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'''दधीचि''' प्राचीन काल के परम तपस्वी और ख्यातिप्राप्त महर्षि थे। उनकी पत्नी का नाम 'गभस्तिनी' था। महर्षि दधीचि [[वेद]] शास्त्रों आदि के पूर्ण ज्ञाता और स्वभाव के बड़े ही दयालु थे। अहंकार तो उन्हें छू तक नहीं पाया था। वे सदा दूसरों का हित करना अपना परम धर्म समझते थे। उनके व्यवहार से उस वन के पशु-पक्षी तक संतुष्ट थे, जहाँ वे रहते थे। [[गंगा]] के तट पर ही उनका [[आश्रम]] था। जो भी अतिथि महर्षि दधीचि के आश्रम पर आता, स्वयं महर्षि तथा उनकी पत्नी अतिथि की पूर्ण श्रद्धा भाव से सेवा करते थे। यूँ तो '[[भारतीय इतिहास]]' में कई दानी हुए हैं, किंतु मानव कल्याण के लिए अपनी अस्थियों का दान करने वाले मात्र महर्षि दधीचि ही थे। [[देवता|देवताओं]] के मुख से यह जानकर की मात्र दधीचि की अस्थियों से निर्मित [[वज्र अस्त्र|वज्र]] द्वारा ही [[असुर|असुरों]] का संहार किया जा सकता है, महर्षि दधीचि ने अपना शरीर त्याग कर अस्थियों का दान कर दिया।
 
'''दधीचि''' प्राचीन काल के परम तपस्वी और ख्यातिप्राप्त महर्षि थे। उनकी पत्नी का नाम 'गभस्तिनी' था। महर्षि दधीचि [[वेद]] शास्त्रों आदि के पूर्ण ज्ञाता और स्वभाव के बड़े ही दयालु थे। अहंकार तो उन्हें छू तक नहीं पाया था। वे सदा दूसरों का हित करना अपना परम धर्म समझते थे। उनके व्यवहार से उस वन के पशु-पक्षी तक संतुष्ट थे, जहाँ वे रहते थे। [[गंगा]] के तट पर ही उनका [[आश्रम]] था। जो भी अतिथि महर्षि दधीचि के आश्रम पर आता, स्वयं महर्षि तथा उनकी पत्नी अतिथि की पूर्ण श्रद्धा भाव से सेवा करते थे। यूँ तो '[[भारतीय इतिहास]]' में कई दानी हुए हैं, किंतु मानव कल्याण के लिए अपनी अस्थियों का दान करने वाले मात्र महर्षि दधीचि ही थे। [[देवता|देवताओं]] के मुख से यह जानकर की मात्र दधीचि की अस्थियों से निर्मित [[वज्र अस्त्र|वज्र]] द्वारा ही [[असुर|असुरों]] का संहार किया जा सकता है, महर्षि दधीचि ने अपना शरीर त्याग कर अस्थियों का दान कर दिया।
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==परिचय==
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लोक कल्याण के लिये आत्म-त्याग करने वालों में महर्षि दधीचि का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। इनकी [[माता]] का नाम 'शान्ति' तथा [[पिता]] का नाम 'अथर्वा' था। महर्षि दधीचि तपस्या और पवित्रता की प्रतिमूर्ति थे। भगवान [[शिव]] के प्रति अटूट [[भक्ति]] और वैराग्य में इनकी जन्म से ही निष्ठा थी।
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==कथा==
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कहा जाता है कि एक बार इन्द्रलोक पर 'वृत्रासुर' नामक [[राक्षस]] ने अधिकार कर लिया तथा [[इन्द्र]] सहित देवताओं को देवलोक से निकाल दिया। सभी [[देवता]] अपनी व्यथा लेकर [[ब्रह्मा]], [[विष्णु]] व [[महेश]] के पास गए, लेकिन कोई भी उनकी समस्या का निदान न कर सका। बाद में ब्रह्मा जी ने देवताओं को एक उपाय बताया कि [[पृथ्वी]] लोक मे 'दधीचि' नाम के एक महर्षि रहते हैं। यदि वे अपनी अस्थियों का दान कर दें तो उन अस्थियों से एक वज्र बनाया जाये। उस वज्र से वृत्रासुर मारा जा सकता है, क्योंकि वृत्रासुर को किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। महर्षि दधीचि की अस्थियों में ही वह ब्रह्म तेज़ है, जिससे वृत्रासुर राक्षस मारा जा सकता है। इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा उपाय नहीं है।
  
