साधु अखाड़ा

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अखाड़ा जिसका सीधा सा अर्थ है, एक ऐसी जगह जहां पहलवानी का शौक रखने वाले लोग दांव-पेच सीखते हैं। अखाड़े में बदन पर मिट्टी लपेटकर ताकत आजमाते हैं और दुश्मनों को पटखनी देने की नई-नई तकनीक ईजाद करते हैं। ये अखाड़े पहलवानी के काम आते हैं। बाद में कुछ ऐसे अखाड़े सामने आए, जिनमें पहलवानी के बजाय धर्म के दांव-पेच आजमाए जाने लगे। इनकी शुरुआत 'आदि गुरु' कहे जाने वाले शंकराचार्य ने की थी। भारत की प्राचीन परम्परा में अखाड़ों का इतिहास बहुत पुराना है। भारतीय इतिहास को देखें तो पता चलता है कि प्राचीन समय से ही राजा-महाराजाओं की अखाड़ों में रूचि रही। अखाड़ों में कुश्ती जैसी प्रतियोगिताएँ होती रहती थीं और पहलवानों को बड़े-बड़े पुरस्कारों से सम्मानित किया जाता था।

अखाड़ों का जन्म

आदि शंकराचार्य ने सदियों पहले बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रसार और मुग़लों के आक्रमण से हिन्दू संस्कृति को बचाने के लिए अखाड़ों की स्थापना की थी। शाही सवारी, हाथी-घोड़े की सजावट, घंटा-नाद, नागा-अखाड़ों के करतब और तलवार और बंदूक का खुले आम प्रदर्शन यह अखाड़ों की पहचान है। यह साधुओं का वह दल है जो शस्त्र विद्या में पारंगत होता है। अखाड़ों से जुड़े संतों के मुताबिक जो शास्त्र से नहीं मानते, उन्हें शस्त्र से मनाने के लिए अखाड़ों का जन्म हुआ। इन अखाड़ों ने स्वतंत्रता संघर्ष में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आजादी के बाद इन अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया था। शुरू में सिर्फ 4 प्रमुख अखाड़े थे, लेकिन वैचारिक मतभेद की वजह से उनका बंटवारा होता गया।[1]

ऐसे मिला नाम

अखाड़ा, यूं तो कुश्ती से जुड़ा हुआ शब्द है, किंतु जहां भी दांव-पेंच की गुंजाइश होती है, वहां इसका प्रयोग भी होता है। पहले आश्रमों के अखाड़ों को 'बेड़ा' अर्थात 'साधुओं का जत्था' कहा जाता था। पहले अखाड़ा शब्द का चलन नहीं था। साधुओं के जत्थे में पीर होते थे। अखाड़ा शब्द का चलन मुग़ल काल से शुरू हुआ। हालांकि, कुछ ग्रंथों के मुताबिक 'अलख' शब्द से ही 'अखाड़ा' शब्द की उत्पत्ति हुई है। जबकि धर्म के कुछ जानकारों के मुताबिक साधुओं के अक्खड़ स्वभाव के चलते इसे अखाड़ा का नाम दिया गया।

क्या अक्षवाट से बना अखाड़ा?

अखाड़ा, यूं तो कुश्ती से जुड़ा हुआ शब्द है, लेकिन जहां भी दांव-पेंच की गुंजाइश होती है, वहां इसका प्रयोग भी होता है। प्राचीन काल में भी राज्य की ओर से एक निर्धारित स्थान पर जुआ खिलाने का प्रबंध किया जाता था, जिसे 'अक्षवाट' कहते थे। अक्षवाट, बना है दो शब्दों 'अक्ष' और 'वाटः' से मिलकर। अक्ष के कई अर्थ हैं, जिनमें एक अर्थ है चौसर या चौपड़, अथवा उसके पासे। वाट का अर्थ होता है घिरा हुआ स्थान। यह बना है संस्कृत धातु वट् से जिसके तहत घेरना, गोलाकार करना आदि भाव आते हैं। इससे ही बना है उद्यान के अर्थ में वाटिका जैसा शब्द। चौपड़ या चौरस जगह के लिए बने वाड़ा जैसे शब्द के पीछे भी यही वट् धातु का ही योगदान रहा है। इसी तरह वाट का एक रूप बाड़ा भी हुआ, जिसका अर्थ भी घिरा हुआ स्थान है। अप्रभंश के चलते कहीं-कहीं इसे बागड़ भी बोला जाता है।

