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महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 36 श्लोक 1-20

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षट्त्रिंश (36) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (पुत्रदर्शन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षट्त्रिंश श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

व्यासजी की आज्ञा से धृतराष्ट्र आदि का पाण्डवों को विदा करना और पाण्डवों का सदलबल हस्तिनापुर में आना

जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन् ! राजा धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर ने परलोक से आये हुए पुत्रों, पौत्रों तथा सगे सम्बन्धियों के दर्शन करके क्या किया ? वैशम्पायनजी ने कहा- नरेश्वर ! मरे हुए पुत्रों का दर्शन एक महान् आश्चर्य की घटना थी। उसे देखकर राजर्षि धृतराष्ट्र का दुःख-शोक दूर हो गया। वे फिर अपने आरम पर लौट आये। दूसरे सब लोग तथा महर्षिगण धृतराष्ट्र की अनुमति ले अपने-अपने अभीष्ट स्थानों को चले गये। महात्मा पाण्डव छोटे-बड़े सैनिकों और अपनी स्त्रियों के साथ पुनः महामना राजा धृतराष्ट्र के पीछे-पीछे गये। उस समय लोकपूजित बुद्धिमान सत्यवतीनन्दन ब्रह्मर्षि व्यास भी उस आरम पर गये तथा इस प्रकारद बोले-‘कौरवनन्दन महाबाहु धृतराष्ट्र तुमने श्रद्धा और कुल में बढ़े-चढ़े, वेद-वेदांगवेत्ता, ज्ञानवृद्ध, पुण्यकर्मा एवं धर्मज्ञ प्राचीन महर्षियों के मुख से नाना प्रकार की कथाएँ सुनी हैं; अतः अपने मन से शोक को निकाल दो, क्योंकि विद्वान् पुरुष प्रारब्ध के विधान में दुःख नहीं मनाते हैं। ‘तुमने देवदर्शी नारद मुनि से देवताओं का गुपत रहस्य भी सुन लिया है। वे सब वीर क्षत्रिय-धर्म के अनुसार शस्त्रों से पवित्र हुई शुभ गति को प्राप्त हुए हैं। जैसा कि तुमने देखा है, तुम्हारे सभी पुत्र इच्छानुसार विहार करने वाले स्वर्गवासी हुए हैं। ‘ये बुद्धिमान् राजा युधिष्ठिर अपने समस्त भाइयों, घर की स्त्रियों और सुहृदों के साथ स्वयं तुम्हारी सेवा में लगे हुए हैं। ‘अब इन्हें विदा कर दो। ये जायँ और अपने राज्य का काम सँभालें। इन लोगों को वन में रहते एक महीने से अधिक हो गया। ‘कुरुश्रेष्ठ ! नरेश्वर ! राज्य के बहुत से शत्रु होते हैं; अतः इसकी सदा ही यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये’। अनुपम तेजस्वी व्यासजी के ऐसा कहने पर प्रवचन कुशल कुरुराज धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को बुलाकर इस प्रकार कहा- ‘अजातशत्रो ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम अपने भाइयों सहित मेरी बात सुनो। भूपाल ! तुम्हारे प्रसाद से अब हम लोगों को किसी प्रकार का शोक कष्ट नहीं दे रहा है। ‘बेटा ! तुम्हारे साथ रहकर तथा तुम जैसे रक्षक से सुरक्षित होकर मैं उसी तरह आनन्द का अनुभव कर रहस हूँ, जैसे पहले हस्तिनापुर में करता था। विद्वन् ! प्रियजनों की सेवा में लगे रहने वाले तुम्हारे द्वारा मुझे पुत्र का फल प्रापत हो गया। तुम पर मेरा बहुत प्रेम है। महाबाहो ! पुत्र ! मेरे मन में तुम्हारे प्रति किंचिन्मात्र भी क्रोध नहीं है; अतः तुम राधानी को जाओ, अब विलम्ब न करो। ‘तुमको यहाँ देखकर मेरी तपस्या में बाधा पड़ रही है। यह शरीर तपस्या में लगा दिया था, परंतु तुम्हें देखकर फिर इसकी रक्षा करने लगा। बेटा ! मेरी ही तरह तुम्हारी से दोनों माताएँ भी व्रत धारण पूर्वक सूखे पत्ते चबाकर रहा करती हैं। अब ये अधिक दिनों तक जीवन धारण नहीं कर सकतीं। ‘तुम्हारे समागम और व्यासजी के तपोबल से मुझे अपने परलोकवासी पुत्र दुर्योधन आदि के दर्शन हो गये; इसलिये मेरे जीवित रहने का प्रयोजन पूरा हो गया। अनघ ! अब मैं कठोर तपस्या में संलग्न होऊँगा। तुम इसके लिये मुझे अनुमति दे दो। ‘महाबाहो ! आज से पितरों के पिण्ड का, सुयश का और इस कुल का भार भी तुम्हारे ही ऊपर है। पुत्र ! आज या कल अवश्य चले जाओ; विलम्ब न करना।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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