*लोक कल्याण के लिये आत्मत्याग करने वालों में महर्षि दधीचि का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है।
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देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि के पास जाना नही चाहते थे क्योकि कहा जाता है कि इन्द्र ने एक बार दधीचि का अपमान किया था अपमान किया था जिसके कारण वे दधीचि के पास जाने से कतरा रहे थे। कहा जाता है कि ब्रहम्म विद्या का ज्ञान पूरे विश्व मे केवल दधीचि को ही था। वे पात्र व्यक्ति को ही इसका ज्ञान देना चाहते थे लेकिन इन्द्र ब्रहम्म विद्या प्राप्त करना चाहते थे दधीचि की दृष्टि मे इन्द्र इस विद्या के पात्र नही थे इसलिए उन्होने पूर्व मे इन्द्र को इस विद्या को देने से मना कर दिया था। इन्द्र ने उन्हे किसी अन्य को भी यह विद्या देने को कहा तथा कहा कि यदि आपने ऐसा किया तो मै आपका सिर धड से अलग कर दूंगा। महर्षि ने कहा कि यदि कोई पात्र मिला तो मै उसे अवश्य यह विद्या दूंगा। कुछ समय बाद इन्द्र लोक से ही अश्विनी कुमार महर्षि दधीचि के पास यह विद्या लेने पहुंचे महर्षि को वे इसके पात्र लगे उन्होने अश्विनी कुमारो को इन्द्र द्वारा कही गई बाते बताई तब अश्विनी कुमारो ने महर्षि दधीचि के अश्व का सिर लगाकर यह विद्या प्राप्त कर ली इन्द्र को जब यह जानकारी मिली तो वह पृथ्वी लोक मे आया और अपनी घोषणा अनुसार महर्षि दधीचि का सिर धड से अलग कर दिया। अश्विनी कुमारो ने महर्षि के असली सिर को वापस लगा दिया। इस कारण इन्द्र ने अश्विनी कुमारो को इन्द्र लोक से निकाल दिया । यही कारण था कि अब वे किस मुंह से महर्षि दधीचि के पास उनकी अस्थियों का दान लेने जाते।
*इनकी माता का नाम शान्ति तथा पिता का नाम अथर्वा ऋषि था।
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*ये तपस्या और पवित्रता की प्रतिमूर्ति थे। अटूट शिवभक्ति और वैराग्य में इनकी जन्म से ही निष्ठा थी।
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लेकिन उधर देवलोक पर वृत्रासुर राक्षस के अत्याचार बढते ही जा रहे थे वह देवताओ को भांति भांति से परेशान कर रहा था। अन्ततः इन्द्र को इन्द्र लोक की रक्षा व देवताओ की भलाई के लिए और अपने सिंहासन को बचाने के लिए देवताओ सहित महर्षि दधीचि की शरण मे जाना ही पडा। महर्षि दधीचि ने इन्द्र को पूरा सम्मान दिया तथा आने आश्रम आने का कारण पूछा देवताओ सहित इन्द्र ने महर्षि को अपनी व्यथा सुनाई तो दधीचि ने कहा कि मै देवलोक की रक्षा के लिए क्या कर सकता हू देवताओ ने उन्हे ब्रहमा विष्णु व महेश की कही बाते बताई तथा उनकी अस्थियो का दान मांगा। महर्षि दधीचि ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी अस्थियो का दान देना स्वीकार कर लिया उन्होने समाधी लगाई और अपनी देह त्याग दी। उस समय उनकी पत्नी आश्रम मे नही थी अब समस्या ये आई कि महर्षि दधीचि के शरीर के मांस को कौन उतारे सभी देवता सहम गए। तब इन्द्र ने कामधेनु गाय को बुलाया और उसे महर्षि के शरीर से मांस उतारने हेतु कहा। कामधेनु गाय ने अपनी जीभ से चाटकर महर्षि के शरीर का मांस उतार दिया। जब केवल अस्थियों का पिंजर रह गया तो इन्द्र ने दधीचि की अस्थियों का वज्र बनाया तथा उससे वृत्रासुर राक्षस का वध कर पुनः इन्द्र लोक पर अपना राज्य स्थापित किया!
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*एक बार महर्षि दधीचि बड़ी ही कठोर तपस्या कर रहे थे। इनकी अपूर्व तपस्या के तेज़ से तीनों लोक आलोकित हो गये और [[इन्द्र]] का सिंहासन हिलने लगा। इन्द्र को लगा कि ये अपनी कठोर तपस्या के द्वारा इन्द्र पद छीनना चाहते हैं। इसलिये उन्होंने महर्षि की तपस्या को खण्डित करने के उद्देश्य से परम रूपवती अलम्बुषा अप्सरा के साथ कामदेव को भेजा। अलम्बुषा और कामदेव के अथक प्रयत्न के बाद भी महर्षि अविचल रहे और अन्त में विफल मनोरथ होकर दोनों इन्द्र के पास लौट गये। [[कामदेव]] और अप्सरा के निराश होकर लौटने के बाद इन्द्र ने महर्षि की हत्या करने का निश्चय किया और देवसेना को लेकर महर्षि दधीचि के आश्रम पर पहुँचे। वहाँ पहुँचकर देवताओं ने शान्त और समाधिस्थ महर्षि पर अपने कठोर-अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करना शुरू कर दिया। देवताओं के द्वारा चलाये गये अस्त्र-शस्त्र महर्षि की तपस्या के अभेद्य दुर्ग को न भेद सके और महर्षि अविचल समाधिस्थ बैठे रहे। इन्द्र के अस्त्र-शस्त्र भी उनके सामने व्यर्थ हो गये। हारकर देवराज स्वर्ग लौट आये।
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महर्षि दधीचि ने तो अपनी देह देवताओ की भलाई के लिए त्याग दी लेकिन जब उनकी पत्नी वापस आश्रम मे आई तो अपने पति की देह को देखकर विलाप करने लगी तथा सती होने की जिद करने लगी कहा जाता है कि देवताओ ने उन्हे बहुत मना किया क्योकि वह गर्भवती थी देवताओ ने उन्हे अपने वंश के लिए सती न होने की सलाह दी लेकिन वे नही मानी तो सभी ने उन्हे अपने गर्भ को देवताओ को सौपने का निवेदन किया इस पर वे राजी हो गई और अपना गर्भ देवताओ को सौपकर स्वयं सती हो गई । देवताओ ने दधीचि के वंश को बचाने के लिए उसे पीपल को उसका लालन पालन करने का दायित्व सौपा। कुछ समय बाद वह गर्भ पलकर शिशु हुआ तो पीपल द्वारा पालन पोषण करने के कारण उसका नाम पिप्पलाद रखा गया। इसी कारण दधीचि के वंशज दाधीच कहलाते है।
*एक बार देवराज इन्द्र अपनी सभा में बैठे थे, उसी समय देवगुरु [[बृहस्पति ऋषि|बृहस्पति]] आये। अहंकारवश इन्द्र गुरु बृहस्पति के सम्मान में उठकर खड़े नहीं हुए। बृहस्पति ने इसे अपना अपमान समझा और देवताओं को छोड़कर अन्यत्र चले गये। देवताओं को विश्वरूप को अपना पुरोहित बनाकर काम चलाना पड़ा, किन्तु विश्वरूप कभी-कभी देवताओं से छिपाकर असुरों को भी यज्ञ-भाग दे दिया करता था। इन्द्र ने उस पर कुपित होकर उसका सिर काट लिया। विश्वरूप त्वष्टा ऋषि का पुत्र था उन्होंने क्रोधित होकर इन्द्र को मारने के उद्देश्य से महाबली वृत्रासुर को उत्पन्न किया। वृत्रासुर के भय से इन्द्र अपना सिंहासन छोड़कर देवताओं के साथ मारे-मारे फिरने लगे।
 
*[[ब्रह्मा]] जी की सलाह से देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि के पास उनकी हड्डियाँ माँगने के लिये गये। उन्होंने महर्षि से प्रार्थना करते हुए कहा- 'प्रभो! त्रैलोक्य की मंगल-कामना हेतु आप अपनी हड्डियाँ हमें दान दे दीजिये।' महर्षि दधीचि ने कहा- 'देवराज! यद्यपि अपना शरीर सबको प्रिय होता है, किन्तु लोकहित के लिये मैं तुम्हें अपना शरीर प्रदान करता हूँ।' महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र का निर्माण हुआ और वृत्रासुर मारा गया। इस प्रकार एक महान परोपकारी ऋषि के अपूर्व त्याग से देवराज इन्द्र बच गये और तीनों लोक सुखी हो गये। अपने अपकारी शत्रु के भी हित के लिये सर्वस्व त्याग करने वाले महर्षि दधीचि-जैसा उदाहरण संसार में अन्यत्र मिलना कठिन है।
 
  
  
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06:41, 29 जुलाई 2013 का अवतरण

दधीचि प्राचीन काल के परम तपस्वी और ख्यातिप्राप्त महर्षि थे। उनकी पत्नी का नाम 'गभस्तिनी' था। महर्षि दधीचि वेद शास्त्रों आदि के पूर्ण ज्ञाता और स्वभाव के बड़े ही दयालु थे। अहंकार तो उन्हें छू तक नहीं पाया था। वे सदा दूसरों का हित करना अपना परम धर्म समझते थे। उनके व्यवहार से उस वन के पशु-पक्षी तक संतुष्ट थे, जहाँ वे रहते थे। गंगा के तट पर ही उनका आश्रम था। जो भी अतिथि महर्षि दधीचि के आश्रम पर आता, स्वयं महर्षि तथा उनकी पत्नी अतिथि की पूर्ण श्रद्धा भाव से सेवा करते थे। यूँ तो 'भारतीय इतिहास' में कई दानी हुए हैं, किंतु मानव कल्याण के लिए अपनी अस्थियों का दान करने वाले मात्र महर्षि दधीचि ही थे। देवताओं के मुख से यह जानकर की मात्र दधीचि की अस्थियों से निर्मित वज्र द्वारा ही असुरों का संहार किया जा सकता है, महर्षि दधीचि ने अपना शरीर त्याग कर अस्थियों का दान कर दिया।

परिचय

लोक कल्याण के लिये आत्म-त्याग करने वालों में महर्षि दधीचि का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। इनकी माता का नाम 'शान्ति' तथा पिता का नाम 'अथर्वा' था। महर्षि दधीचि तपस्या और पवित्रता की प्रतिमूर्ति थे। भगवान शिव के प्रति अटूट भक्ति और वैराग्य में इनकी जन्म से ही निष्ठा थी।

कथा

कहा जाता है कि एक बार इन्द्रलोक पर 'वृत्रासुर' नामक राक्षस ने अधिकार कर लिया तथा इन्द्र सहित देवताओं को देवलोक से निकाल दिया। सभी देवता अपनी व्यथा लेकर ब्रह्मा, विष्णुमहेश के पास गए, लेकिन कोई भी उनकी समस्या का निदान न कर सका। बाद में ब्रह्मा जी ने देवताओं को एक उपाय बताया कि पृथ्वी लोक मे 'दधीचि' नाम के एक महर्षि रहते हैं। यदि वे अपनी अस्थियों का दान कर दें तो उन अस्थियों से एक वज्र बनाया जाये। उस वज्र से वृत्रासुर मारा जा सकता है, क्योंकि वृत्रासुर को किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। महर्षि दधीचि की अस्थियों में ही वह ब्रह्म तेज़ है, जिससे वृत्रासुर राक्षस मारा जा सकता है। इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा उपाय नहीं है।

देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि के पास जाना नही चाहते थे क्योकि कहा जाता है कि इन्द्र ने एक बार दधीचि का अपमान किया था अपमान किया था जिसके कारण वे दधीचि के पास जाने से कतरा रहे थे। कहा जाता है कि ब्रहम्म विद्या का ज्ञान पूरे विश्व मे केवल दधीचि को ही था। वे पात्र व्यक्ति को ही इसका ज्ञान देना चाहते थे लेकिन इन्द्र ब्रहम्म विद्या प्राप्त करना चाहते थे दधीचि की दृष्टि मे इन्द्र इस विद्या के पात्र नही थे इसलिए उन्होने पूर्व मे इन्द्र को इस विद्या को देने से मना कर दिया था। इन्द्र ने उन्हे किसी अन्य को भी यह विद्या देने को कहा तथा कहा कि यदि आपने ऐसा किया तो मै आपका सिर धड से अलग कर दूंगा। महर्षि ने कहा कि यदि कोई पात्र मिला तो मै उसे अवश्य यह विद्या दूंगा। कुछ समय बाद इन्द्र लोक से ही अश्विनी कुमार महर्षि दधीचि के पास यह विद्या लेने पहुंचे महर्षि को वे इसके पात्र लगे उन्होने अश्विनी कुमारो को इन्द्र द्वारा कही गई बाते बताई तब अश्विनी कुमारो ने महर्षि दधीचि के अश्व का सिर लगाकर यह विद्या प्राप्त कर ली इन्द्र को जब यह जानकारी मिली तो वह पृथ्वी लोक मे आया और अपनी घोषणा अनुसार महर्षि दधीचि का सिर धड से अलग कर दिया। अश्विनी कुमारो ने महर्षि के असली सिर को वापस लगा दिया। इस कारण इन्द्र ने अश्विनी कुमारो को इन्द्र लोक से निकाल दिया । यही कारण था कि अब वे किस मुंह से महर्षि दधीचि के पास उनकी अस्थियों का दान लेने जाते।

लेकिन उधर देवलोक पर वृत्रासुर राक्षस के अत्याचार बढते ही जा रहे थे वह देवताओ को भांति भांति से परेशान कर रहा था। अन्ततः इन्द्र को इन्द्र लोक की रक्षा व देवताओ की भलाई के लिए और अपने सिंहासन को बचाने के लिए देवताओ सहित महर्षि दधीचि की शरण मे जाना ही पडा। महर्षि दधीचि ने इन्द्र को पूरा सम्मान दिया तथा आने आश्रम आने का कारण पूछा देवताओ सहित इन्द्र ने महर्षि को अपनी व्यथा सुनाई तो दधीचि ने कहा कि मै देवलोक की रक्षा के लिए क्या कर सकता हू देवताओ ने उन्हे ब्रहमा विष्णु व महेश की कही बाते बताई तथा उनकी अस्थियो का दान मांगा। महर्षि दधीचि ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी अस्थियो का दान देना स्वीकार कर लिया उन्होने समाधी लगाई और अपनी देह त्याग दी। उस समय उनकी पत्नी आश्रम मे नही थी अब समस्या ये आई कि महर्षि दधीचि के शरीर के मांस को कौन उतारे सभी देवता सहम गए। तब इन्द्र ने कामधेनु गाय को बुलाया और उसे महर्षि के शरीर से मांस उतारने हेतु कहा। कामधेनु गाय ने अपनी जीभ से चाटकर महर्षि के शरीर का मांस उतार दिया। जब केवल अस्थियों का पिंजर रह गया तो इन्द्र ने दधीचि की अस्थियों का वज्र बनाया तथा उससे वृत्रासुर राक्षस का वध कर पुनः इन्द्र लोक पर अपना राज्य स्थापित किया!

महर्षि दधीचि ने तो अपनी देह देवताओ की भलाई के लिए त्याग दी लेकिन जब उनकी पत्नी वापस आश्रम मे आई तो अपने पति की देह को देखकर विलाप करने लगी तथा सती होने की जिद करने लगी कहा जाता है कि देवताओ ने उन्हे बहुत मना किया क्योकि वह गर्भवती थी देवताओ ने उन्हे अपने वंश के लिए सती न होने की सलाह दी लेकिन वे नही मानी तो सभी ने उन्हे अपने गर्भ को देवताओ को सौपने का निवेदन किया इस पर वे राजी हो गई और अपना गर्भ देवताओ को सौपकर स्वयं सती हो गई । देवताओ ने दधीचि के वंश को बचाने के लिए उसे पीपल को उसका लालन पालन करने का दायित्व सौपा। कुछ समय बाद वह गर्भ पलकर शिशु हुआ तो पीपल द्वारा पालन पोषण करने के कारण उसका नाम पिप्पलाद रखा गया। इसी कारण दधीचि के वंशज दाधीच कहलाते है।


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