इस तरह देखा जाए तो, अक्षवाटः का अर्थ हुआ, ‘द्यूतगृह अर्थात जुआघर।’ अखाड़ा शब्द संभवत: यूं बना होगा- अक्षवाटः अक्खाडअ, अक्खाडा, अखाड़ा। इसी तरह अखाड़े में वे सब शारीरिक क्रियाएं भी आ गईं, जिन्हें क्रीड़ा की संज्ञा दी जा सकती थी और जिन पर दांव लगाया जा सकता था। जाहिर है प्रभावशाली लोगों के बीच शान और मनोरंजन की लड़ाई के लिए कुश्ती का प्रचलन था, इसलिए धीरे-धीरे कुश्ती का बाड़ा अखाड़ा कहलाने लगा और जुआघर को अखाड़ा कहने का चलन खत्म हो गया। अब तो व्यायामशाला को भी अखाड़ा कहते हैं और साधु-संन्यासियों के मठ या रुकने के स्थान को भी अखाड़ा कहा जाता है। हलांकि आधुनिक व्यायामशाला का निर्माण स्वामी समर्थ रामदान की देन है, लेकिन संतों के अखाड़ों का निर्माण पुराने समय से ही चला आ रहा है। व्यायाम शाला में पहलवान कुश्ती का अभ्यास करते हैं। दंड, बैठक आदि लगाकर शारीरिक श्रम करते हैं वहीं संतों के अखाड़ों में भी शारीरिक श्रम के साथ ही अस्त्र और शास्त्र का अभ्यास करते हैं।[2]

13 अखाड़ों के जिम्मे हिंदू धर्म

माना जाता है कि भारत में जो सनातन धर्म है, उसके हालिया स्वरूप को आदि गुरु शंकराचार्य ने स्थापित किया था। देश के चार कोनों उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम, पूर्व में जगन्नाथ पुरी और पश्चिम में द्वारिका पीठ की स्थापना कर शंकराचार्य ने धर्म को स्थापित करने की कोशिश की। इसी दौरान उन्हें लगा कि जब समाज में धर्म की विरोधी शक्तियां सिर उठा रही हैं, तो सिर्फ आध्यात्मिक शक्ति के जरिए ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है। शंकराचार्य ने जोर दिया कि युवा साधु कसरत करके शरीर को सुदृढ़ बनाएं और कुछ हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें। इसके लिए ऐसे मठ स्थापित किए गए, जहां कसरत के साथ ही हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। ऐसे ही मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा। शंकराचार्य ने ये भी सुझाव दिया कि मठ, मंदिरों और श्रद्धालुओं की सुरक्षा के लिए जरूरत पड़ने पर शक्ति का इस्तेमाल किया जा सकता है। इस तरह अखाड़ों का जन्म हुआ। फिलहाल देश में कुल 13 अखाड़े हैं।[3]

तीन मतों में बंटे 13 अखाड़े

हिंदू धर्म के ये सभी 13 अखाड़े तीन मतों में बंटे हुए हैं। इनके अलावा पिछले साल नासिक में हुए महाकुंभ के दौरान परी अखाड़े और किन्नर अखाड़े ने भी मान्यता मांगी थी, लेकिन अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने मान्यता देने से इनकार कर दिया था।

शैव संन्यासी संप्रदाय

इसके पास सात अखाड़े हैं। शिव और उनके अवतारों को मानने वाले शैव कहे जाते हैं। शैव में शाक्त, नाथ, दशनामी, नाग जैसे उप संप्रदाय हैं।[3]

