"कृष्ण और महाभारत": अवतरणों में अंतर
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[[श्रीकृष्ण]] मंझले भाई थे। उनके बड़े भाई का नाम [[बलराम]] था, जो अपनी भक्ति में ही मस्त रहते थे। उनसे छोटे का नाम 'गद' था। वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे। श्रीकृष्ण के पुत्र [[प्रद्युम्न]] अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे। अपने राज्य का आधा धन ही कृष्ण लेते थे, शेष धन का उपयोग [[यादव वंश|यादव वंशी]] करते थे। कृष्ण के जीवन में भी कई ऐसे क्षण आये, जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष [[नारद]] के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि- "यादव वंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए।" नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा।<ref>महाभारत, द्रोणाभिषेकपर्व, 11, श्लोक 10-11, शांतिपर्व 81, आश्व मेधिकपर्व,52)</ref> | |||
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[[चित्र:Bhishma1.jpg|महाभारत युद्ध में [[भीष्म]] [[कृष्ण]] की प्रतिज्ञा भंग करवाते हुए|thumb| | [[चित्र:Bhishma1.jpg|महाभारत युद्ध में [[भीष्म]] [[कृष्ण]] की प्रतिज्ञा भंग करवाते हुए|thumb|220px|left]] | ||
[[महाभारत]] युद्ध में [[कौरव|कौरवों]] के संहार के उपरांत [[गांधारी]] ने श्रीकृष्ण को समस्त वंश सहित नष्ट होने का शाप दिया था। | [[महाभारत]] के युद्ध में [[कौरव|कौरवों]] के संहार के उपरांत [[गांधारी]] ने श्रीकृष्ण को समस्त वंश सहित नष्ट होने का शाप दिया था। युद्ध के 36 वर्ष उपरांत यादववंशियों में अन्याय और कलह अपने चरम पर पहुँच गया। श्रीकृष्ण को बार-बार गांधारी के शाप का स्मरण हो आता था। तभी मौसल युद्ध में समस्त यादव, [[वृष्णि संघ|वृष्णि]] तथा [[अंधक संघ|अंधकवंशी]] लोगों का नाश हो गया। श्रीकृष्ण तपस्या में लगे अपने बड़े भाई बलराम के पास तपस्या करने के लिए चले गये। बलराम योगयुक्त समाधिस्थ बैठे थे। कृष्ण ने देखा कि उनके मुँह से एक श्वेत वर्ण का विशालकाय सर्प निकला, जिसके एक सहस्त्र फन थे। वह [[महासागर]] की ओर बढ़ गया। [[सागर]] में से [[तक्षक नाग|तक्षक]], [[अरुण देवता|अरुण]], [[कुंजर]] इत्यादि सबने भगवान अनंत की भांति उसका स्वागत किया। इस प्रकार बलराम का शरीर-त्याग देखकर कृष्ण पुन: गांधारी के शाप तथा [[दुर्वासा]] के शरीर पर जूठी खीर पुतवाने की बात स्मरण करते रहे।[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|150px|thumb|[[कृष्ण]] और [[अर्जुन]]]] फिर मन, वाणी और इन्द्रियों का निरोध करके [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] पर लेट गये। उसी समय 'जरा' नामक एक भंयकर व्याध मृगों को मारता हुआ वहाँ पहुँचा। लेटे हुए कृष्ण को मृग समझकर उसने [[बाण अस्त्र|बाण]] से प्रहार किया, जो [[श्रीकृष्ण]] को पाँव के तलवों में लगा। पास जाकर उसने कृष्ण को पहचाना तथा क्षमा-याचना की कृष्ण उसे आश्वस्त कर ऊर्ध्वलोक में चले गये।<ref>महाभारत, मौसलपर्व, अध्याय 04, ब्रह्मपुराण, 210 से 211 तक)</ref> | ||
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[[अभिमन्यु]] तथा [[उत्तरा]] के [[विवाह]] के उपरांत उपस्थित मित्र तथा संबंधियों ने मन्त्रणा की कि तेरह वर्ष पूर्ण होने पर भी [[कौरव]] आधा राज्य दे देंगे, ऐसा नहीं प्रतीत होता। अत: एक दूत [[दुर्योधन]] के पास भेजना चाहिए, ताकि उसके विचार पता चलें और दूसरी ओर सेना-संचय का कार्य प्रारंभ करना चाहिए। निश्चय के अनुसार [[अर्जुन]] [[कृष्ण]] के पास युद्ध में सहायता मांगने के लिए पहुँचे। इनसे पूर्व वहाँ दुर्योधन पहले ही पहुँच चुका था। जब अर्जुन और दुर्योधन कृष्ण के पास पहुँचे, तब वे गहरी निद्रा में सो रहे थे। दुर्योधन श्रीकृष्ण के सिरहाने की ओर के आसन पर बैठ गया और अर्जुन पाँव की ओर खड़े रहे। जब कृष्ण जाग कर उठे तो उन्होंने देखा कि अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही उनसे युद्ध में सहायता की इच्छा से आये हैं। एक पहले आया था, दूसरा पहले देखा गया था। अत: कृष्ण ने एक को सेना देने का तथा दूसरे को स्वयं बिना हथियार उठाए सहायता करने का निश्चय किया। अर्जुन कृष्ण को पाकर तथा दुर्योंधन सेना पाकर प्रसन्न हो गये।<ref>महाभारत, उद्योगपर्व , अध्याय 1 से 7</ref> | |||
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10:17, 29 अप्रैल 2013 का अवतरण
महाभारत- द्रोणाभिषेकपर्व, आश्वमेधिकपर्व

