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वेदों द्वारा विहित कर्मों के चार प्रकार हैं– नित्य, नैमित्तिक, काम्य और निषिद्ध। अथर्ववेद में ऐहिक फल प्रदान करने वाले काम्य कर्मों पर विशेष बल दिया गया, जो साधारण मनुष्य के लिए सबसे अधिक उपादेय हैं। समृद्धि की अभिलाषा से किए जाने वाले कर्म अगर पौष्टिक कहलाए, तो अशुभ निवारण तथा अभिचार के उद्देश्य से किए जाने वाले कर्मों को शान्तिक की संज्ञा प्राप्त हुई। यज्ञ के पूर्ण निष्पादन के लिए जिन चार ऋत्विजों की आवश्यकता होती है, उनमें से ब्रह्मा नाम के ऋत्विक् से इस वेद का साक्षात् सम्बन्ध है। संहिताओं तथा ब्राह्मणों की विविध विधियों के सार–ग्रन्थों के रूप में प्रस्तुत रचना को कल्पसूत्र या संक्षेप में सूत्र कहा जाता है। गोपथ ब्राह्मण के अनुसार अथर्ववेद की शौनकीय जाजल, जलद तथा ब्रह्मवद शाखाओं के अनुवाकों, ऋचाओं एवं सूक्तों का विनियोग बताने वाले पाँच मूलभूत सूत्र हैं– 1. तंत्रशिक, 2. वैतान, 3. नक्षत्रकल्प, 4. शान्तिकल्प तथा आङ्गिरस कल्प अथवा अभिचार कल्प। वेदकालीन आचार्य धर्म के यज्ञ प्रधान होने के कारण यज्ञ करने की पद्धति पर कामनाओं की सफलता निर्भर मानी गई, जिससे यज्ञ विधियों में प्रयुक्त वस्तुओं का प्रयुक्त वस्तुओं का तत्कालीन व्यवहारों से गहरा सम्बन्ध रहा। यह सम्बन्ध काल एवं स्थल पर आधारित ब्राह्मण–सम्प्रदायों की सीमित परिवर्तनीयता के साथ–साथ भारतीयों के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक इतिहास पर रोचक प्रकाश डालता है।
श्रौत कर्म
'वैतान सूत्र' अथर्ववेद से सम्बद्ध श्रौत यागों की जानकारी देने वाला एकमात्र उपलब्ध, अतएव महत्त्वपूर्ण सूत्र है। इस श्रौतसूत्र की आठ अध्यायों में विभाजित, 43 कण्डिकाओं में ये श्रौत कर्म बतलाए गए हैं– दर्शपूर्णमास, अग्न्याधेय, उक्थ्य, षोडशी, अतिरात्र, वाजपेय, अप्तोर्याम, अग्निचयन, सौत्रामणी, गवामयन, राजसूय, अश्वमेध, पुरुषमेध, सर्वमेध, एकाह, अहीन तथा कामनाओं के अनुसार अन्य यज्ञों का विधान। प्रस्तुत श्रौतसूत्र की विशेषता– 'होमानादिष्टाननुमन्त्रयते' अर्थात्; विहित होमों के अनुमन्त्रण को ब्रह्मा को सौंपने में है जो अन्य श्रौतसूत्रों की तरह अनुमन्त्रण का अधिकार यजमान को प्रदान नहीं करता। ब्रह्मा के सभी कर्त्तव्य इस श्रौतसूत्र के पहले ही अध्याय में दर्शपूर्णमास यज्ञ के विवरण में प्रतिपादित हैं। कर्ता यानी यजमान का यदि पृथक् निर्देश नहीं हैं, तो सभी ब्रह्मा के ही कर्त्तव्य हैं जिनमें पुरस्ताद्धोम, संस्थितहोम तथा अन्य कोई आहुतियाँ सम्मिलित हैं। कतिपय यजुष् मन्त्रों को छोड़कर ब्रह्मा के अनुमन्त्रण से सम्बद्ध प्राय: सभी मन्त्र अथर्ववेद में छन्दोबद्ध पाए जाते हैं।
आज्यतन्त्र तथा पाकतन्त्र
आथर्वण कर्म के दो तन्त्र हैं– आज्यतन्त्र तथा पाकतन्त्र। आज्यतन्त्र में आज्य अगर प्रधान हवि होता है, तो पाकतन्त्र में चरुपुरोडाशादि को प्रधानता प्राप्त है। आज्यतन्त्र के अनुष्ठान का क्रम नियमानुसार है:– कर्त्ता का विशिष्ट मन्त्र जप, बर्हिर्लवन, वेदि, उत्तरवेदि, अग्निप्रणयन, व्रतग्रहण, पवित्रकरण, पवित्र की सहायता से इध्म प्रोक्षण, इध्मोपसमाधान, बर्हि:प्रोक्षण, ब्रह्मा का आसन ग्रहण, बर्हिस्तरण, स्तीर्ण वेदि का प्रोक्षण। इसके पश्चात् कर्त्ता का आसनस्थ होना, उदपात्र स्थापन, आज्य संस्कार, स्त्रुव ग्रहण, ग्रह ग्रहण, पुरस्तात् होम, आज्यभाग एवं अभ्यातान होम। यहीं पूर्वतन्त्र समाप्त होता है। उत्तरतन्त्र प्रधान होम के अनन्तर होता है जिसके अनुष्ठान का क्रम यह है:–
अभ्यातान होम, पार्वण होम, समृद्धि होम, संतति होम, स्विष्टकृत् होम, सर्वप्रायश्चित्तीय होम, स्कन्न होम। 'पुनमैंत्विन्दियम्' मन्त्र की सहायता से होम, स्कन्नास्मृति होम, संस्थित होम, चतुर्गृहीत होम, बर्हि होम, संस्त्राव होम, विष्णुक्रम, व्रत विसर्जन, दक्षिणादान और इसके पश्चात् ब्रह्मा का निष्करण।
पाकतन्त्र में यही क्रम होता है, सिर्फ़ अभ्यातान होम नहीं किया जाता।[1]
होम
आथर्वण श्रौतकर्म की विशेषता पुरस्ताद्धोम एवं संस्थित होम में है। पुरस्ताद्धोम की आहुतियाँ अगर प्रधान होम के पहले दी जाती है, तो संस्थित होम की उसके बाद में। जिस प्रधान होम के कारण ये होम सम्पन्न होते हैं, उस होम के मन्त्रों की सहायता से भी इन आहुतियों को देने के कतिपय आचार्यों के मतों का उल्लेख वैतान सूत्र के पहले अध्याय की चौथी कण्डिका में किया गया है। यह कार्य ब्रह्मा द्वारा सम्पन्न कराना है और हर एक आहुति के बाद बाद 'जनत्' शब्द को जोड़ना आवश्यक है। प्रस्तुत सूत्र के श्रौतकर्म में भू:, भुव:, स्व:, जनत्, वृधत्, करत्, महत्, नत्, शम् और ओम्; इन व्याहृतियों के विनियोग का कथन भी वैशिष्ट्यपूर्ण है।
विरिष्टाधान
विरिष्टाधान ब्रह्मा का एक और कर्त्तव्य है। विरिष्ट का सम्बन्ध अकुशल अथवा दुश्चरित्र अथवा ब्रह्मचर्य व्रत को भंग करने वाले ऋत्विजों के कारण यज्ञ में अथवा यजमान की फल–प्राप्ति में उत्पन्न बाधाओं से है जिसका परिहार ब्रह्मा अग्नि को प्रज्वलित एवं शान्त्युदक को तैयार करके उसके तीन आचमन एवं यजमान तथा यज्ञवस्तु के प्रोक्षण से करता है। इसलिए यह विधि यज्ञ का विरिष्टसंधान कहलाती है जिससे बाधाओं का निवारण और यज्ञ का प्रयोजन सफल होता है। स्पष्ट है कि शान्त्युदक भी आथर्वण विधि में महत्त्वपूर्ण है। अग्न्याधेय के अवसर पर आहवनीयायतन में अग्नि की स्थापना के पूर्व समूची सामग्री पर अश्व का दाहिना पैर अंकित करने का विधान है जिससे अग्न्याधेय सम्पन्न होता था। इस शान्त्युदक को तैयार करने में आथर्वण एवं आङ्गिरस इन दोनों औषधियों के यजमान द्वारा समावेश की बात प्रस्तुत वैतान सूत्र में कौशिक सूत्र से ही अनूदित की गई।
संस्कार
अग्निहोत्र होम की तात्विक विवेचना में अग्निहोत्र धेनु के लिए गवीडा समुद्धान्त (उबलकर गिरने वाला दूध) जैसे शब्दों के स्थान पर 'समुद्धान्त' अथवा प्राचीनावीत के बदले पित्र्युपवीत जैसे शब्द वैतान सूत्र में प्रयुक्त हुए हैं। दर्शपूर्णमासेष्टि में भी यजमान–मन्त्रों का पाठन कराने वाले ब्रह्मा को भृग्वङ्गिरस के जानकार पुरोहित द्वारा उन्हें संस्कार समर्पित कराने का नियम विहित है और दर्शेष्टि में यजमान पर इष्टि के पहले एक दिन अपराह्ण में व्रतोपायन के पूर्व भोजन का (उपवत्स्यद् भक्त) का बन्धन प्रस्तुत श्रौतसूत्र में डाला गया है। सोमयाग की दीक्षा में ऋतुस्नाता यजमान पत्नी के लिए सरूपवत्सा गौ के दूध में स्थालीपाक को पचाकर गर्भवेदन एवं पुंसवन मन्त्रों से उसे तपाकर उसके भक्षण की विधि का विधान पवित्रता को बनाए रखने के साथ–साथ उसकी कामना पूर्ति की ओर संकेत करने वाला है। अभिप्राय यह है कि वैतान श्रौतसूत्र में नित्य नैमित्तिक एवं काम्य कर्मों के साथ विभिन्न क्रतुओं का विधान है और यह भी बतलाया गया है कि कामनाओं के अन्तहीन होने के कारण यज्ञों का भी आनन्त्य है, जिससे प्रकृतिभूत यज्ञों के आधार पर विकृतिभूत यज्ञों का अनुमान करके सन्तोष मानना समीचीन है। यज्ञ–विधियों के वितान यानी विस्तार के साथ–साथ वैतान सूत्र का सम्बन्ध उनके विधान से भी है जिनमें पूजा या समर्पण का भाव तन तथा मन दोनों के संस्कार से सम्बद्ध होकर वैदिकों की मूलत: आध्यात्मिक चिन्तन–धारा की ओर संकेत करता है।
नामकरण
वैतान सूत्र का नामकरण संभवत: उसमें आए प्रथम सूत्र 'अथ वितानस्य' के आधार पर हुआ है। इसमें भागलि, युवाकौशिक और माठर प्रभृति आचार्यों के मतों का नाम्ना उल्लेख हुआ है। इसमें शौनकीय अथर्ववेद संहिता के 20वें काण्ड में उल्लिखित मन्त्रों का प्रमुख आधार लिया गया है। गार्बे के अनुसार इसमें ऋग्वेद का 16 बार, वाजसनेयियों का 34 बार तथा तैत्तिरीय शाखियों का 19 बार निर्देश है। कौशिक सूत्र के साथ इसका अनेक सन्दर्भों में सादृश्य है। उदाहरण के लिए दोनों ही पूर्ववर्णित बात को श्लोक से पुष्ट करते हैं– 'तदपि श्लोकौ वदत:' या 'अथापि श्लोकौ भवत:'। सूक्तों तथा ऋचाओं को गण के रूप में निर्दिष्ट करने की परिपाटी भी दोनों में समान रूप से मिलती है। वैतान सूत्र के भाष्यकार सोमादित्य अपने आक्षेपानुविधि संज्ञक भाष्य में दोनों को एक ही व्यक्ति की रचना मानते प्रतीत होते हैं।
संस्करण तथा अनुवाद
- रिचर्ड गार्बे कके द्वारा सम्पादित तथा जर्मन भाषा में अनूदित रूप में क्रमश: लन्दन तथा स्ट्रासबर्ग से सन् 1878 ई. में एक साथ प्रकाशित।
- कालन्द के द्वारा संपादित आलोचनात्मक (जर्मन–अनुवाद सहित) संस्करण सन् 1990 ई. में एम्सटर्डम से प्रकाशित।
- एस. एन. घोषाल के द्वारा अंग्रेज़ी में अनूदित प्रथम चार अध्यायों (27 कण्डिकाओं) का संस्करण सन् 1959 में, ‘‘इण्डियन हिस्ट्री क्वार्टली’’ (34) में प्रकाशित।
- विश्वेश्वरानन्द संस्थान, होशियारपुर से आचार्य विश्वबंधु के द्वारा सोमादित्य के आक्षेपानुविधि संज्ञक भाष्य के साथ सन् 1967 ई. में सर्वाङ्गसुन्दर संस्करण प्रकाशित।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ देखें– अथर्ववेद पर सायणभाष्य का उपोद्घात
संबंधित लेख
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श्रुतियाँ
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