  1. श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी, दारागंज, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश - महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की पूजा का जिम्‍मा इसी अखाड़े के पास है। यह परंपरा पिछले कई साल से चली आ रही है।
  2. श्री पंच अटल अखाड़ा, चौक, वाराणसी, उत्तर प्रदेश - इस अखाड़े में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ही दीक्षा ले सकते हैं।
  3. श्री पंचायती अखाड़ा निरंजनी, दारागंज, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश - यह अखाड़ा सबसे ज्यादा शिक्षित अखाड़ा है। इस अखाड़े में करीब 50 महामंडलेश्वर हैं।
  4. श्री तपोनिधि आनंद अखाड़ा पंचायती, त्रयंबकेश्वर, नासिक - यह शैव अखाड़ा है जिसमें महामंडलेश्वर नहीं होते। आचार्य का पद ही प्रमुख होता है।
  5. श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा, बाबा हनुमान घाट, वाराणसी - सबसे बड़ा अखाड़ा है। करीब 5 लाख साधु संत इससे जुड़े हैं।
  6. श्री पंचदशनाम आवाहन अखाड़ा, दशाश्वमेध घाट, वाराणसी, उत्तर प्रदेश - अन्‍य अखाड़ों में महिला साध्वियों को भी दीक्षा दी जाती है लेकिन इस अखाड़े में ऐसी कोई परंपरा नहीं है।
  7. श्री पंचदशनाम पंच अग्नि अखाड़ा, गिरीनगर, भवनाथ, जूनागढ़, गुजरात - इस अखाड़े में केवल ब्रह्मचारी ब्राह्मण ही दीक्षा ले सकते है। कोई अन्य दीक्षा नहीं ले सकता है।

वैरागी संप्रदाय

इनके पास तीन अखाड़े हैं। वैष्णव सम्प्रदाय के लोग विष्णु को ईश्वर मानते हैं। वैष्णव के बहुत से उप संप्रदाय हैं। इनमें बैरागी, दास, रामानंद, वल्लभ, निम्बार्क, माधव, राधावल्लभ, सखी और गौड़ीय शामिल हैं।

  1. श्री दिगंबर अनी अखाड़ा, शामलाजी खाक चौक मंदिर, सांभर कांथा, गुजरात - इस अखाड़े को वैष्णव संप्रदाय में राजा कहा जाता है।
  2. श्री निर्वानी अनी अखाड़ा, हनुमान गढ़, अयोध्या, उत्तर प्रदेश - वैष्णव संप्रदाय के तीनों अनी अखाड़ों में से इसी में सबसे ज्यादा अखाड़े शामिल हैं। इनकी संख्या 9 है।
  3. श्री पंच निर्मोही अनी अखाड़ा, धीर समीर मंदिर बंसीवट, वृंदावन, मथुरा, उत्तर प्रदेश - अखाड़े में कुश्ती प्रमुख होती है जो इनके जीवन का एक हिस्सा है। अखाड़े के कई संत प्रोफेशनल पहलवान रह चुके हैं।

उदासीन संप्रदाय

उदासीन संप्रदाय में भी तीन अखाड़े हैं। ये सिक्ख साधुओं का संप्रदाय है जिसकी कुछ शिक्षाएं सिक्ख पंथ से ली गई हैं। ये लोग सनातन धर्म को मानते हैं।

  1. श्री पंचायती बड़ा उदासीन अखाड़ा, कृष्णनगर, कीडगंज, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश - इस अखाड़े उद्देश्‍य सेवा करना है। इस अखाड़े में केवल 4 महंत होते हैं जो हमेशा सेवा में लगे रहते हैं।
  2. श्री पंचायती अखाड़ा नया उदासीन, कनखल, हरिद्वार, उत्तराखंड - इस अखाड़े में 8 से 12 साल तक के बच्चों को दीक्षा दी जाती है।
  3. श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा, कनखल, हरिद्वार, उत्तराखंड - इस अखाड़े में धूम्रपान की इजाजत नहीं है। इस बारे में अखाड़े के सभी केंद्रों के गेट पर इसकी सूचना लिखी होती है।[3]
अतिरिक्त