Krishna And Arjuna
श्रीकृष्ण मंझले भाई थे। उनके बड़े भाई का नाम बलराम था, जो अपनी भक्ति में ही मस्त रहते थे। उनसे छोटे का नाम 'गद' था। वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे। श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे। अपने राज्य का आधा धन ही कृष्ण लेते थे, शेष धन का उपयोग यादव वंशी करते थे। कृष्ण के जीवन में भी कई ऐसे क्षण आये, जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष नारद के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि- "यादव वंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए।" नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा।[1]
महाभारत- मौसलपर्व / ब्रह्म पुराण

महाभारत के युद्ध में कौरवों के संहार के उपरांत गांधारी ने श्रीकृष्ण को समस्त वंश सहित नष्ट होने का शाप दिया था। युद्ध के 36 वर्ष उपरांत यादववंशियों में अन्याय और कलह अपने चरम पर पहुँच गया। श्रीकृष्ण को बार-बार गांधारी के शाप का स्मरण हो आता था। तभी मौसल युद्ध में समस्त यादव, वृष्णि तथा अंधकवंशी लोगों का नाश हो गया। श्रीकृष्ण तपस्या में लगे अपने बड़े भाई बलराम के पास तपस्या करने के लिए चले गये। बलराम योगयुक्त समाधिस्थ बैठे थे। कृष्ण ने देखा कि उनके मुँह से एक श्वेत वर्ण का विशालकाय सर्प निकला, जिसके एक सहस्त्र फन थे। वह महासागर की ओर बढ़ गया। सागर में से तक्षक, अरुण, कुंजर इत्यादि सबने भगवान अनंत की भांति उसका स्वागत किया। इस प्रकार बलराम का शरीर-त्याग देखकर कृष्ण पुन: गांधारी के शाप तथा दुर्वासा के शरीर पर जूठी खीर पुतवाने की बात स्मरण करते रहे।

फिर मन, वाणी और इन्द्रियों का निरोध करके पृथ्वी पर लेट गये। उसी समय 'जरा' नामक एक भंयकर व्याध मृगों को मारता हुआ वहाँ पहुँचा। लेटे हुए कृष्ण को मृग समझकर उसने बाण से प्रहार किया, जो श्रीकृष्ण को पाँव के तलवों में लगा। पास जाकर उसने कृष्ण को पहचाना तथा क्षमा-याचना की कृष्ण उसे आश्वस्त कर ऊर्ध्वलोक में चले गये।[2]
महाभारत- उद्योगपर्व
अभिमन्यु तथा उत्तरा के विवाह के उपरांत उपस्थित मित्र तथा संबंधियों ने मन्त्रणा की कि तेरह वर्ष पूर्ण होने पर भी कौरव आधा राज्य दे देंगे, ऐसा नहीं प्रतीत होता। अत: एक दूत दुर्योधन के पास भेजना चाहिए, ताकि उसके विचार पता चलें और दूसरी ओर सेना-संचय का कार्य प्रारंभ करना चाहिए। निश्चय के अनुसार अर्जुन कृष्ण के पास युद्ध में सहायता मांगने के लिए पहुँचे। इनसे पूर्व वहाँ दुर्योधन पहले ही पहुँच चुका था। जब अर्जुन और दुर्योधन कृष्ण के पास पहुँचे, तब वे गहरी निद्रा में सो रहे थे। दुर्योधन श्रीकृष्ण के सिरहाने की ओर के आसन पर बैठ गया और अर्जुन पाँव की ओर खड़े रहे। जब कृष्ण जाग कर उठे तो उन्होंने देखा कि अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही उनसे युद्ध में सहायता की इच्छा से आये हैं। एक पहले आया था, दूसरा पहले देखा गया था। अत: कृष्ण ने एक को सेना देने का तथा दूसरे को स्वयं बिना हथियार उठाए सहायता करने का निश्चय किया। अर्जुन कृष्ण को पाकर तथा दुर्योंधन सेना पाकर प्रसन्न हो गये।[3]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख