"संत ज्ञानेश्वर" के अवतरणों में अंतर

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==पारिवारिक पृष्ठभूमि==
'''संत ज्ञानेश्वर''' (जन्म- 1275 ई. मृत्यु- 1296 ई.) की गणना [[भारत]] के महान [[संत|संतों]] एवं मराठी कवियों में होती है।
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संत ज्ञानेश्वर के पूर्वज पैठण के पास [[गोदावरी नदी|गोदावरी]] तट के निवासी थे और बाद में 'आलंदी' नामक गाँव में बस गए थे। ज्ञानेश्वर के पितामह 'त्र्यंबक पंत' गोरखनाथ के शिष्य और परम [[भक्त]] थे। ज्ञानेश्वर के [[पिता]] विट्ठल पंत इन्हीं त्र्यंबक पंत के पुत्र थे। विट्ठल पंत बड़े विद्वान और भक्त थे। उन्होंने देशाटन करके शास्त्रों का अध्ययन किया था। उनके विवाह के कई वर्ष हो गए थे पर कोई संतान नहीं हुई। इस पर उन्होंने सन्न्यास लेने का निश्चय किया, पर स्त्री इसके पक्ष में नहीं थी। इसलिए वे चुपचाप घर से निकलकर [[काशी]] में स्वामी रामानंद के पास पहुँचे और यह कहकर कि संसार में मैं अकेला हूं, उनसे सन्न्यास की दीक्षा ले ली।
==परिचय==
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====जन्म====
संत ज्ञानेश्वर का जन्म [[महाराष्ट्र]] के [[अहमदनगर ज़िला|अहमदनगर ज़िले]] में पैठण के पास आपेगाँव में [[भाद्रपद]] के [[कृष्ण पक्ष]] की [[अष्टमी]] को हुआ था। संत ज्ञानेश्वर के पिता का नाम विट्ठल पंत एवं माता का नाम रुक्मिणी बाई था। संत ज्ञानेश्वर की बहन का नाम मुक्ताबाई था। संत ज्ञानेश्वर के दोंनों भाई निवृत्तिनाथ एवं सोपानदेव भी संत स्वभाव के थे। संत ज्ञानेश्वर के पिता ने जवानी में ही गृहस्थ का परित्याग कर संन्यास ग्रहण कर लिया था परंतु गुरु आदेश से उन्हें फिर से गृहस्थ-जीवन को शुरू करना पड़ा। इस घटना को समाज ने मान्यता नहीं दी और इन्हें समाज से बहिष्कृत होना पड़ा। ज्ञानेश्वर के माता-पिता से यह अपमान सहन नहीं हुआ और बालक ज्ञानेश्वर के सिर से उनके माता-पिता का साया सदा के लिए उठ गया।
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कुछ समय बाद स्वामी रामानंद [[दक्षिण भारत]] की यात्रा करते हुए आलंदी गाँव पहुँचे। वहाँ जब विट्ठल पंत की पत्नी ने उन्हें प्रणाम किया, तो स्वामी जी ने उसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया। इस पर विट्ठल पंत की पत्नी रूक्मिणी बाई ने कहा- मुझे आप पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे रहे हैं, पर मेरे पति को तो आपने पहले ही संन्यासी बना लिया है। इस घटना के बाद स्वामी जी ने काशी आकर विट्ठल पंत को फिर गृहस्य जीवन अपनाने की आज्ञा दी। उसके बाद ही उनके तीन पुत्र और कन्या पैदा हुई। ज्ञानेश्वर इन्हीं में से एक थे। संत ज्ञानेश्वर के दोंनों भाई 'निवृत्तिनाथ' एवं 'सोपानदेव' भी संत स्वभाव के थे। इनकी बहिन का नाम 'मुक्ताबाई' था।
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====माता-पिता की मृत्यु====
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सन्न्यास छोड़कर गृहस्थ बनने के कारण समाज ने ज्ञानेश्वर के पिता विट्ठल पंत का बहिष्कार कर दिया। वे कोई भी प्रायश्चित करने के लिए तैयार थे, पर शास्त्रकारों ने बताया कि उनके लिए देह त्यागने के अतिरिक्त कोई और प्रायश्चित नहीं है और उनके पुत्र भी [[जनेऊ]] धारण नहीं कर सकते। इस पर विट्ठल पंत ने [[प्रयाग]] में त्रिवेणी में जाकर अपनी पत्नी के साथ संगम में डूबकर प्राण दे दिए। बच्चे अनाथ हो गए। लोगों ने उन्हें गाँव के अपने घर में भी नहीं रहने दिया। अब उनके सामने भीख माँगकर पेट पालने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं रह गया।
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==शुद्धिपत्र की प्राप्ति==
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बाद के दिनों में ज्ञानेश्वर के बड़े भाई निवृत्तिनाथ की गुरु गैगीनाथ से भेंट हो गई। वे विट्ठल पंत के गुरु रह चुके थे। उन्होंने निवृत्तिनाथ को योगमार्ग की दीक्षा और [[कृष्ण]] उपासना का उपदेश दिया। बाद में निवृत्तिनाथ ने ज्ञानेश्वर को भी दीक्षित किया। फिर ये लोग पंडितों से शुद्धिपत्र लेने के उद्देश्य से पैठण पहुँचे। वहाँ रहने के दिनों की ज्ञानेश्वर की कई चमत्कारिक कथाएँ प्रचलित हैं। कहते हैं, उन्होंने भैंस के सिर पर हाथ रखकर उसके मुँह से [[वेद]] [[मंत्र|मंत्रों]] का उच्चारण कराया। भैंस को जो डंडे मारे गए, उसके निशान ज्ञानेश्वर के शरीर पर उभर आए। यह सब देखकर पैठण के पंडितों ने ज्ञानेश्वर और उनके भाई को शुद्धिपत्र दे दिया। अब उनकी ख्याति अपने गाँव तक पहुँच चुकी थी। वहाँ भी उनका बड़े प्रेम से स्वागत हुआ।
 
==रचनाएँ==
 
==रचनाएँ==
संत ज्ञानेश्वर ने 'ज्ञानेश्वरी' की रचना की। महाराष्ट्र में इस सम्प्रदाय के पूर्वाचार्य संत ज्ञानेश्वर नाथसम्प्रदाय के अंतर्गत योगमार्ग के पुरस्कर्ता माने जाते हैं, उसी प्रकार [[भक्तिमार्ग]] में वे विष्णुस्वामी संप्रदाय के पुरस्कर्ता माने जाते हैं। फिर भी योगी ज्ञानेश्वर ने मराठों में 'अमृतानुभव' लिखा जो अद्वैतवादी [[शैव मत|शैव परम्परा]] में आता है। निदान, ज्ञानेश्वर सच्चे भागवत थे, क्योंकि [[भागवत धर्म]] की यही विशेषता है कि वह [[शिव]] और [[विष्णु]] में अभेद बुद्धि रखता है। ज्ञानेश्वर ने भगवदगीता के ऊपर [[मराठी भाषा]] में एक 'ज्ञानेश्वरी' नामक 10,000 पद्यों का ग्रंथ लिखा है। यह भी अद्वैत- वादी रचना है किंतु यह योग पर भी बल देती है। 28 अभंगों ([[छंद|छंदों]]) की इन्होंने 'हरिपाठ' नामक एक पुस्तिका लिखी है जिस पर भागवतमत का प्रभाव है। भक्ति का उदगार इससे अत्यधिक है। मराठी संतों में ये प्रमुख समझे जाते हैं। इनकी कविता दार्शनिक तथ्यों से पूर्ण है तथा शिक्षित जनता पर अपना गहरा प्रभाव डालती है।
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पंद्रह वर्ष की उम्र में ही ज्ञानेश्वर कृष्णभक्त और योगी बन चुके थे। बड़े भाई निवृत्तिनाथ के कहने पर उन्होंने एक वर्ष के अंदर ही [[श्रीमद्भागवदगीता|भगवद्गीता]] पर टीका लिख डाली। ‘[[ज्ञानेश्वरी]]’ नाम का यह [[ग्रंथ]] [[मराठी भाषा]] का अद्वितीय ग्रंथ माना जाता है। यह ग्रंथ 10,000 पद्यों में लिखा गया है। यह भी अद्वैत-वादी रचना है, किंतु यह योग पर भी बल देती है। 28 अभंगों ([[छंद|छंदों]]) की इन्होंने 'हरिपाठ' नामक एक पुस्तिका लिखी है, जिस पर भागवतमत का प्रभाव है। [[भक्ति]] का उदगार इसमें अत्यधिक है। मराठी संतों में ये प्रमुख समझे जाते हैं। इनकी कविता दार्शनिक तथ्यों से पूर्ण है तथा शिक्षित जनता पर अपना गहरा प्रभाव डालती है। इसके अतिरिक्त संत ज्ञानेश्वर के रचित कुछ अन्य ग्रंथ हैं- ‘अमृतानुभव’, ‘चांगदेवपासष्टी’, ‘योगवसिष्ठ टीका’ आदि। ज्ञानेश्वर ने [[उज्जयिनी]], [[प्रयाग]], [[काशी]], [[गया]], [[अयोध्या]], [[वृंदावन]], [[द्वारका]], पंडरपुर आदि [[तीर्थ स्थान|तीर्थ स्थानों]] की यात्रा की।
==मृत्यु==  
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====मृत्यु====
संत ज्ञानेश्वर की मृत्यु 1296 ई. में हुई। मात्र 21 वर्ष की उम्र में यह महान संत इस नश्वर संसार का परित्यागकर समाधिस्त हुए।
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संत ज्ञानेश्वर की मृत्यु 1296 ई. में हुई। इन्होंने मात्र 21 वर्ष की उम्र में इस नश्वर संसार का परित्यागकर समाधि ग्रहण कर ली।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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*[http://www.hindupedia.com/en/Sant_Dnyaneshwar hindupedia]
 
