद्धवचन नहीं मानते, क्योंकि उनमें वर्णित विषय उन्हें अभीष्ट नहीं हैं। वे केवल हीनयानी त्रिपिटक को ही बुद्धवचन मानते हैं। प्राचीन या आगमानुयायी सौत्रान्तिक महायानसूत्रों को बुद्धवचन नहीं मानते थे, किन्तु धर्मकीर्ति के बाद के अर्वाचीन या युक्त्यनुयायी सौत्रान्तिक महायानी आचार्यों के प्रभाव से महायानसूत्रों को बुद्धवचन मानने लगे, फिर भी वे उनका अर्थ प्रकारान्तर से लेते थे। महायानी आचार्य हीनयानी और महायानी सभी सूत्रों को बुद्धवचन मानते हैं।
धर्मचक्र

  • वैभाषिक और सौत्रान्तिक एक धर्मचक्र ही मानते हैं, जिसकी देशना भगवान ने ऋषिपतन मृगदाव में की थीं इसके विनेय जन श्रावकवर्गीय लोग हैं, जो स्वलक्षण और बाह्यसत्ता पर आधृत चतुर्विध आर्यसत्य के पात्र हैं। पुद्गल-नैरात्म्य के साक्षात्कार द्वारा निर्वाण प्राप्त कर लेना, इसका लक्ष्य है। श्रावक-वर्गीय लोगों की दृष्टि से यह नीतार्थ देशना है। योगाचार और माध्यमिक लोगों की दृष्टि से यह नेयार्थ देशना है।
  • महायानी तीन धर्मचक्र प्रवर्तन मानते हैं। पहला ऋषिपतन मृगदाव में, दूसरा गृध्रकूट पर्वत पर तथा तीसरा वैशाली में द्वितीय धर्मचक्र के विनेय जन महायानी लोग हैं तथा शून्यता, अनुत्पाद, अनिरोध आदि इसकी विषयवस्तु हैं। विज्ञानवादी लोग इस द्वितीय धर्मचक्र को नेयार्थ मानते हैं, नीतार्थ नहीं। इसमें प्रमुखता: प्रज्ञापारमितासूत्र देशित हैं, जिनसे माध्यमिक दर्शन विकसित हुआ है। इसकी नेयनीतार्थता के बारे में स्वातन्त्रिक माध्यमिकों एवं प्रासंगिक माध्यमिकों में थोड़ा-बहुत मतभेद है। आचार्य भावविवेक, ज्ञानगर्भ, शान्तरक्षित आदि स्वातन्त्रिक माध्यमिकों के अनुसार प्रज्ञापारमितासूत्रों में आर्यशतसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता आदि कुछ सूत्र नीतार्थ हैं, क्योंकि इनमें सभी धर्मों की परमार्थत: नि:स्वभावता निर्दिष्ट है। भगवती प्रज्ञापारमिताहृदयसूत्र आदि यद्यपि द्वितीय धर्मचक्र में संग्रहीत हैं, तथापि वे नीतार्थ नहीं माने जा सकते, क्योंकि इनके द्वारा जिस प्रकार की सर्वधर्मनि:स्वभावता प्रतिपादित की गई है उस प्रकार की नि:स्वभावता स्वातन्त्रिक माध्यमिकों को इष्ट नहीं हैं यद्यपि इन सूत्रों का अभिप्राय परमार्थत: नि:स्वाभावता ही है, तथापि उनमें 'परमार्थत:' यह विशेषण अधिक स्पष्ट नहीं है जो कि स्वातन्त्रिक माध्यमिकों के अनुसार नीतार्थसूत्र होने के लिए परमावश्यक है। क्योंकि ये लोग व्यवहार में वस्तु की स्वलक्षण सत्ता स्वीकार करते हैं।
  • प्रासंगिक माध्यमिकों के अनुसार द्वितीय धर्मचक्र नीतार्थ देशना है। वे 'परमार्थत: विशेषण को निरर्थक मानते हैं। इनमे मत में जिस सूत्र का मुख्य विषय शून्यता है, वह सूत्र नीतार्थ है। जिसका मुख्य विषय संवृति सत्य है, वह नेयार्थ सूत्र है। अत: इनके मत में भगवती प्रज्ञापारमिताहृदयसूत्र आदि सूत्र भी नीतार्थ ही हैं।
  • तृतीय धर्मचक्र का स्थान वैशाली हैं श्रावक एवं महायानी दोनों इसके विनेय जन हैं। आर्य सन्धिनिर्मोचन आदि इसके प्रमुख सूत्र हैं। विज्ञानवादियों के अनुसार यह नीतार्थ देशना हैं यद्यपि द्वितीय और तृतीय दोनों धर्मचक्रों में शून्यता प्रतिपादित है, तथापि द्वितीय धर्मचक्र में समस्त धर्मों को समान रूप से नि:स्वभाव कहा गया है। उसमें यह भेद नहीं किया गया है कि अमुक धर्म नि:स्वभाव हैं और अमुक धर्म नि:स्वभाव नहीं है, अपितु सस्वभाव हैं विज्ञानवादी समस्त धर्मों को समानरूप से नि:स्वभाव नहीं मानते, अपितु पदार्थों में से कुछ नि:स्वभाव हैं और कुछ सस्वभाव। अत: वे द्वितीय धर्मचक्र को नीतार्थ नहीं मानते। उनके मतानुसार जो सूत्र धर्मों की सस्वभावता और नि:स्वभावता का सम्यग् विभाजन करते हैं, वे ही नीतार्थ माने जा सकते हैं। जिन सूत्रों में उक्त प्रकार का विभाजन स्पष्ट नहीं है, उन्हें विज्ञानवादी नेयार्थ ही मानते हैं।

द्विविज नैरात्म्य

विज्ञानवाद के अनुसार पुद्गलनैरात्म्य का स्वरूप पञ्च स्कन्धों से द्रव्यत: भिन्न, नित्य, शाश्वत आत्मा का निषेधमात्र है, वैभाषिक, सौत्रान्तिक आदि हीनयानी और स्वातन्त्रिक माध्यमिक भी ऐसा ही मानते हैं। विज्ञानवाद के अनुसार बाह्यार्थ से शून्यता या ग्राह्य-ग्राहकद्वय से शून्यता धर्मनैरात्म्य है तथा स्वातन्त्रिक माध्यमिकों के अनुसार धर्मों की परमार्थत: नि:स्वभावता धर्मनैरात्म्य है। प्रसंगिक ऐसा नहीं मानते। उनके मत में यद्यपि उक्त प्रकार की आत्मा का अस्तित्व मान्य नहीं है, तथापि उक्त प्रकार के पुद्गलनैरात्म्य के ज्ञान से सर्वविध आत्मदृष्टि का निषेध नहीं होता। उक्त ज्ञान केवल परिकल्पित आत्मृष्टि का ही प्रतिपक्ष है, जो (आत्मा) केवल सिद्धान्तविशेष से प्रेरित लोगों में ही होती है। सहज आत्मदृष्टि की इससे कुछ भी हानि नहीं होती। इसके मतानुसार नैरात्म्य की स्थापना पुद्गल तथा धर्म के भेद से की जाती हैं पुद्गलनि:स्वभावनता पुद्गलनैरात्म्य तथा घटादि नि:स्वभावता धर्मनैरात्म्य है।

द्विविध आवरण

सभी महायानी दर्शनों में द्विविधि आवरणों की व्यवस्था है, यथा –

  1. क्लेशावरण एवं
  2. ज्ञेयावरण।
  • क्रमश: प्रथम आवरण मुक्ति की प्राप्ति में मुख्य बाधक है तथा
  • दूसरा आवरण सर्वज्ञता की प्राप्ति में मुख्य बाधक है।