इसके अलावा भी सिक्ख, वैष्णव और शैव साधु-संतों के अखाड़े हैं जो कुंभ स्नान में भाग लेते हैं-

  • शैव संप्रदाय - आवाह्न, अटल, आनंद, निरंजनी, महानिर्वाणी, अग्नि, जूना, गुदद।
  • वैष्णव संप्रदाय - निर्मोही, दिगंबर, निर्वाणी।
  • उदासीन संप्रदाय - बड़ा उदासीन, नया उदासीन निर्मल संप्रदाय- निर्मल अखाड़ा।

अनुष्ठानों में सक्रिय भागीदारी

ये सभी 13 अखाड़े हिंदू धर्म से जुड़े रीति-रिवाजों और त्योहारों का आयोजन करते रहते हैं। कुंभ और अर्द्ध कुम्भ के आयोजन में इन अखाड़ों की खास भूमिका होती है। कुंभ देश में चार जगहों पर लगता है, जिनमें इलाहाबाद, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन हैं। हर 12 साल में एक जगह पर कुंभ का आयोजन होता है। इलाहाबाद और हरिद्वार में हर छह साल में अर्धकुंभ का आयोजन किया जाता है। कुंभ और अर्धकुंभ में स्नान के दौरान इन सभी अखाड़ों को विशेष सुविधाएं मिलती हैं। नहाने के लिए विशेष प्रबंध होते हैं और इनके नहाने के बाद ही आम श्रद्धालु स्नान कर सकता है। 1954 में इसी तरह इलाहाबाद में कुंभ का आयोजन हुआ था। उसी दौरान भगदड़ मच गई, जिसमें सैकड़ों लोगों की मौत हो गई। इससे पहले भी आयोजित हुए कुंभ और अर्धकुंभ के अलावा दूसरे धार्मिक आयोजनों में अखाड़ों के बीच वर्चस्व की लड़ाई चलती रहती थी। इससे बचने के लिए 1954 में 'अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद' की स्थापना की गई। इसके तहत कुल 13 अखाड़े शामिल हैं। इसी बैठक में सभी अखाड़ों के कुंभ और अर्धकुंभ में स्नान का वक्त और उनकी जिम्मेदारी तय कर दी गई थी, जिसे सभी अखाड़े अब भी मानते हैं।

महामंडलेश्वर का पद

किसी भी अखाड़े में महामंडलेश्वर का पद सबसे ऊंचा होता है। महामंडलेश्वर पद शैव संप्रदाय के दशनामी संन्यासियों ने ईजाद किया था। दशनामी शब्द उन संन्यासियों के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जो शंकराचार्य के अनुयायी हैं। हालांकि ये भी माना जाता है कि दक्षिण भारत के श्रृंगेरी मठ के तीसरे आचार्य सुरेश्वराचार्य ने जिन संन्यासियों का गुट बनाया था, उन्हें दशनामी कहा जाता है। हकीकत जो भी हो, लेकिन अखाड़े में महामंडलेश्वर सबसे ऊंचा ओहदा होता है। दशनामी संन्यासियों ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए महामंडलेश्वर का पद बनाया और उसकी कुछ योग्यताएं तय कर दीं। महामंडलेश्वर ऐसे व्यक्ति को बनाया जाता है, जो साधु चरित्र और शास्त्रीय पांडित्य दोनों के देश-दुनिया में जाना जाता हो। पहले ऐसे लोगों को 'परमहंस' कहा जाता था। 18वीं शताब्दी में उन्हें महामंडलेश्वर की उपाधि दी गई। महामंडलेश्वर की पदवी धारण करने वाले जितने भी लोग होते हैं, उनमें जो सबसे ज्यादा ज्ञानी होता है, उसे आचार्य महामंडलेश्वर कहते हैं। हालांकि कुछ अखाड़ों में महामंडलेश्वर नहीं होते हैं। उनमें आचार्य का पद ही प्रमुख होता है।[3]

महामंडलेश्वर की बढ़ती संख्या

सनातन धर्म के रक्षक माने जाने वाले अखाड़ों के लिए महामंडलेश्वर धनकुबेर भी साबित होते हैं|.शायद यही वजह है कि लगभग सभी अखाड़ों में महामंडलेश्वरों की संख्या बढ़ती जा रही है| सचिन दत्ता को जब महामंडलेश्वर पद दिया गया था, तो उस दौरान परी अखाड़े की महामंडलेश्वर त्रिकाल भवंता ने भी माना था कि अखाड़ों में पैसे का वर्चस्व बढ़ गया है|.अखाड़ों से जुड़े लोगों की मानें तो संन्यासी संप्रदाय से जुड़े अखाड़ों में महामंडलेश्वर पद के लिए 75 लाख से एक करोड़ रुपये तक खर्च किए जाते हैं|.वहीं वैष्णव संप्रदाय से जुड़े अखाड़ों में महामंडलेश्वर बनने के लिए 40 से 50 लाख रुपये खर्च करने पड़ते हैं| अखाड़ा जितना बड़ा है, रकम भी उतनी ही बड़ी होती है|.सचिन के महामंडलेश्वर बनने में भी दो करोड़ रुपये खर्च करने की बात सामने आई थी। 2001 तक उदासीन और संन्यासी अखाड़ों में लगभग 100 महामंडलेश्वर थे। 2013 के प्रयाग अर्धकुंभ में इनकी संख्या 300 से अधिक हो गई थी। 2001 में वैष्णव संप्रदाय के अखाड़ों में महामंडलेश्वरों की संख्या 400 से अधिक थी, जो 2013 तक बढ़कर 700 से अधिक पहुंच गई थी।[3]

अखाड़ों का अलग नियम

कुंभ में शामिल होने वाले सभी अखाड़े अपने अलग-नियम और कानून से संचालित होते हैं। यहां जुर्म करने वाले साधुओं को अखाड़ा परिषद सजा देता है। छोटी चूक के दोषी साधु को अखाड़े के कोतवाल के साथ गंगा में पांच से लेकर 108 डुबकी लगाने के लिए भेजा जाता है। डुबकी के बाद वह भीगे कपड़े में ही देवस्थान पर आकर अपनी गलती के लिए क्षमा मांगता है। फिर पुजारी पूजा स्थल पर रखा प्रसाद देकर उसे दोषमुक्त करते हैं। विवाह, हत्या या दुष्कर्म जैसे मामलों में उसे अखाड़े से निष्कासित कर दिया जाता है। अखाड़े से निकल जाने के बाद ही इन पर भारतीय संविधान में वर्णित कानून लागू होता है।[1]

यदि अखाड़े के दो सदस्य आपस में लड़ें-भिड़ें, कोई नागा साधु विवाह कर ले या दुष्कर्म का दोषी हो, छावनी के भीतर से किसी का सामान चोरी करते हुए पकड़े जाने, देवस्थान को अपवित्र करे या वर्जित स्थान पर प्रवेश, कोई साधु किसी यात्री, यजमान से अभद्र व्यवहार करे, अखाड़े के मंच पर कोई अपात्र चढ़ जाए तो उसे अखाड़े की अदालत सजा देती है। अखाड़ों के कानून को मानने की शपथ नागा बनने की प्रक्रिया के दौरान दिलाई जाती है। अखाड़े का जो सदस्य इस कानून का पालन नहीं करता उसे भी निष्काषित कर दिया जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 जानिए अखाड़ों के इतिहास, इनके अलग कानून और सजा के बारे में (हिंदी) bhaskar.com। अभिगमन तिथि: 22 सितम्बर, 2021।
  2. अखाड़ा क्या है, जानिए इसका महत्व (हिंदी) hindi.webdunia.com। अभिगमन तिथि: 22 सितम्बर, 2021।
  3. 3.0 3.1 3.2 3.3 3.4 कहानी उन अखाड़ों की, जो बाबाओं को सर्टिफिकेट देते हैं (हिंदी) thelallantop.com। अभिगमन तिथि: 22 सितम्बर, 2021।

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