वराह पुराण

'वराह पुराण' वैष्णव पुराण है। विष्णु के दशावतारों में एक अवतार 'वराह' का है। पृथ्वी का उद्धार करने के लिए भगवान विष्णु ने यह अवतार लिया था। इस अवतार की विस्तृत व्याख्या इस पुराण में की गई है।

Varaha Avatar
इस पुराण में दो सौ सत्तरह अध्याय और लगभग दस हज़ार श्लोक हैं। इन श्लोकों में भगवान वराह के धर्मोपदेश कथाओं के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। 'वराह पुराण' एक योजनाबद्ध रूप से लिखा गया पुराण है। पुराणों के सभी अनिवार्य लक्षण इसमें मिलते हैं। मुख्य रूप से इस पुराण में तीर्थों के सभी माहात्म्य और पण्डों-पुजारियों को अधिक से अधिक दान-दक्षिणा देने के पुण्य का प्रचार किया गया है। साथ ही कुछ सनातन उपदेश भी हैं जिन्हें ग्रहण करना प्रत्येक प्राणी का लक्ष्य होना चाहिए। वे अति उत्तम हैं।

Massive rock carving depicting Vishnu, in his Varaha incarnation, Udaygiri
विष्णु पूजा
'वराह पुराण' में विष्णु पूजा का अनुष्ठान विधिपूर्वक करने की शिक्षा दी गई है। साथ ही त्रिशक्ति माहात्म्य, शक्ति महिमा, गणपति चरित्र, कार्तिकेय चरित्र, रुद्र क्षेत्रों का वर्णन, सूर्य, शिव, ब्रह्मा माहात्म्य, तिथियों के अनुसार देवी-देवताओं की उपासना विधि और उनके चरित्रों का सुन्दर वर्णन भी किया गया है। इसके अतिरिक्त अग्निदेव, अश्विनीकुमार, गौरी, नाग, दुर्गा, कुबेर, धर्म, रुद्र, पितृगण, चन्द्र की उत्पत्ति, मत्स्य और कूर्मावतारों की कथा, व्रतों का महत्त्व, गोदान, श्राद्ध तथा अन्य अनेकानेक संस्कारों एवं अनुष्ठानों को विधिपूर्वक सम्पन्न करने पर बल दिया गया है। सभी धर्म-कर्मों में दान-दक्षिणा की महिमा का बखान भी है।
दशावतार

Buddha
इस पुराण में 'दशावतार' की कथा पारम्परिक रूप में न देकर विविध मासों की द्वादशी व्रत के माहात्म्य के रूप में दी गई है। यथा-मार्गशीर्ष मास की द्वादशी में 'मत्स्य अवतार', पौष मास में 'कूर्म अवतार', माघ मास में 'वराह अवतार', फाल्गुन मास में 'नृसिंह अवतार', चैत्र मास में 'वामन अवतार', वैशाख मास में 'परशुराम अवतार', ज्येष्ठ मास में 'राम अवतार', आषाढ़ मास में 'कृष्ण अवतार', श्रावण मास में 'बुद्ध अवतार' और भाद्रपद मास में 'कल्कि अवतार' के स्मरण का माहात्म्य बताया गया है।
नारायण भगवान की पूजा

आश्विन मास में पद्मनाभ भगवान की और कार्तिक मास में धरणी व्रत के लिए नारायण भगवान की पूजा करने को कहा गया है। इन सभी वर्णनों में पूजा विधि लगभग एक जैसी है। यथा-व्रत-उपवास करके भगवान की पूजा करें। फिर श्रद्धा और शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराएं। उन्हें दान-दक्षिणा दें। इस प्रकार भगवान की पूजा के बहाने दान-दक्षिणा की खुलकर महिमा गाई गई है। इसे श्रेष्ठतम पुण्य कार्य बताया गया है।

God Vishnu
सृष्टि
सृष्टि की रचना, युग माहात्म्य, पशुपालन, सप्त द्वीप वर्णन, नदियों और पर्वतों के वर्णन, सोम की उत्पत्ति, तरह-तरह के दान-पुण्य की महिमा, सदाचारों और दुराचारों के फलस्वरूप स्वर्ग-नरक के वर्णन, पापों का प्रायश्चित्त करने की विधि आदि का विस्तृत वर्णन इस पुराण में किया गया है। महिषासुर वध की कथा भी इसमें दी गई है। 'वराह पुराण' में श्राद्ध और पिण्ड दान की महिमा का वर्णन विस्तार से किया गया है। इस पुराण की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वास्तविक धर्म के निरूपण की व्याख्या इसमें बहुत अच्छी तरह की गई है।

Radha-Krishna
नचिकेता
इसका 'नचिकेता उपाख्यान' भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसमें पाप समूह और पाप-नाश के उपायों का सुन्दर वर्णन किया गया है। कुछ प्रमुख पाप कर्मों का उल्लेख करते हुए पुराणकार कहता है कि हिंसा, चुगली, चोरी, आग लगाना, जीव हत्या, असत्य कथन, अपशब्द बोलना, दूसरों को अपमानित करना, व्यंग्य करना, झूठी अफवाहें फैलाना, स्त्रियों को बहकाना, मिलावट करना आदि भी पाप हैं। नारद और यम के संवाद में मनुष्य पाप कर्म से किस प्रकार बचे- इसका उत्तर देते हुए यम कहते हैं कि यह संसार मनुष्य की कर्मभुमि है। जो भी इसमें जन्म लेता है, उसे कर्म करने ही पड़ते हैं। कर्म करने वाला स्वयं ही अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी होता है। आत्मा ही आत्मा का बन्धु, मित्र और सगा होता है। आत्मा की आत्मा का शत्रु भी होता है। जिस व्यक्ति का अन्त:कारण शुद्ध है, जिसने अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त कर ली है और जो समस्त प्राणियों में समता का भाव रखता है; वह सत्यज्ञानी मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है। जो व्यक्ति योग तथा प्राणायाम द्वारा 'मन' और 'इन्द्रियों' पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह सभी तरह के पापों से छुटकारा पा जाता है। जो व्यक्ति मन-वचन-कर्म से किसी जीव की हिंसा नहीं करता, किसी को दुख नहीं पहुंचाता, जो लोभ और क्रोध से रहित है, जो सदा न्याय-नीति पर चलता है तथा शुभ कर्म करते हुए अशुभ कर्मों से दूर रहता है; वह किसी पाप का भागीदार नहीं होता।
'वराह पुराण' का भौगोलिक वर्णन अन्य पुराणों के भौगोलिक वर्णनों से अधिक प्रामाणिक और स्पष्ट है। मथुरा के तीर्थों का वर्णन अत्यन्त विस्तृत रूप से इस पुराण में किया गया है। कहने का आशय यही है कि 'वराह पुराण' का विवरण अन्य पुराणों की तुलना में अत्यन्त सारगर्भित है।

Parashurama
चारों वर्णों के लिए
चारों वर्णों के लिए सत्य धर्म का पालन और शुद्ध आचरण करने पर बल दिया गया है।'ब्राह्मण' को अहंकार रहित, स्वार्थ रहित, जितेन्द्रिय और अनासक्त योगी की भांति होना चाहिए। 'क्षत्रिय' को अहंकार रहित, आदरणीय तथा छट-कपट से दूर रहना चाहिए। 'वैश्य' को धर्मपरायण, दानी, लाभ-हानि की चिन्ता न करने वाला और कर्त्तव्य परायण होना चाहिए। 'शूद्र' को अपने सभी कार्य निष्काम भाव और सेवा भाव से भगवान को अर्पण करते हुए करने चाहिए। उसे अतिथि सत्कार करने वाला, शुद्धात्मा, विनयशील, श्रद्धावान और अहंकार विहीन होना चाहिए। ऐसा शूद्र हज़ारों ऋषियों से बढ़कर होता है। उसकी सेवा के लिए सभी को सदैव तत्पर रहना चाहिए।

Narsingh Bhagwan
इस कलियुग में ब्राह्मण अपने कर्त्तव्यों से विमुख, पाखण्डी, स्वार्थी और कामवासनाओं के दास हो गए हैं। इसके पीछे एक कथानक 'वराह पुराण' में दिया गया है। एक बार कुछ ब्राह्मण ऋषि गौतम ऋषि के आश्रम में जाकर एक मायावी गाय बांध आए। उस समय भयानक अकाल पड़ रहा था। गौतम जी आश्रम में आए। जब उन्होंने मायावी गाय को अटाने के लिए पानी का छींटा मारा तो वह मर गई। ऋषियों ने तत्काल उन पर गौहत्या का दोष लगा दिया। गौतम ऋषि ने अपने तपोबल से उस गाय को पुन: जीवित कर दिया। तब लज्जित हुए ऋषियों को गौतम ऋषि ने शाप दिया कि वे तीनों वेदों के भूल जाएंगे। तभी से कलियुग में ब्राह्मण पतन की ओर उन्मुख हैं।
'वराह पुराण' के अन्य अपाख्यानों में चील, सियार, खंजन आदि पशु-पक्षियों द्वारा यह उपदेश दिया गया है कि सच्चा सुख उसी को प्राप्त होता है जो स्वार्थ त्याग कर परोपकार और परमार्थ का जीवन व्यतीत करता है। ईश्वर का सच्चा भक्त वही है, जो परनिन्दा नहीं करता, सदैव सत्य बोलता है तथा परस्त्री पर बुरी दृष्टि नहीं डालता। धर्म कोई बंधी-बंधाई वस्तु नहीं है। सभी विद्वानों ने धर्म की व्याख्या अपने-अपने ढंग से की है। देश-काल के अनुसार धर्म के रूप बदलते रहते हैं।
इसलिए कहा गया है कि जो मनुष्य धर्म के सत्य-स्वरूप को अच्छी प्रकार समझते हैं, वे कभी दूसरे धर्मों का अपमान या निरादर नहीं करते। वे सभी धर्मों का समान रूप से आदर करते हैं। किसी वाद-विवाद में नहीं पड़ते। इस पुराण का यही उपदेश और यही उद्देश्य है, जो अत्यन्त व्यापक तथा उदात्त है। पाप का प्रायश्चित्त ही मन की सच्ची शान्ति है।
संबंधित लेख |