विज्ञानवाद के अनुसार पुद्गलात्मदृष्टि तथा उससे सम्बद्ध क्लेश 'क्लेशावरण' है। बाह्यार्थदृष्टि तथा उसकी वासनाएं 'ज्ञेयावरण' हैं स्वातान्त्रिक माध्यमिकमता में क्लेशावरण का स्वरूप विज्ञानवादियों से भिन्न नहीं है, किन्तु उनके मतानुसार धर्मों की सत्यत: सत्तादृष्टि ज्ञेयावरण है। प्रासंगिक माध्यमिक मतानुसार पुद्गलात्मदृष्टि तथा धर्मात्मदृष्टि सभी क्लेशावरण हैं, क्योंकि सभी स्वभावसद्-दृष्टि क्लेश होती है। स्वभावसद्-दृष्टि मुक्ति की प्राप्ति में मुख्य बाधक है। अत: मोक्षप्राप्ति के लिए नि:स्वभावता का ज्ञान अनिवार्य है। अत: श्रावक तथा प्रत्येकबुद्ध आर्यों के लिए नि:स्वभावता का ज्ञाता होना निश्चित होता है। स्वभावसद्-दृष्टि की वासना ज्ञेयावरण है। यही सर्वज्ञज्ञान की प्राप्ति में मुख्य बाधक है। उसके प्रहाण के लिए महाकरुणा से संग्रहीत सम्भारों तथा पारिमताओं की आवश्यकता होती है। यह प्रासङ्गिकों की विशिष्ट मान्यता है।

द्विविध सत्य

  • दो सत्यों की चर्चा हीनयानी ग्रन्थों में भी उपलब्ध होती है। पालि अट्ठकथा एवं अभिधर्मकोश में इनके लक्षण वर्णित हैं, किन्तु महायान में इनकी पुष्कल चर्चा हुई है। नागार्जुन इसके प्रवर्तक माने जाते हैं। सौत्रान्तिक परमार्थत: अर्थक्रियासमर्थ को परमार्थसत्य कहते हैं। निर्बाह्यार्थता या ग्राह्य-ग्राहक द्वैत से रहितता योगाचार मत में परमार्थसत्य है। स्वातन्त्रिक और प्रासङ्गिक माध्यमिक का सत्यद्वय के बारे में जो सूक्ष्म दृष्टिभेद है, उसे जान लेना आवश्यक है।
  • भावविवेक के मत में परमार्थत: नि:स्वभावता 'परमार्थसत्य' है। केवल नि:स्वभावता परमार्थसत्य नहीं मानी जाती, क्योंकि उनके मत में स्वभावसत्ता होती है।

प्रासङ्गिक माध्यमों के मतानुसार नि:स्वभावता ही 'परमार्थसत्य' है। उनके अनुसार 'परमार्थत:' यह विशेषण निरर्थक है।

  • दोनों के मत में संवृति के दो प्रकार हैं। भावविवेक विषय की दृष्टि से तथ्यसंवृति और मिथ्यासंवृति – ये दो भेद मानते हैं। परन्तु प्रासङ्गिक मत के अनुसार विषय दो प्रकार के नहीं हो सकते, क्योंकि सभी विषय मिथ्या ही होते हैं विषयी (ज्ञान) दो प्रकार का होता है। यह लोकव्यवस्था के अनुकूल भी है। प्रासङ्गिक की अपनी दृष्टि से तो सभी ज्ञान मिथ्या ही हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि से सभी सांवृत ज्ञान भ्रान्त होते हैं। फिर भी लोकव्यवस्था के अनुसार ज्ञान के दो प्रकार हैं

प्रमाण विचार

  • प्रमाणों की दो संक्ष्या के बारे में प्राय: सभी बौद्ध एकमत है। प्रमाणों के बारे में सौत्रान्तिकों ने विस्तृत विचार किया है। प्रमाण दो हैं – प्रत्यक्ष और अनुमान। सौत्रान्तिक प्रत्यक्ष प्रमाण को चतुर्विध मानते हैं। योगाचार दार्शनिक भी सौत्रान्तिकों के समान ही मानते हैं। परन्तु प्रासङ्गिक माध्यमिक स्वसंवेदन प्रत्यक्ष नहीं मानते। वैभाषिक भी ऐसा ही मानते हैं। इनके मत में प्रत्यक्ष त्रिविध ही है, तथा –
  1. इन्द्रियप्रत्यक्ष,
  2. मानसप्रत्यक्ष और
  3. योगिप्रत्यक्ष।
  • कुछ विद्वानों का कहना है कि प्रासङ्गिक केवल दो ही प्रमाण नहीं मानते, अपितु प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान और आगम- इन चार प्रमाणों को मानते हैं वे अपने बात की पुष्टि के लिए प्रसन्नपदा के एक श्लोक को उद्धृत भी करते हैं।
  • आचार्य चोंखापा का कहना है कि प्रसन्नपदा का वचन विग्रहव्यावर्तनी पर आधृत है, वह चार प्रमाण होने का सबूत नहीं है। क्योंकि उपमान और आगम का अनुमान में ही अन्तर्भाव हो जाता है।
  • प्रमाणवार्तिक में आगम को कितनी सीमा तक तथा किस प्रकार परीक्षित होने पर गृहीत किया जा सकता हे और आप्त लिङ्ग की व्यवस्था तथा उसका स्वरूप क्या है? इन सबका स्पष्टतया वर्णन किया गया है।
  • निष्कर्षत: प्रासङ्गिक द्विविध प्रमाणवादी हैं। 'मानं द्विविधं मेयद्वैविध्यात्' (प्रमाणवार्तिक, प्रत्यक्षपरिच्छेद) इन नियम को प्रासङ्गिक भी मानते हैं।

त्रिकाय व्यवस्था

बुद्धत्व महायान का अन्तिम प्राप्तव्य पद है। महायान के अनुसार निरुपधिशेष निर्वाण प्राप्त होने पर भी व्यक्ति की रूपसन्तति एवं चित्तसन्तति का निरोध नहीं होता, जैसे कि हीनयानी दर्शनों के अनुसार होता है। महायानियों का कहना है कि निरुपधिशेष निर्वाण होने पर व्यक्ति की केवल क्लिष्ट सन्तति का ही निरोध होता है। अनास्त्रव पञ्चस्कन्ध सन्तति तो सवर्दा प्रवहमान होती ही रहती है।

  • बोधिसत्व जब बुद्धत्व प्राप्त करता है तो बुद्धत्व-प्राप्ति के साथ ही तीन कार्यों की प्राप्ति होती है, यथा -
  1. धर्मकाय,
  2. सम्भोग काय एवं
  3. निर्माण काय।

