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'''महागणपति''' [[महाराष्ट्र]] राज्य के राजणगाँव में स्थित भगवान [[गणेश]] के '[[अष्टविनायक]]' पीठों में से एक है। 'महागणपति' को अष्टविनायकों में गणेश जी का सबसे दिव्य और शक्तिशाली स्वरूप माना जाता है। यह अष्टभुजा, दशभुजा या द्वादशभुजा वाले माने जाते हैं। त्रिपुरासुर दैत्य को मारने के लिए गणपति ने यह रूप धारण किया था। इसलिए इनका नाम 'त्रिपुरवेद महागणपति' नाम से प्रसिद्ध हुआ। | '''महागणपति''' [[महाराष्ट्र]] राज्य के राजणगाँव में स्थित भगवान [[गणेश]] के '[[अष्टविनायक]]' पीठों में से एक है। 'महागणपति' को अष्टविनायकों में गणेश जी का सबसे दिव्य और शक्तिशाली स्वरूप माना जाता है। यह अष्टभुजा, दशभुजा या द्वादशभुजा वाले माने जाते हैं। त्रिपुरासुर दैत्य को मारने के लिए गणपति ने यह रूप धारण किया था। इसलिए इनका नाम 'त्रिपुरवेद महागणपति' नाम से प्रसिद्ध हुआ। | ||
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महागणपति महाराष्ट्र राज्य के राजणगाँव में स्थित भगवान गणेश के 'अष्टविनायक' पीठों में से एक है। 'महागणपति' को अष्टविनायकों में गणेश जी का सबसे दिव्य और शक्तिशाली स्वरूप माना जाता है। यह अष्टभुजा, दशभुजा या द्वादशभुजा वाले माने जाते हैं। त्रिपुरासुर दैत्य को मारने के लिए गणपति ने यह रूप धारण किया था। इसलिए इनका नाम 'त्रिपुरवेद महागणपति' नाम से प्रसिद्ध हुआ।
स्थिति व पौराणिक उल्लेख
भगवान गणेश का यह मंदिर पुणे-अहमदनगर महामार्ग पर पुणे से 50 किलोमीटर की दूरी पर राजणगाँव में स्थित है। शिव से विजय का वरदान पाने के उपरांत गणेश भगवान ने दैत्य त्रिपुरासुर का वध किया था, इसलिए इस मंदिर का नाम 'त्रिपुरारिवरदे महागणपति' पड़ा। महागणपति अष्टभुजा, द्वादशभुजा वाले माने जाते हैं। उनकी इस मूर्ति की दस सूंड़ें व बीस भुजाएँ हैं। भगवान के यह अष्ट रूप उनकी महिमा और उदारता के उदाहरण हैं। वेदों, पुराणों में श्री गणेश की महिमा का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है। ऋग्वेद में कहा गया है ‘न ऋते त्वम क्रियते किं चनारे’ अर्थात- "हे गणपति महाराज, तुम्हारे बिना कोई भी शुभ कार्य प्रारंभ नहीं किया जाता है। तुम्हें वैदिक देवता की उपाधि प्राप्त है"। गणेश आदिदेव हैं, उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व प्रभावी गुणों से युक्त है। गणेशजी के सभी रूप एवं प्रतीक यह दर्शाते हैं कि हम अपनी बुद्धि को जाग्रत रखें। अच्छी बातों को ग्रहण करें, पापों का शमन करें तथा तमोगुण को दूर कर सत्वगुणों का विस्तार करें।[1]
कथा
कथानुसार त्रिपुरासुर नामक एक दानव ने शिव के वरदान से तीन शक्तिशाली क़िलों का निर्माण किया, जिससे वह स्वर्ग में और पृथ्वी पर सभी प्राणियों को दु:ख देता था। भक्तों की प्रार्थना सुनने के बाद शिवजी ने इस दानव का नाश करना चाहा, किंतु वे असफल रहे। इस पर नारदमुनी की सलाह मान कर शिवजी ने गणेश को नमन किया और तीनों क़िलों को मध्यम से छेदते हुए एक एकल तीर से भेद दिया। शिव का मंदिर पास ही भीमाशंकरम में स्थित है।[2]
मंदिर तथा मूर्ति
मंदिर में स्थापित मूर्ति का मुँह पूरब की ओर है तथा सूँड़ बायीं ओर है। मूर्ति के विषय में यह माना जाता है कि मूल मूर्ति, जिसकी दस सूँड़ व दस भुजाएँ हैं, वह तहखाने मे बंद है। लेकीन मंदिर के प्राधिकारी इस बात को गलत बताते हैं। इस मंदिर की वास्तुकला 9वीं और 10वीं सदियों की वास्तुकला की याद ताजा करती है। इसकी बनावट ऐसी है कि सूर्य की किरणें सीधे मूर्ति पर पड़ती हैं। मराठा पेशवा माधवराव इस मंदिर की अक्सर यात्रा करते थे। उन्होंने सन 1790 में मूर्ति के आस-पास पत्थर के गर्भगृह का निर्माण करवाया था। श्री अन्याबा देव मूर्ति पूजा के लिए अधिकृत थे। माना जाता हैं की यहाँ त्रिपुरासुर का नाश करने से पहले गणेशजी की पूजा हुई थी। इस मंदिर का निर्माण शिवजी ने किया था और यहाँ उन्होंने मणिपूर नामक एक गाँव भी बसाया था। इस जगह को अब राजणगाँव कहते हैं। गाँव के महागणपती 'अष्टविनायक' में से एक हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्री अष्टविनायक (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 31 जनवरी, 2013।
- ↑ गणेशोत्सव सार (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 31 जनवरी, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख