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[[दीपावली]] के एक [[सप्ताह]] पश्चात् [[बिहार]] में छठ का पर्व मनाया जाता है। एक [[दिन]] व रात तक समूचा बिहार व पूर्वी [[उत्तर प्रदेश]] [[गंगा]] के तट पर बसा प्रतीत होता है। इस दिन [[सूर्यदेव]] की उपासना व उन्हें अर्ध्य दया जाता है। [[भारत]] के बिहार प्रदेश का सर्वाधिक प्रचलित एवं पावन पर्व है—सूर्यषष्ठी। यह पर्व मुख्यतः भगवान सूर्य का [[व्रत]] है। इस व्रत में सर्वतोभावेन सूर्य की पूजा की जाती है। वैसे तो सूर्य के साथ सप्तमी तिथि की संगति है, किन्तु बिहार के इस व्रत में सूर्य के साथ 'षष्ठी' तिथि का समन्वय विशेष महत्व का है। इस तिथि को सूर्य के साथ ही षष्ठी देवी की भी पूजा होती है। [[पुराण|पुराणों]] के अनुसार प्रकृति देवी के एक प्रधान अंश को 'देवसेना' कहते हैं; जो कि सबसे श्रेष्ठ मातृका मानी गई है। ये लोक के समस्त बालकों की रक्षिका देवी है। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इनका एक नाम "षष्ठी" भी है। षष्ठी देवी का पूजन–प्रसार ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार राजा प्रियव्रत के काल से आरम्भ हुआ। जब षष्ठी देवी की पूजा 'छठ मइया' के रूप में प्रचलित हुई। वास्तव में सूर्य को अर्ध्य तथा षष्ठी देवी का पूजन एक ही तिथि को पड़ने के कारण दोनों का समन्वय भारतीय जनमानस में इस प्रकार को गया कि सूर्य पूजा और छठ पूजा में भेद करना मुश्किल है। वास्तव में ये दो अलग–अलग त्यौहार हैं। सूर्य की षष्ठी को दोनों की ही पूजा होती है।  
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|अन्य नाम = छठ पर्व
 