धर्मकाय

  • जैसे एक सामान्य व्यक्ति में चित्त (चेतनांश) और शरीर (जडांश) दोनों होते हैं, वैसे ही बुद्ध की अवस्था में भी ये दोनों होते हैं। उनमें से चित्त (चेतनांश) धर्मकाय है तथा उनके सम्भोग काय और निर्माणकाय ये शरीरस्थानीय हैं। सांसारिक अवस्था में व्यक्ति के चक्षुर्विज्ञान आदि विज्ञान रूप, शब्द आदि विभिन्न विषयों में प्रवृत्ति होते रहते हैं। उसका आलयविज्ञान समस्त वासनाओं और दौष्ठुल्यों का आश्रय हुआ करता है। क्लिष्ट मनोविज्ञान, जो एक विषम विज्ञान है, वह सर्वदा आलयविज्ञान को आत्मत्वेन ग्रहण करता रहता है। बुद्धावस्था में इन समस्त विज्ञानों की समाप्ति हो जाती है और उनके स्थान पर नए-नए विज्ञानों का उत्पाद हो जाता है। इस प्रक्रिया को ही 'आश्रयपरावृत्ति' कहते हैं। जैसे सांसारिक अवस्था में आलयविज्ञान समस्त विज्ञानों का आश्रय हुआ करता है, उसी तरह बुद्धावस्था में सर्वज्ञज्ञान ही उनके समस्त ज्ञानों का आधार होता है और उसमें ही समस्त बुद्धगण विद्यमान रहते हैं। आलयविज्ञान के स्थान पर बुद्धावस्था में सर्वज्ञज्ञान उत्पन्न होता है, जो अप्रतिष्ठित निर्वाण का आधार होता है। क्लिष्ट मनोविज्ञान के स्थान पर समता ज्ञान का उत्पाद होता है, जो समस्त धर्मों को समानरूप से शून्य जानता है। सांसारिक अवस्था चक्षुरादिविज्ञानों के स्थान पर अतिविशुद्ध चक्षुरादिविज्ञान उत्पन्न होते हैं, जो एक-एक भी समस्त धर्मों और उनकी शून्यता को जानते हैं। ये समस्त ज्ञान *सामूहिक रूप से 'ज्ञान धर्मकाय' कहलाते हैं। इस ज्ञानकाय में सर्वज्ञज्ञान ही प्रमुख है।
  • सर्वज्ञज्ञान में स्थित आवरणों का क्षय भी धर्मकाय है, उसे 'आगन्तुक विशुद्ध स्वभाव धर्मकाय' कहते हैं। विज्ञानवादी मत में धर्मकाय तीन प्रकार का नहीं माना जा जाता, जैसा ऊपर कहा गया है, अपितु दो ही प्रकार का माना जाता है, यथा-
  1. ज्ञानधर्मकाय एवं
  2. आगन्तुक विशुद्ध स्वभावधर्मकाय।
  • इस मत में स्वभाविशुद्ध स्वभावधर्मकाय नहीं होता, क्योंकि सर्वज्ञज्ञान में स्थित बाह्यार्थशून्यता इन विज्ञानवादियों के मत में धर्मकाय नहीं है। इसका कारण यह है कि सर्वज्ञज्ञान में स्थित बाह्यार्थशून्यता उस सर्वज्ञज्ञान के विषय रूप आदि की भी बाह्यार्थशून्यता है। ज्ञातव्य है कि इस मत में रूप और रूप को जानने वाला चक्षुर्विज्ञान ये दोनों रूप के परतन्त्रलक्षण हैं और दोनों की शून्यता एक ही है। इसीलिए रूप को जानने वाला सर्वज्ञज्ञान भी रूप का परतन्त्रलक्षण है और उसमें स्थित शून्यता रूप की भी शून्यता है। ऐसी स्थिति में जब कि सर्वज्ञज्ञान में स्थित शून्यता रूप में भी विद्यमान है, तो वह कैसे धर्मकाय हो सकती है। अर्थात् सर्वज्ञज्ञान में स्थित शून्यता धर्मकाय नहीं है।
  • यह सिद्धान्त माध्यमिक मत से बहुत भिन्न है। माध्यमिकों के मत में एक धर्म की शून्यता दूसरे धर्म की शून्यता कथमपि नहीं हो सकती। फलत: उनके मत में सर्वज्ञज्ञान में जो शून्यता स्थित है, वह धर्मकाय होती है, जिसे 'स्वभावविशुद्ध स्वभावधर्मकाय' कहते हैं। ऐसा होने के कारण माध्यमिकों के मत में त्रिविध धर्मकाय होते हैं, यथा- द्विविधस्वभाव धर्मकाय और ज्ञानधर्मकाय। द्विविध स्वभाव धर्मकाय ये हैं- स्वभावविशुद्ध स्वभाव धर्मकाय एवं आगन्तुक विशुद्ध स्वभावधर्मकाय।

सम्भोग काय

सांसारिक अवस्था में बोधिसत्त्व का जो सास्त्रव शरीर होता है, वह दश भूमियों की अवस्था में क्रमश: शुद्ध होता जाता है। आख़िरी जन्म में बोधिसत्त्व 'चरमभविक बोधिसत्त्व' कहलाता है। वह चरमभविक बोधिसत्त्व अपने आख़िरी जन्म में कामधातु और रूपधातु के स्थानों में उत्पन्न नहीं होता, अपितु केवल अकनिष्ठ घनक्षेत्र में ही जन्मग्रहण करता है। वहाँ उसका शरीर अत्यन्त दिव्य होता है और कर्म-क्लेशों का उस पर कोई प्रभाव नहीं होता। उसी दिव्य जन्म में वह बुद्ध हो जाता है। बुद्ध होते ही व्यक्ति सम्भोगकाय हो जाता है और उसका शरीर 32 महापुरुष लक्षणों और 80 अनुव्यजंनों से विभूषित हो जाता है। वह सम्भोगकाय निम्न पाँच विनियतों से युक्त होता है।

  1. स्थानविनियत- वह सर्वदा केवल अकनिष्ठ घनक्षेत्र में ही स्थित रहता है।
  2. कायविनियत-उसका शरीर 32 महापुरुषलक्षण और 80 अनुव्यञ्जनों से सर्वदा युक्त रहता हे।
  3. परिवारविनियत- उनके परिवार में केवल महायानी आर्य बोधिसत्त्व ही रहते हैं।
  4. वाग्-विनियत- यह सदा महायान धर्म का ही उपदेश देते हैं।
  5. कालविनियत- वह यावत्-संसार अर्थात् जब तक संसार है, तब तक उसी रूप में स्थित रहते हैं।
  6. निर्माण काय
  • सम्भोगकाय सर्वदा अकनिष्ठ घनक्षेत्र में ही स्थित रहता है, तथापि वह सकल जगत् के कल्याणार्थ समस्त क्षेत्रों में शाक्यमुनि गौतम बुद्ध आदि के रूप में अनेक बुद्धों का निर्माण करता है। ऐसे बुद्धों को 'निर्माणकाय' कहते हैं। इनके स्थान आदि नियत नहीं होते। वाराणसी, मगध आदि अनेक स्थलों में वे भ्रमण करते रहते हैं। वे निर्माणकाय पशु, पक्षी, पृथग्जन आदि सभी जीवों के दृष्टिगोचर होते हैं तथा समस्त विनेय जनों के कल्याणार्थ श्रावक, प्रत्येक बुद्ध बोधिसत्त्व आदि सभी योनों का उपदेश करते हैं। निर्माणकाय तीन प्रकार के होते हैं, यथा :
  • उत्तम निर्माणकाय— उत्तम निर्माणकाय का सम्भोगकाय से साक्षात सम्बन्ध होता है। वे जम्बूद्वीप आदि विभिन्न लोकों में द्वादश(12)चरित (लीला) प्रदर्शित करते हैं। इन चरितों के द्वारा वे विनेय जनों का कल्याण सिद्ध करते हैं। यह काय भी 32 महापुरुषलक्षण और 80 अनुव्यजनों से विभूषित होता है। शाक्यमुनि गौतम बुद्ध इसके निदर्शन (उदाहरण) हैं।
  • द्वादश चरित इस प्रकार हैं-
  1. तुषित लोक से च्युति,
  2. मातृकुक्षि में प्रवेश,
  3. लुम्बिनी उद्यान में अवतरण,
  4. शिल्प कला में निपुणता एवं कौमार्योचित ललित क्रीडाएं,
  5. रानियों के परिवार के साथ राज्यग्रहण,
  6. चार निमित्तों (वृद्ध, रोगी, मृत आदि) को देखकर ससंवेग प्रव्रज्या,
  7. नेरजंना नदी के तट पर छह वर्षों तक कठोर तपश्चरण,
  8. बोधिवृक्ष के मूल में उपस्थिति,
  9. मान की सम्पूर्ण सेना का दमन,
  10. वैशाख पूर्णिमा के दिन बोधि की प्राप्ति,
  11. ऋषिपतन मृगदाव (सारनाथ) में धर्मचक्र-प्रवर्तन एवं
  12. कुशीनगर में महापरिनिर्वाण।