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==संबंधित लेख==
 
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05:11, 27 फ़रवरी 2020 के समय का अवतरण

संत ज्ञानेश्वर
संत ज्ञानेश्वर
पूरा नाम संत ज्ञानेश्वर
जन्म 1275 ई.
जन्म भूमि महाराष्ट्र
मृत्यु 1296 ई.
अभिभावक विट्ठल पंत
गुरु निवृत्तिनाथ
कर्म भूमि महाराष्ट्र
कर्म-क्षेत्र दार्शनिक
मुख्य रचनाएँ ज्ञानेश्वरी, अमृतानुभव
भाषा मराठी
अन्य जानकारी ज्ञानेश्वर ने भगवदगीता के ऊपर मराठी भाषा में एक 'ज्ञानेश्वरी' नामक 10,000 पद्यों का ग्रंथ लिखा है।

संत ज्ञानेश्वर की गणना भारत के महान् संतों एवं मराठी कवियों में होती है। इनका जन्म 1275 ई. में महाराष्ट्र के अहमदनगर ज़िले में पैठण के पास आपेगाँव में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था। इनके पिता का नाम विट्ठल पंत तथा माता का नाम रुक्मिणी बाई था। विवाह के कई वर्षों बाद भी कोई सन्तान न होने पर विट्ठल पंत ने सन्न्यास ग्रहण कर लिया और स्वामी रामानंद को अपना गुरु बना लिया। बाद में गुरु के आदेश पर ही इन्होंने फिर से गृहस्थ जीवन को अपनाया। इनके इस कार्य को समाज ने मान्यता प्रदान नहीं की और समाज से इनका बहिष्कार कर दिया और इनका बड़ा अपमान किया। ज्ञानेश्वर के माता-पिता इस अपमान के बोझ को सह न सके और उन्होंने त्रिवेणी में डूबकर प्राण त्याग कर दिए। संत ज्ञानेश्वर ने भी 21 वर्ष की आयु में ही संसार का त्यागकर समाधि ग्रहण कर ली।

पारिवारिक पृष्ठभूमि

संत ज्ञानेश्वर के पूर्वज पैठण के पास गोदावरी तट के निवासी थे और बाद में 'आलंदी' नामक गाँव में बस गए थे। ज्ञानेश्वर के पितामह 'त्र्यंबक पंत' गोरखनाथ के शिष्य और परम भक्त थे। ज्ञानेश्वर के पिता विट्ठल पंत इन्हीं त्र्यंबक पंत के पुत्र थे। विट्ठल पंत बड़े विद्वान और भक्त थे। उन्होंने देशाटन करके शास्त्रों का अध्ययन किया था। उनके विवाह के कई वर्ष हो गए थे पर कोई संतान नहीं हुई। इस पर उन्होंने सन्न्यास लेने का निश्चय किया, पर स्त्री इसके पक्ष में नहीं थी। इसलिए वे चुपचाप घर से निकलकर काशी में स्वामी रामानंद के पास पहुँचे और यह कहकर कि संसार में मैं अकेला हूं, उनसे सन्न्यास की दीक्षा ले ली।