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|अनुयायी = [[हिन्दू]]
छठ बिहार का प्रमुख त्यौहार है। छठ का त्यौहार भगवान सूर्य को [[धरती]] पर धन–धान्य की प्रचुरता के लिए धन्यवाद देने के लिए मनाया जाता है। लोग अपनी विशेष इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी इस पर्व को मनाते हैं। पर्व का आयोजन मुख्यतः गंगा के तट पर होता है और कुछ गाँवों में जहाँ पर गंगा नहीं पहुँच पाती है, वहाँ पर महिलाएँ छोटे तालाबों अथवा पोखरों के किनारे ही धूम–धाम से इस पर्व को मनाती हैं।  
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|उद्देश्य =
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|प्रारम्भ = पौराणिक काल
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|तिथि=[[कार्तिक]] [[शुक्ल पक्ष]] [[षष्ठी]]
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|उत्सव =सांध्य सूर्यपूजा के एक दिन पहले, श्रद्धालु शुद्धिकरण के लिए विशेषरूप से [[गंगा]] में डुबकी लगाते हैं तथा [[गंगा जल|गंगा का पवित्र जल]] अर्पण हेतु घर साथ लाते हैं। पूरे दिन में [[उपवास]] रखा जाता है तथा श्रद्धालु देर शाम तक [[पूजा]] के बाद ही उपवास तोड़ते हैं।
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|अन्य जानकारी=सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से [[पूर्वी भारत]] के [[बिहार]], [[झारखण्ड]], [[उत्तर प्रदेश]] और [[नेपाल]] के [[तराई]] क्षेत्रों में मनाया जाता है।
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'''छठपूजा''' अथवा '''छठ पर्व''' [[कार्तिक]] [[शुक्ल पक्ष]] की [[षष्ठी]] को मनाया जाने वाला एक [[हिन्दू]] पर्व है। सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से [[पूर्वी भारत]] के [[बिहार]], [[झारखण्ड]], [[उत्तर प्रदेश]] और [[नेपाल]] के [[तराई]] क्षेत्रों में मनाया जाता है। [[उत्तराखंड]] का 'उत्तरायण पर्व' हो या [[केरल]] का [[ओणम]], [[कर्नाटक]] की 'रथसप्तमी' हो या [[बिहार]] का छठ पर्व, सभी इसका घोतक हैं कि [[भारत]] मूलत: सूर्य संस्कृति के उपासकों का देश है तथा बारह [[मास|महीनों]] के तीज-त्योहार सूर्य के [[संवत |संवत्सर]] चक्र के अनुसार मनाए जाते हैं। छठ से जुड़ी पौराणिक मान्यताओं और लोकगाथाओं पर गौर करे तो पता चलता है कि भारत के आदिकालीन सूर्यवंशी भरत राजाओं का यह मुख्य पर्व था। [[मगध]]<ref> आज का बिहार</ref>और [[आनर्त]]<ref> आज का गुजरात</ref> के राजनीतिक इतिहास के साथ भी छठ की ऐतिहासिक कडियां जुड़ती हैं। 
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==मान्यताएँ==
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*इस संबंध में मान्यता है कि मगध सम्राट [[जरासंध]] के एक पूर्वज का कुष्ठ रोग दूर करने के लिए शाकलद्वीपीय मग [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] ने सूर्योंपासना की थी। तभी से यहाँ छठ पर सूर्योपासना का प्रचलन प्रारम्भ हुआ।
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*छठ के साथ आनर्त प्रदेश के सूर्यवंशी [[शर्याति|राजा शर्याति]] और [[च्यवन|भार्गव ऋषि च्यवन]] का भी ऐतिहासिक कथानक जुड़ा है। कहते हैं कि राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या ने [[कार्तिक]] की [[षष्ठी]] को सूर्य की उपासना की तो च्यवन ऋषि के आँखों की ज्योति वापस आ गई।
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*'[[ब्रह्मवैवर्तपुराण]]' में छठ को [[मनु|स्वायम्भुव मनु]] के पुत्र प्रियव्रत के इतिहास से जोड़ते हुए बताया गया है कि षष्ठी देवी की कृपा से प्रियव्रत का मृत शिशु जीवित हो गया। तभी से प्रकृति का छठा अंश मानी जाने वाली षष्ठी देवी बालकों के रक्षिका और संतान देने वाली देवी के रूप में पूजी जाने लगी।
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*छठ के साथ स्कन्द पूजा की भी परम्परा जुड़ी है। [[शिव|भगवान शिव]] के तेज से उत्पन्न बालक [[स्कन्द]] की छह कृतिकाओं ने स्तनपान करा रक्षा की थी। इसी कारण स्कन्द के छह मुख हैं और उन्हें [[कार्तिकेय]] नाम से पुकारा जाने लगा।
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*कार्तिक से सम्बन्ध होने के कारण षष्ठी देवी को [[स्कन्द]] की पत्नी 'देवसेना' नाम से भी पूजा जाने लगा। 
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;पुराण व उपनिषद में
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*[[श्वेताश्वतरोपनिषद]] में परमात्मा की माया को 'प्रकृति' और माया के स्वामी को 'मायी कहा गया है। यह प्रकृति ब्रह्मस्वरूपा, मायामयी और सनातनी है।
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*[[ब्रह्मवैवर्तपुराण]] प्रकृतिखण्ड के अनुसार परमात्मा ने सृष्टि के लिए योग का अवलम्बन कर अपने को दो भागों में बांटा। दक्षिण भाग से पुरुष व वाम भाग से प्रकृति का जन्म हुआ। 'प्रकृत' शब्द की व्याख्या कई प्रकार से की गयी।' प्र का अर्थ है प्रकृष्ट व 'कृति' का अर्थ है सृष्टि। यानी प्रकृष्ट सृष्टि। दूसरी व्याख्या के अनुसार 'प्र' का सत्वगुण, 'कृ' का रजोगुण और  'ति' का तमोगुण के रूप में अर्थ लिया गया है। इन्हीं तीनों गुणों की साम्यावस्था ही प्रकृति है।
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*[[पुराण]] के अनुसार सृष्टि की अधिष्ठात्री प्रकृति देवी स्वयं को पांच भागों में विभक्त करती हैं- [[दुर्गा]], [[राधा]], [[लक्ष्मी]], [[सरस्वती देवी|सरस्वती]] और [[सावित्री]]। ये पांच देवियाँ पूर्णतम प्रकृति कहलाती हैं। इन्हीं प्रकृति देवी के अंश, कला, कलांश और कलांशाश भेद से अनेक रूप हैं, जो विश्व की समस्त स्त्रियों में दिखायी देते हैं।
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*[[मार्कण्डेयपुराण]] में लिखा है, '''स्त्रिय: समस्ता: सकल्ला जगत्सु'।''' प्रकृतिदेवी के एक प्रधान अंश को 'देवसेना' कहते हैं, जो सबसे श्रेष्ठ 'मातृका' मानी जाती हैं। ये समस्त लोकों के बालकों की रक्षिका देवी हैं। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इन देवी का एक नाम 'षष्ठी' भी है। षष्ठी देवी बालकों की रक्षिका एवं आयुप्रदा हैं।
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==कथा==
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*षष्ठी देवी के पूजन का विधान पृथ्वी पर कब हुआ,  इस संदर्भ में [[पुराण]] में यह कथा संदर्भित है-
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प्रथम मनु [[स्वयंभुव मनु|स्वायम्भुव]] के पुत्र प्रियव्रत के कोई संतान न थी। एक बार महाराज ने [[कश्यप|महर्षि कश्यप]] से दु:ख व्यक्त कर पुत्र प्राप्ति का उपाय पूछा। महर्षि ने पुत्रेष्टि यज्ञ का परामर्श दिया। यज्ञ के फलस्वरूप महारानी को पुत्र जन्म हुआ, किंतु वह शिशु मृत था। पूरे नगर में शोक व्याप्त हो गया। महाराज शिशु के मृत शरीर को अपने वक्ष से लगाये प्रलाप कर रहे थे। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। सभी ने देखा [[आकाश तत्त्व|आकाश]] से एक विमान [[पृथ्वी]] पर आ रहा है। विमान में एक ज्योर्तिमय दिव्याकृति नारी बैठी हुई थी। राजा द्वारा स्तुति करने पर देवी ने कहा- मैं [[ब्रह्मा |ब्रह्मा]] की मानस पुत्री '''षष्ठी देवी''' हूँ। मैं विश्व के समस्त बालकों की रक्षिका हूँ और अपुत्रों को पुत्र प्रदान करती हूँ। देवी ने शिशु के मृत शरीर का स्पर्श किया। वह बालक जीवित हो उठा। महाराज के प्रसन्नता की सीमा न रही। वे अनेक प्रकार से षष्ठी देवी की स्तुति करने लगे। राज्य में प्रति [[मास]] के [[शुक्लपक्ष]] की [[षष्ठी]] को षष्ठी-महोत्सव के रूप में मनाया जाए-राजा ने ऐसी घोषणा कराई। तभी से परिवार कल्याणार्थ, बालकों के जन्म, [[नामकरण संस्कार|नामकरण]], [[अन्नप्राशन]] आदि शुभ अवसरों पर षष्ठी-पूजन प्रचलित हुआ।
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*[[कार्तिक मास]] शुक्लपक्ष की षष्ठी का उल्लेख स्कन्द-षष्ठी के नाम से किया गया है। वर्षकृत्यविधि में प्रतिहार-षष्ठी के नाम से किया प्रसिद्ध सूर्यषष्ठी की चर्चा की गयी है। इस [[व्रत]] की प्राचीनता एवं प्रामाणिकता भी परिलक्षित होती है। भगवान सूर्य के इस पावन व्रत में शक्ति व ब्रह्म दोनों की उपासना का फल एक सा प्राप्त होता है।
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आज छठ [[बिहार]] और [[उत्तर प्रदेश]] से ही जुड़ा आंचलिक नहीं रह गया है बल्कि [[दिल्ली]], [[मुम्बई]], [[कोलकाता]] और [[चेन्नई]] जैसे महानगरों में भी श्रद्धाभाव से मनाया जाने वाले पर्व का रूप धारण कर चुका है।
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==बिहार में छ्ठ पर्व==
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'''[[दीपावली]] के एक [[सप्ताह]] पश्चात् [[बिहार]] में छठ का पर्व''' मनाया जाता है। एक [[दिन]] व रात तक समूचा बिहार व पूर्वी [[उत्तर प्रदेश]] [[गंगा]] के तट पर बसा प्रतीत होता है। इस दिन [[सूर्यदेव]] की उपासना व उन्हें अर्ध्य दिया जाता है। [[भारत]] के बिहार प्रदेश का सर्वाधिक प्रचलित एवं पावन पर्व है - सूर्यषष्ठी। यह पर्व मुख्यतः भगवान सूर्य का [[व्रत]] है। इस व्रत में सर्वतोभावेन सूर्य की पूजा की जाती है। वैसे तो सूर्य के साथ [[सप्तमी]] [[तिथि]] की संगति है, किन्तु बिहार के इस व्रत में सूर्य के साथ '[[षष्ठी]]' तिथि का समन्वय विशेष महत्व का है।  
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;षष्ठी देवी
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इस तिथि को सूर्य के साथ ही '''षष्ठी देवी''' की भी पूजा होती है। [[पुराण|पुराणों]] के अनुसार प्रकृति देवी के एक प्रधान अंश को 'देवसेना' कहते हैं; जो कि सबसे श्रेष्ठ 'मातृका' मानी गई है। ये लोक के समस्त बालकों की रक्षिका देवी है। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इनका एक नाम "षष्ठी" भी है। षष्ठी देवी का पूजन - प्रसार [[ब्रह्मवैवर्त पुराण]] के अनुसार राजा प्रियव्रत के काल से आरम्भ हुआ। जब षष्ठी देवी की पूजा 'छठ मइया' के रूप में प्रचलित हुई। वास्तव में सूर्य को अर्ध्य तथा षष्ठी देवी का पूजन एक ही तिथि को पड़ने के कारण दोनों का समन्वय भारतीय जनमानस में इस प्रकार को गया कि सूर्य पूजा और छठ पूजा में भेद करना मुश्किल है। वास्तव में ये दो अलग - अलग त्योहार हैं। सूर्य की षष्ठी को दोनों की ही पूजा होती है।  
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;प्रमुख  त्योहार
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छठ बिहार का प्रमुख त्योहार है। छठ का त्योहार भगवान सूर्य को [[धरती]] पर धन–धान्य की प्रचुरता के लिए धन्यवाद देने के लिए मनाया जाता है। लोग अपनी विशेष इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी इस पर्व को मनाते हैं। पर्व का आयोजन मुख्यतः गंगा के तट पर होता है और कुछ गाँवों में जहाँ पर गंगा नहीं पहुँच पाती है, वहाँ पर महिलाएँ छोटे तालाबों अथवा पोखरों के किनारे ही धूमधाम से इस पर्व को मनाती हैं।  
  
 
==छठ महोत्सव और धार्मिक कर्मकाण्ड==
 
==छठ महोत्सव और धार्मिक कर्मकाण्ड==
चुंकि इस त्यौहार पर न तो किसी मन्दिर में पूजा हेतु जाया जाता है, और न ही घर की कोई विशेष सफ़ाई की जाती है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह पर्व बहुत ही आसानी से या बिना किसी कर्मकाण्ड के मना लिया जाता है। लेकिन ऐसा नहीं है, बल्कि इस त्यौहार पर इतने कर्मकाण्ड होते हैं कि विशेष अनुष्ठानों की तुलना में तो मध्यकालीन [[फ्राँसीसी]] विधान भी तुच्छ प्रतीत होंगे।
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इस त्यौहार पर न तो किसी मन्दिर में पूजा हेतु जाया जाता है, और न ही घर की कोई विशेष सफ़ाई की जाती है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह पर्व बहुत ही आसानी से या बिना किसी कर्मकाण्ड के मना लिया जाता है। लेकिन ऐसा नहीं है।
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====व्रत विधान====
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*छठपूजा में [[कार्तिक]] शुक्ल [[चतुर्थी]] के दिन नियम-स्नानादि से निवृत्त होकर पवित्रापूर्वक रसोई बनाकर भोजन किया जाता है।
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*[[पंचमी]] को दिन भर उपवास करके सायंकाल किसी तालाब या नदी में स्नान करके भगवान भास्कर को अर्ध्य देने के बाद अलोना भोजन किया जाता है।
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*षष्ठी के दिन प्रात: काल स्नानादि के बाद से संकल्प करें-
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<poem>ऊं अद्य अमुकगोत्रोअमुकनामाहं मम सर्व
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पापनक्षयपूर्वकशरीरारोग्यार्थ श्री
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सूर्यनारायणदेवप्रसन्नार्थ श्री सूर्यषष्ठीव्रत करिष्ये।</poem>
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*संकल्प करने के बाद दिन भर निराहार व्रत करके सायंकाल किसी नदी या तालाब पर जाकर स्नान कर भगवान भास्कर को अर्ध्य प्रदान करें।
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====अर्ध्य विधान====
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एक बांस के सूप में केला और विभिन्न प्रकार के फल, अलोना प्रसाद, ईख आदि रखकर सूप को एक पीले वस्त्र से ढक दें और धूप-दीप जलाकर सूप में रखने के बाद दोनों हाथों में लेकर-
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<poem>ऊं एहि सूर्य सहस्त्रांशों तेजोराशे जगत्पते।
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अनुकम्पया माँ भवत्या गृहाणार्ध्य नमोअस्तुते॥</poem>
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*इन मंत्र से तीन बार अस्ताचलगामी सूर्य को अर्ध्य प्रदान करें। रात्रि जागरण के बाद प्रात: काल उदीयमान सूर्य को इसी प्रकार अर्ध्य देकर पारण करें।
  
 
==स्नान एवं उपवास==
 
==स्नान एवं उपवास==
सांध्य सूर्यपूजा के एक दिन पहले, श्रद्धालु शुद्धिकरण के लिए विशेषरूप से गंगा में डुबकी लगाते हैं तथा [[गंगा जल|गंगा का पवित्र जल]] अर्पण हेतु घर साथ लाते हैं। पूरे दिन में उपवास रखा जाता है तथा श्रद्धालु देर शाम तक पूजा के बाद ही उपवास तोड़ते हैं।
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सांध्य सूर्यपूजा के एक दिन पहले, श्रद्धालु शुद्धिकरण के लिए विशेषरूप से गंगा में डुबकी लगाते हैं तथा [[गंगा जल|गंगा का पवित्र जल]] अर्पण हेतु घर साथ लाते हैं। पूरे दिन में [[उपवास]] रखा जाता है तथा श्रद्धालु देर शाम तक पूजा के बाद ही उपवास तोड़ते हैं।
  
 
==प्रसाद एवं अर्पण की वस्तुएँ==
 
==प्रसाद एवं अर्पण की वस्तुएँ==
[[चावल]] का हलुआ, पूड़ी तथा [[केला]]—ये ही इस दिन की विशेष भोजन सामग्री हैं। अर्पण के पश्चात् इन्हीं भोज्य पदार्थों को मित्रों एवं सम्बन्धियों में बाँटा जाता है। लोग बड़ी ही श्रद्धा से इसे खाते हैं।  
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[[चावल]] का हलुआ, पूड़ी तथा [[केला]], ये ही इस दिन की विशेष भोजन सामग्री हैं। अर्पण के पश्चात् इन्हीं भोज्य पदार्थों को मित्रों एवं सम्बन्धियों में बाँटा जाता है। लोग बड़ी ही श्रद्धा से इसे खाते हैं।  
 
[[चित्र:Chhath-Puja-2.jpg|thumb|left|छठपूजा, [[अरुणाचल प्रदेश]]]]
 
[[चित्र:Chhath-Puja-2.jpg|thumb|left|छठपूजा, [[अरुणाचल प्रदेश]]]]
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==शुभ दिन-संझा वाट==
 
==शुभ दिन-संझा वाट==
दूसरे दिन चौबीस घंटे का उपवास प्रारम्भ होता है। दिनभर प्रसाद बनाने की तैयारी होती है तथा संध्या को भक्तगण छठ मैया का गीत गाते हुए नदी तट, जलकुण्ड या तालाब पर पहुँच जाते हैं। वहाँ पर अस्त होते हुए सूर्य को उपर्युक्त प्रसाद का अर्पण किया जाता है। रात्रि के समय श्रद्धालु घर लौटते हैं, जहाँ पर एक अन्य महोत्सव प्रतीक्षारत होता है। गन्ने की टहनियों से बने एक छत्र के नीचे दीपयुक्त मिट्टी के हाथी व प्रसाद से भरे बर्तन रखे जाते हैं। श्रद्धालु उपवास के समय जल भी ग्रहण नहीं करते हैं। सूर्योदय से ठीक पहला, भक्तगण नदी तट की ओर पुनः छठ मैया के गीत गाते हुए प्रस्थान करते हैं तथा उदयमान सूर्य की उपासना अर्चना करते हैं। प्रार्थना के पश्चात् प्रत्येक व्यक्ति को प्रसाद प्रदान किया जाता है। इस प्रसाद में विशेष रूप से पत्थर की सिल पर पीसे हुए आटे का प्रयोग होता है। इस आटे को देर तक तला जाता है तथा इसमें मीठा डालकर इसकी गोलकार गठ्ठियाँ बनायी जाती हैं, जिसे "ठेकुआ" कहते हैं। इसके अलावा इस विशेष प्रसाद में [[अंगूर]], पूरा [[नारियल]], केले व मसूर की दाल के दाने भी होते हैं। पूजा के समय ये सभी वस्तुएँ [[बाँस]] की अर्धगोलाकार टोकरियों में रखी जाती हैं। इन टोकरियों का "सूप" कहते हैं।  
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दूसरे दिन चौबीस घंटे का उपवास प्रारम्भ होता है। दिनभर प्रसाद बनाने की तैयारी होती है तथा संध्या को भक्तगण छठ मैया का गीत गाते हुए नदी तट, जलकुण्ड या तालाब पर पहुँच जाते हैं। वहाँ पर अस्त होते हुए सूर्य को उपर्युक्त प्रसाद का अर्पण किया जाता है। रात्रि के समय श्रद्धालु घर लौटते हैं, जहाँ पर एक अन्य महोत्सव प्रतीक्षारत होता है। गन्ने की टहनियों से बने एक छत्र के नीचे दीपयुक्त [[मिट्टी]] के [[हाथी]] व प्रसाद से भरे बर्तन रखे जाते हैं। श्रद्धालु उपवास के समय [[जल]] भी ग्रहण नहीं करते हैं। सूर्योदय से ठीक पहला, भक्तगण नदी तट की ओर पुनः छठ मैया के गीत गाते हुए प्रस्थान करते हैं तथा उदयमान सूर्य की उपासना अर्चना करते हैं। प्रार्थना के पश्चात् प्रत्येक व्यक्ति को प्रसाद प्रदान किया जाता है। इस प्रसाद में विशेष रूप से पत्थर की सिल पर पीसे हुए आटे का प्रयोग होता है। इस आटे को देर तक तला जाता है तथा इसमें मीठा डालकर इसकी गोलकार गठ्ठियाँ बनायी जाती हैं, जिसे "ठेकुआ" कहते हैं। इसके अलावा इस विशेष प्रसाद में [[अंगूर]], पूरा [[नारियल]], केले व मसूर की दाल के दाने भी होते हैं। पूजा के समय ये सभी वस्तुएँ [[बाँस]] की अर्धगोलाकार टोकरियों में रखी जाती हैं। इन टोकरियों का "सूप" कहते हैं।  
  
==रंग-बिरंगा उत्सव है==
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==रंग-बिरंगा उत्सव==
 
छठपर्व अत्यन्त रंग–बिरंगा उत्सव है, जिसमें श्रद्धालुओं को नये [[वस्त्र]] धारण करना आवश्यक होता है। घर व नदी के तट पर [[संगीत]] के सुर भक्ति व लोकभाषा से महक उठते हैं। [[पटना]] में लाखों लोग गंगा के तट पर मीलों लम्बी कतारों में बैठे रहते हैं। पर्व से उत्पन्न यह आपसी मेल–जोल अनूठा ही प्रतीत होता है।  
 
छठपर्व अत्यन्त रंग–बिरंगा उत्सव है, जिसमें श्रद्धालुओं को नये [[वस्त्र]] धारण करना आवश्यक होता है। घर व नदी के तट पर [[संगीत]] के सुर भक्ति व लोकभाषा से महक उठते हैं। [[पटना]] में लाखों लोग गंगा के तट पर मीलों लम्बी कतारों में बैठे रहते हैं। पर्व से उत्पन्न यह आपसी मेल–जोल अनूठा ही प्रतीत होता है।  
  
 
==नियम एवं व्रत पालन==
 
==नियम एवं व्रत पालन==
जैसे ही दीपावली का आनन्द शान्त होता दिखाई पड़ता है, छठ की छटा खिल उठती है। प्रौढ़ विवाहित स्त्रियाँ ही सभी तैयारियाँ करती हैं। एक ओर आयु में कम स्त्रियाँ व बच्चे घर के अन्य कार्यों का सम्भालते हैं, दूसरी ओर प्रौढ़ स्त्रियाँ उन वस्तुओं की भली–भाँति सफ़ाई–धुलाई करती हैं, जिनका प्रयोग पूजा, प्रसाद में होता है। सभी वस्तुओं की चाहे वह रसोई का चूल्हा हो, करछुल हो, पकान में प्रयोग आने वाली पकड़ हो या भूनने का पात्र–सबकी पूरी तरह से सफ़ाई की जाती है। नये पीसे हुए चावलों की लेई बनाई जाती है। सूखी मेवा व नारियाल के टुकड़ों को स्वाद बढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है। इनको आटे में मिला कर लड्डू बनाए जाते हैं। पारम्परिक व्यंजन 'ठेकुआ' [[गेहूँ]] के मड़े हुए आटे को विभिन्न आकारों में काटकर बनाया जाता है। इसके लिए काष्ठ के साँचों का भी प्रयोग किया जाता है। तत्पश्चात् इसे गाढ़े [[भूरा रंग|भूरे रंग]] का होने तक तला जाता है। तलने के बाद यह अत्यन्त कुरकुरा हो जाता है तथा बड़े ही स्वाद से खाया जाता है। पश्चिम के देशों में लोकप्रिय व्यंजन "कुकी" की भाँति ही इसमें घर का बना मक्खन, बहुत सा गुड़ तथा नारियल डाला जाता है।  
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[[दीपावली]] का आनन्द जैसे ही शान्त होता दिखाई पड़ता है, छठ की छटा खिल उठती है। प्रौढ़ विवाहित स्त्रियाँ ही सभी तैयारियाँ करती हैं। एक ओर आयु में कम स्त्रियाँ व बच्चे घर के अन्य कार्यों का सम्भालते हैं, दूसरी ओर प्रौढ़ स्त्रियाँ उन वस्तुओं की भली–भाँति सफ़ाई-धुलाई करती हैं, जिनका प्रयोग पूजा, प्रसाद में होता है। सभी वस्तुओं की चाहे वह रसोई का चूल्हा हो, करछुल हो, पकाने  में प्रयोग आने वाली पकड़ हो या भूनने का पात्र-सबकी पूरी तरह से सफ़ाई की जाती है। नये पीसे हुए चावलों की लेई बनाई जाती है। सूखी मेवा व नारियल के टुकड़ों को स्वाद बढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है। इनको आटे में मिला कर लड्डू बनाए जाते हैं। पारम्परिक व्यंजन 'ठेकुआ' [[गेहूँ]] के मड़े हुए आटे को विभिन्न आकारों में काटकर बनाया जाता है। इसके लिए काष्ठ के साँचों का भी प्रयोग किया जाता है। तत्पश्चात्त इसे गाढ़े [[भूरा रंग|भूरे रंग]] का होने तक तला जाता है। तलने के बाद यह अत्यन्त कुरकुरा हो जाता है तथा बड़े ही स्वाद से खाया जाता है। पश्चिम के देशों में लोकप्रिय व्यंजन "कुकी" की भाँति ही इसमें घर का बना मक्खन, बहुत सा गुड़ तथा नारियल डाला जाता है।  
  
इस प्रसाद को बनाने के लिए गृहस्थ प्रौढ़ महिला कुछ नियमों का पालन करती है। जैसे वह पका हुआ खाना नहीं खाती तथा सिले हुए वस्त्र नहीं पहनतीं। रसोई में जाने से पहले प्रत्येक व्यक्ति का स्नान करना आवश्यक होता है।  
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इस प्रसाद को बनाने के लिए गृहस्थ प्रौढ़ महिला कुछ नियमों का पालन करती है। जैसे- वह पका हुआ खाना नहीं खाती तथा सिले हुए वस्त्र नहीं पहनतीं। रसोई में जाने से पहले प्रत्येक व्यक्ति का स्नान करना आवश्यक होता है।  
 
 
 
 
 
==सांध्य पूजन का महामेला==
 
==सांध्य पूजन का महामेला==
 
[[चित्र:Chhath-Puja.jpg|thumb|250px|छठपूजा, [[अरुणाचल प्रदेश]]]]
 
[[चित्र:Chhath-Puja.jpg|thumb|250px|छठपूजा, [[अरुणाचल प्रदेश]]]]
समवेत स्वर में लोकप्रिय भक्ति संगीत गाते हुए लोगों के छोटे–छोटे समूह प्रत्येक घर से निकलते हैं और नदी तट तक पहुँचते–पहुँचते ये जुलूस एक विशाल जनसमूह का रूप ले लेते हैं। जुलूस में सम्मिलित पुरुष अपने वक्ष को नग्न रखते हैं तथा प्रसाद को बाँस की छोटी–छोटी टोकरियों में लेकर चलते हैं। इन टोकरियों को जाने–अनजाने जूठा होने से बचाने के लिए ऊँचाई पर रखा जाता है। इन टोकरियों में लड्डू, ठेकुआ तथा मौसमी फल होते हैं। नारियल, केले के गुच्छे, एक–दो सन्तरे इत्यादि को [[हल्दी]] में रंगे कपड़े से ढंका जाता है। इन पदार्थों के अतिरिक्त एक मिट्टी का [[दीपक]] भी इन टोकरियों में रखा जाता है।  
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समवेत स्वर में लोकप्रिय भक्ति [[संगीत]] गाते हुए लोगों के छोटे–छोटे समूह प्रत्येक घर से निकलते हैं और नदी तट तक पहुँचते–पहुँचते ये जुलूस एक विशाल जनसमूह का रूप ले लेते हैं। जुलूस में सम्मिलित पुरुष अपने वक्ष को नग्न रखते हैं तथा प्रसाद को बाँस की छोटी–छोटी टोकरियों में लेकर चलते हैं। इन टोकरियों को जाने–अनजाने जूठा होने से बचाने के लिए ऊँचाई पर रखा जाता है। इन टोकरियों में लड्डू, ठेकुआ तथा मौसमी फल होते हैं। नारियल, केले के गुच्छे, एक-दो सन्तरे इत्यादि को [[हल्दी]] में रंगे कपड़े से ढंका जाता है। इन पदार्थों के अतिरिक्त एक मिट्टी का [[दीपक]] भी इन टोकरियों में रखा जाता है।  
  
जैसे ही सूर्यास्त होता है, प्रार्थना–पूजा आरम्भ हो जाती है। नदी तट पर किसी का फिसलना या कोई भूल करना एक दैविक संकट का प्रतीक माना जाता है। नवशीत में पश्चिम के ओजस्वी आकाश ललाट पर श्रद्धा–भक्ति–प्रेम का वांग्मय दृश्य प्रकाशित हो उठता है–सहस्रों उठे हस्त धारण करते हैं, बाँस की थालियाँ व टोकरियाँ। मध्यम लौ में प्रकाशित ढके हुए दीपक मंत्रोच्चारित वातावरण को देदीप्यमान कर देते हैं। पल बीतता है, मुखाकृतियाँ धूमिल हो उठती हैं और अंधेरा होते ही जनसमूह नदी तट से वापस घर लौटना प्रारम्भ करता है।  
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जैसे ही सूर्यास्त होता है, प्रार्थना-पूजा आरम्भ हो जाती है। नदी तट पर किसी का फिसलना या कोई भूल करना एक दैविक संकट का प्रतीक माना जाता है। नवशीत में पश्चिम के ओजस्वी आकाश ललाट पर श्रद्धा–भक्ति–प्रेम का वांग्मय दृश्य प्रकाशित हो उठता है- सहस्रों उठे हस्त धारण करते हैं, बाँस की थालियाँ व टोकरियाँ। मध्यम लौ में प्रकाशित ढके हुए दीपक मंत्रोच्चारित वातावरण को देदीप्यमान कर देते हैं। पल बीतता है, मुखाकृतियाँ धूमिल हो उठती हैं और अंधेरा होते ही जनसमूह नदी तट से वापस घर लौटना प्रारम्भ करता है।  
  
 
==नवोदित सूर्य की अर्चना का महोत्सव==
 
==नवोदित सूर्य की अर्चना का महोत्सव==
अस्ताचल सूर्य को श्रद्धाजंली प्रदान करने के पश्चात् अब समय होता है, सूर्योदय प्रार्थना की तैयारी का। यह पूजा विधान का अभिन्न अंग है। नदी तट की ओर यात्रा उषा से ही प्रारम्भ हो जाती है। [[कृष्णपक्ष]] के [[चन्द्रमा]] के कारण बाहर आकाश मार्ग वृक्ष की भाँति काला प्रतीत होता है। ओस से भीगी घास व प्रवाहित होते जल की ध्वनि ही नदी तट निकट होने का संकेत देती है। इस समय सभी पूर्व की ओर मुख करते हैं और नदी में स्नान के लिए आगे बढ़ते हैं। इसी बीच टोकरियों को एक अस्थाई मण्डप के नीचे सुरक्षित रखा जाता है। इस मण्डप को ताज़ा उपजे [[गन्ना|गन्ने]] की टहनियों से बनाया जाता है। इसके लिए एक विशेष ढाँचा बनाया जाता है, तथा इसके कोनों को [[हाथी]] व पक्षी के रूप में बनाए मिट्टी के दीपकों से सजाया जाता है। निर्मलता व शुद्धि रखने व क्रूर दुरात्माओं को दूर रखने के लिए [[चन्दन]] का लेप, सिन्दूर, भीगे चावल, [[फल]] व [[पुष्प]] भी रंगे हुए लाल सूती वस्त्र के भीतर रखे जाते हैं। जैसे ही सूर्य की किरणें उदित होती हैं, साड़ी व धोती पहने स्त्री–पुरुष उथले पानी में कूद पड़ते हैं। पैर जमाकर ये लोग जल की अतिशीतलता को भूल जाते हैं तथा ऋग्वैदिक के उस कालातीत मंत्र, जो विशेष रूप से सूर्य के लिए है—[[गायत्री मंत्र]]—का उच्चारण करते हुए [[स्नान]] कर सूर्य की श्रद्धा से पूजा करना प्रारम्भ करते हैं।
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अस्ताचल सूर्य को श्रद्धाजंलि  प्रदान करने के पश्चात् अब समय होता है, सूर्योदय प्रार्थना की तैयारी का। यह पूजा विधान का अभिन्न अंग है। नदी तट की ओर यात्रा उषा से ही प्रारम्भ हो जाती है। [[कृष्णपक्ष]] के [[चन्द्रमा]] के कारण बाहर आकाश मार्ग वृक्ष की भाँति काला प्रतीत होता है। ओस से भीगी घास व प्रवाहित होते जल की ध्वनि ही नदी तट निकट होने का संकेत देती है। इस समय सभी पूर्व की ओर मुख करते हैं और नदी में स्नान के लिए आगे बढ़ते हैं। इसी बीच टोकरियों को एक अस्थाई मण्डप के नीचे सुरक्षित रखा जाता है। इस मण्डप को ताज़ा उपजे [[गन्ना|गन्ने]] की टहनियों से बनाया जाता है। इसके लिए एक विशेष ढाँचा बनाया जाता है, तथा इसके कोनों को [[हाथी]] व पक्षी के रूप में बनाए मिट्टी के दीपकों से सजाया जाता है। निर्मलता व शुद्धि रखने व क्रूर दुरात्माओं को दूर रखने के लिए [[चन्दन]] का लेप, [[सिन्दूर]], भीगे चावल, [[फल]] व [[पुष्प]] भी रंगे हुए लाल सूती वस्त्र के भीतर रखे जाते हैं। जैसे ही सूर्य की किरणें उदित होती हैं, साड़ी व धोती पहने स्त्री–पुरुष उथले पानी में कूद पड़ते हैं। पैर जमाकर ये लोग जल की अतिशीतलता को भूल जाते हैं तथा ऋग्वैदिक के उस कालातीत मंत्र, जो विशेष रूप से सूर्य के लिए है - [[गायत्री मंत्र]] का उच्चारण करते हुए [[स्नान]] कर सूर्य की श्रद्धा से पूजा करना प्रारम्भ करते हैं।
  
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13:19, 29 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

छठपूजा
छठपूजा, अरुणाचल प्रदेश
अन्य नाम छठ पर्व
अनुयायी हिन्दू
प्रारम्भ पौराणिक काल
तिथि कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी
उत्सव सांध्य सूर्यपूजा के एक दिन पहले, श्रद्धालु शुद्धिकरण के लिए विशेषरूप से गंगा में डुबकी लगाते हैं तथा गंगा का पवित्र जल अर्पण हेतु घर साथ लाते हैं। पूरे दिन में उपवास रखा जाता है तथा श्रद्धालु देर शाम तक पूजा के बाद ही उपवास तोड़ते हैं।
अन्य जानकारी सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है।

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छठपूजा अथवा छठ पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाने वाला एक हिन्दू पर्व है। सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। उत्तराखंड का 'उत्तरायण पर्व' हो या केरल का ओणम, कर्नाटक की 'रथसप्तमी' हो या बिहार का छठ पर्व, सभी इसका घोतक हैं कि भारत मूलत: सूर्य संस्कृति के उपासकों का देश है तथा बारह महीनों के तीज-त्योहार सूर्य के संवत्सर चक्र के अनुसार मनाए जाते हैं। छठ से जुड़ी पौराणिक मान्यताओं और लोकगाथाओं पर गौर करे तो पता चलता है कि भारत के आदिकालीन सूर्यवंशी भरत राजाओं का यह मुख्य पर्व था। मगध[1]और आनर्त[2] के राजनीतिक इतिहास के साथ भी छठ की ऐतिहासिक कडियां जुड़ती हैं।

मान्यताएँ

  • इस संबंध में मान्यता है कि मगध सम्राट जरासंध के एक पूर्वज का कुष्ठ रोग दूर करने के लिए शाकलद्वीपीय मग ब्राह्मणों ने सूर्योंपासना की थी। तभी से यहाँ छठ पर सूर्योपासना का प्रचलन प्रारम्भ हुआ।
  • छठ के साथ आनर्त प्रदेश के सूर्यवंशी राजा शर्याति और भार्गव ऋषि च्यवन का भी ऐतिहासिक कथानक जुड़ा है। कहते हैं कि राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या ने कार्तिक की षष्ठी को सूर्य की उपासना की तो च्यवन ऋषि के आँखों की ज्योति वापस आ गई।
  • 'ब्रह्मवैवर्तपुराण' में छठ को स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत के इतिहास से जोड़ते हुए बताया गया है कि षष्ठी देवी की कृपा से प्रियव्रत का मृत शिशु जीवित हो गया। तभी से प्रकृति का छठा अंश मानी जाने वाली षष्ठी देवी बालकों के रक्षिका और संतान देने वाली देवी के रूप में पूजी जाने लगी।
  • छठ के साथ स्कन्द पूजा की भी परम्परा जुड़ी है। भगवान शिव के तेज से उत्पन्न बालक स्कन्द की छह कृतिकाओं ने स्तनपान करा रक्षा की थी। इसी कारण स्कन्द के छह मुख हैं और उन्हें कार्तिकेय नाम से पुकारा जाने लगा।
  • कार्तिक से सम्बन्ध होने के कारण षष्ठी देवी को स्कन्द की पत्नी 'देवसेना' नाम से भी पूजा जाने लगा।
पुराण व उपनिषद में
  • श्वेताश्वतरोपनिषद में परमात्मा की माया को 'प्रकृति' और माया के स्वामी को 'मायी कहा गया है। यह प्रकृति ब्रह्मस्वरूपा, मायामयी और सनातनी है।
  • ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृतिखण्ड के अनुसार परमात्मा ने सृष्टि के लिए योग का अवलम्बन कर अपने को दो भागों में बांटा। दक्षिण भाग से पुरुष व वाम भाग से प्रकृति का जन्म हुआ। 'प्रकृत' शब्द की व्याख्या कई प्रकार से की गयी।' प्र का अर्थ है प्रकृष्ट व 'कृति' का अर्थ है सृष्टि। यानी प्रकृष्ट सृष्टि। दूसरी व्याख्या के अनुसार 'प्र' का सत्वगुण, 'कृ' का रजोगुण और 'ति' का तमोगुण के रूप में अर्थ लिया गया है। इन्हीं तीनों गुणों की साम्यावस्था ही प्रकृति है।
  • पुराण के अनुसार सृष्टि की अधिष्ठात्री प्रकृति देवी स्वयं को पांच भागों में विभक्त करती हैं- दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती और सावित्री। ये पांच देवियाँ पूर्णतम प्रकृति कहलाती हैं। इन्हीं प्रकृति देवी के अंश, कला, कलांश और कलांशाश भेद से अनेक रूप हैं, जो विश्व की समस्त स्त्रियों में दिखायी देते हैं।
  • मार्कण्डेयपुराण में लिखा है, स्त्रिय: समस्ता: सकल्ला जगत्सु'। प्रकृतिदेवी के एक प्रधान अंश को 'देवसेना' कहते हैं, जो सबसे श्रेष्ठ 'मातृका' मानी जाती हैं। ये समस्त लोकों के बालकों की रक्षिका देवी हैं। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इन देवी का एक नाम 'षष्ठी' भी है। षष्ठी देवी बालकों की रक्षिका एवं आयुप्रदा हैं।

कथा

  • षष्ठी देवी के पूजन का विधान पृथ्वी पर कब हुआ, इस संदर्भ में पुराण में यह कथा संदर्भित है-

प्रथम मनु स्वायम्भुव के पुत्र प्रियव्रत के कोई संतान न थी। एक बार महाराज ने महर्षि कश्यप से दु:ख व्यक्त कर पुत्र प्राप्ति का उपाय पूछा। महर्षि ने पुत्रेष्टि यज्ञ का परामर्श दिया। यज्ञ के फलस्वरूप महारानी को पुत्र जन्म हुआ, किंतु वह शिशु मृत था। पूरे नगर में शोक व्याप्त हो गया। महाराज शिशु के मृत शरीर को अपने वक्ष से लगाये प्रलाप कर रहे थे। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। सभी ने देखा आकाश से एक विमान पृथ्वी पर आ रहा है। विमान में एक ज्योर्तिमय दिव्याकृति नारी बैठी हुई थी। राजा द्वारा स्तुति करने पर देवी ने कहा- मैं ब्रह्मा की मानस पुत्री षष्ठी देवी हूँ। मैं विश्व के समस्त बालकों की रक्षिका हूँ और अपुत्रों को पुत्र प्रदान करती हूँ। देवी ने शिशु के मृत शरीर का स्पर्श किया। वह बालक जीवित हो उठा। महाराज के प्रसन्नता की सीमा न रही। वे अनेक प्रकार से षष्ठी देवी की स्तुति करने लगे। राज्य में प्रति मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी को षष्ठी-महोत्सव के रूप में मनाया जाए-राजा ने ऐसी घोषणा कराई। तभी से परिवार कल्याणार्थ, बालकों के जन्म, नामकरण, अन्नप्राशन आदि शुभ अवसरों पर षष्ठी-पूजन प्रचलित हुआ।