शैल्पिक निर्माणकाय

उत्तम निर्माणकाय को आधार बनाकर उत्तम कलाकार के रूप में प्रकट होना 'शैल्पिक निर्माणकाय' कहलाता है। एक समय शाक्यमुनि ने अपनी कला के अभिमानी गन्धर्वराज प्रमुदित का दमन करने के लिए स्वयं को वीणावादक के रूप में प्रकट किया था। यह 'शैल्पिक निर्माणकाय' का उदाहरण है।

नैर्याणिक निर्माणकाय

उत्तम निर्माणकाय एवं शैल्पिक निर्माणकाय के अतिरिक्त बुद्ध का अन्य सत्त्व के रूप में जन्म लेना 'नैर्याणिक निर्माणकाय' कहलाता है। उत्तम निर्माणकाय के रूप में राजा शुद्धोदन के पुत्र होने के पहले बुद्ध तुषित क्षेत्र में देवपुत्र सच्छ्वेतकेतु के रूप में उत्पन्न हुए थें उनका यह जन्म नैर्याणिक निर्माणकाय का उदाहरण है।

एकयानवाद

संसार में कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है, जो किसी न किसी दिन बुद्धत्व प्राप्त न कर लेगा। श्रावक और प्रत्येकबुद्ध भी, जिन्होंने निरुपधिशेष निर्वाण भी प्राप्त कर लिया है, यह सम्भव है कि अनेक कल्पों तक वे निर्वाणधातु में लीन रहें, फिर भी उनका एक न एक दिन महायान में प्रवेश होगा और वे अवश्य बुद्धत्व प्राप्त करेंगे। आचार्य धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक में जीवों की चित्तसन्तति को अनादि एवं अनन्त सिद्ध किया है[2]। इससे सिद्ध होता है कि निरुपधिशेषनिर्वाण की अवस्था में भी चित्तसन्तति विद्यमान होती है। जब चित्तसन्तति का उच्छेद नहीं होता, तब कोई कारण नहीं कि बुद्धत्व प्राप्त न किया जा सके। दोनों प्रकार के विज्ञानवादियों में आलयविज्ञान का मानना या न मानना ही सबसे बड़ा अन्तर है। किन्तु आलयविज्ञान मानने वाले विज्ञानवादी एकयानवादी ने होकर त्रियानवादी होते हैं, यह भी बड़ा अन्तर है। विज्ञानवाद की स्थापना या विज्ञप्तिमात्रता सिद्ध करने में भी यद्यपि दोनों के युक्तियों में भेद है, तथापि यह शैलीगत भेद है, मान्यताओं में नहीं।

तथागतगुह्यक

  • प्रारम्भिक तन्त्र महायानसूत्रों से बहुत मिलते-जुलते हैं। उदाहरणार्थ मञ्जुश्रीमूलकल्प अवतंसक के अन्तर्गत 'महावैपुल्यमहायानसूत्र', के रूप में प्रसिद्ध है।
  • विद्वानों की राय है कि तथागतगुह्य, गुह्यसमाजतन्त्र तथा अष्टादशपटल तीनों एक ही हैं। अर्थात् ग्रन्थ में जो तथागतगुह्यसूत्र के उद्धरण मिलते हैं, वे गुह्यसमाज से भिन्न हैं। अत: तथागतगुह्यसूत्र एवं गुह्यसमाजतन्त्र का अभेद नहीं है अर्थात् भिन्न-भिन्न हैं।
  • 'अष्टादश' इस नाम से यह प्रकट होता है कि इस ग्रन्थ में अठारह अध्याय या परिच्छेद हैं।
  • तथागतगुह्यसूत्र के अनुसार बोधिसत्त्व प्रणिधान करता है कि श्मशान में स्थित उसके मृत शरीर का तिर्यग योनि में उत्पन्न प्राणी यथेच्छ उपभोग करें और इस परिभोग की वजह से वे स्वर्ग से उत्पन्न हो। इतना ही नहीं, वह उनके परिनिर्वाण का भी हेतु हो। आगे विस्तार में पढ़ें:- तथागतगुह्यक