जन्म

कुछ समय बाद स्वामी रामानंद दक्षिण भारत की यात्रा करते हुए आलंदी गाँव पहुँचे। वहाँ जब विट्ठल पंत की पत्नी ने उन्हें प्रणाम किया, तो स्वामी जी ने उसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया। इस पर विट्ठल पंत की पत्नी रूक्मिणी बाई ने कहा- मुझे आप पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे रहे हैं, पर मेरे पति को तो आपने पहले ही संन्यासी बना लिया है। इस घटना के बाद स्वामी जी ने काशी आकर विट्ठल पंत को फिर गृहस्य जीवन अपनाने की आज्ञा दी। उसके बाद ही उनके तीन पुत्र और कन्या पैदा हुई। ज्ञानेश्वर इन्हीं में से एक थे। संत ज्ञानेश्वर के दोंनों भाई 'निवृत्तिनाथ' एवं 'सोपानदेव' भी संत स्वभाव के थे। इनकी बहिन का नाम 'मुक्ताबाई' था।

माता-पिता की मृत्यु

सन्न्यास छोड़कर गृहस्थ बनने के कारण समाज ने ज्ञानेश्वर के पिता विट्ठल पंत का बहिष्कार कर दिया। वे कोई भी प्रायश्चित करने के लिए तैयार थे, पर शास्त्रकारों ने बताया कि उनके लिए देह त्यागने के अतिरिक्त कोई और प्रायश्चित नहीं है और उनके पुत्र भी जनेऊ धारण नहीं कर सकते। इस पर विट्ठल पंत ने प्रयाग में त्रिवेणी में जाकर अपनी पत्नी के साथ संगम में डूबकर प्राण दे दिए। बच्चे अनाथ हो गए। लोगों ने उन्हें गाँव के अपने घर में भी नहीं रहने दिया। अब उनके सामने भीख माँगकर पेट पालने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं रह गया।

शुद्धिपत्र की प्राप्ति

बाद के दिनों में ज्ञानेश्वर के बड़े भाई निवृत्तिनाथ की गुरु गैगीनाथ से भेंट हो गई। वे विट्ठल पंत के गुरु रह चुके थे। उन्होंने निवृत्तिनाथ को योगमार्ग की दीक्षा और कृष्ण उपासना का उपदेश दिया। बाद में निवृत्तिनाथ ने ज्ञानेश्वर को भी दीक्षित किया। फिर ये लोग पंडितों से शुद्धिपत्र लेने के उद्देश्य से पैठण पहुँचे। वहाँ रहने के दिनों की ज्ञानेश्वर की कई चमत्कारिक कथाएँ प्रचलित हैं। कहते हैं, उन्होंने भैंस के सिर पर हाथ रखकर उसके मुँह से वेद मंत्रों का उच्चारण कराया। भैंस को जो डंडे मारे गए, उसके निशान ज्ञानेश्वर के शरीर पर उभर आए। यह सब देखकर पैठण के पंडितों ने ज्ञानेश्वर और उनके भाई को शुद्धिपत्र दे दिया। अब उनकी ख्याति अपने गाँव तक पहुँच चुकी थी। वहाँ भी उनका बड़े प्रेम से स्वागत हुआ।

रचनाएँ

पंद्रह वर्ष की उम्र में ही ज्ञानेश्वर कृष्णभक्त और योगी बन चुके थे। बड़े भाई निवृत्तिनाथ के कहने पर उन्होंने एक वर्ष के अंदर ही भगवद्गीता पर टीका लिख डाली। ‘ज्ञानेश्वरी’ नाम का यह ग्रंथ मराठी भाषा का अद्वितीय ग्रंथ माना जाता है। यह ग्रंथ 10,000 पद्यों में लिखा गया है। यह भी अद्वैत-वादी रचना है, किंतु यह योग पर भी बल देती है। 28 अभंगों (छंदों) की इन्होंने 'हरिपाठ' नामक एक पुस्तिका लिखी है, जिस पर भागवतमत का प्रभाव है। भक्ति का उदगार इसमें अत्यधिक है। मराठी संतों में ये प्रमुख समझे जाते हैं। इनकी कविता दार्शनिक तथ्यों से पूर्ण है तथा शिक्षित जनता पर अपना गहरा प्रभाव डालती है। इसके अतिरिक्त संत ज्ञानेश्वर के रचित कुछ अन्य ग्रंथ हैं- ‘अमृतानुभव’, ‘चांगदेवपासष्टी’, ‘योगवसिष्ठ टीका’ आदि। ज्ञानेश्वर ने उज्जयिनी, प्रयाग, काशी, गया, अयोध्या, वृंदावन, द्वारका, पंडरपुर आदि तीर्थ स्थानों की यात्रा की।

मृत्यु

संत ज्ञानेश्वर की मृत्यु 1296 ई. में हुई। इन्होंने मात्र 21 वर्ष की उम्र में इस नश्वर संसार का परित्यागकर समाधि ग्रहण कर ली।

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