  • कार्तिक मास शुक्लपक्ष की षष्ठी का उल्लेख स्कन्द-षष्ठी के नाम से किया गया है। वर्षकृत्यविधि में प्रतिहार-षष्ठी के नाम से किया प्रसिद्ध सूर्यषष्ठी की चर्चा की गयी है। इस व्रत की प्राचीनता एवं प्रामाणिकता भी परिलक्षित होती है। भगवान सूर्य के इस पावन व्रत में शक्ति व ब्रह्म दोनों की उपासना का फल एक सा प्राप्त होता है।

आज छठ बिहार और उत्तर प्रदेश से ही जुड़ा आंचलिक नहीं रह गया है बल्कि दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता और चेन्नई जैसे महानगरों में भी श्रद्धाभाव से मनाया जाने वाले पर्व का रूप धारण कर चुका है।

बिहार में छ्ठ पर्व

दीपावली के एक सप्ताह पश्चात् बिहार में छठ का पर्व मनाया जाता है। एक दिन व रात तक समूचा बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश गंगा के तट पर बसा प्रतीत होता है। इस दिन सूर्यदेव की उपासना व उन्हें अर्ध्य दिया जाता है। भारत के बिहार प्रदेश का सर्वाधिक प्रचलित एवं पावन पर्व है - सूर्यषष्ठी। यह पर्व मुख्यतः भगवान सूर्य का व्रत है। इस व्रत में सर्वतोभावेन सूर्य की पूजा की जाती है। वैसे तो सूर्य के साथ सप्तमी तिथि की संगति है, किन्तु बिहार के इस व्रत में सूर्य के साथ 'षष्ठी' तिथि का समन्वय विशेष महत्व का है।

षष्ठी देवी

इस तिथि को सूर्य के साथ ही षष्ठी देवी की भी पूजा होती है। पुराणों के अनुसार प्रकृति देवी के एक प्रधान अंश को 'देवसेना' कहते हैं; जो कि सबसे श्रेष्ठ 'मातृका' मानी गई है। ये लोक के समस्त बालकों की रक्षिका देवी है। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इनका एक नाम "षष्ठी" भी है। षष्ठी देवी का पूजन - प्रसार ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार राजा प्रियव्रत के काल से आरम्भ हुआ। जब षष्ठी देवी की पूजा 'छठ मइया' के रूप में प्रचलित हुई। वास्तव में सूर्य को अर्ध्य तथा षष्ठी देवी का पूजन एक ही तिथि को पड़ने के कारण दोनों का समन्वय भारतीय जनमानस में इस प्रकार को गया कि सूर्य पूजा और छठ पूजा में भेद करना मुश्किल है। वास्तव में ये दो अलग - अलग त्योहार हैं। सूर्य की षष्ठी को दोनों की ही पूजा होती है।

प्रमुख त्योहार

छठ बिहार का प्रमुख त्योहार है। छठ का त्योहार भगवान सूर्य को धरती पर धन–धान्य की प्रचुरता के लिए धन्यवाद देने के लिए मनाया जाता है। लोग अपनी विशेष इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी इस पर्व को मनाते हैं। पर्व का आयोजन मुख्यतः गंगा के तट पर होता है और कुछ गाँवों में जहाँ पर गंगा नहीं पहुँच पाती है, वहाँ पर महिलाएँ छोटे तालाबों अथवा पोखरों के किनारे ही धूमधाम से इस पर्व को मनाती हैं।

छठ महोत्सव और धार्मिक कर्मकाण्ड

इस त्यौहार पर न तो किसी मन्दिर में पूजा हेतु जाया जाता है, और न ही घर की कोई विशेष सफ़ाई की जाती है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह पर्व बहुत ही आसानी से या बिना किसी कर्मकाण्ड के मना लिया जाता है। लेकिन ऐसा नहीं है।

व्रत विधान

  • छठपूजा में कार्तिक शुक्ल चतुर्थी के दिन नियम-स्नानादि से निवृत्त होकर पवित्रापूर्वक रसोई बनाकर भोजन किया जाता है।
  • पंचमी को दिन भर उपवास करके सायंकाल किसी तालाब या नदी में स्नान करके भगवान भास्कर को अर्ध्य देने के बाद अलोना भोजन किया जाता है।
  • षष्ठी के दिन प्रात: काल स्नानादि के बाद से संकल्प करें-

ऊं अद्य अमुकगोत्रोअमुकनामाहं मम सर्व
पापनक्षयपूर्वकशरीरारोग्यार्थ श्री
सूर्यनारायणदेवप्रसन्नार्थ श्री सूर्यषष्ठीव्रत करिष्ये।

  • संकल्प करने के बाद दिन भर निराहार व्रत करके सायंकाल किसी नदी या तालाब पर जाकर स्नान कर भगवान भास्कर को अर्ध्य प्रदान करें।

अर्ध्य विधान

एक बांस के सूप में केला और विभिन्न प्रकार के फल, अलोना प्रसाद, ईख आदि रखकर सूप को एक पीले वस्त्र से ढक दें और धूप-दीप जलाकर सूप में रखने के बाद दोनों हाथों में लेकर-

ऊं एहि सूर्य सहस्त्रांशों तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पया माँ भवत्या गृहाणार्ध्य नमोअस्तुते॥

  • इन मंत्र से तीन बार अस्ताचलगामी सूर्य को अर्ध्य प्रदान करें। रात्रि जागरण के बाद प्रात: काल उदीयमान सूर्य को इसी प्रकार अर्ध्य देकर पारण करें।

स्नान एवं उपवास

सांध्य सूर्यपूजा के एक दिन पहले, श्रद्धालु शुद्धिकरण के लिए विशेषरूप से गंगा में डुबकी लगाते हैं तथा गंगा का पवित्र जल अर्पण हेतु घर साथ लाते हैं। पूरे दिन में उपवास रखा जाता है तथा श्रद्धालु देर शाम तक पूजा के बाद ही उपवास तोड़ते हैं।

प्रसाद एवं अर्पण की वस्तुएँ

चावल का हलुआ, पूड़ी तथा केला, ये ही इस दिन की विशेष भोजन सामग्री हैं। अर्पण के पश्चात् इन्हीं भोज्य पदार्थों को मित्रों एवं सम्बन्धियों में बाँटा जाता है। लोग बड़ी ही श्रद्धा से इसे खाते हैं।