दशभूमीश्वर

  • गण्डव्यूह की भाँति यह सूत्र भी अवतंसक का एक भाग माना जाता है। इसमें बोधिसत्त्व की दस आर्यभूमियों का विस्तृत वर्णन है, जिन भूमियों पर क्रमश: अधिरोहण करते हुए बुद्धत्व अवस्था तक साधक पहुँचता है। 'महावस्तु' में इस सिद्धान्त का पूर्वरूप उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ में उक्त सिद्धान्त का परिपाक हुआ है।
  • महायान में इस सूत्र का अत्युच्च स्थान है। इसे दशभूमिक, दशभूमीश्वर एवं दशभूमक नाम से भी जाना जाता है।
  • आर्य असंग ने 'दशभूमक' शब्द का ही प्रयोग किया है। इसकी लोकप्रियता एवं प्रामाणिकता में यह प्रमाण है कि अत्यन्त प्राचीनकाल में ही इसके तिब्बती, चीनी, जापानी एव मंगोलियन अनुवाद हो गये थे।
  • श्री धर्मरक्ष ने इसका चीनी अनुवाद ई. सन् 297 में कर दिया था। इसके प्रतिपादन की शैली में लम्बे-लम्बे समस्त पद एवं रूपकों की भरमार है।
  • मिथिला विद्यापीठ ने डॉ. जोनेस राठर के संस्करण के आधार पर इसका पुन: संस्करण किया है।
  • ज्ञात है कि महायान में दस आर्यभूमियाँ मानी जाती हैं, यथा- प्रमुदिता, विमला, प्रभाकरी, अर्चिष्मती, सुदर्जया, अभिमुखी, दूरङ्गमा, अचला, साधुमती एवं धर्ममेधा।
  • आर्यावस्था से पूर्व जो पृथग्जन भूमि होती है, उसे 'अधिमुक्तिचर्याभूमि' कहते हैं। महायान में पाँच मार्ग होते हैं- सम्भारमार्ग, प्रयोगमार्ग, दर्शनमार्ग, भावनामार्ग एवं अशैक्षमार्ग। दर्शनमार्ग प्राप्त होने पर बोधिसत्त्व 'आर्य' कहलाने लगता है। उपर्युक्त दस भूमियाँ आर्य की भूमियाँ हैं। दर्शन मार्ग की प्राप्ति से पूर्व बोधिसत्व पृथग्जन होता है। सम्भारमार्ग एवं प्रयोगमार्ग पृथग्जनमार्ग हैं और उनकी भूमि अधिमुक्तिचर्याभूमि कहलाती है।
  • महायान गोत्रीय व्यक्ति बोधिचित्त का उत्पाद कर महायान में प्रवेश करता है। पृथग्जन अवस्था में सम्भार मार्ग एवं प्रयोगमार्ग का अभ्यास कर दर्शन मार्ग प्राप्त करते ही आर्य होकर प्रथम प्रमुदिता भूमि को प्राप्त करता है। आगे विस्तार में पढ़ें:- दशभूमीश्वर

वैभाषिक दर्शन

  • इनका बहुत कुछ साहित्य नष्ट हो गया है। इनका त्रिपिटक संस्कृत में था। इनके अभिधर्म में प्रमुख रूप में सात ग्रन्थ हैं, जो प्राय: मूल रूप में अनुपलब्ध हैं या आंशिक रूप में उपलब्ध हैं।
  • चीनी भाषा में इनका और इनकी विभाषा टीका का अनुवाद उपलब्ध है।
  • वे सात ग्रन्थ इस प्रकार हैं-
  1. ज्ञानप्रस्थान,
  2. प्रकरणपाद,
  3. विज्ञानकाय,
  4. धर्मस्कन्ध,
  5. प्रज्ञप्तिशास्त्र,
  6. धातुकाय एवं
  7. संगीतिपर्याय।
  • वैभाषिक और सर्वास्तिवादी दोनों अभिधर्म को बुद्धवचन मानते हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- वैभाषिक दर्शन


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अद्वयवज्रसंग्रह कुदृष्टिनिर्धातन, पृ. 6
  2. 1:46-47

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