शुभ दिन-संझा वाट

दूसरे दिन चौबीस घंटे का उपवास प्रारम्भ होता है। दिनभर प्रसाद बनाने की तैयारी होती है तथा संध्या को भक्तगण छठ मैया का गीत गाते हुए नदी तट, जलकुण्ड या तालाब पर पहुँच जाते हैं। वहाँ पर अस्त होते हुए सूर्य को उपर्युक्त प्रसाद का अर्पण किया जाता है। रात्रि के समय श्रद्धालु घर लौटते हैं, जहाँ पर एक अन्य महोत्सव प्रतीक्षारत होता है। गन्ने की टहनियों से बने एक छत्र के नीचे दीपयुक्त मिट्टी के हाथी व प्रसाद से भरे बर्तन रखे जाते हैं। श्रद्धालु उपवास के समय जल भी ग्रहण नहीं करते हैं। सूर्योदय से ठीक पहला, भक्तगण नदी तट की ओर पुनः छठ मैया के गीत गाते हुए प्रस्थान करते हैं तथा उदयमान सूर्य की उपासना अर्चना करते हैं। प्रार्थना के पश्चात् प्रत्येक व्यक्ति को प्रसाद प्रदान किया जाता है। इस प्रसाद में विशेष रूप से पत्थर की सिल पर पीसे हुए आटे का प्रयोग होता है। इस आटे को देर तक तला जाता है तथा इसमें मीठा डालकर इसकी गोलकार गठ्ठियाँ बनायी जाती हैं, जिसे "ठेकुआ" कहते हैं। इसके अलावा इस विशेष प्रसाद में अंगूर, पूरा नारियल, केले व मसूर की दाल के दाने भी होते हैं। पूजा के समय ये सभी वस्तुएँ बाँस की अर्धगोलाकार टोकरियों में रखी जाती हैं। इन टोकरियों का "सूप" कहते हैं।

रंग-बिरंगा उत्सव

छठपर्व अत्यन्त रंग–बिरंगा उत्सव है, जिसमें श्रद्धालुओं को नये वस्त्र धारण करना आवश्यक होता है। घर व नदी के तट पर संगीत के सुर भक्ति व लोकभाषा से महक उठते हैं। पटना में लाखों लोग गंगा के तट पर मीलों लम्बी कतारों में बैठे रहते हैं। पर्व से उत्पन्न यह आपसी मेल–जोल अनूठा ही प्रतीत होता है।

नियम एवं व्रत पालन

दीपावली का आनन्द जैसे ही शान्त होता दिखाई पड़ता है, छठ की छटा खिल उठती है। प्रौढ़ विवाहित स्त्रियाँ ही सभी तैयारियाँ करती हैं। एक ओर आयु में कम स्त्रियाँ व बच्चे घर के अन्य कार्यों का सम्भालते हैं, दूसरी ओर प्रौढ़ स्त्रियाँ उन वस्तुओं की भली–भाँति सफ़ाई-धुलाई करती हैं, जिनका प्रयोग पूजा, प्रसाद में होता है। सभी वस्तुओं की चाहे वह रसोई का चूल्हा हो, करछुल हो, पकाने में प्रयोग आने वाली पकड़ हो या भूनने का पात्र-सबकी पूरी तरह से सफ़ाई की जाती है। नये पीसे हुए चावलों की लेई बनाई जाती है। सूखी मेवा व नारियल के टुकड़ों को स्वाद बढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है। इनको आटे में मिला कर लड्डू बनाए जाते हैं। पारम्परिक व्यंजन 'ठेकुआ' गेहूँ के मड़े हुए आटे को विभिन्न आकारों में काटकर बनाया जाता है। इसके लिए काष्ठ के साँचों का भी प्रयोग किया जाता है। तत्पश्चात्त इसे गाढ़े भूरे रंग का होने तक तला जाता है। तलने के बाद यह अत्यन्त कुरकुरा हो जाता है तथा बड़े ही स्वाद से खाया जाता है। पश्चिम के देशों में लोकप्रिय व्यंजन "कुकी" की भाँति ही इसमें घर का बना मक्खन, बहुत सा गुड़ तथा नारियल डाला जाता है।

इस प्रसाद को बनाने के लिए गृहस्थ प्रौढ़ महिला कुछ नियमों का पालन करती है। जैसे- वह पका हुआ खाना नहीं खाती तथा सिले हुए वस्त्र नहीं पहनतीं। रसोई में जाने से पहले प्रत्येक व्यक्ति का स्नान करना आवश्यक होता है।  

सांध्य पूजन का महामेला

समवेत स्वर में लोकप्रिय भक्ति संगीत गाते हुए लोगों के छोटे–छोटे समूह प्रत्येक घर से निकलते हैं और नदी तट तक पहुँचते–पहुँचते ये जुलूस एक विशाल जनसमूह का रूप ले लेते हैं। जुलूस में सम्मिलित पुरुष अपने वक्ष को नग्न रखते हैं तथा प्रसाद को बाँस की छोटी–छोटी टोकरियों में लेकर चलते हैं। इन टोकरियों को जाने–अनजाने जूठा होने से बचाने के लिए ऊँचाई पर रखा जाता है। इन टोकरियों में लड्डू, ठेकुआ तथा मौसमी फल होते हैं। नारियल, केले के गुच्छे, एक-दो सन्तरे इत्यादि को हल्दी में रंगे कपड़े से ढंका जाता है। इन पदार्थों के अतिरिक्त एक मिट्टी का दीपक भी इन टोकरियों में रखा जाता है।

जैसे ही सूर्यास्त होता है, प्रार्थना-पूजा आरम्भ हो जाती है। नदी तट पर किसी का फिसलना या कोई भूल करना एक दैविक संकट का प्रतीक माना जाता है। नवशीत में पश्चिम के ओजस्वी आकाश ललाट पर श्रद्धा–भक्ति–प्रेम का वांग्मय दृश्य प्रकाशित हो उठता है- सहस्रों उठे हस्त धारण करते हैं, बाँस की थालियाँ व टोकरियाँ। मध्यम लौ में प्रकाशित ढके हुए दीपक मंत्रोच्चारित वातावरण को देदीप्यमान कर देते हैं। पल बीतता है, मुखाकृतियाँ धूमिल हो उठती हैं और अंधेरा होते ही जनसमूह नदी तट से वापस घर लौटना प्रारम्भ करता है।

नवोदित सूर्य की अर्चना का महोत्सव

अस्ताचल सूर्य को श्रद्धाजंलि प्रदान करने के पश्चात् अब समय होता है, सूर्योदय प्रार्थना की तैयारी का। यह पूजा विधान का अभिन्न अंग है। नदी तट की ओर यात्रा उषा से ही प्रारम्भ हो जाती है। कृष्णपक्ष के चन्द्रमा के कारण बाहर आकाश मार्ग वृक्ष की भाँति काला प्रतीत होता है। ओस से भीगी घास व प्रवाहित होते जल की ध्वनि ही नदी तट निकट होने का संकेत देती है। इस समय सभी पूर्व की ओर मुख करते हैं और नदी में स्नान के लिए आगे बढ़ते हैं। इसी बीच टोकरियों को एक अस्थाई मण्डप के नीचे सुरक्षित रखा जाता है। इस मण्डप को ताज़ा उपजे गन्ने की टहनियों से बनाया जाता है। इसके लिए एक विशेष ढाँचा बनाया जाता है, तथा इसके कोनों को हाथी व पक्षी के रूप में बनाए मिट्टी के दीपकों से सजाया जाता है। निर्मलता व शुद्धि रखने व क्रूर दुरात्माओं को दूर रखने के लिए चन्दन का लेप, सिन्दूर, भीगे चावल, फलपुष्प भी रंगे हुए लाल सूती वस्त्र के भीतर रखे जाते हैं। जैसे ही सूर्य की किरणें उदित होती हैं, साड़ी व धोती पहने स्त्री–पुरुष उथले पानी में कूद पड़ते हैं। पैर जमाकर ये लोग जल की अतिशीतलता को भूल जाते हैं तथा ऋग्वैदिक के उस कालातीत मंत्र, जो विशेष रूप से सूर्य के लिए है - गायत्री मंत्र का उच्चारण करते हुए स्नान कर सूर्य की श्रद्धा से पूजा करना प्रारम्भ करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आज का बिहार
  2. आज का गुजरात

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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